हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग, डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स (divine, digital detox))

इस जगत की सबसे सुंदर चित्रकला का कक्ष है, हर दिन नवीनतम चित्र लेकर आनेवाली प्रकृति !

प्रिय पाठकगण,

कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

हर वर्ष पाच जून इस तारीख को हम विश्व पर्यावरण दिन मनाते हैं| युनायटेड नेशन्स युनो (United Nations Organization, UNO) की तरफ से इस अवसर की थीम है “सिर्फ एकही पृथ्वी” (Only One Earth) स्वीडन में इस वर्ष ५ जून के जागतिक पर्यावरण दिन के लिए मुख्य चर्चा का विषय था, प्रकृति से समन्वय साधकर शाश्वत हरित जीवनशैलीका स्वीकार करना, उसे वृद्धिंगत करना और उसका प्रचार करना! (to adopt, enhance and propagate sustainable greener life style in harmony with nature) इस वर्ष के ५ जूनको जागतिक पर्यावरण दिनकी पचासवीं वर्षगांठ थी! सुवर्णजयंती ही कह लीजिये!    

५ जून १९७२ को स्टोकहोम (Stockholm) यहाँ आयोजित युनो की परिषद में जागतिक पर्यावरण दिन मनाने का निर्णय लिया गया| “सिर्फ एक ही पृथ्वी” इसी विषय पर तब चर्चा हुई. उसके बाद प्रत्येक वर्ष इसी तारीख को जागतिक पर्यावरण दिन मनाया जा रहा है! इस दिन का मुख्य उद्देश है, पर्यावरण के बारे में अखिल विश्व में जागरूकता तथा वह सदाहरित कैसे रहे, उसके लिए परिणाम प्रदान करने वाली कार्यक्षम कृतिशीलता! मित्रों, पर्यावरण यानि हमारे आसपास का प्रान्त!

१) प्राकृतिक पर्यावरण अर्थात प्रकृति के तत्व (पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य) यह ईश्वर की देन और उपहार है| 

२) मानवनिर्मित/कृत्रिम पर्यावरण अर्थात मानवनिर्मित वस्तुएं (घर, कार, बिजली के उपकरण, आदि)  

यह प्रकृति पर मानव द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण सर पर चढ़ा कर्जा है! 

जैसे बालक की जननी एक ही होती है, वैसी ही हमारी परम प्रिय लाडली पृथ्वी भी एक ही है! अगर उसका कोई विकल्प नहीं है, तो क्या उसे बचाना आवश्यक नहीं? अगर वहीँ मुँह फेर ले तो हमें सर छुपाने के लिए भी कहीं जगह नहीं बचेगी! संयुक्त राष्ट्रसंघ के (यूएन) पर्यावरणविषय से सम्बंधित कार्यक्रम का मुख्य उद्दिष्ट है, प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन, इसे साध्य करने के लिए राजकीय, औद्योगिक और सामान्य नागरिकोंका सक्रिय सहभाग अत्यावश्यक है| यह कार्य कुछ कालावधि तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रत्येक क्षण के लिए है| इसीका अर्थ है कि इसे अपनी जीवनशैली में शाश्वतरूप में समाहित किया जाए| फिर हम एक दिन के लिए ही यह पर्यावरण दिन क्यों मनाएं? मित्रों, हमारी उम्र हर क्षण बढ़ती है, परन्तु क्या हम अपना जन्मदिन एक ही दिन नहीं मनाते? चाहे तो वैसा ही समझ लीजिये! अलावा इसके विविध कार्यक्रमों के कारण नए उत्साह का संचार होता है, नवीन कल्पनाओं के सुझाव दिए जाते हैं और उन्हें साकार करने के नए मार्ग भी दृष्टिगोचर होते हैं!

सच में पूछा जाए तो इस पृथ्वीवर अनगिनत जीव जंतू, पंछी, प्राणी, पौधे, वृक्ष और कीड़े सुख चैन से निवास कर रहे हैं, इनमें सबसे महत्व पूर्ण घटक है मानव प्राणी! प्रकृतिसे बेईमानी में अव्वल, पर्यावरण का सर्वाधिक सर्वनाश करनेवाला! परन्तु जिम्मेदारी लेने में सबसे पीछे रहने वाला यहीं मानव! केवल स्वयं का विचार करने वाला, स्वार्थी, जरुरत हो या ना हो, लापरवाही से प्रकृति की समृद्धि को लूटने कर उसे लहूलुहान करने वाला यहीं है बेईमान मानव! उसे प्राकृतिक सजीव सृष्टि से कोई लेना देना नहीं है| किसी एक ज़माने में अनाज पकाते समय हल्कासा धुआँ निकला था, वह बढ़ा और कंपाउंडिंग ब्याज की तरह बढ़ता ही रहा! औद्योगिक क्रांति के पश्चात् कारख़ानोंका यहीं काला-कलूटा धुआँ नाक और मुँह में कब गया यह पता ही नहीं चला! मानव का दिमाग विकसित होता रहा और पर्यावरण के प्रदूषण का आलेख चढ़ता हुआ आकाशभेद करता रहा! क्या यहीं विकास है? हम इसकी भारी कीमत अदा कर रहे हैं| जगत के सबसे अधिक प्रदूषित शहर हमारे देश में हैं, यह हमारी प्रगति है या अधोगति? ऐसा कहते हैं कि, सोते हुए को जगाना आसान है, परन्तु जागते हुए भी सोने का स्वांग भरने वाले को जगाना बिलकुल नामुमकिन है! 

परन्तु हमारे देश में क्या हर तरफ यहीं भीषण परिस्थिति है? क्या कालेकाले बादलों को कहीं प्रकाश का श्वेत किनारा है? इसका उत्तर हैं हाँ, यह अत्यंत हर्ष की बात है! मुझे यह उत्तर मिल गया मेघों के गृह (आलय), अर्थात मेघालय यहाँ पर बसे हुए, एक प्रकृति के झूले पर आनंद की लहरों के हिंडोले लेनेवाले मनोहर, मनोरम तथा मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस गांव में!    

