श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं और मेरा अहं।)

?अभी अभी # 272 ⇒ मैं और मेरा अहं… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरा मैं अ अनार से शुरू होता है और अस्मिता अहंकार पर जाकर खत्म होता है। यह मैं ही मेरा अहं है, कभी मीठा आम, कभी खट्टी इमली है, तो कभी जड़ से ही मीठी ईख। यह अहं कभी मेरा है, तो कभी उसका ! इसी अहं के कारण मैं कई बार उल्लू बना हूँ, औरत का एक अहंकारी मालिक बना हूँ, और जब भी अंगूर खट्टे दिखे हैं, एक साधारण इंसान दिखा हूँ। कहने को यह अहं मात्र एक स्वर है, लेकिन यह एक लालच है, भुलावा है, भटकाव है, ईश्वर का एक ऐसा प्रतिबंधित व्यंजन है, जिसे चखने में सुख ही सुख है।

जिसे हम हिंदी में, मैं कहते हैं, वह संस्कृत का अहं है। जिन्हें संस्कृत नहीं आती, उनका भी अहं इतना बढ़ जाता है कि वे स्वयं को अहं ब्रह्मास्मि मान बैठते हैं। भ्रम को ब्रह्म मानने की भूल अच्छे अच्छे लोग कर डालते हैं।।

मैं ही मेरा अस्तित्व है। बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी मुट्ठी बंद होती है, क्योंकि उस समय पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में होती है। जैसे जैसे मुट्ठी खुलती जाती है, इस दुनिया का रहस्य भी खुलता जाता है। हर चीज बच्चे के लिए मेरी होती है। अगर उसने ज़िद करके चाँद की माँग कर दी, तो माँ एक थाली में ही सही, चाँद धरती पर लाने पर मजबूर हो जाती है। बाल हनुमान की तो पूछिये ही मत ! सूरज उनकी मुट्ठी में नहीं, सीधा मुँह में।

दुनिया मेरी मुट्ठी में ! आदमी बड़ा होता जाता है, मुट्ठी खोलता है, और सब कुछ समेटने में लग जाता है। उसे सब कुछ मेरा ही मेरा अच्छा लगने लगता है। मेरा घर, मेरी बीवी, मेरे बच्चे। मेरा जो भी है, तेरे से अच्छा है, बेहतर है, सुंदर है, तेरे से अधिक टिकाऊ है। मेरा-तेरा, तेरा-मेरा ही अहंकार और आसक्ति की जड़ है। यह जड़ ही उसे समझदार, बुद्धिमान और व्यावहारिक बनाती है। महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार हो वह सफलता के मार्ग पर सरपट भागता है। स्वार्थ का चाबुक गति को और वेगमान बना देता है।।

सफलता का सोपान ही अहं की संतुष्टि और सफलता की प्राप्ति अहं की पराकाष्ठा है। मान-मर्यादा, पद लालसा, भौतिक उपलब्धि, और पद-प्रतिष्ठा अहं के पोषक-तत्व हैं, जिन्हें कृत्रिम सरलता, आडम्बर और बड़प्पन से अलंकृत अर्थात गार्निश किया जाता है।

यह अहं ही इंसान को ऊपर उठाता है, और फिर नीचे भी गिराता है। जब तक मनुष्य ऊँचाई पर रहता है, उसे गिरने का भय नहीं रहता। ऊँचाई की हवा और सुख में वह नीचे की सभी वस्तुओं और लोगों को भूल जाता है। जब उसका अहं ईश्वर की ऊंचाइयों को भी पार कर जाता है, तो उसका पतन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। वह एकदम नीचे आ गिरता है। धरती उसे मुँह छुपाने नहीं देती और पाताल तक उसके चर्चे मशहूर हो जाते हैं।।

यह मैं एक मन भी है, चित्त भी है और बुद्धि और विवेक भी ! मुझ में ईश्वर है, इसकी प्रतीति ही चित्त-शुद्धि है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसे केवल मुझ में ही नहीं, सब में उस ईश्वर के दर्शन होंगे। प्राणी-मात्र में ईश्वर-तत्व का आभास ही संतत्व है, ईश्वरत्व है।

निर्मल मन, जन सो मोहि पावा

मोहि कपट छल छिद्र न भावा

निर्मल मन ही वास्तविक मैं है

जहाँ छल कपट के लिए कोई

स्थान नहीं। जो राम जी के प्यारे हैं,

उनके हृदय में हमेशा राम ही विराजते हैं।

वहाँ अस्मिता, अहंकार और काम-क्रोध का प्रवेश वर्जित है।

द्वैत में अद्वैत की प्रतीति ही

वास्तविक अहं है, परम ब्रह्म है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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