हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘स्वरलता’ – बाँध प्रीती फूल डोर…. भूल जाना ना ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? विविधा ?

(स्वरलता- (२८ सप्टेंबर १९२९- ६ फेब्रुवारी २०२२))

‘स्वरलता’ – बाँध प्रीती फूल डोर…. भूल जाना ना ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

प्रिय पाठक गण,

नमस्कार! 

लता मंगेशकर, जिनका ‘बस नाम ही काफी था’, उनके सुरों की जादूभरी आवाज के दीवानों के लिए! ६ फरवरी २०२४ को उन्हें गुजरे २ वर्ष हो जायेंगे। उस गंधर्वगायन को इस तारीख़ से कुछ लेना देना नहीं है| उनकी मनमोहक सुरीली स्वरमधुरिमा आज वैसी ही बरक़रार है| जैसे स्वर्ग के नंदनवन के रंगबिरंगे सुमनों की सुरभि कालजयी है, वैसे ही लता के स्वरों की मधुरिमा वर्षों तक महक रही है और हमारे दिलों के गुलशन को इसी तरह आबाद करती रहेगी| उसके गाए एक गाने में यह बात क्या खूब कही गई है, ‘रहें ना रहें हम महका करेंगे, बन के कली बन के सबा बाग़े वफ़ा में’ (फिल्म ‘ममता’, सुन्दर शब्द-मजरूह सुल्तानपुरी, लुभावना संगीत-रोशन)|

हमारी कितनी ही पीढ़ियाँ फिल्म संगीत के इतिहास की साक्षी बनकर देखती आई उसके बदलाव को, मात्र एक बात बदली नहीं, वह थी गायन के अमृतमहोत्सव को पार करने वाली लता की आवाज की गूंज| इसी स्वर ने हमें बचपन में लाड़ दुलार से लोरी गाकर सुनाई, यौवन की दहलीज पर प्रणयभावना को प्रकट करने के स्वर दिए, बहन की प्रेमभरी राखी का बंधन दिया| इतना ही नहीं मनोरंजन के क्षेत्र में जिस किसी प्रसंग में स्त्री के जिस किसी रूप, स्वभाव और मन की कल्पना हम कर सकते थे, वह सब कुछ इस स्वर में समाहित था| श्रृंगार रस, वात्सल्य रस, शान्त रस, आदि की भावनाओंको लता के स्वरों का जब साथ मिलता तो वे शुद्ध स्वर्ण में जड़े कुंदन की भांति दमक उठते! 

मित्रों, आप की तरह मेरे जीवन में भी लता के स्वरों का स्थान ऐसा है, मानों सात जन्मों का कभी न टूटने वाला रिश्ता हो! लता के जीवन चरित्र के बारे में इतना कुछ लिखा और पढ़ा गया है कि, अब पाठक गण कहेंगे, “कुछ नया है क्या?” मैं लता के करोड़ों चाहने वालों में से एक हूँ, कुछ साझा करुँगी जो इस वक्त लता की स्मृति में सैलाब की भाँति उमड़ने वाली मेरे मन की भावनाएं हैं| पिछले दिनों लता के दो गानों ने मुझे भावविभोर होकर बार बार सुनने पर विवश किया और मन की गहराई तक झकझोरा| आश्चर्य की बात है कि, इन दोनों ही फिल्मों। के गीत शुद्ध हिंदी शब्दों की पराकाष्ठा के आग्रही गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्माजी ने लिखे और अभिजात संगीत दिया महान संगीतकार ‘स्वरतीर्थ’ सुधीर फडकेजी ने|

१९५२- कोलकत्ता का अनूठा मिश्र संगीत महोत्सव-जब लता को उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जी के पहले गाना पड़ा! 

इस ४ रातों के मिश्र संगीत महोत्सव में मिश्र अर्थात ध्रुपद-धमार, टप्पा-ठुमरी के साथ साथ फिल्मी संगीत भी शामिल किया गया था| एक रात को लता का और भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब का गायन था| लेकिन आयोजकों ने लता को उस्ताद साहब से पहले गाने के लिए क्रम दिया| यह संगीत समारोह के नियमों के हिसाब से उस्तादजी की तौहीन थी| लता यह खूब जानती थी, इसलिए उसने आयोजकों को ऐसा करने से मना किया और जब वे नहीं माने तो उसने सीधे उस्ताद साहब से ही शिकायत की और कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकती| यह सुनते ही खां साहब जोर से हंसे और उससे कहने लगे, ‘अगर तुम मुझे बड़ा मानती हो तो, मेरी बात मानो और तुम ही पहले गाओ|’ और फिर यादगार बन गई वह कोलकत्ता की शाम! 

लता ने उनकी बात मान तो ली, लेकिन उसने अपनी हिट फिल्मों के गानों से परहेज किया| उसने चुना एक मधुरतम गीत, जो राग जयजयवंती में बंधा था| वर्ष १९५१ की ‘मालती माधव’ नामक फिल्म का वह गीत था, ‘बाँध प्रीती फूल डोर, मन ले के चित-चोर, दूर जाना ना, दूर जाना ना…’| पंडित नरेन्द्र शर्मा के भावभीने बोलों को मधुरतम संगीत से संवारा था सुधीर फड़केजी ने! इस गाने का असर ऐसा हुआ कि, दर्शक इस संगीत की डोर से उस शाम बंधे के बंधे रह गए| दर्शक तो दर्शक, उस्तादजी भी लता की गायकी के कायल हो गए| 

बाद में जब बड़े खां साहब मंच पर आए तो उन्होंने लता को ससम्मान मंच पर बैठा लिया तथा उसकी खूब तारीफ की| अब तक जो गाना मशहूर नहीं हुआ था, वह उस दिन हिट हो गया! दोस्तों, मैंने इस गाने के बारे में ज्यादा कुछ सुना नहीं था| लेकिन जब से यह ध्यानपूर्वक सुना है, तबसे अब तक उसके जादू से उबर नहीं पाई हूँ| लता का यह गाना यू ट्यूब पर उपलब्ध है (और सुधीरजी की आवाज में भी!) । आप भी लता के इस अनमोल गाने का लुफ्त जरूर उठाइये और मेरे साथ आप भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि, ‘मालती माधव’ फिल्म की एकमात्र स्मृति रहा यह गाना चला क्यों नहीं?

‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मैं प्रीत बाती’

दूसरा गीत है, भक्ति और प्रेमभाव से सराबोर ऐसा गाना जिसके एक एक शब्द मानों मोती की तरह दमकते है, उसपर आलम यह कि, कर्णमधुर संगीत सुधीरजी (बाबूजी) का! अब ऐसी जोड़ी का साथ मिले, तो लता के सुरबहार का एक एक तार बजेगा ही ना| ‘भाभी की चूड़ियाँ’ (१९६१) फिल्म का यह गाना था ‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मैं प्रीत बाती’ (राग– यमन) | परदे पर एक सुहागन के रूप में चेहरे पर परम पवित्र भाव लिए मीना कुमारी! मैंने कहीं पढ़ा था कि, इस गाने पर सुधीरजी और लता ने बहुत मेहनत की और गाने के कई कई रिहर्सल हुए| सुधीरजी को इस गाने से बहुत अपेक्षाएं थीं| यह गीत सुननेवालों को खूब भायेगा, ऐसी वे आशा रख रहे थे| लेकिन हुआ आशा के ठीक विपरीत, इसी फिल्म का दूसरा गाना, जिसके प्रसिद्ध होने की साधारणसी उम्मीद थी, वह सर्वकालीन प्रसिद्ध गाना रहा| वह था, ‘ज्योति कलश छलके’! राग भूपाली पर आधारित इस गाने को शास्त्रीय संगीत पर आधारित फ़िल्मी गीतों में बहुत उच्च स्थान प्राप्त है| शायद उसकी छाया में ‘लौ लगाती’ को रसिक गणों के ह्रदय में वह जगह नहीं मिल पायी| आपसे बिनती है कि, आप यह सुमधुर गाना जरूर देखें- सुनें और उसके शांति-प्रेम-भक्तिरस का अक्षत आनन्द उठाएं| 

लता की अनगिनत स्मृतियों को स्मरते हुए अभी मन में सही मायने में क्या महसूस हो रहा है, उसके लिये लता की ही ‘अमर’ (१९५४) नामक फिल्म का एक गाना याद आया| (गीत-शकील बदायुनी, संगीत नौशाद अली)    

“चाँदनी खिल न सकी, चाँद ने मुँह मोड़ लिया

जिसका अरमान था वो बात ना होने पाई

जाने वाले से मुलाक़ात ना होने पाई

दिल की दिल में ही रही बात ना होने पाई…”

प्रिय पाठकगण, लता की गानमंजूषा के इन दो अनमोल रत्नों की आभा से जगमगाते स्वरमंदिर में विराजित गानसरस्वती के चरणों पर यहीं शब्दसुमन अर्पित करती हूँ| 

धन्यवाद

टिप्पणी : 

*लेख में दी हुई जानकारी लेखक के आत्मानुभव तथा इंटरनेटपर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| 

** गानों की जानकारी साथ में जोड़ रही हूँ| गानों के शब्दों से यू ट्यूब पर लिंक मिलेगी|                  

  • ‘बांध प्रीती फूल डोर’- फिल्म -‘मालती माधव’ (१९५१) – गायिका-लता मंगेशकर, गीतकार – पंडित नरेन्द्र शर्मा, संगीतकार-सुधीर फडके        
  • ‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मै प्रीत बाती’- फिल्म -भाभी की चूड़ियाँ (१९६१) – गायिका-लता मंगेशकर, गीतकार-पंडित नरेन्द्र शर्मा, संगीतकार-सुधीर फडके

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

६ फरवरी २०२४

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 69 – देश-परदेश – मृत्यु:! …शाश्वत सत्य ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 69 ☆ देश-परदेश – मृत्यु:! …शाश्वत सत्य ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मृत्यु शब्द सुनकर ही हम सब भयभीत हो जाते हैं। ये भी हो सकता है, इस टाइटल को देखकर ही कुछ लोग इस लेख तक को डिलीट कर देंगे। कुछ बिना पढ़े ही हाथ जोड़ने वाला इमोजी चिपका देंगें।

अधिकतर सभी समूहों में किसी का भी मृत्यु समाचार साझा किया जाता है, तो हमारे संस्कार हाथ जोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। अनेक बार हम उस व्यक्ति के परिचय में भी नहीं होते हैं। अधिकतर में वो समूह के सदस्य भी नहीं होते हैं।

सदस्यों की संवेदनाएं और सहानुभूतियां उसी समूह तक ही सीमित रह जाती हैं। सड़क मार्ग में जब किसी भी धर्मावंबली की शव यात्रा हमारे मार्ग के करीब से भी गुजरती है, तो प्रायः सभी राहगीर खड़े होकर सम्मान प्रकट करते हैं। ये हमारे संस्कारों में भी हैं, दूसरा हम सब को मृत्यु से डर भी लगता है।

