हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 239 ☆ आलेख – कैद सुरंगो में… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख कैद सुरंगो में…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 239 ☆

? आलेख – कैद सुरंगो में ?

उत्तराखंड में दुर्घटना वश 40 मजदूर सुरंग में कैद होकर रह गए हैं, जिन्हें बाहर निकालने के लिए सारी इंजीनियरिंग लगी हुई है।

हर बरसात में महानगरों में सड़को के किनारे बनाई गई साफ सफाई की सुरंग नुमा विशाल नालियों में कोई न कोई बह जाता है।

बोर वेल की गहरी खुदाई में जब तब खेलते कूदते बच्चो के गिरने फिर उन्हें निकालने  की खबरे सुनाई पड़ती हैं।

आपको स्मरण होगा थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे खेलते बच्चे और उनका कोच दुर्घटना वश फंस गए थे, जो सकुशल निकाल लिये गये थे.

तब सारी दुनिया ने राहत की सांस ली. हमें एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व हुआ था क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया था वरन कहा था कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बढाई, भारत की ही देन है.

अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.

इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे वे बहुत भाग्यशाली होते हैं जो  सुरंगों से बाहर निकाल लिए जाते हैं. वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद ही हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है. सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है. छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं. कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है । तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा, और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है, जिसके लिये मजदूरो, किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो, आश्वासनो, वोट की राजनीति की सुरंगों में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है.

बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई बड़ा बुलडोजर इन संकुचित सुरंगों को तोड़े, कोई हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले, सब खुली हवा में मुक्त सांस ले सकें. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – अपेक्षा ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपका विचारणीय संस्मरण  – अपेक्षा )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 22 ☆ 

? मेरी डायरी के पन्ने से… संस्मरण  – अपेक्षा ?

हमारा मोहल्ला काफ़ी बड़ा मोहल्ला है। मोहल्ले के सभी निवासी यहाँ की साफ़-सफ़ाई और बागवानी से खुश हैं। छोटे बच्चों के प्ले एरिया की विशेष देखभाल की जाती है। मच्छर न हों इसलिए नियमित औषधीय छिड़काव किए जाते हैं, धुआँ फैलाया जाता है। कुल मिलाकर आकर्षक परिसर है।

मोहल्ले में पिछले पंद्रह वर्षों से एक माली काका बाग – बगीचे की देख-रेख करते आ रहे हैं। मेहनती हैं, सुबह दस बजे से शाम के पाँच बजे तक लगातार श्रम करते हैं।

माली काका अब थक से गए हैं। कमर भी झुक गई है और चलने की गति भी कम हो गई है। खास किसी के साथ बतियाते नहीं। कभी- कभार बीड़ी फूँकते हैं। कॉलोनी के मैनेजर ने कई बार उन्हें टोका है। पर आदत छूटती कहाँ! झाड़ियों के पीछे छिपकर बीड़ी पीने से भी धुआँ कहाँ छिपता है भला? मालूम तो पड़ ही जाता है कि माली काका थकावट दूर करने के लिए बगीचे के एक कोने में बैठकर थोड़ा सुस्ताते हुए एक आध बीड़ी फूँक रहे हैं।

मैनेजर के कहने पर कल वह मोहल्ले के दफ्तर में चेयरमैन से मिलने गए थे। चेयरमैन रिटायर्ड आदमी हैं, सत्तर से अधिक उम्र है। इंजीनियर आदमी थे। अपने क्षेत्र के माहिर व्यक्ति थे वे जिस कारण रिटायर्मेंट के बाद अभी भी उसी कंपनी में वे कंसल्टेंट के पद पर हैं। मोहल्ले की देखभाल समाज सेवा की दृष्टि से करते हैं।

माली काका जब कमरे में आए तब वे किसी से मोबाइल पर बात करते हुए व्यस्त थे तो इशारे से उसे बैठने के लिए कहा। संकोचवश माली काका कमरे से बाहर निकलकर दीवार से पीठ टेककर सुस्ताते हुए बैठ गए। पाँच बज चुके थे, उनके घर जाने का भी समय हो रहा था।

चेयरमैन अपनी बात पूरी करके कमरे से बाहर आए। एक मचिये पर साहब बैठ गए और माली काका से बोले

 – कैसे हैं माली काका ?

– ठीक हूँ साहिब। आपकी दुआ है।

– अरे नहीं, सब ईश्वर की कृपा है। काका अब आपकी उम्र कितनी हो गई है ?

– साहिब साठ -बासठ होगा ! हम अनपढ़ गिनती क्या जानें साहिब!

– थके से लगने लगे हैं अब । अच्छा, वे केले के पेड़ लगाए थे उस पर फल लगे कि नहीं ?

– हाँ साहिब बहुत फल लगे थे

(काका के चेहरे पर अचानक चमक आ गई मानो कोई उनसे उनके अपने सफल बच्चों की खैरियत पूछ रहा हो।)

 – साहिब सभी घर में दो-तीन, दो-तीन केले बाँट दिए थे। (हँसकर) अपना मोहल्ला बहुत बड़ा भी है न साहिब तो हर घर में थोड़ा- थोड़ा बाँट दिया।

– अरे वाह! यह तो बहुत अच्छा किया।

(थोड़ा रुककर) मोहल्लेवालों को अब आप पर दया आने लगी है ।

– क्यों साहिब?

– अब आपकी उम्र काफ़ी हो गई है, साथ में इतनी धूप, बारिश में काम करते रहते हैं।

– सो तो साहिब हम माली हैं काम है हमारा, पौधे -पेड़ हमारी औलादें जो ठहरी ! देखभाल तो करनी ही पड़ेगी न साहिब।

– हूँ, हम लोग सोच रहे थे… कि काका हर महीने में हम कुछ पेंशन देंगे आपको, आप अब रिटायर हो जाइए।

– साहिब ये क्या बोल गए आप! मैं घर बैठकर क्या करूँगा? फिर पेट चलाने को पगार भी कम पड़ता है तो पेंशन से रोटी कैसे चलेगी साहिब! दो बखत तो रोटी चाहिए न साहिब!