भारत के उत्तरपूर्व सीमा पर बस्ती करने वाली सात बहनें अर्थात “सेव्हन सिस्टर्स” में से एक बहन मेघालय! दीर्घ हरित पर्वतश्रृंखला, कलकल प्रवाहित निर्झर तथा पर्वतोंपर ही कहीं कहीं बसे हुए छोटे बड़े गांव! अर्थात, मेघालय की राजधानी शिलाँग को आधुनिकता का स्पर्श है! (मित्रों,शिलाँग सहित मेघालय के चुनिन्दा स्थानों का सफर कीजिये मेरे साथ अगले भाग में!) आज का प्रवास अविस्मरणीय और अनुपमेय ही होगा मित्रों, यह भरोसा रखिये! बिलकुल तिनके-सा छोटासा गांव और मॉलीन्नोन्ग यह नाम! इस गांव का यह नाम थोडासा विचित्र ही लगता है न? ७० या उससे भी अधिक वर्षों पूर्व यह गांव जलकर राख हुआ था, गांव के लोग दूसरे स्थान पर चले गए, परन्तु जल्द ही वापस आकर उन्होंने नए जोश के साथ यह गांव फिर से बसाया! खासी भाषा में “maw”, का अर्थ है पत्थर और “lynnong” का अर्थ है बिखरे हुए! यहाँ के घरोंतक ले जाने वाली पथरीली गलियां इसकी साक्षी हैं|

किसी भी महानगर की एकाध गगनचुंबी इमारत में रहनेवाले लोगों की संख्या से भी कम (२०१९ के रिकॉर्ड के अनुसार जनसंख्या केवल ९००) गांववालों की बस्ती का यह गांव (पर्यटकों को भूलिए, क्यों कि वे आते रहते हैं और {मजबूरी में} जाते रहते हैं!) “पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला” इस खास नाम के जिलेमें आनेवाला! (in Pynursla community development block)! पर्यावरण के साथ सुंदर समन्वय साधते हुए मानव उतना ही सुंदर जीवन कैसे व्यतीत कर सकता है, इसका मैंने अबतक देखा हुआ सर्वोत्तम उदाहरण  है यह गांव! इसीलिए जागतिक पर्यावरण दिन के अवसर पर यह भाग केवल इस मनमोहिनी के कदमोंपे निछावर! क्या है ऐसा इस गांव में कि “तारीफ करूँ क्या उसकी, जिसने इसे बसाया!!!” ऐसा (शर्मिला सामने न होते हुए भी) गाने का दिल करता है! स्वच्छ और पवित्र गांव कैसा हो, तो ऐसा हो! मासिक पत्रिका डिस्कवरी इंडिया ने इसे एशिया खंड का सबसे स्वच्छ गांव (२००३), भारत का सबसे स्वच्छ गांव (२००५), करार देकर गौरवान्वित करने के बाद बहुत अवसरोंपर यह गांव प्रसिद्धी के शिखर पर विराजमान रहा! फिलहाल मेघालय के सबसे सुंदर तथा स्वच्छ गांव के रूप में इसका गुणगान हो रहा है! कहीं भी हमारी परिचित जोर-जबरदस्ती नहीं, कागजी फाइलों का व्याप नहीं। यहाँ के बहुसंख्य लोग ख्रिश्चन धर्मी और “खासी” जनजाति के हैं|(मेघालय में तीन मुख्य जनजातियां हैं, Khasis, Garos Jaintias) यहाँ ग्राम पंचायत है,  चुनाव में गांव का मुखिया चुना जाता है| फ़िलहाल श्री थोम्बदिन (Thombdin) ये इस गांव के मुखिया हैं| (उनके व्यस्त होने के कारण उनसे भेंट नहीं हो पाई!) यहाँ है एक बोर्ड, स्वच्छता का आवाहन करने वाला! स्वयं-अनुशासन  (हमारे पास सिर्फ स्वयं है), अर्थात, सेल्फ डिसिप्लिन क्या होती है (भारत में भी)यह यहीं अपने आंखोंसे देखना होगा, ऐसा मैं आवाहन करती हूँ! सामाजिक पहल से गांव का हर व्यक्ति गांव की सफाई-अभियान में शामिल है। यह सफाई-अभियान प्रत्येक शनिवार को स्फूर्ति से  अनायास चलाया जाता है। प्रत्येक स्थानीय की उपस्थिति अनिवार्य है एवं ग्राम प्रधान की जुबानी है निर्णायक! इसकी जड़ गांव वालों की नस-नस में समायी है, यह किसी राजनीतिक दल या नेता के बस का  काम नहीं! जबतक पर्यटक गांव में रहें कम से कम तबतक, इसी प्रवृत्ति की आशा गांववाले पर्यटकों से करते हैं| 

यहाँ प्राकृतिक रूप से बसे बांस के बनों का कितना और कैसे बखान करें! मुझे तो बांस इस शब्द से बेंत से ज्यादातर रोज खाई मार(रोज  कम से कम ५) ही याद आती है| उसमें से ९९. ९९% बार मार पड़ती थी, स्कूल में देरी से पहुँचने के लिए| (मित्रों, ऐसा कुछ खास नहीं, स्कूल की घंटी घर में सुनाई देती थी, इसलिए, जाएंगे आराम से, बगल में ही तो है स्कूल, यह कारण होता था!) यहाँ बांस का हर तरफ राज है! कचरा डालने हेतु जगह जगह बांस की बास्केट, यानी खोह(khoh), उसकी बुनाई इतनी सुंदर, कि, उसमें कचरा डालने का मन ही नहीं करेगा! यहाँ लोगोंके लिए धूप तथा बारिश से बचाव करने के लिए भी फिर बांस के अत्यंत बारीकी और खूबसूरती से बने प्रोटेक्टिव्ह कव्हर होते हैं! अनाज को सहेज कर रखने, मछली पकड़ने और आभूषण बनाने के लिए बांस ही काम आता है ! बांस की अगली महिमा अगले भाग में!