कल हमारे बहुत सारे समूहों में सुश्री पूनम पांडे जी का कैंसर से युवा आयु में मृत्यु का समाचार प्रेषित हुआ। हमने भी ॐ शांति, RIP जैसे चलित शब्दों से अपनी संवेदनाएं प्रकट कर शोक व्यक्त कर एक अच्छे सामाजिक प्राणी का परिचय दिया।

कुछ सदस्यों ने तो उनके सम्मान में कशीदे भी लिख दिए थे। उनको अव्वल दर्जे की सामाजिक, सर्वगुण सम्पन्न, महिला शक्ति/ अभिमान, मिलनसार, व्यक्तित्व ना जाने उनके व्यक्तित्व की तारीफ के अनेक पुल बांधे। एक ने तो उनको पदमश्री सम्मान दिए जाने की अनुशंसा भी कर दी थी।

आज जानकारी मिली की उनकी मृत्यु का झूठा समाचार व्यवसाय वृद्धि के लिए किया गया था। मृत्यु को भी पैसा कमाने का साधन बना कर, उन्होंने एक नया पैमाना स्थापित कर दिया है।

हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता है, जब किसी के जीवित रहते हुए, अनजाने या गलती से मृत्यु का समाचार प्रसारित हो जाता है, तो उसकी आयु में और वृद्धि हो जाती हैं। हालांकि सुश्री पांडे के मामले में इस प्रकार की गलत जानकारी जान बूझकर फैलाई गई थी। शायद “जिंदा लाश” शब्द से सुश्री पूनम को प्रेरणा मिली होगी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ऐसा भी सूखा- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ऐसा भी सूखा- ? ?

रात के 2:37 का समय है। अलीगढ़ महोत्सव में कविता पाठ के सिलसिले में हाथरस सिटी स्टेशन पर कवि मित्र डॉ. राज बुंदेली के साथ उतरा हूँ। प्लेटफॉर्म लगभग सुनसान। टिकटघर के पास लगी बेंचों पर लगभग शनैः-शनैः 8-10 लोग एकत्रित हो गए हैं। आगे की कोई ट्रेन पकड़नी है उन्हें।

बाहर के वीराने में एक चक्कर लगाने का मन है ताकि कहीं चाय की कोई गुमटी दिख जाए। शीतलहर में चाय संजीवनी का काम करती है। मित्र बताते हैं कि बाहर खड़े साइकिल रिक्शावाले से पता चला है कि बाहर इस समय कोई दुकान या गुमटी खुली नहीं मिलेगी। तब भी नवोन्मेषी वृत्ति बाहर जाकर गुमटी तलाशने का मन बनाती है।

उठे कदम एकाएक ठिठक जाते हैं। सामने से एक वानर-राज आते दिख रहे हैं। टिकटघर की रेलिंग के पास दो रोटियाँ पड़ी हैं। उनकी निगाहें उस पर हैं। अपने फूडबैग की रक्षा अब सर्वोच्च प्राथमिकता है और गुमटी खोजी अभियान स्थगित करना पड़ा है।

देखता हूँ कि वानर के हाथ में रोटी है। पता नहीं ठंड का असर है या उनकी आयु हो चली है कि एक रोटी धीरे-धीरे खाने में उनको लगभग दस-बारह मिनट का समय लगा। थोड़े समय में सीटियाँ-सी बजने लगी और धमाचौकड़ी मचाते आठ-दस वानरों की टोली प्लेटफॉर्म के भीतर-बाहर खेलने लगी। स्टेशन स्वच्छ है तब भी एक बेंच के पास पड़े मूंगफली के छिलकों में से कुछ दाने वे तलाश ही लेते हैं। अधिकांश शिशु वानर हैं। एक मादा है जिसके पेट से टुकुर-टुकुर ताकता नन्हा वानर छिपा है।

विचार उठा कि हमने प्राणियों के स्वाभाविक वन-प्रांतर उनसे छीन लिए हैं। फलतः वे इस तरह का जीवन जीने को विवश हैं। प्रकृति समष्टिगत है। उसे व्यक्तिगत करने की कोशिश में मनुष्य जड़ों को ही काट रहा है। परिणाम सामने है, प्राकृतिक और भावात्मक दोनों स्तर पर हम सूखे का सामना कर रहे हैं।

अलबत्ता इस सूखे में हरियाली दिखी, हाथरस सिटी के इस स्टेशन की दीवारों पर उकेरी गई महाराष्ट्र की वारली या इसके सदृश्य पेंटिंग्स के रूप में। राजनीति और स्वार्थ कितना ही तोड़ें, साहित्य और कला निरंतर जोड़ते रहते हैं। यही विश्वास मुझे और मेरे जैसे मसिजीवियों को सृजन से जोड़े रखता है।

© संजय भारद्वाज 

2 फरवरी 2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 272 ⇒ मैं और मेरा अहं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं और मेरा अहं।)

?अभी अभी # 272 ⇒ मैं और मेरा अहं… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरा मैं अ अनार से शुरू होता है और अस्मिता अहंकार पर जाकर खत्म होता है। यह मैं ही मेरा अहं है, कभी मीठा आम, कभी खट्टी इमली है, तो कभी जड़ से ही मीठी ईख। यह अहं कभी मेरा है, तो कभी उसका ! इसी अहं के कारण मैं कई बार उल्लू बना हूँ, औरत का एक अहंकारी मालिक बना हूँ, और जब भी अंगूर खट्टे दिखे हैं, एक साधारण इंसान दिखा हूँ। कहने को यह अहं मात्र एक स्वर है, लेकिन यह एक लालच है, भुलावा है, भटकाव है, ईश्वर का एक ऐसा प्रतिबंधित व्यंजन है, जिसे चखने में सुख ही सुख है।