– हाँ, इसलिए ही तो पेंशन देंगे आपको।

 काका कुछ देर चुप रहे फिर अचानक बोले,

– साहिब हमें कनसूलेट बना दो!

– माने ?

– साहब आप को भी तो रिटायर होकर बहुत साल हो गए न, आप कंपनी में कनसूलेट हैं न! आप अभी भी तो कुछ घंटों के लिए कंपनी जाते हैं।

– आपको कैसे पता?

– साहिब आपका डिराइवर बता रहा था कि साहब कंपनी में बहुत फेमस हैं, बहुत मेहनती हैं और बहुत अच्छा काम करते हैं इसलिए कंपनीवाले छोड़ते नहीं आपको।

– अच्छा ! (हँसकर) बड़ी खबर रखते हैं आप काका।

– (अपना सिर खुजाते हुए) नहीं साहिब, क्या है के हम भी पंद्रह साल से दिन रात इस कालोनी में खपते रहे। कनसूलेट बन गए तो दूसरे मालियों को टरेनिंग देंगे, काम सिखाएँगे। मोहल्ला सुंदर भी बना रहेगा हमारा पेट भी भरा रहेगा।

माली काका की बातें सुनकर चेयरमैन अचंभित अवश्य हुए पर अनपढ़ व्यक्ति की दुनियादारी और जागरुकता देखकर मन ही मन प्रसन्न भी हुए।

– ठीक है काका हम मीटिंग में तय करके आपको बताएँगे।

– ध्यान रखना हमारा साहिब, हम कनसूलेट बनकर और ज्यादा काम करेंगे। नमस्ते साहिब ।

नमस्ते कहकर चेयरमैन बुदबुदाए – कंसल्टेंट बनकर काम करने की अपेक्षा रखने की आवश्यकता अब हर लेवल पर है यह बात तो स्पष्ट हो गई। रिटायर होना तो बस एक बहाना भर है वरना कमाई किसे नहीं चाहिए भला।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 58 – देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 58 ☆ देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्तमान समय में किसी भी खेल को खेलने वाले तो बहुत कम हैं, लेकिन उसको लेकर विभिन्न सामाजिक मंचों पर चर्चा/ प्रतिक्रिया करने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं।

विगत एक पखवाड़े से सभी जगह फुटबॉल को लेकर ही चर्चा हो रही है।

हमारे जैसे जिन्होंने जीवन में शायद ही कभी फुटबॉल को किक क्या हाथ भी नहीं लगाया होगा, वो भी पेनल्टी शूट को गोल में कैसे परिवर्तित करने का ज्ञान बघार रहे हैं।

खेल का बाजारीकरण हो जाने से सभी सक्रिय मीडिया के साधन विज्ञापन प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

खेलों को लेकर इतना उन्माद क्यों है। इसी प्रकार जीत का भी आवश्यकता से अधिक जश्न मानने की होड़ लगी रहती है।

स्वयं श्रम करने के स्थान पर दूसरों की जीत/ हार पर वाणी से या व्हाट्स ऐप पर ही कॉपी/ पेस्ट कर समय बर्बाद करने में हमारा कोई सानी नहीं है। चार कदम दूरी के कार्य को भी बाइक/ कार द्वारा करने वाले खेल के मैदान में क्या खाक कुछ कर पाएंगे ?

क्रिकेट, टेनिस इत्यादि को छोड़ कर हमारे देश में विगत सत्तर वर्ष से कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। हॉकी जैसे खेल जिसके हम सिरमौर हुआ करते थे, आज हाशिये पर खड़े हैं।

विदेश में खेलों को प्रोफेशनल रूप में अपनाया जाता है। जबकि हमारे यहां अध्ययन में कमज़ोर बच्चे ही खेल को प्राथमिकता देते हैं।

बाल्यकाल में दादाजी की वाणी भी कुछ ऐसा ही कहती थी “पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब! खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब!!”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #212 ☆ रुपाचा दाखला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 212 ?

☆ रुपाचा दाखला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तुझ्यासाठी हा आरसा

किती वेडापिसा झाला

कधी येशील समोर

आहे वाटेत थांबला

 

खेळण्याला पदराशी

पहा वारा आतुरला

फडफडतो पदर

जेव्हा भेटतो वाऱ्याला

 

तुला पाहून असेल

का हा चंद्र डागाळला ?

अप्सराही देत होत्या

तुझ्या रुपाचा दाखला

 

धुके होते पेटलेले

धूर त्याचा पसरला

दव अंगाला झोंबते

त्याने देह भिजलेला

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अंतर बदल… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अंतर बदल ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

जगण्यामधले अंतर

आशेत व्यापून आहे

पुढेच पाऊले पडती

भविष्य लपून आहे.

 

झाडावरले ते घरटे

पाखरु जपून आहे

चिंताच ऊद्याची लागून

झेपेत निपूण आहे.

 

डोळे झाकून ऊघडता

दुःखच निवारुन जाते

पुन्हा जीवन ऊमलते

मार्गही सोबतीच होते.

 

बघता-बघता जीवन

क्षणा-क्षणांनी त्या सरले

ऊमेद कळ्यांची घेऊन

झाड ऋतूसंगे झरले.

 

तसेच फुलांना बहर

वसंत मनाचा फुलवा

हसताना सुरकुतला

चेहरा सुखाचा खुलवा.

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ एक सुंदर अनुभव – मनातल्या घरात –  श्री विकास शहा ☆ प्रस्तुती – सौ. जयश्री पाटील ☆

सौ. जयश्री पाटील

🔆 विविधा 🔆

☆ एक सुंदर अनुभव – मनातल्या घरात –  श्री विकास शहा ☆ प्रस्तुती – सौ. जयश्री पाटील ☆

मनातल्या घरात (Self – Introspection)

आपण मनातल्या घराला कधी भेट दिली आहे कां ??? 