सवेरे सवेरे यहाँ की स्वच्छता-सेविकाएं कचरा इकठ्ठा करने के काम में जुट जाती हैं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं के बराबर, क्यों कि पॅकिंग के लिए हैं छोटे मोटे पत्ते! प्राकृतिक रूप से जो भी उपलब्ध हो उसी साधन संपत्ती का उपयोग करते हुए यहाँ के घर बनाये जाते हैं(फिर बांस ही तो है)! जैविक कचरा इकठ्ठा कर यहाँ खाद का निर्माण होता है| यहाँ है open drainage system परन्तु क्या बताएं, उसका पानी भी प्रवाही और स्वच्छ, गटर भी कचरे से बंद नहीं(प्रत्यक्ष देखें और बाद में विश्वास करें!) सौर-ऊर्जा का उपयोग करते हुए यहाँ के पथदीप स्वच्छ रास्तोंको प्रकाश से और भी उज्जवल बना देते हैं| अलावा इसके हर घर में सौर-दिये(बल्ब) और सौर-टॉर्च होते ही हैं, बारिश के कारण बिजली गायब हो तो ये चीजें काम आती हैं! प्रिय पाठकगण, ध्यान दीजिये, यह मेघालय का गांव है, यहाँ मेघोंकी घनघोर घटाएं नित्य ही छाई रहती, तब भी सूर्यनारायण के दर्शन होते ही सौर-ऊर्जा को सहेज कर रखा जाता है! और यहाँ हम सूर्य कितनी आग उगल रहा है, यह गर्मी का मौसम बहुत ही गर्म है भैय्या, इसी चर्चा में मग्न हैं! यहाँ होटल नहीं हैं, आप कहेंगे फिर रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या? क्यों कि पर्यटक के रूप में यह सुविधा अत्यावश्यक होनी ही है! यहाँ है होम् स्टे (home stay), आए हो तो चार दिन रहो भाई और फिर चुपचाप अपने अपने घर रवाना हो जाओ, ऐसा होता है कार्यक्रम! यहाँ आप सिर्फ मेहमान होते हैं या किरायेदार! मालिक हैं यहाँ के गांव वाले! हमें अपनी औकात में रहना जरुरी है, ठीक है न? कायदा thy name!  किसी भी प्रकारका धुआँ नहीं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं साथ ही पानी का प्रबंधन है ही(rain harvesting). अब तो “स्वच्छ गांव” यहीं इस गांव का USP (Unique salient Point), सन्मान निर्देशांक तथा प्रमुख आकर्षण बन चुका है! गांवप्रमुख कहता है कि इस वजह से २००३ से इस गांव की ओर पर्यटकों की भीड़ में बढ़ौतरी होती ही जा रही है! गांववालों की आय में ६०%+++ वृद्धि हुई है और इस कारण से भी यहाँ की स्वच्छता को गांव वाले और भी प्रेमपूर्वक निभाते हैं, सारा गांव जैसे अपना ही घर हो ऐसी आत्मीयता और ऐसा भाईचारा देखने को मिलते हैं यहाँ! मित्रों,यह विचार करने योग्य चीज है! स्वच्छ रास्ते और घर इतने दुर्लभ हो गए हैं, यहीं है कारण कि हम लज्जा के मारे सर झुका लें!

मावलीन्नोन्ग (Mawlynnong) इस दुर्घट नाम का कोई गांव पृथ्वीतल पर मौजूद है , इसका मुझे दूर दूर तक अता-पता नहीं था! वहां जाने के पश्चात् इस गांव का नाम सीखते सीखते चार दिन लग गए (१७ ते २० मई २०२२), और गांव को छोड़ने का वक्त भी आ गया! शिलाँग से ९० किलोमीटर दूर बसा यह गांव| वहां पहुँचने वाली राह दूर थी, घाट-घाट पर वक्राकार मोड़ लेते लेते खोजा हुआ यह दुर्गम और “सुनहरे सपनेसा गांव” अब मन में बांस का घर बसाकर बस चुका है! उस गांव में बिताये वो चार दिन न मेरे थे न ही मेरे मोबाइल के! वो थे केवल प्रकृति के राजा और उनके साथ झूम झूम कर खिलवाड़ करती बरसात के! मैंने आज तक कई बरसातें देखी हैं! अब तक मुंबई की बरसात मुझे सबसे अधिक तेज़ लगती थी! लेकिन इस गांव के बारिश ने मुंबई की घनघोर बारिश की “वाट लगा दी भैय्या”! और यहाँ के लोगों को इस बरसात का कुछ खास कुतूहल या आश्चर्य नहीं होता! शायद उनके लिए यह सार्वजनिक स्नान हमेशा का ही मामला है! अब मेघालय मेघों का आलय (hometown ही कह लीजिये) फिर यह तो उसीका घर हुआ न, और हम यहाँ मेहमान, ऐसा सारा मामला है यह! वह यहाँ एंट्री दे रहा है यहीं उसके अहसान समझ लें, अलावा इसके लड़कियां झूले और लुकाछुपी खेल कर थक जाती हैं और थोड़ी देर के लिए विश्राम लेती हैं, वैसे ही वह बीच बीच में कम हो रहा था| हमारा नसीब काफी अच्छा था, इसलिए उसके विश्राम की घड़ियाँ और हमारी वहां के प्राकृतिक स्थलों को भेंट देने की घड़ियाँ पता नहीं पर कैसे चारों दिन खूब अच्छी तरह मॅच हुईं! परन्तु रात्रि के समय उसकी और बिजली की इतनी मस्ती चलती थी, कि  उसे धूम ५ का ही दर्जा देना होगा और गांव की बिजली (आसमानी नहीं) को धराशायी करने वाले इस जबरदस्त आसमानी जलप्रपात के आक्रमण के नूतन नामकरण की तयारी करनी होगी!  

मॉलीन्नोन्ग सुंदरी: सैली!