जिसे हम हिंदी में, मैं कहते हैं, वह संस्कृत का अहं है। जिन्हें संस्कृत नहीं आती, उनका भी अहं इतना बढ़ जाता है कि वे स्वयं को अहं ब्रह्मास्मि मान बैठते हैं। भ्रम को ब्रह्म मानने की भूल अच्छे अच्छे लोग कर डालते हैं।।

मैं ही मेरा अस्तित्व है। बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी मुट्ठी बंद होती है, क्योंकि उस समय पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में होती है। जैसे जैसे मुट्ठी खुलती जाती है, इस दुनिया का रहस्य भी खुलता जाता है। हर चीज बच्चे के लिए मेरी होती है। अगर उसने ज़िद करके चाँद की माँग कर दी, तो माँ एक थाली में ही सही, चाँद धरती पर लाने पर मजबूर हो जाती है। बाल हनुमान की तो पूछिये ही मत ! सूरज उनकी मुट्ठी में नहीं, सीधा मुँह में।

दुनिया मेरी मुट्ठी में ! आदमी बड़ा होता जाता है, मुट्ठी खोलता है, और सब कुछ समेटने में लग जाता है। उसे सब कुछ मेरा ही मेरा अच्छा लगने लगता है। मेरा घर, मेरी बीवी, मेरे बच्चे। मेरा जो भी है, तेरे से अच्छा है, बेहतर है, सुंदर है, तेरे से अधिक टिकाऊ है। मेरा-तेरा, तेरा-मेरा ही अहंकार और आसक्ति की जड़ है। यह जड़ ही उसे समझदार, बुद्धिमान और व्यावहारिक बनाती है। महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार हो वह सफलता के मार्ग पर सरपट भागता है। स्वार्थ का चाबुक गति को और वेगमान बना देता है।।

सफलता का सोपान ही अहं की संतुष्टि और सफलता की प्राप्ति अहं की पराकाष्ठा है। मान-मर्यादा, पद लालसा, भौतिक उपलब्धि, और पद-प्रतिष्ठा अहं के पोषक-तत्व हैं, जिन्हें कृत्रिम सरलता, आडम्बर और बड़प्पन से अलंकृत अर्थात गार्निश किया जाता है।

यह अहं ही इंसान को ऊपर उठाता है, और फिर नीचे भी गिराता है। जब तक मनुष्य ऊँचाई पर रहता है, उसे गिरने का भय नहीं रहता। ऊँचाई की हवा और सुख में वह नीचे की सभी वस्तुओं और लोगों को भूल जाता है। जब उसका अहं ईश्वर की ऊंचाइयों को भी पार कर जाता है, तो उसका पतन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। वह एकदम नीचे आ गिरता है। धरती उसे मुँह छुपाने नहीं देती और पाताल तक उसके चर्चे मशहूर हो जाते हैं।।

यह मैं एक मन भी है, चित्त भी है और बुद्धि और विवेक भी ! मुझ में ईश्वर है, इसकी प्रतीति ही चित्त-शुद्धि है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसे केवल मुझ में ही नहीं, सब में उस ईश्वर के दर्शन होंगे। प्राणी-मात्र में ईश्वर-तत्व का आभास ही संतत्व है, ईश्वरत्व है।

निर्मल मन, जन सो मोहि पावा

मोहि कपट छल छिद्र न भावा

निर्मल मन ही वास्तविक मैं है

जहाँ छल कपट के लिए कोई

स्थान नहीं। जो राम जी के प्यारे हैं,

उनके हृदय में हमेशा राम ही विराजते हैं।

वहाँ अस्मिता, अहंकार और काम-क्रोध का प्रवेश वर्जित है।

द्वैत में अद्वैत की प्रतीति ही

वास्तविक अहं है, परम ब्रह्म है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 273 ⇒ छुप गया कोई रे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छुप गया कोई रे।)

?अभी अभी # 273 ⇒ छुप गया कोई रे… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।

निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।

– ‘पंत ‘

प्रेम और भक्ति दोनों में जितना महत्व संयोग का है, उससे थोड़ा अधिक ही महत्व विरह और वियोग का है। हैं सबसे मधुर वो गीत, जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं।

सुर तो खैर संगीत और साधना का विषय है, लेकिन दर्द का सुर तो ईश्वर ने हर प्राणी को दिया है। आह को चाहिए, एक उम्र असर होने तक। कब किस वक्त, किस मूड में, कौन सा गीत, अनायास ही आपके कानों में पड़े, और आप उसे गुनगुनाने लगें, उसमें इतने डूब जाएं, कि वक्त ठहर जाए।।

कई बार सुना होगा फिल्म चंपाकली(1957) के इस अमर गीत को आपने भी। अहसास तो हम सबको होता है, लेकिन जब हमारे दर्द की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह होती है, तो शब्द हृदय के अंदर तक उतर जाते हैं ;

छुप गया कोई रे, दूर से पुकार के

दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ..