एका ठिकाणी बसून करमत नाही. मग उगाच आपण, इथे तिथे फिरायला जातोच की !!! मग ती  पर्यटन स्थळ असतील किंवा कोणाच्या तरी घरी !!! याच्या त्याच्या घरी, या ना त्या कारणाने आपण पाहुणा म्हणून जातोच. मग मी ठरवले, कां नाही आपण आपल्याच मनाच्या घराचा पाहुणचार घेऊन यावा ???

हो, हो, चक्क स्वतःच्याच मनाच्या घरचा पाहुणचार !!! आपणच आपल्या मनाच्या  घराला भेट द्यावी म्हंटले, बघावे तरी काय आणि कसं ठेवलंय हे मनाचे घर !!! कोण, कोण रहातात तिथे ???  कसे स्वागत होत ते ???

ठरल्याप्रमाणे मनाच्या घराच्या दारापर्यंत पोहचलो. अगदी छोटेसे होते, पण छान होते !!! आत काय असेल, या उत्सुकतेने दार वाजवले, तर आतून आवाज आला, “कोण आहे ???? काय पाहिजे ????” असा प्रश्न आतून विचारला जाईल याची कल्पना नव्हती पण खरंच आपण कोण आहोत, हे त्याला सांगितल्या शिवाय तो आपल्याला आत तरी कसा घेणार ???

मी ही सांगितले, “मी *स्व  आहे रे !!! ज्याचे तू कध्धी ऐकत नाही. ज्याच्याशी तू सतत वाद घालत असतोस, ज्याच्याशी तू दिवस रात्र गप्पा मारत असतो तो मी !!!”

आतून आवाज आला, ” बरं…. बरं…उघडतो दार !!!” दार उघडल्या नंतर आत पाहिले, तर गडद अंधार होता. म्हणून मी विचारले, ” कां रे एवढा अंधार ???” तेव्हा तो म्हणाला, ” तुमच्याच कृपेने !!! मी म्हंटले, ” माझ्या कृपेने ??? तर तो म्हणाला, “हो !!! तुझ्याच कृपेने !!! कारण इथे उजेड तेव्हा पडेल, जेव्हा तू सकारात्मक विचारांचे दिवे लावशील.”

मी ही जरा ऐटीतच म्हणालो, “ठीक आहे… ठीक आहे !!! लावतो दिवे” म्हणत, पुढे सरकलो. थोडं पुढे चाचपडत गेलो तर काय !!! तिथं असंख्य खोल्या होत्या. अगदी कोंदट वातावरण होते. मी त्याला पुन्हा विचारले, “काय रे, त्या खोल्यात काय दडलंय ???”

तो पुन्हा म्हणाला, ” बघ की उघडून एक एक खोली, कळेल काय आहे ते.” मग मी हळूच एका खोलीचे दार उघडले.  आणि…फडफड करत अनेक रागीट चेहरे समोर आले. जणू काही ते मला गिळंकृतच करणार आहेत. मी पटकन दार लावले. तेव्हा तो म्हणाला, ” काय झालं ??? दार कां लावले ???” मी म्हंटले, ” कसले भयानक होते रे ते !!! ” तर तो पुन्हा हसत म्हणाला, ” तुम्हीच गोळा केले आहेत ते !!! तुम्ही ज्यांचा ज्यांचा तिरस्कार करता, ज्यांचा राग करता, त्यांची संख्या किती आहे ते कळलं कां ??? तुम्हीच केलेली मेगा भरती आहे ती !!!”

हुश्श…अरे बापरे !!! पुढचं दार उघडायचे धाडसच होईना, पण म्हंटले आता आलोच आहे तर उघडावे. तिथे ज्या काही घटना पहिल्या त्याने तर घामच फुटला. तो पुन्हा मिस्कीलपणे म्हणाला, ” काय, काय झालं…??? मी म्हंटले, “अरे बाबा, हे काय ??? तो पुन्हा म्हणाला, ” तू तुझ्या आयुष्यात सतत दुःखद आठवणीच गोळा करीत गेलास, त्याला मी तरी काय करणार ??? आता तर साठवून ठेवायला या खोल्यासुद्धा अपुऱ्या पडत आहेत.”

तिथं अशा किती तरी खोल्या होत्या, ज्यांना उघडायच धाडस माझं झालं नाही. मग त्याने त्या उघडून दाखवल्या, ही भीतीची खोली, ही द्वेष, ईर्षा, वाईट विचारांची, मतभेदांची, गैरसमजांची खोली अशा अनेक खोल्या पाहिल्या, सर्वच्या सर्व अंगावर येत होते.

आता मात्र माझं डोकं गरगरायला लागले, अस्वस्थता वाढली होती. किती भयावह होत ते सर्व !!! त्यामुळे पुढं काय आहे, हे बघण्याची इच्छाच होत नव्हती. हे सारं भयाण बघून अंगाला काटा आला होता. स्वतःचाच तिरस्कार वाटत होता.

मी त्याला म्हंटले, “मी जातो आता. मला काही बघायचं नाही आता.” तो म्हणाला, ” थोडं…थांब, आलाच आहेस तर हे पण बघून जा.”

थोडी हिंमत दाखवत आम्ही पुढच्या दिशेने निघालो….तिथं संपूर्ण जाळ लागलेला होता…मग थोडं पुढे गेलो आणि पाहिलं तर काय….आहा…..हा हा…स्वर्ग सुख मिळावं असं वातावरण होत, तिथं प्रेम होतं, तिथं माया होती, तिथं आनंद होता, उत्साह होता, नवीन नवीन कल्पनांचा बाजार होता. सुख, समाधान शांती ने भरलेले, अगदी नयन दिपून टाकेल असं सर्व काही होते.

