श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (17)  

झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।

ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।

इस बुन्देली लोकोक्ति के  शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों  और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।

इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन  झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब  किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।

यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा  मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।

दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले  और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।

पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।

इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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