हमारी यादों की परछाइयों में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो इन शब्दों को सुनते ही अनायास ही प्रकट हो जाता है।

आज हैं सूनी सूनी, दिल की ये गलियाँ

बन गईं काँटे मेरी, खुशियों की कलियाँ

प्यार भी खोया मैने, सब कुछ हार के

दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के …

खोना और पाना, कांटों और खुशियों के बीच ही तो हम अपना जीवन गुजारते चले आ रहे हैं। प्यार अगर जीवन का सबसे खूबसूरत उपहार है, तो प्यार में हारने का दुख भी उतना ही पीड़ादायक है।

क्या पीड़ा में भी सुख होता है। इस दर्द भरे गीत में ऐसा क्या है, जो एक सुधी श्रोता को बांधे रखता है।

शायद राजेंद्र कृष्ण की कलम है, अथवा हेमंत कुमार का मधुर संगीत। लेकिन लगता है, लता की आवाज का ही यह कमाल है। जब लता ने यह गीत गाया होगा, तो अवश्य ही डूबकर गाया होगा। अगला अंतरा देखिए ;

अँखियों से नींद गई, मनवा से चैन रे

छुप छुप रोए मेरे, खोए खोए नैन रे

हाय यही तो मेरे, दिन थे सिंगार के

दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के …

जो शब्द और सुर आपको पूरी तरह झंझोड़ दे, तो अवश्य ही वह राग झिंझोटी होगा। मैं नहीं जानता, इस गीत में ऐसा क्या है, जो मैं इसे आप तक पहुंचाने के लिए बाध्य हो गया।

अपना नहीं, इस जहां का नहीं, दो जहां का दर्द शामिल है इस गीत में। जब यह गीत मैं सुनता हूं तो कई ऐसे चेहरे मेरे सामने आ जाते हैं, जो इस दौर से गुजर चुके हैं। और उनमें कुछ चेहरे तो ऐसे हैं, जो यह दुनिया ही छोड़ चुके हैं। उन सबके लिए और आपके लिए भी समर्पित है यह गीत। बस, सुनिए, गुनगुनाइए, डूब जाइए, और मन करे तो दो आंसू भी बहाइए क्योंकि ;

छुप गया कोई रे

दूर से पुकार के।

दर्द अनोखे हा

दे गया प्यार के।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 226 – सहजानुभूति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 226 ☆ सहजानुभूति ?

शब्द ब्रह्म है। हर शब्द की अपनी सत्ता है। भले ही हमने पर्यायवाची के रूप में  विभिन्न शब्दों को पढ़ा हो तथापि हर शब्द अपना विशिष्ट अस्तित्व रखता है। समानार्थी शब्द भी एक तरह से जुड़वा संतानों की तरह हैं, एक ही नाल से जुड़े पर अलग देह, अलग विचार, अलग भाव रखनेवाले। शब्दों की इस यात्रा में ‘नग्न’ और ‘निर्वस्त्र’ शब्द पर विचार हुआ।

इस विचार के साथ ही स्मरण हो आया शुकदेव जी महाराज से जुड़ा एक प्रसंग। शुकदेव जी, महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे। ज्ञान पिपासा ऐसी कि बिना वस्त्र धारण किए ही साधना के लिए अरण्य की ओर चले। महर्षि वेदव्यास जानते थे कि पुत्र को साधना से विरक्त करना संभव नहीं तथापि ज्ञान पर पुत्र के प्रति आसक्त पिता भारी पड़ा। आगे-आगे निर्वस्त्र शुकदेव जी विरक्त भाव से  भाग रहे हैं, पीछे-पीछे अपने वस्त्रों को संभालते पुत्र मोह में व्याकुल महर्षि वेदव्यास भी दौड़ लगा रहे हैं। अरण्य के आरंभिक क्षेत्र में एक सरोवर में कुछ कन्याएँ स्नान कर रही थीं। शुकदेव जी महाराज सरोवर के निकट से निकले। कन्याओं ने उसी अवस्था में बाहर आकर उन्हें प्रणाम किया। महर्षि ने दूर से यह दृश्य देखा, आश्चर्यचकित हुए। आश्चर्य का चरम यह कि महर्षि को सरोवर की ओर आते देख सभी कन्याएँ सरोवर में उतर गईं। महर्षि सोच में पड़ गए। अथक ज्ञान साधना में डूबे रहने वाले महर्षि अपने जिज्ञासा को रोक नहीं पाए और उन कन्याओं से पूछा, “मेरा युवा पुत्र निर्वस्त्र अवस्था में यहाँ से निकला तो तुम लोगों ने बाहर आकर प्रणाम किया। जबकि मुझ वस्त्रावृत्त वृद्ध ऋषि को आते देख तुम लोगों ने स्वयं को सरोवर के जल में छिपा लिया है। मैं इस अंतर का भेद समझ नहीं पाया। मेरा मार्गदर्शन करो कुमारिकाओ!” एक कन्या ने गंभीरता के साथ कहा,”महर्षि! आपका पुत्र नग्न है, निर्वस्त्र नहीं।”

निर्वस्त्र होने और नग्न होने में अंतर है। अघोरी निर्वस्त्र है, साधु नग्न है। एक वासना से पीड़ित है, दूसरा साधना से उन्मीलित है। एक में कुटिलता है, दूसरे में दिव्यता है।

यूँ देखें तो अपनी आत्मा के आलोक में हर व्यक्ति निर्वस्त्र है। निर्वस्त्र से नग्न होने की अपनी यात्रा है। बहुत सरल है निर्वस्त्र होना, बहुत कठिन है नग्न होना। नागा साधु, दिगंबर मुनि होना, अपने आप में उत्कर्ष है।

लेकिन यूँ ही नहीं होती उत्कर्ष की यात्रा। इस यात्रा को वांछित है सदाचार, वांछित है  पारदर्शिता जो जन्म से मनुष्य को मिली है। प्राकृत होना है तो भीतर-बाहर के आवरण से मुक्त होना होगा, निष्पाप भाव से शिशु की भाँति नंग-धड़ंग होना  होगा।  इस संदर्भ में ‘नंग-धड़ंग’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,

तुम झूठ बोलने की

कोशिश करते हो

किसी सच की तरह,

तुम्हारा सच

पकड़ा जाता है

किसी झूठ की तरह..,

मेरी सलाह है,

जैसा महसूसते हो

वैसे ही जिया करो,

काँच की तरह

पारदर्शी रहा करो,

मन का प्राकृत रूप

आकर्षित करता है

प्रकृति के

सौंदर्य की तरह,

किसी नंग-धड़ंग

शिशु की तरह..!