मी म्हंटले, “काय रे हे इतकं सुंदर आहे, हे तू मला आधी कां नाही दाखवलं ???” तर तो मिस्कील पणे हसत म्हणाला, ” अहो, तुमचं मनातलं खरं घर तर हेच आहे.” मग मी म्हणालो, ” जे आधी पाहिलं, ते काय होतं ???” तो पुन्हा हसत म्हणाला, ” त्या…त्या…तुम्ही अतिक्रमण करत वाढविलेल्या खोल्या आहेत. तुम्ही केलेला राग, इर्षा, द्वेष, भीती, नावडती माणसं, नावडत्या आठवणी याची जी साठवणूक केली, ती या सुंदर घराच्या प्रवेशद्वारा पुढे पहारेकरी बनून बसले आहेत, जे तुम्हाला इथं पर्यंत येण्यास अडवत आहेत.”

आम्ही वर्तमान काळात सजग नसतो, त्या वेळी आमच्या स्वभावाची नशा असते, आणि नंतर कळते तेंव्हा पञ्चाताप झालेला असतो…

क्षणभर विचार केला, खरंच की आपणच आपल्या सुख, आनंदाच्या कडे जाणारा रस्ता, या नकारात्मक गोष्टींची साठवणूक करून अडवलेला आहे. मनाच्या घराचा पसारा आवरायला वेळ लागणार होता पण ठरवलं की, आता या अडथळा बनून बसलेल्या खोल्यांची साफसफाई करायची. तिथं सकारात्मक विचारांचे दिवे लावायचे आणि सुख समाधान, शांती कडे जाणारा मार्ग सोपा करायचा.

बरं झालं. आज मनाच्या घरात फिरून आलो, नाहीतर आपल्या मनावर नकारात्मक विचारांचे अतिक्रमण झालेले आहे हे कळलंच नसतं.

मनाच्या घरचा पाहुणचार खूप काही शिकवून गेला. आपल्या मनाचं घर, दुसऱ्याच्या हातात द्यायचं नाही. स्वतःच्या घराची साफसफाई स्वतःच करायची.

साफसफाई करायची म्हणजे काय तर स्व दर्शन म्हणजे ध्यानावर यावे लागेल त्यासाठी ध्यान करावे लागेल…

मग मित्रांनो आणि मैत्रिणींनो.. तुम्ही तुमच्या मनाच्या घराला कधी भेट देत आहात ???

आपण सुरुवात छान केलेली आहे..

BE POSITIVE… BE HAPPY

सकारात्मक रहा.. आनंदी रहा..

पत्रकार श्री विकास शहा, तालुका प्रतिनिधी दैनिक लोकमत , शिराळा ( सांगली )

प्रस्तुती – सौ.जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ स्वस्तिक… भाग-1 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

☆ स्वस्तिक… भाग-1 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

काल रात्री डीव्ही  पाणी प्यायला उठले आणि त्यांच्या लक्षात आले की गळ्यातला ताईत  पडलाय.  ते थोडेसे विचलित झाले, काहीसे भयभीतही झाले. पाणी पिऊन पटकन बेडपाशी आले तेव्हां उशीवर  त्यांना त्यांचा ताईत दिसला.  त्या अंधुक प्रकाशात त्यातले सोन्याचा सुरेख कमनीय स्वस्तिक चमकले.  डीव्हींना एकदम हायसं वाटलं.  त्यांनी तो पटकन उचलला आणि पुन्हा गळ्यात घातला.

अजून रात्र बरीच बाकी होती.  त्यांनी डोळे मिटले आणि झोपण्याचा प्रयत्न केला.  शेजारी सावित्री— त्यांची पत्नी शांत झोपली होती.  त्यांनी पुन्हा गळ्यातल्या स्वस्तिकाला स्पर्श केला. 

तेव्हां आई म्हणाली होती,

” दिन्या! आज मी गुरुजींकडे गेले होते. त्यांना तुझी पत्रिका दाखवली. बराच वेळ ते निरखत होते.  लांबलचक आकडेवारी लिहीत होते.  म्हणाले,” माई छान आहे  पत्रिका. तुझा दिन्या नाव कमावणार.  खूप मोठा होणार. यशस्वी, कीर्तीवंत! स्वतःचे एक साम्राज्य उभं करणार तो. पण पत्रिकेत स्पष्ट दिसतंय की पनवतीचे काही टप्पे अवघड आहेत.  मी  एक ताईत देतो. यात एक स्वस्तिक आहे तो त्याचं सदैव रक्षण करेल.  आयुष्यभर त्यांनी तो गळ्यात ठेवावा.”

तेव्हांपासून आजतागायत तो गळ्यात आहे. कधीच काढला नाही. पण दिन्या ते डीव्ही या आयुष्याच्या एका दिमाखदार प्रवासात गळ्यातल्या या स्वस्तिकाने कशी काय साथ दिली याचाही कधी विचार मनात आला नाही. कित्येक वेळा तो आपल्या गळ्यात आहे याचाही विसर पडला असेल.  मात्र एक, आई असताना आणि ती गेल्यानंतरही आजपर्यंत डीव्हींनी कधीही तो काढला नाही.

जेव्हां जेव्हां डीव्ही आईला भेटायला जात, तेव्हां तेव्हां आई त्या स्वस्तिकाकडे बघूनच म्हणायची,

” मोठा झालास. नाव कमावलंस, खूप मोठी ओळख स्वतःची मिळवलीस, राज्य उभं केलंस.  आज कितीतरी लोकांची कुटुंबं तुझ्यावर अवलंबून आहेत, पण लक्षात ठेव यात आपलं काही नसतं बरं! सारं तो करतो! त्याला विसरू नकोस. सदैव जमिनीवर राहा.  आयुष्यात वाटा खूप असतात रे!  पण सरळ वाटेवर चालत रहा.”