खासी समाज में मातृसत्ताक पद्धति अस्तित्व में है! महिला सक्षमीकरण तो यहाँ का बीजमंत्र ही है| घर, दुकान, घरेलु होटल और जहाँ तक नजर पहुंचे वहीँ महिलाऐं, उनकी साक्षरता का प्रमाण ९५-१००%. आर्थिक गणित वे ही सम्हालती हैं! बाहर काम करने वाली प्रत्येक स्त्री के गले में स्लिंग बॅग(पैसे के लेनदेन के लिए सुविधाजनक व्यवस्था) | हमने भी एक दिन एक घर में और तीन दिन एक अन्य घर में वास्तव्य किया! वहां की मालकिन का नाम Salinda Khongjee, (सैली)! यह मॉलीन्नोन्ग सुंदरी यहाँ के क्यूट, नटखट और चंचल यौवन की प्रतिनिधि समझिये! फटाफट, द्रुत लय में काम निपटने वाली, चेहरे पर कायम मधुर हास्य! यहाँ की सकल स्त्रियों को मैंने इसी तरह काम निपटते देखा! मैंने और मेरी लड़की ने इस सुन्दर सैलीसे छोटासा साक्षात्कार किया| (इस जानकारी को प्रकाशित करने की अनुमति उससे ली है) वह केवल २९ वर्ष की है! ज्यादातर उसके पल्लू अर्थात जेन्सेम में छुपी (खासी पोशाक का सुंदर आविष्कार यानी जेन्सेम, jainsem) दो बेटियां, ५ साल और ४  महीने की, उनके पति, Eveline Khongjee (एवलिन), जिनकी उम्र केवल २५ साल है! हमने जिस घर में होम स्टे कर रहे थे वह घर था सैलीका और हमारे इस घर के बाएं तरफ वाला घर भी उसीका है, जहाँ वह रहती है! हमारे घर के दाहिने तरफ वाला घर उसके पति का मायका, अर्थात उसकी सास का और बादमें विरासत के हक़ के कारण उसकी ननद का! उसकी मां थोड़े ही अंतर पर रहती है|सैली की शिक्षा स्थानिक स्कूल और फिर सीधे शिलाँग में जाकर  बी. ए. द्वितीय वर्ष तक हुई|(पिता का निधन हुआ इसलिए अंतिम वर्ष रहा गया!) विवाह सम्पन्न हुआ चर्च में (धर्म ख्रिश्चन)| यहाँ पति विवाह के बाद अपनी पत्नी के घर में जाता है! अब उसके पति को हमारे घर के सामने से(उसके और सैली के)मायके और ससुराल जाते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था| सैली को भी अगर किसी चीज की जरुरत हो तो फटाफट अपनी ससुराल में जाकर कभी चाय के कप तो कभी ट्रे जैसी चीजें जेन्सेम के अंदर छुपाकर ले जाते हुए मैं देखती तो बहुत आनंद आता था! सारे आर्थिक गणित अर्थात सैली के हाथ में, समझे न आप! पति ज्यादातर मेहनत के और बाहर के काम करता था ऐसा मैंने निष्कर्ष निकाला! घर के ढेर सारे काम और बच्चियों की देखभाल, इन सब के रहते हुए भी सैलीने हमें साक्षात्कार देने हेतु समय दिया, इसके लिए मैं उसकी ऋणी हूँ ! इस साक्षात्कार में एक प्रश्न शेष था, वह मैंने आखिरकार, उसे आखरी दिन धीरेसे पूछ ही लिया, “तुम्हारा विवाह पारम्परिक या प्रेमविवाह? इसपर उसका चेहरा लाज के मारे गुलाबी हुआ और “प्रेमविवाह” ऐसा कहकर सैली अपने घर में तुरंत भाग गई! 

सैली से मिली जानकारी कुछ इस तरह थी:

गांव के लोग स्वच्छता के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं| यूँ सोचिये कि स्वच्छता अभियान में भाग नहीं लिया तो क्या? गांव के नियमों का भंग करने के कारण गांवप्रमुख की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है! उसने बताया, “मेरी दादी और माँ ने गांव के नियम पालने का पाठ मुझे बचपन से ही पढ़ाया है”| यहाँ के घर कैसे चलते हैं, इस प्रश्न पर उसने यूँ उत्तर दिया, “होम स्टे” अब आमदनी का अच्छा साधन है! अलावा इसके, शाल और जेन्सेम बनाना या बाहर से लेकर बिकना, बांस की आकर्षक वस्तुएं पर्यटकों को बेचना| यहाँ की प्रमुख फसलें हैं, चावल, सुपारी और अन्नानास, संतरा, लीची तथा केले ये फल! प्रत्येक स्त्री समृद्ध, खुदका घर, जमीन और बागबगीचे! परिवार खुद ही धान और फल निर्माण करता है| वहां एकबार (तथा कई बार) फल बेचनेवाली स्त्री ने ताज़ा अन्नानास काटकर हमें झाड़ के तने की परत में सर्व्ह किया, वह अप्रतिम जायका अब तक तक जुबान पर चढ़ा है! इसका कारण है,”जैविक खेती”! फलों को निर्यात करके भी पैसे कमाए जाते हैं, अलावा इसके, पर्यटक “बारो मास” रहते ही हैं! (परन्तु लॉकडाऊन में पर्यटन काफी कम था|)

इस गांव  में सबसे खूबसूरत चीज़ क्या है, यह सोचें तो वह है, यहाँ की हरितिमा, यह रंग यहाँ का स्थायी भाव समझिये! प्राकृतिक पेड़पत्ते और फूलों से सुशोभित स्वच्छ रास्तों पर मन माफिक और जी भर चहल कदमी करें! हर घर के सामने रमणीय उपवन का एहसास हो, ऐसे विविध रंगों के पत्ते और सुमनों से सुसज्जित बागबगीचे, घरों में छोटे बड़े प्यारे बच्चे! उनके लिए पर्यटकों को टाटा करना और फोटो के लिए पोझ देना हमेशा का ही काम है! मित्रों, यह समूचा गांव ही फोटोजेनिक है, अगर कैमरा हो तो ये क्लिक करूँ या वो क्लिक करूँ यह सोचने की चीज़ है ही नहीं! परन्तु मैं यह सलाह अवश्य दूँगी कि पहले आँखों के कैमेरे से इस प्रकृति के रंगों की रंगपंचमी को जी भरकर देखें और बादमें निर्जीव कॅमेरे की ओर प्रस्थान करें! गांव के किनारोंको छूता हुआ एक जल प्रवाह है (नाला नहीं!) उसके किनारों पर टहलने का आनंद कुछ और ही है! पानी में खिलवाड़ करें, परन्तु अनापशनाप खाकर कहीं भी कचरा फेंका तो? मुझे पूरा विश्वास है कि, बस अभी अभी सुस्नात सौंदर्यवतीके समान प्रतीत हो रहे इस रमणीय स्थान का अनुभव लेने के पश्चात् आप तिल के जितना भी कचरा फेकेंगे नहीं! यहाँ एक balancing rock” यह प्राकृतिक चमत्कार है, तस्वीर तो बनती है, ऐसा पाषाण! ट्री हाउस, अर्थात पेड़ के ऊपर बना घर, स्थानीय लोगों द्वारा उपलब्ध सामग्री से निर्मित, टिकट निकाओ और देखो, बांस से बने घुमावदार घनचक्कर के ऊपर जाते चक्कर ख़त्म होते पेड़ के ऊपर बने घर में जाकर हम कितने ऊपर आ पहुंचे हैं इसका एहसास होता है! नीचे की और घर की तस्वीरें तो बनती ही हैं जनाब! शहरों में भी घरों के लिए जगह न हो तो यह उपाय विचारणीय है, परन्तु, मित्रों क्या शहर में ऐसे पेड़ हैं? यहाँ तीन चर्च हैं, उसमें से एक है “चर्च ऑफ द एपिफॅनी”, सुंदर रचना और निर्माण, वैसे ही पेड़ पौधे और पुष्पों की बहार से रंगीनियां बिखेरता संपूर्ण स्वच्छ वातावरण| अंदर से देखने का अवसर नहीं मिला क्यों कि, चर्च निश्चित दिनों में और निश्चित समय पर खुलता है! 