स्मरण रहे, व्यक्ति नग्न अवस्था में जन्म लेता है, अगले तीन-चार वर्ष न्यूनाधिक प्राकृत ही रहता है। इस अवस्था के बालक या बालिका  परमेश्वर का रूप कहलाते हैं। ईश्वरीय तत्व के लिए  सहजानुभूति आवश्यक है। इस सहजानुभूति का मार्ग आडंबरों और आवरणों से मुक्त होने से निकलता है। मार्ग का चयन करना, न करना प्रत्येक का अपना निर्णय है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उगते सूरज को प्रणाम।)

?अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उगते सूरज को प्रणाम करना तो हमारी सनातन परंपरा है, इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप हमें बताने जा रहे हो। नया तो कुछ नहीं, बस हमारा सूरज भी राजनीति का शिकार हो चला है, वो क्या है, हां, मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं, यूं जा रहे हैं, जैसे हमें जानते नहीं।

जब प्रणाम का स्थान दुआ सलाम ले ले, तो लोग उगते सूरज को भी सलाम करने लगते हैं। खुदगर्जी और स्वार्थ तो खैर, इंसान में कूट कूटकर भरा ही है, लेकिन जो इंसान भगवान के सामने भी मत्था बिना स्वार्थ और मतलब के नहीं टेकता, वही इंसान, जब जेठ की दुपहरी में सूरज सर पर चढ़ जाता है, तो छाता तान लेता है और जब ठंड आती है तो उसी सूरज के आगे ठिठुरता हुआ गिड़गिड़ाने लगता है।।

वैसे हमारा विज्ञान तो यह भी कहता है कि सूरज कभी डूबता ही नहीं है, लेकिन हम कुएं के मेंढक उसी को सूरज मानते हैं, जो रोज सुबह खिड़की से हमें नजर आए। हमारे दिमाग की खिड़की जब तक बंद रहेगी, हमारा सूरज कभी खिड़की से हमारे असली घर अर्थात् अंतर्मन में ना तो प्रवेश कर पाएगा और ना ही हमारे जीवन को आलोकित कर पाएगा।

हमारी संस्कृति तो सूर्य और चंद्र में भी भेद नहीं करती। जो ऊष्मा सूरज की रश्मियों में है, वही ठंडक चंद्रमा की कलाओं में है। पूर्ण चंद्र अगर हमारे लिए पूर्णिमा का पावन दिन है तो अर्ध चंद्र तो हमारे आशुतोष भगवान शंकर के मस्तक पर विराजमान है।।

सूरज से अगर हमारा अस्तित्व है, तो चंद्रमा तो हमारे मन में विराजमान है। हमारे मन की चंचलता ही बाहर भी किसी चंद्रमुखी को ही तलाशती रहती है और अगर कोई सूर्यमुखी, ज्वालामुखी निकल गई, तो दूर से ही सलाम बेहतर है।

राजनीति के आकाश में सबके अपने अपने सूरज हैं। यानी उनका सूरज, वह असली शाश्वत सूरज नहीं, राजनीति के आकाश में पतंग की तरह उड़ता हुआ सूरज हुआ। किसी का सूरज पतंग की तरह उड़ रहा है, तो किसी का कट रहा है। अब आप चाहें तो उसे उगता हुआ सूरज कहें, अथवा उड़ता हुआ सूरज। किसी दूसरे सूरज की डोर अगर मजबूत हुई, तो समझो अपना सूरज समंदर में डूबा।।

एक समझदार नेता वही जो अपनी बागडोर उगते हुए और आसमान में उड़ते हुए सूरज के हाथों सौंप दे। मत भूलिए, अगर आप ज्योतिरादित्य हैं तो वह आदित्य है। एक समझदार नेता भी समझ गए, हार से उपहार भला।

जब समोसे में आलू नहीं बचे, तो पकौड़ों की दुकान खोलना ही बेहतर है। वैसे भी एक समझदार नेता डूबते इंडिया के सूरज को भी अर्ध्य देना नहीं भूलते। स्टार्ट अप प्रोग्राम फ्रॉम … । उगते सूरज को सलाम कीजिए, और राजनीति के आकाश में शान से अपनी पतंग उड़ाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #217 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 216 ☆

वाणी माधुर्य व मर्यादा... ☆

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ आकाशगंगा… ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे 

?काशगंगा? सुश्री सुनिता गद्रे ?

घटना वैसे पुरानी ही… मतलब सन उन्नीस सौ पैंसठ की! मैं तब ग्यारहवीं में पढ़ती थी।… उस जमाने में उसे मैट्रिक कहते थे। उसके  बाद डिग्री के लिए चार साल की कॉलेज की पढ़ाई… !तो ग्यारहवीं में हमारे साइंस पढ़ाने वाले सर जी ने एक बार हमारे क्लास के सब छात्रों को हमारे गाॅंव की सबसे ऊंची बिल्डिंग के (तीन मंजिला बिल्डिंग के) छत पर रात के वक्त बुलाया था। वह अमावस की रात थी। अमावस की काली  रात  …. नहीं, डरने की  कोई बात नहीं ।…. खगोल शास्त्र के ‘आकाशगंगा’ टॉपिक पर हमें वह प्रत्यक्ष आकाशगंगा और ग्रह तारे नक्षत्र दिखाने वाले थे।