डीव्हींनी कूस बदलली. पहाट व्हायची ते वाट बघत होते. उद्या सकाळी अकरा वाजता कोर्टात अंतिम सुनावणी आहे. न्यायालयीन चौकशी समोर त्यांना सामोरे जायचं आहे.अॅडव्होकेट झुनझुनवालांचा रात्रीच फोन आला होता.

” डीव्ही, तशी आपली बाजू भक्कम आहे. तुमच्याकडून मुद्दामहून  गुन्हा झालेला नाही.  फसवणूक करण्याचा तुमचा हेतूही नाही.  तुम्ही फक्त एका अचानक आलेल्या वादळात अडकलात आणि मग एक एक पाऊल निसटत गेलं .हे सर्व आपल्याला खंडपीठांसमोर नीट विश्वासार्ह पद्धतीने मांडायचं आहे.  निर्णय काय लागेल ते आत्ताच सांगू शकणार नाही. पण प्रयत्न करूच.  आणि अपेक्षित प्रश्नांना कसे सामोरे जायचे, काय उत्तर द्यायचे याची पूर्वकल्पना मी तुम्हाला दिलेलीच आहे.  तेव्हां धीर ठेवा, सावध राहा.   लेट अस होप पॉझिटिव्ह!”

वास्तविक या व्यवसायात येण्याचं कुठलंही स्वप्न डीव्हींनी कधीच पाहिलं नव्हतं.  दिन्या नावाचा एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण कुटुंबातला माणूस काय स्वप्न बघणार? एक पदवी, एक नोकरी, एक घर, समंजस पत्नी, गुणी मुलं, वृद्ध आई-वडिलांचा सांभाळ आणि अखेर एक समाधानी निवृत्ती!  पण सिव्हिल इंजिनिअरिंगची डिग्री असूनही कुठेही नोकरी मिळत नव्हती.  प्रचंड नैराश्य आलं होतं.  अजूनही आपण कुटुंबाचा आधार बनू शकत नाही या भावनेने जगताना निरुपयोगी असल्यासारखं वाटत होतं.  अगदी आत्मघाताचेही विचार मनात घोळत होते.  आत्मविश्वास पार डळमळला होता  त्याचवेळी गळ्यातल्या स्वस्तिकाला सहजपणे केलेला तो स्पर्श एकाएकी खूप आश्वासक वाटला होता.  त्याही क्षणी क्षणभर मनात आलं होतं,’ खरंच असं काही असतं का? तर्कबुद्धीच्या पलीकडे या संकेतांना नक्की काय अर्थ असतो?’

पण योगायोगाने वासू भेटला.  एका इराण्याच्या हॉटेलात. दिन्या  चहा पीत होता.  वासूनेच जोरात हाक मारली,

“अरे दिनकर?”

दिन्या निराशच होता.  नुकतीच नोकरीसाठी एक मुलाखत देऊन तो आला होता.  आणि अपयशाचीच शंभर टक्के खात्री होती.  त्यामुळे चेहरा उदास, पडलेला, निराश.

“अरे दिनकर? दिनेश स्कॉलर? काय चाललंय तुझ्या आयुष्यात? काय करतोस? कुठे असतोस? “

दिन्या शांतपणे म्हणाला होता,

“काहीही नाही.”

आणि मग दिन्याने जे आहे ते सारं वासूला सांगितलं.

भरदार अंगाच्या, धष्टपुष्ट, उंच ताड वासुने दिन्याच्या हातावर जोरात टाळी मारली.  आणि तो म्हणाला,

“अरे भावड्या!  हे बघ माझ्याकडे सॉल्लिड प्लॅन्स आहेत. या गावकूसाच्या बाहेर,  माझ्या नावावर आजोबांनी ठेवलेली एक जमीन आहे.  तो भाग पुढच्या दहा वर्षात प्रचंड गजबजणार आहे.  काही वर्षांनी ती उद्योगनगरीच होणार आहे.  सोन्याचा तुकडा आहे बघ.  आपण ती डेव्हलप करूया.”

“म्हणजे नेमकं काय ?”

“म्हणजे आपण एक प्रोजेक्ट करूया.  एक स्वयंपूर्ण नगरच बसवूया.  सदनिका, रो हाऊसेस, सर्व प्रकारची दुकानं,  मुलांसाठी, ज्येष्ठांसाठी सुविधा, शिक्षण, आरोग्य याचा परिपूर्ण विचार करून थाटलेलं एक संपूर्ण नगर!”

वासुने जणू एक स्वप्नच दिन्याच्या हातात ठेवलं.

“हे बघ , जमीन माझी डोकं तुझं.  आजपासून तुझी आणि माझी टीम.  काय भावड्या जमतंय् का?”

“हो पण माझ्याकडे काहीच भांडवल नाहीय “

“त्याची काळजी तू करू नकोस.  तू कामाला लाग.  असा पॅव्हलीन  मध्येच आऊट होऊ नकोस.  मैदानात ये.  खेळ जमव. आपण साइटवर जाऊ आणि ठरवू  पुढचं.”

दिन्या काही बोलणार तोच त्याचं लक्ष वासूच्या गळ्यातलल्या ताईताकडे गेलं. अगदी हुबेहूब.  काळा दोरा आणि सोन्याचा सुरेख नक्षीदार स्वस्तिक. सहजच एक तार जुळली. प्रवाहाला प्रवाह मिळाला. आणि सुरुवात झाली.