अब यहाँ की सर्वत्र देखी जानेवाली आदत बताती हूँ, हमेशा पान खाना, वह यहाँ के लोगों के जैसा सादा, पान के टुकड़े, हलकासा चूना और पानी में भिगोकर नरम किये हुए सुपारी के बड़े टुकड़े! फलों और सब्जियों की दुकानों में सहज उपलब्ध! (फोटो देखकर समझ जाएंगे!) वह खाकर (चबाकर) यहां की सुन्दर नवयुवतियों के होंठ सदैव लाल रहते हैं! किसीभी लिपस्टिक के शेड के परे मनभावन प्राकृतिक लाल रंग! यहाँ तक कि आधुनिक स्कूल कॉलेजों की लड़कियां भी इसकी अपवाद नहीं थीं! पुरुष भी पान खानेवाले, लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात है, सचमुच का आश्चर्य तो अब आगे है! मित्रों, एक चीज जो मैंने जान- बूझकर, बिलकुल मायक्रोस्कोपिक नजर से देखी, कहीं पान की पिचकारियां नज़र आ रही हैं? ! परन्तु यह गांव ठहरा स्वच्छता का पुजारी! फिर यहाँ पिचकारियां कैसे होंगी? इसका मुझे सचमुच ही अचरज भरा आनंद हुआ! यह सबकुछ आदत के कारण गांव वालों के रगरग में समाया है!

यहाँ कब पर्यटन करना चाहिए? अगर सुरक्षित तरीकेसे घूमना है और ट्रेकिंग करना है तो अक्टूबर महीना उत्तम है, परन्तु पेड़पौधों की हरियाली थोड़ी कम और निर्झरों के जलभंडार कम होंगे| परन्तु अगर हरीतिमा के रंगों से रंगे रंगीन वनक्षेत्र और जलप्रपातों से लबालब भरा मेघालय देखना हो तो मई से जुलाई ये महीने सर्वोत्तम हैं ! परन्तु ….. सावधान! घूमते समय और ट्रेकिंग करते समय बहुत सावधानी बरतना आवश्यक है! वैसे ही आकाशीय बिजली की अधिकतम व्याप्ति के कारण जमीं की बिजली का बारम्बार अदृश्य होना, यह अनुभव हमने हाल ही में लिया!

मित्रों, अगर आप को टीव्ही, इंटरनेट, व्हाट्सअँप और चॅट की आदत है (मुझे है), तो यहाँ आकर वह भूलनी होगी! हम जब इस गांव में थे, तब ९०% समय गांव की बिजली गांव चली गई थी! एकल  सोलर दिये को छोड़ शेष दिये नहीं, गिझर नहीं, नेटवर्क नहीं, सैली के घर में टीव्ही नहीं!  पहले मुझे लगा, अब जियेंगे कैसे? परन्तु यह अनुभव अनूठाही था! प्रकृति की गोद में अनुभव की हुई एक अद्भुत अविस्मरणीय और अनकही अनुभूती! मेरे सौभाग्य से प्राप्त डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स!

प्रिय पाठकगण, मॉलीन्नोन्ग का महिमा-गीत अभी शेष है, और मेरी उर्वरित मेघालय यात्रा में भी आप को संग ले चलूँगी, अगले भागों में!!!

तब तक मेघालय के मेहमानों, इंतज़ार और अभी, और अभी, और अभी…….!

तो, बस अभी के लिए खुबलेई! (khublei यानी खासी भाषा में खास धन्यवाद!) 

क्रमशः -1

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

८ जून २०२२     

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #192 ☆ संतोष के दोहे  – मत की कीमत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – मत की कीमतआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 192 ☆

☆ संतोष के दोहे  – मत की कीमत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

गारंटी पर दे रहे, फिर गारंटी लोग

आपके एक वोट से, बदल गये सब योग

मत की कीमत जानिए, ये जीवन आधार

इसे कभी मत बेचिये, विधि की यही पुकार

जात-पात को छोड़कर, देखें काबिल लोग

उनको ही चुनिये सदा, जिन्हें न कुर्सी रोग

देकर लालच मुफ्त का, चाह रहे सब जीत

सोच समझ कर दीजिये, मत मेरे प्रिय मीत

करे कोई तुष्टिकरण, कोई फेके जाल

करें प्रश्न खुद से जरा, समझें तब सच हाल

राष्ट्र-धर्म सबसे बड़ा, कहता यह “संतोष”

भारत माँ की शान ही, जीवन का सच कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रस्त्याचे मनोगत ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रस्त्याचे मनोगत… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

सपाट, सुंदर, नीट-नेटके रूप आमुचे होते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||धृ. ||

तुम्ही तुडवावे, आम्ही सोसावे, ब्र न काढिला कधीही

विस्कळीत, विकलांग जाहलो, केवळ तुमच्या पायी

भरणही नाही, पोषण नाही, बघत राहता नुसते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||१||

खडी पसाभर, सिमेंट चिमूटभर, वरवर भुरभुरता

समजूत काढावयास हलका रोलर फिरविता

आज बुजविले, उद्या उखडले, शासन डोळे मिटते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||२||

रेल्वे स्थानक वा बस डेपो, तुम्हास गाठून देतो

खेड्यामधुनी शहरामध्ये आम्हीच की पोहचवितो

कृतघ्न होऊन कसे विसरला, अपुले अतुट नाते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||३||

धिक्कार असो की प्रकरण अपुले कोर्टामधी जाते

कृध्द होऊनी न्यायदेवता, तुम्हास फटकारिते

फसवी आश्वासने ऐकूनी, मन आक्रंदून उठते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||४||

आमची दुर्दशा, तुम्हास बाधा, जाणून घ्या धोके

अगणित हिसके, कंबर लचके, ढासळती मणके

स्पष्ट बोलतो, राग नसावा, येतो आता नमस्ते

खड्ड्यामध्ये आता राहतो, नाव आमुचे रस्ते ||५||

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #199 ☆ वादळातील दीपस्तंभ तू….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 199 – विजय साहित्य ?

☆ वादळातील दीपस्तंभ तू…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

हे भीमराया गाऊ किती रे

तुझ्या यशाचे गान

जगण्यासाठी दिले आम्हाला

अभिनव संविधान… !

 

तूच घडवले  भीमसैनिका

जगती केले रे बलवान

शिका लढा नी संघटीत व्हा

जपला  स्वाभिमान…. !

 

माणूस होतो माणूस राहू

जातीभेदा नाही स्थान

ज्ञानी होऊ ज्ञान मिळवुनी

घडवू देश महान…. !