हमारे साइंस के टीचर जैसा डेडीकेटेड शिक्षक मैं ने आज तक नहीं देखा। अपने सब्जेक्ट का पूरा-पूरा ज्ञान उनके पास था और उसको छात्रों तक ले जाने की तीव्र इच्छा भी उनके अंदर थी। फिजिक्स, केमिस्ट्री के बहुत सारे  एक्सपेरिमेंट जो हमारे पढ़ाई का हिस्सा भी नहीं थे, उन्होंने हमसे करवा लिए थे।

उस रात सर जी ने हमें उत्तर से दक्षिण तक, या कहो दक्षिण से उत्तर तक फैला हुआ अनगिनत सितारों से भरा हुआ आकाशगंगा का( मिल्की वे) पट्टा दिखाया था। उसके बारे में बहुत सारी जानकारी भी दी।  इस वजह से हमें खगोल शास्त्र की अलग से पढ़ाई भी नहीं करनी पड़ी।

शादी के बाद मेरा वास्तव्य दिल्ली में ही रहा। बहुत बार हमारे चार मंजिला अपार्टमेंट के छत पर जाकर मैं आकाशगंगा ढूंढने का प्रयास करती थी, अमावस की रात को।….लेकिन बिजली की लाइट के चकाचौंध में वह आकाशगंगा मुझे कभी भी नजर नहीं आयी। अब तो छोटे-छोटे गांवों, कस्बों में भी बिजली पहुॅंच गई है। इसलिए आकाशगंगा वहाॅं भी, कितनी भी ऊंचाई पर जाओ दिखाई देगी ही नहीं।

गर्मी के दिनों में हम लोग छत पर सोया करते थे। अब ए.सी. की वजह से वह बात भी नहीं रही। और छत की ताजा हवा में सोने का सौभाग्य भी हमसे बहुत दूर चला गया।  छत पर बिस्तर पर बैठे-बैठे मैं बच्चों को बचपन में पढ़ा हुआ खगोल शास्त्र का ज्ञान जो थोड़ा-थोड़ा मुझे याद था, बताया- दिखाया करती थी। मृग नक्षत्र… हिरन… उसके पेट में घुसे हुए बाण के तीन चमकीले तारे…. व्याध, और उसी तरह सप्तर्षि का पतंग.. उसकी डोर पकड़े हुए , उत्तर की दिशा में ही दिखने वाला ध्रुव तारा…जो ज्यादा चमकता नहीं,… सप्तर्षि में, वशिष्ठ ऋषि साथ में ही एक छोटे से चमकीले के तारे के रूप में उनकी पत्नी अरुंधति… सब कुछ उनको दिखाती थी। सच में वह उतना साफ नहीं दिखता था जो मैंने बचपन में देखा था।  शर्मिष्ठा ,देवयानी, ययाति का वह एम् आकार वाला तारा समूह… जो एक अलग आकाशगंगा का हिस्सा है… (शायद) जो सर जी ने हमें दिखाया था, वह तो बिल्कुल ही नहीं दिखाई देता था। चमकीला शुक्र, लाल रंग का मंगल ग्रह भी कभी-कभी दिखाई देते थे, अगर आसमान साफ हो तो!… आगे चलकर बच्चे जब बड़े हो गए मैं उनको प्लेनेटोरियम ले गई थी। वहां मॉडर्न तकनीक से दिखाई हुई आकाशगंगा बच्चों के साथ मैंने भी देखी। लेकिन बचपन में देखी हुई आकाशगंगा मुझे वहाॅं भी नहीं मिली ,वह कहीं खो ही गई थी।

एक साल पहले की बात है। मुझे कर्नाटक के एक बहुत छोटे देहात में किसी काम के लिए जाना पड़ा। हम तीन लोग थे ।एक छोटे से बस स्टैंड पर बस रुकी, उतरकर हम हमारे गंतव्य की ओर जाने के लिए निकले। लगभग दो ढाई मैल का फासला चलकर तय करना था। वह भी अमावस की रात थी। ( हो सकता है एकाध दिन आगे- पीछे )चलते चलते मेरी नजर आसमान की तरफ गई…. और मैं सब कुछ भूल कर आसमान में उत्तर- दक्षिण फैली हुई आकाशगंगा को मुग्ध होकर देखती ही रह गई। वह दक्षिण उत्तर फैला हुआ आकाशगंगा का पट्टा (मिल्की वे) मुझे बचपन में ले गया। संपूर्ण गोलाकार क्षितिज… काला स्याह आसमान ..वह भी गहरी कटोरी समान.. और उसके अंदर चमकता हुआ आकाशगंगा का पट्टा! वह तो इतना नजदीक लग रहा था की सीडीपर चढ़कर कोई भी उसे हाथ  लगा सके। और हे भगवान, यह क्या?… मृग नक्षत्र के चौकोर में अनगिनत तारे चमक रहे थे।  फिर मैं अपने जाने पहचाने सितारे खोजने का प्रयास करने लगी। सच में अभी सर जी यहां होते तो कितना अच्छा होता, मन में विचार आया। पंद्रह-बीस मिनट के बाद, “काकी रुको मत,.. जल्दी-जल्दी आ जाओ।” इस भतीजे की आवाज से में खगोल छोड़कर भूगोल पर आ गई। बिना चंद्रमा के चमकने वाली ज्यादा से ज्यादा चाॅंदनियों को अपने मन में भरकर मैं आगे चल पड़ी।