आयुष्यात असही काही घडू शकत यावर विश्वास बसत नव्हता. पण ते घडलं. या पहिल्याच  स्वस्तिक प्रोजेक्टला उदंड प्रतिसाद मिळाला.  वासूने कायदेशीर बाबी, जाहिराततंत्र,  बुकिंग, सेल्स, पैशाचे नियोजन, बँकांचे व्यवहार सर्व काही अत्यंत कौशल्याने सांभाळलं.  आणि दिन्याने बौद्धिक, कल्पक, तांत्रिक, वेगवेगळे शास्त्रोक्त आराखडे, एलेवेशन्स, व्हिजीयुलायझेशनची सारी तंत्र चोख पाळली. यशाची एक वाट नव्हे, महावाटच सुरू झाली.  स्वस्तिक बिल्डर्स हे नाव प्रचंड गजबजलं. पेपरात फोटो, मुलाखती, पुढच्या प्रोजेक्टचे विचार वगैरे वगैरे सर्व काही विनासायास प्रवाहाबरोबर घडतच गेलं. 

“शहरात प्रथमच, ईको फ्रेंडली,निसर्गाच्या सान्निध्यात आगळे वेगळे आपलं घर!”अशी होर्डींग्ज झळकू लागली.

दिन्याचा डीव्ही झाला.  वास्तविक डीवी म्हणजे दिनकर आणि वासू. आणि दोघांचे मिळून स्वस्तिक, पण व्यावसायिक विश्वात, परिसरात, समाजात, देशात,  विदेशात डीव्ही याच नावाने त्याला प्रसिद्धी मिळाली. दिनकर एक दिवस वासूला म्हणालाही होता,

“आपण दोघे म्हणजे वन सोल ईन टु बॉडीज् दोन रेषा,एका बिंदुतल्या.”

आणि नकळत दोघांनी आपले गळ्यातले स्वस्तिक असलेले ताईत सहज आनंदाने उचलले.

सगळं आयुष्यच बदलून गेलं.  राहणीमान, जीवन पद्धती, सारं सारं बदललं.  एका टिंबापासून झालेल्या सुरुवातीनं आख्खा पृथ्वी गोलच जणू पादाक्रांत केला.  देश विदेशात स्वस्तिक प्रोजेक्ट्स उभारले गेले.  पन्नास मजली टॉवर्स,  फिरती पंचतारांकित हॉटेल्स,  आरकेड्स,  हॉल्स, बँक्वेट्स हॉस्पिटल्स, आणि त्याचबरोबर इनसाईड आऊटसाईड मधले गुळगुळीत फोटो. 

दिन्या नावाचं मिटलेलं कमळ डीव्हींच्या रूपात उमलत गेलं.

कुटुंब आणि परिवाराबरोबरच एक व्यावसायिक आणि सामाजिक चेहरा दिन्याला प्राप्त झाला. काही हजारांचे कित्येक हजार कोटी झाले. 

एक दिवस डीव्ही असेच, नदीकिनारी असलेल्या त्यांच्या आलिशान बंगल्याच्या पॅटीओमध्ये शांत बसले होते. समोरच्या भिंतीवरचे म्युरल ते पाहत होते.  वास्तविक ते म्युरल म्हणजे त्यांच्या व्यवसायाचा लोगोच होता. एक सुरेख स्वस्तिक.  सूर्य, चंद्र, वायु, पृथ्वी,  लक्ष्मी,  विष्णु ब्रह्मदेव,  शिवपार्वती,  श्री गणेश अशा अनेक देवतांचा समावेश असणारं, शांती, समृद्धी आणि मांगल्यांचं  प्रतीक स्वस्तिक!  एकमेकांना छेदणाऱ्या दोन सरळ रेषा पुढे जाऊन विरुद्ध दिशेला वळलेल्या.

“स्वस्तिक क्षेम कायति इति स्वस्तिक:”

कुशलक्षेम, कल्याणाचे प्रतिक.

डीव्हींच्या आत, आईचा दिन्या अजूनही होता.  त्या दिन्याने मात्र समाजाभिमुख अनेक कामेही केली. लोकाभिमुख संस्थांना आर्थिक योगदान  दिले.  कितीतरी लाचार ओंजळी त्याने भरल्या.  कला, क्रीडा, धर्म, संस्कृती सर्व क्षेत्रात त्यांनी अर्थदान केले.  

भिंतीवरचे म्युरल पाहत असताना डीव्हींचा चेहरा अधिकाधिक शांत होत गेला.  क्षणभर त्यांच्या मनात आलं स्वस्तिक हेच त्यांचं अस्तीत्व.  अखंड सोबत.  एक अदृश्य मार्गदर्शक आणि सहजच त्यांचा हात गळ्यापाशी गेला.

  स्वस्तिक   क्रमश: भाग १ 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “प्रत्यक्ष अनुभवलेले एक थरारनाट्य” ☆ सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

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☆ “प्रत्यक्ष अनुभवलेले एक थरारनाट्य” ☆  सुश्री सुलू साबणे जोशी

आपल्या घराघरात आणि मनामनात चंदनाला एक अढळपद आहे. आमच्या गृहसंकुलात आपोआप उगवून आलेली चंदनाची झाडे आहेत. या भागात पक्षी खूप आहेत, बहुधा त्यांच्या शिटातून हे बीजारोपण झाले असावे.

चंदन हे नेहमी मोठ्या वृक्षांच्या जवळच जोमाने वाढते, कारण त्याचे अंशिक परावलंबित्व ! हा अर्धपरोपजीवी वृक्ष समजला जातो, कारण हा वृक्ष स्वतःचे अन्न पूर्णपणे तयार करू शकत नाही. तेव्हा तो दुस-या वनस्पतींच्या मुळांतून आपल्या मुळांच्या सहाय्याने अन्नशोषण करतो. (उदा. त्याला डाळिंब, कढीलिंब, काळा कुडा, करंज, अशा काही यजमानवृक्षांची सोबत मानवते.)                                                                                                             

गेली वीस वर्षे अशा दोन चंदनवृक्षांचा सहवास आम्हाला लाभला. हे वृक्ष सदैव मण्याएवढ्या आकाराच्या फुला-फळांनी बहरलेले असतात. त्यावर सदैव मधमाशा असतात. ही फळे कोकीळ-कोकीळा, बुलबुल, फुलचुके, खारूताई आवडीने खातात. 