 

शिक्षण घेऊन झाला ज्ञानी

दिलेस आम्हा धम्माचे वरदान

प्रज्ञा, शील आणि करूणा

जीवनज्योत प्रमाण .. !

 

वादळातील दीपस्तंभ तू

चवदार तळ्याची आण

तुझ्या रूपाने पुन्हा मिळाला

जीवनी हा सन्मान…. !

 

चंद्र, सूर्य, जोवरी अंबरी

आम्हा तुझा  अभिमान

निळ्या नभाचे छत्र आमुचे

तू जगताची शान… !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ मनचाफा ☆ सुश्री मानसी चिटणीस

सुश्री मानसी विजय चिटणीस

परिचय 

ग्रंथसंपदा : * सृजनभान, सांजवर्खी शकुन, माझ्यातील बुद्धाचा शोध हे तीन कवितासंग्रह . उत्सव कथांचा हा प्रातिनिधिक कथा संग्रह प्रकाशित नामांकित मासिकातून लेख प्रकाशित . वृत्तपत्रांसाठी स्तंभलेखन , तसेच सदर लेखन. विविध विषयांच्या पुस्तकांचे परिक्षण, परिचय व रसग्रहण वर्तमान पत्रातून प्रसिद्ध. २० हून अधिक पुस्तकांसाठी प्रस्तावना लेखन* मराठी सोबतच हिन्दी व इंग्रजी कविता लेखन *In Marathi, बोभाटा या प्रसिद्ध पोर्टल साठी लेखन

सामाजिक : १. समरसता साहित्य परिषद पिंपरी-चिंचवड शाखा- कार्यवाह२. महाराष्ट्र राज्य कामगार साहित्य परिषद- कार्यकारी विश्वस्त ३. पद्मश्री नारायण सुर्वे साहित्य व कला आकादमी- मुख्य कार्यवाह ४. यशवंतरावजी चव्हाण प्रतिष्ठान, पिंपरी-चिंचवड विभाग- सदस्य.

मानसन्मान व पुरस्कार:

१. शब्दधन काव्यमंच यांचा ‘छावा’ पुरस्कार २. नवयुग श्रावणी काव्य स्पर्धेत ‘प्रथम’ परितोषिक ३. कोकण म सा प राज्यस्तरीय काव्यस्पर्धेत द्वितीय परितोषक प्राप्त; चारूतासागर प्रतिष्ठान यांचे उत्कृष्ट लेख पारितोषक४. सर्वोदय साहित्य पुरस्कार, कोल्हापूर ५. बाल कुमार साहित्य सभा, कोल्हापूर यांचा ‘साहित्यसृजन’ पुरस्कार
६. ‘आवाज महाराष्ट्राचा’ या न्यूज चॅनल चा ‘क्रांतीज्योती’ पुरस्कार ७. महाकवी कालिदास प्रतिष्ठान,पुणे यांचा ‘कालिदास काव्यगौरव पुरस्कार’ ८. ग.दी.मा.प्रतिष्ठान,पुणे महाराष्ट्र साहित्य परिषद,भोसरी व कामगार साहित्य परिषद, महाराष्ट्र राज्य यांचा ‘ग.दी.मा. साहित्य पुरस्कार ‘ ९. करम प्रतिष्ठान चा ‘करमज्योत’ पुरस्कार १०. डॉ. अशोक शिलवंत काव्यभूषण पुरस्कार.

मराठी चित्रपटासाठी गीतलेखन, चित्रपट कथालेखन व रेडियोसाठी जाहिरात लेखन, विविध कादंबर्‍या, कथासंग्रह, काव्यसंग्रह यांचे शब्दांकन, विविध संस्था,संमेलनात व्याख्याती म्हणून सहभाग,

स्वत:च्या कथांच्या अभिवाचनाचे प्रयोग. कथाकथन, कविता लेखन,अभिवाचन, बालगीते,नाट्यछटा स्पर्धा यात परीक्षक म्हणून सहभाग *’कवितासखी’ या स्वरचित कार्यक्रमाचे सादरीकरण तसेच ‘ ही कविता आली तुम्हास भेटायला’ या समूह कवितांच्या कार्यक्रमाचे आयोजन *विविध शाळांमध्ये कथाकथनाचे कार्यक्रम

उपक्रम : ‘कवितासखी’ हा स्वरचित कवितांचा कार्यक्रम

? विविधा ?

☆ “मनचाफा…” ☆ सुश्री मानसी विजय चिटणीस ☆

संध्याकाळची गडबड चालू होती.. मी आपली स्वयंपाकात मग्न. लौकर स्वयंपाक संपवून मला लिहायला बसायचे होते. मी पोळ्या करता करता त्याला हाक मारली पण रोजच्यासारखी आलो, आलो ची आरोळीही आली नाही की काय गं सारखी हाका मारत असतेस ची भुणभुणही आज नव्हती. कुठे गेला हा असा संध्याकाळचा? असा मी विचार करतानाच

हयाने मागून येवून घट्ट गळामिठी मारली.. मी ओरडले,

 “अरे काय हे !!!दिसत नाही का पोळ्या करतेय.. एवढा मोठा झालास तरी खोड्या काही संपत नाहीत तुझ्या. “

 तो हिरमुसला… पटकन हातातल्या रूमालाची पुरचूंडी त्याने कट्ट्यावर ठेवली आणि गेला… मी लक्षच नाही दिले.. नंतर तो ही अजिबात आला नाही लूडबूड करायला..

जेवायची वेळ झाली तरी नेहमीसारखा भूक म्हणून पण ओरडला नाही.. मीच दोन हाका मारल्या पण एक नाही की दोन नाही. अचानक लक्ष कट्ट्यावरच्या रूमालाकडे गेलं. उघडून पाहिलं तर मला आवडणारी चाफ्याची फूलं होती.. माझी चटकन ट्यूब पेटली आणि लक्षात आलं.. महाराज कुठे गेले होते ते. मी तसाच रूमाल घेवून त्याच्या खोलीत गेले.. खिडकीतून बाहेर बघत पाठमोरा उभा होता.. माझ्या हातातली फुलं बघून मला म्हणाला, ..

“आई… तुला आवडतात ना गं.. म्हणून तेजस च्या बागेतल्या झाडाची तोडून आणलीत.. मी स्वतः चढलो गं वर…. हे बघ ना कित्ती सुंदर आहेत ना… !!”