बचपन में देखी हुई और बाद में खोयी हुई मेरी आकाशगंगा मुझे वहाॅं मिल गई थी।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 270 ⇒ घोड़े की नाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घोड़े की नाल।)

?अभी अभी # 270 ⇒ चांदी जैसे बाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Horse Shoe

मुझे नहीं पता, जंगल के राजा शेर का महल और सिंहासन कैसा होता है और उसकी पोशाक और जूते कैसे होते हैं, लेकिन पवन वेग से उड़ने वाले महाराणा प्रताप के महान चेतक की शक्ति, बहादुरी और स्वामिभक्ति से दुनिया परिचित थी। महारानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी महाराज और रामदेवरा के बाबा रामदेव की आप उनके घोड़े के बिना कल्पना ही नहीं कर सकते।

सदियों से घोड़ा इंसान का एक वफादार साथी रहा है। अश्वारोही कहें, अथवा घुड़सवार, वीर बहादुरों और जांबाज़ की जान होते हैं उनके घोड़े, जिनकी टाप उनके आगमन की सूचना देती है। हमारे सभी आधुनिक इंजन से चलने वाले वाहनों की तुलना अश्व शक्ति अथवा हॉर्स पॉवर से ही की जाती है।

सदियों से इंसान का सच्चा साथी और उपयोगी वाहन रहा है एक घोड़ा।।

इसके चार पांव किसी तेज गति से चलने वाले वाहन के पहियों से कम नहीं। जिस तरह एक फौजी के, चलते वक्त उसके जूतों की आवाज आती है, ठीक उसी प्रकार जब एक घोड़ा दौड़ता है, तो उसके टापों की आवाज आसानी से सुनी जा सकती है। यह घोड़े के पांव में लगी लोहे की नाल का कमाल है, जिसे अंग्रेजी में horse shoe कहते हैं। क्या होता है यह हॉर्स शू अथवा घोड़े की नाल ;

A horseshoe is a piece of metal shaped like a U which is fixed to a horse’s hoof.

इसे और अच्छी तरह से यूं भी समझा जा सकता है ;

पशु के पैरों के तलवे में लोहे का एक यू आकार का सोल लगाया जाता है, जिससे घोड़े को चलने और दौड़ने में दिक्कत नहीं होती है। अंग्रेजी के यू के आकर के इस सोल में जहां-जहां कील ठोकी जाती है, वहां-वहां छेद होते हैं। लोहे के इस सोल को नाल कहते हैं। आमतौर पर घोड़े की एक नाल हफ़्ता-10 दिन तक चलती है और इस दौरान घोड़ा सौ से 200 किलोमीटर तक चल लेता है।।

घोड़ा एक समझदार, लेकिन बेजुबां जानवर है। केवल युद्ध में ही नहीं इंसान उसको सवारी के रूप में भी उपयोग करता है। महाभारत के युद्ध में द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण जिस अर्जुन के रथ के सारथी बने थे, उसमें भी ये ही अश्व मौजूद थे।

कभी तांगा, टमटम और बग्घी हमारे प्रिय यातायात के साधन हुआ करते थे।

सेना में भी कैवेलरी रेजिमेंट होती है ;

The 61st Cavalry Regiment is a horse-mounted cavalry regiment of the Indian Army. It is notable for being one of the largest, and also one of the last, operational non mechanised horse-mounted cavalry units in the world.

एक घोड़े की नाल उसके लिए आवश्यक ही नहीं, वरदान भी है। वैसे तो जानवरों के खुर ही उनके जूते होते हैं, लेकिन उनका दर्द एक इंसान महसूस नहीं कर सकता। हम तो अगर नंगे पांव चलें तो पांव में छाले पड़ जाएं। सुना नहीं आपने फिल्म पाकीजा का वह राजकुमार का डायलॉग ;

आपके पांव बड़े नाजुक हैं, इन्हें जमीन पर मत रखिए, मैले हो जाएंगे।।

जब आदमी ही मशीन बनता चला जा रहा है तो फिर असली हॉर्स पॉवर की भी कद्र कौन करेगा। बेचारे घोड़े की सभी शक्ति आजकल मशीनों के इंजन में बदलती जा रही है।

लेकिन याद रहे, हजारों मशीनें एक चेतक पैदा नहीं कर सकती। शुक्र है, जब तक महालक्ष्मी की हॉर्स रेस है, हमारी सेना की ६१वीं अश्वारोही बटालियन मौजूद है, यह प्राणी किसी ना किसी बहाने से, हमारे बीच मौजूद रहेगा।

घोड़ी चढ़ना कोई घुड़सवारी नहीं। असली घुड़सवारी करें, फिर घोड़े की टाप का आनंद लें।

घोड़ा कहां आपसे अपना दर्द बयां करने वाला है। वह भले ही घास से यारी ना करे, लेकिन नाल उसके पांव का सुरक्षा कवच है।

नाल ठोंकने के लिए, पहले घोड़े के पांव बांधने पड़ते हैं, और बाकायदा पांवों में कीलें ठोंकी जाती है, क्योंकि घोड़े का जन्म, सिर्फ चलने के लिए हुआ है। स्वस्थ घोड़ा कभी नहीं बैठता। अगर एक बार बैठा, तो फिर कभी खड़ा नहीं होता।।

घोड़े की नाल के साथ कई टोटके जुड़े हैं और कुछ अंध विश्वास भी। कुछ लोग घर के मुख्य द्वार पर घोड़े की नाल लगाते हैं।

हम ऐसे टोटकों को तूल नहीं देते। वैसे जो घोड़े की नाल है, उसे भाग्यशाली तो होना ही चाहिए, वह एक घोड़े की हमसफर जो है ..horse ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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