काल ११ ऑक्टोबर २०२३/ बुधवार, रात्री बाराचा सुमार – इथे प्रगाढ शांतता होती. एकाएकी खालून आलेल्या एका विचित्र कर्णकटू कर्कश्श आवाजाने एकदम धडकीच भरली. या बाजूला अधूनमधून गाड्यांचे अपघात होतात. अति वेगात येणारी दुचाकी घसरून घसटत जावी, असे काहीसे वाटले. भराभरा गच्चीचे दार उघडून खाली डोकावले आणि पायाखालची जमीनच सरकली. आवाज रस्त्यावरून नव्हे तर चक्क संकुलाच्या आतूनच येत होता – यांत्रिक करवतीने एका चंदनवृक्षाचा बुंधा कापण्याचे काम चार माणसे मन लावून करत होती. मी आत येऊन खिडकीकडे धाव घेतली आणि सुरक्षारक्षकाला हाका मारल्या, ‘चोर, चोर’ म्हणून पुकारा केला. तोवर घरातील सर्व मंडळी आणि संकुलातीलही सर्वजण या विचित्र आवाजाने जागे होऊन या आरड्याओरड्यात सामील झाले. भराभर ब-याच मंडळींनी खाली धाव घेतली. पण, त्यांनी इमारतीचे प्रवेशद्वार उघडून बाहेर येऊ नये म्हणून पाऊस पडावा तसा दगडगोट्यांचा मारा करायला सुरुवात केली. दहा मिनिटात झाडाचा बुंधा कापून खांद्यावर टाकून चौघेही शांतपणे चालत मागच्या बाजूला असलेल्या टेकडीवरून निघून गेले.

तशातही संकुलातील काही धाडसी तरूणांनी बाहेर धाव घेतली. टेकडीवरून दगडांचा मारा चालूच होता. तिथे चोरांचे चार-पाच साथीदार दडलेले असावेत. संकुलातील पाच-सहाजण दगडांच्या मा-याने रक्तबंबाळ झाले. सुरक्षारक्षकाने हाकेला ‘ओ ‘ का दिली नाही, तर त्याच्या गळ्याला सुरा लावून त्याला दोघा चोरांनी दाबून धरले होते आणि मारहाण करून जखमी केले होते. काही सदस्यांनी गाड्या काढून या सर्वांना तातडीने दवाखान्यात नेले. सुरक्षारक्षक आणि आणखी एकाला टाके घालावे लागले.   याचा अर्थ – ती  ८-१० चोरांची टोळी होती. त्यांनी अत्यंत पद्धतशीरपणे संकुलाची आणि झाडाच्या जागेची माहिती काढलेली होती.                                                    

हे एक मोठे बंगला-संकुल आहे. त्यात टेकडीच्या पायथ्याला आमच्यासारखी सदनिकांची संकुले आहेत. बंगलेवाल्यांनी टेकडीवर त्यांच्या बाजूपुरती आठ फूट उंचीची संरक्षक-भिंत घातली आहे. पण आम्हा सदनिकाधारकांच्या बाजूला फक्त दीड-दोन फूट उंचीची भिंत आहे, जी आरामात ढांग टाकून ओलांडता येईल. त्यावर काटेरी कुंपण आहे. पण ते कापून ये-जा करता येईल, अशी वाट चोरांनी काढली आणि मांजरपावलांनी संकुलात येऊन झाडापर्यंत पोहोचले. टेकडीवर चार चोर दगडगोटे, गलोल घेऊन दबून बसले होते, दोन चोरांनी सुरक्षारक्षकाची गठडी वळली होती आणि चारजण झाड कापून आरामात चालत निघून गेले. ८-१० जण एकूण नक्कीच होते.  

हा रस्ता उताराचा आहे, आणि उताराच्या टोकाला एका विद्यमान माननीय मंत्रीमहोदयांचा बंगला आहे. तिथे एक छोटीशी पोलिसांची छावणीच आहे. हे थरारनाट्य अर्ध्या तासापेक्षा कमी वेळात संपले. आमचा हाकांचा सपाटा ऐकून पोलीस आले, तोवर चोरांचा कारभार संपला होता. मग येथील विभागीय पोलीस येऊन पहाणी करून त्यांनी तक्रार नोंदवून घेतली.  

या विषयाने आणि चर्चेने रात्री किती तरी वेळ झोप येईना. मृत्युमुखी पडलेल्या चंदनवृक्षाने जीवाला चांगलाच चटका लावला. तेव्हा जाणीव झाली की, हा परिसर आपल्या आयुष्याचा अविभाज्य घटक आहे आणि कुणीतरी विश्वासघाताने त्यातला एक भाग कापून काढला आहे.

थोर शास्त्रज्ञ जगदीशचंद्र बसूंनी सप्रमाण सिद्ध केले होते की, वृक्षसंपदा सजीव आहे आणि  भावभावनांनी युक्त आहे. त्या वृक्षाच्या आणि अवतीभोवतीच्या त्याच्या सहचरांच्या मूक आक्रंदनाने मन विषण्ण होऊन गेले.  कालची काळरात्र संपली.  सकाळ झाली. नेहमीसारखे पक्ष्यांचे कलरव ऐकू येईनात. गच्चीकडे धाव घेतली – एक वेडी आशा की कालची घटना हे स्वप्न असावे. पण कुठले काय? त्या सुंदर हिरव्या विणीला भले मोठे भगदाड पडले होते आणि त्यातून भक्क आभाळ भगभगीत नजर वटारून थेट समोर ठाकले होते….

© सुश्री सुलू साबणे जोशी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ पाळीव प्राण्यांना मिळते साप्ताहिक सुट्टी ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? इंद्रधनुष्य ?