खरंच नुकतीच उमललेली ती चाफ्याची फुलं खूप सुंदर होती.. आणि त्यांच्या दरवळानं माझेही हात सुगंधीत झाले होते. मी क्षणभर तो सुगंध मनात भरून घेतला.. माझे डोळे भरून आले… त्याला जवळ घेतलं आणि पाठीवरून हात फिरवतं राहीले काही न बोलता.. सुगंध काय फक्त फुलांनाच येतो? नात्यातला सुगंधही असाच अविट असतो. काही दरवळ फक्त नाकाचीच नाही तर मनाचीही तृप्ती करतात. नात्यांचे दवरळही तसेच असतात काहीसे. निरनिराळ्या भावनांचे, तशाच वेगवेगळ्या फ्लेवर्सचे प्रत्येक  नात्याचा गंध वेगळा, तसाच दरवळही वेगळा. जे नातं पुन्हा जगावासं वाटतं त्या नात्याचा फ्लेवर आठवायचा आणि अनुभवायचे त्यांचे दरवळ. खासकरून त्यात मायेचा ओलावा मिसळला असेल तर ते तसेच दरवळत राहतात वर्षानुवर्ष..

काही नाती जन्मभर जोडलेली असतात काही बंधनात अडकतात तर काही जपली जातात कोणतेही नाव न देता.. एकमेकांना सांगितले जाते, नात्याला काही नाव नसावे तु ही रे माझा मितवा.

हा जो काही नात्यांचा बंध असतो तो सहवास, आपुलकी, माया अशा धाग्यांनी गुंफला गेला तरच चिरकाल टिकतो.. त्यातली सहजता तितकीच महत्वाची. आपण जितके एखादे नाते सहजतेने वागवू तेवढे ते फुलत जाते, मोकळे होते. हे सहजपण म्हणजे तरी काय? तर उत्स्फुर्तता जपणे. क्रियेला प्रतिक्रिया किंवा प्रतिसाद देणे आणि गुंफण गुंफत राहणे. हे नात्यांचे रेशिमबंध घट्ट असतील तर त्यातील मऊ, मुलायम, स्निग्ध भाव.. आणि तेच बंध उसवलेले, विसविशीत असतील तर त्यातील टोकदारपणा, शुष्कता.. हे देखील तेवढ्याच संयतपणे समजून घेण्याचा आणि समजवण्याचा प्रयत्न करणे हे देखील गुंफण जपणेच होय..

सहजतेवरून आठवले नाती जपताना, गुंफताना माणसं घडवायची पण आपल्या हातातली छिन्नी दिसू द्यायची नाही.. मुळात घडवायची हा शब्दही चूकच.. त्यांना त्यांच्या कलेन घडू द्यायचं.. त्यांच्या जडणघडणीचा साक्षीदार व्हायचं.. शान्तपणे सोबत करायची.. अविर्भावाचा असुरी रंग स्वतःला स्पर्शू द्यायचा नाही… अशा नितळ प्रक्रियेतच खरेपण जोपासायचे ही नात्यांची विण आणि गुंफण.. मनात विचारांच्या सरी झिरझिरू लागल्या आणि डोळ्यांतून ओघळताना हातातल्या चाफ्याला भिजवू लागल्या.

माझे भरलेले डोळे पाहून त्याचा रुसवा क्षणात छू.. झाला. तो गोंधळला. त्याला कळेना आपली आई का रडतेय?…

“आई.. रडू नको ना गं.. ! काय झालं तुला…. ?तू रागावलीयस का माझ्यावर? अगं काय झालं तुला?” तो विचारत राहीला..

काहीच नाही बोलले.. पण एक मात्र नक्की,      नात्यांतले हे दरवळ नकळत जपताना         आज तो माझी आई झाला होता..

© सुश्री मानसी विजय चिटणीस

केशवनगर, चिंचवड, पुणे. फोन : ०२०२७६१२५३१ / ९८८११३२४०७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ क्रायसिस मॅनेजमेंट – भाग-2 ☆ सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? जीवनरंग ?

☆ क्रायसिस मॅनेजमेंट – भाग-2 ☆ सौ. गौरी गाडेकर ☆

(सुशांत आतल्या खोलीत बसून शांतपणे लिहीत होता. ती रात्रीच्या स्वयंपाकाला लागली.) – इथून पुढे 

सुरेशला यायला उशीर झाला.

‘‘अहो, मी तुम्हाला फोन केला होता. निरोप ठेवला होता. ”

‘‘मी बाहेरच्या बाहेरच आलो; पण कशाला केला होतास फोन?”

‘‘अहो, सुशांतची प्रयोगाची वही हरवली. उद्या… ”

पुढचं ऐकूनही न घेता त्याने ओरडायला सुरवात केली.

याला आधी आपल्या वस्तू सांभाळायला नको. दप्तर एकीकडे, कंपास एकीकडे, घरभर पसारा पडलेला असतो. व्यवस्थितपणा म्हणून नाहीच अंगात. तू आणखी लाड कर त्याचे… ”

‘‘अहो, ऐका तरी. त्याने नाही हरवली वही. त्याने बाईंना दिली होती गेल्या आठवड्यात. त्यांच्याकडून हरवली. ”

‘‘काय? बाईंकडून हरवली? कोण बाई आहेत त्या? प्रिन्सिपलकडे कम्प्लेन्ट केली पाहिजे. मुलांच्या वह्या हरवतात म्हणजे काय? हेच संस्कार करणार मुलांवर? एक्सप्लेनेशन मागा म्हणावं त्यांच्याकडून. आज वही हरवली, उद्या पेपर हरवतील. आणि सांगतील गठ्ठ्यात पेपर नव्हता त्याअर्थी बसलाच नसणार परीक्षेला. ”

बाबांचा आवाज ऐकून धावत आलेला सुशांत रडवेला झाला होता. सुधानं त्याला खुणेनंच आत जाऊन लिहायला सांगितलं.

‘‘अरे बापरे, प्रयोगाची वही नसेल तर प्रयोगाची परीक्षाही जाणार? म्हणजे वही आणि प्रयोग – दोन्हींचे मार्क गेले. शास्त्रात कमी मार्क म्हणजे पुढच्या वर्षीही त्याची ‘अ’ तुकडी गेली. म्हणजे पुढच्या वर्षीही तो मार खाणार. त्याचा परिणाम पुढे एसएससीलाही कमी मार्क मिळणार म्हणजे चांगल्या कॉलेजात ऍडमिशन नाही. चांगलं कॉलेज नाही म्हणजे बारावीलाही बोंबला. मग काय? व्हा कसंबसं बीएससी! पुढे नोकरी मिळतानाही मारामार… ”

जेवणं झाली तरी सुरेशची बडबड चालूच होती.