पाळीव प्राण्यांना मिळते साप्ताहिक सुट्टी ☆ प्रस्तुती – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

आजही अशी अनेक क्षेत्रं आहेत, जिथे कामगारांना साप्ताहिक सुट्टी मिळत नाही. घरातले मदतनीस, सहाय्यक यांनाही आठवड्यातून एक दिवस सुट्टीची आवश्यकता असते, हे मान्य करणारे तर खूपच कमी आहेत.

या पार्श्वभूमीवर भारतातल्या झारखंड राज्यातल्या लाहेतर या गावातला एक प्रघात स्तुत्य आणि विचारप्रवृत्त करणारा आहे. हे गाव म्हणजे खरं तर छोटं खेडं. या गावात बहुतांश शेतकरी. त्यामुळे शेती आणि पाळीव प्राणी, हेच नागरिकांचे उत्पन्नाचे प्रमुख स्त्रोत समजले जातात. म्हणूनच या स्त्रोतांवर आपण मदतीसाठी अवलंबून आहोत, त्यांचा विचार माणुसकीच्या दृष्टिकोणातून करणं गरजेचं आहे, असे संस्कार गावकर्‍यांवर पिढीजात झालेले आहेत.

शंभर वर्षापूर्वी या गावात एका बैलाचा अति कष्टाने थकून मृत्यू झाला. त्याची बोच पिढ्यान् पिढ्या टिकून आहे. म्हणूनच प्राण्यांना विश्रांती मिळावी, त्यांचं आरोग्य उत्तम  राहावं, यासाठी आठवड्यातून एक दिवस पाळीव प्राण्यांना संपूर्ण आराम करू द्यायचा, असा नियम गावकर्‍यांनी केला. तेव्हापासून आजपर्यंत या नियमाचं पालन केलं जातय.

आठवडाभर काम केल्यानंतर एक दिवस सुट्टी मिळाली, तर माणूस जसा ताजातवाना होऊन नव्या ऊर्जेने कामाला लागतो, तसंच प्राण्यांच्या बाबतीतही घडत असल्याचं गावकरी सांगतात. या गावाच्या आजूबाजूच्या लोकांनाही ही संकल्पना आवडली आणि त्यांनी ती उचलून धरली. त्यामुळे या जिल्ह्यातील अनेक गावांमधल्या पाळीव प्राण्यांना आठवड्यातून एकदा हक्काची सुट्टी मिळते. कृषिप्रधान असणार्‍या आणि भूतदयेचा अंगीकार करणार्‍या आपल्या देशात, पुढील काळात आशा गावांची संख्या वाढणं आवश्यक आहे.

माहेर – सप्टेंबर २०२३ वरून (www.menakabooks.com)

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ समज – गैरसमज… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

समज  गैरसमज… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम 

तहानभुकेने अगदी व्याकुळ,घामाने चिंब झालेले तुम्ही  बऱ्यापैकी सावली असलेलं  झाड शोधून आसपास कुठे पाणी मिळतंय का,हे बघताय तेवढ्यात समोरच्या बिल्डिंगमधल्या खिडकीत उभ्या असलेल्या व्यक्तीकडे तुमचं लक्ष जातं आणि ती व्यक्ती तुम्हाला ‘पाणी हवंय का?’ विचारते.

त्या क्षणी तुम्हाला काय वाटेल ? त्या व्यक्तीबद्दल तुमचं मत काय होईल ?

ती व्यक्ती मग  खिडकी बंद करून तुम्हाला बिल्डिंगच्या खाली यायचा इशारा करते, तुम्ही लगबगीने तिथे जाता पण नंतरची १५ मिनिटं तिथे कोणीही येत नाही !

आता तुम्हाला त्या व्यक्तीबद्दल  काय वाटेल?

हे तुमचं दुसरं मत असणार आहे.

थोड्या वेळाने ती व्यक्ती तिथे येते आणि म्हणते, “सॉरी!मला जरा उशीर झाला; पण तुमची अवस्था बघून, मी तुम्हाला नुसत्याच  पाण्याऐवजी लिंबू पाणी आणलं आहे !”

आता तुमचं त्या व्यक्तीबद्दल मत काय आहे ?

तुम्ही एक घोट सरबत घेता आणि तुमच्या लक्षात येतं की अरे, ह्यात साखर अजिबातच नाहीये !

आता तुमचं त्या व्यक्तीबद्दल काय मत होईल?

तुमचा आंबट झालेला चेहरा पाहून ती व्यक्ती खिशातून हळूच एक साखरेचा छोटा पाऊच काढते आणि म्हणते

“तुम्हाला चालत असेल, नसेल आणि किती कमी- जास्त गोड आवडत असेल हा विचार करून मी मुद्दामच आधी साखर घातली नाहीये.”

आता तुमचं त्या व्यक्तीबद्दल काय मत झालं आहे ?

मग विचार करा :अवघ्या १५ -२० मिनिटात तुम्हाला तुमची मतं , तुमचे आडाखे भरभर बदलावे लागतायत. अगदीच सामान्यातल्या सामान्य परिस्थितीत क्षणात आपले विचार, आपली मतं तद्दन चुकीची ठरू शकतात, तर मग कोणाबद्दल फारशी काहीच माहिती नसताना, ती व्यक्ती पुढे कशी वागणार आहे, हे माहीत नसताना, केवळ वरवर पाहून, त्याबद्दल चुकीची समजूत करून घेणं योग्य आहे का ? जर नाही, तर एखाद्या बद्दल गैरसमज करून घेण्यापेक्षा त्या व्यक्तीला समजून घेणं योग्य नाही का ?

असं आहे की जोपर्यंत कोणी तुमच्या अपेक्षेप्रमाणे वागतंय तोपर्यंतच ते चांगले असतात, नाहीतर वाईट ? गैरसमज फार वाईट परिणाम करणारे ठरतात. तेव्हा एकमेकांना समजून घ्या.म्हणजे जीवनात समस्या निर्माण होणार नाहीत.

मत बनवताना घाई करु नये.

लेखक – अज्ञात 

संग्राहिका : सौ. दीप्ती गौतम

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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