‘‘अहो, उद्या लवकर निघणार ना तुम्ही?”

‘‘कोणी सांगितलं?”

‘‘सुशांतच्या शाळेत जाणार आहात ना?”

‘‘कशाला?”

‘‘प्रिन्सिपलना भेटायला. ”

‘‘असल्या हजामती करायला मला अजिबात वेळ नाही. तूच जा आणि चांगली सालटी काढ त्यांची. ”

मागचं आवरून बिछाने घालून सुधा सुशांतच्या शेजारी येऊन बसली.

‘‘आई, तू मॅडमना तुंगारेबाईंचं नाव नको सांगूस. तुंगारेबाई खूप चांगल्या आहेत. मॅडम त्यांना रागावतील. शिवाय तू तक्रार केल्याचं बाकीच्या बाईंना कळलं तर त्या माझ्यावरच वैतागतील आणि मला मुद्दामहून कमी मार्क देतील.

‘‘मी मॅडमना भेटायला नाही येणार, ” सुधा सुशांतच्या केसातून हात फिरवत म्हणाली, ‘‘फक्त सगळं व्यवस्थित होतं की नाही ते बघायला येणार. शाळेच्या बाहेरच थांबीन मी. तुंगारेबाईंनी वहीवर सह्या केल्या, की माझं समाधान होईल. नाहीतर दुपारी तू घरी येईपर्यंत माझा जीव टांगणीला लागणार. ”

सुशांतचं समाधान झालं.

‘‘किती राह्यलंय रे बाळा?”

‘‘दोनच पानं आहेत आता. ”

‘‘मग झालं?”

‘‘हो. ”

‘‘आणि आकृत्या?”

‘‘मघाशी लिहून लिहून कंटाळा येत होता ना. तेव्हा आकृत्या काढून घेतल्या. त्यामुळे आकृत्याही संपल्या आणि झोपही गेली. ”

‘‘माझं सोनुलं ग ते. ” सुधाने त्याचा पापा घेतला.

सुशांतने लिहायला सुरवात केली.

‘‘आई, झालं पुरं. ”

‘‘अरे वा रे माझ्या छाव्या! बघ, अर्ध्या दिवसात अख्खी वही लिहून काढलीस रे सोन्या. ”

‘‘कव्हर घालशील तू? आणि उद्या लवकर उठव हं नक्की. ’’

सुधानं सुशांतच्या हाताला तेल लावून मालिश केले. गाढ झोपलेल्या बाळाचा पापा घेतला.

वहीला कव्हर घालून त्यावर नाव घालून ती त्याच्या दप्तरात ठेवली.

‘तसा त्रास पडला माझ्या बाळाला, पण उद्या परीक्षेला जाताना टेन्शन नसणार. ’

सकाळी शाळेच्या दारातच तुंगारेबाई भेटल्या. धावत जाऊन सुशांतनं त्याची प्रयोगाची वही आणि झेरॉक्स त्यांच्या हातात दिली.

‘‘अरे वा! अख्खी वही लिहून काढलीस तू?”

‘‘होय बाई. ”

पाठीवर मिळालेल्या बाईंच्या शाबासकीने आदल्या दिवशीचा सगळा शीण पळून गेला.

बाई स्टाफरूममध्ये गेल्या. पाच मिनिटात मार्क आणि सह्या आटपून त्यांनी वही सुशांतच्या हातात दिली. त्यापूर्वी बाहेर उभ्या असलेल्या सुधाला वही उंचावून खूण करायला विसरल्या नाहीत त्या.

सुधा शांत मनानं घरी आली.

‘‘भेटलीस प्रिन्सिपलला? चांगला दणका दाखवला पाहिजे त्या बाईला. ”

सुरेशकडे लक्ष द्यायला वेळ तरी कुठे होता तिला? ती घाईघाईत त्याच्या नाश्त्याच्या, डब्याच्या तयारीला लागली. सुरेश ऑफिसात गेल्यावर तिनं मस्तपैकी चहा केला. एक एक गरमगरम घोट घेत कालच्या दिवसाचा समाचार घ्यायला सुरवात केली. काल हे संकट येऊन कोसळल्यावर ती कशी भेदरून गेली, ‘त्यां’ना फोन करण्याचा किती प्रयत्न केला, ‘ते’ येऊन संकटातून सोडवणार म्हणून…

पण ‘ते’ आल्यावर तर त्यांनी ओरडायला सुरवात केली. परीक्षेला बसायला मिळणार नाही म्हटल्यावर तर दादाच्या भाषेत सांगायचं तर ‘पॅनिकी’च झाले. बडबडत बडबडत पार त्याच्या नोकरीपर्यंत पोचले.

एवढं करून काय? तर उपाय सांगितलाच नाही. उलट प्रिन्सिपलशी भांडून परिस्थिती आणखीच बिकट झाली असती. बिचा-या सुशांतची तर वाटच लागली असती. त्याउलट आपण किती शांतपणे, न चिडता; पण तातडीनं योग्य निर्णय घेतले आणि त्यांची व्यवस्थित अंमलबजावणी केली.

मग तिनं मागच्या गोष्टीही तपासल्या.

लहानपणी सुशांतला ताप आल्यावर तिनं मिठाच्या पाण्याच्या घड्या घातल्या होत्या. सुरेश मात्र ताप कसा आला, याचीच कारणमीमांसा करत बसला होता.

मागे सुधा मावसबहिणीच्या लग्नाला निघाली होती. नेहमीप्रमाणे सुरेश बाहेरगावी गेला होता. चार – पाच वर्षांच्या सुशांतला घेऊन सुधा जाणार होती. तसा तीन तासांचाच प्रवास होता. बसचं रिझर्व्हेशनही केलं होतं.

पहाटे लवकर उठून सगळं आटोपून सुधा निघाली. दाराला कुलूप लावलं आणि सुशांतला ‘शी’ झाली. मग पुन्हा घर उघडून सुशांतचं सगळं झाल्यावर बस स्टेशनवर पोचेपर्यंत बस निघून गेली होती.

सुधा रडवेली झाली. याच्या नंतरची बस अडीच तासांनी म्हणजे लग्न चुकणार.

ती कंट्रोलरकडे गेली – ‘‘सर, आता सुटलेली बस मला पुढच्या स्टॉपवर मिळू शकेल का?”

‘‘का? काय झालं?”

मग तिने थोडक्यात सगळं सांगितलं.

‘‘ही समोरची बस आत्ता सुटतेय. ही मधल्या रस्त्याने जाते. त्यामुळे त्या बसच्या आधी पोचेल. तुम्ही तुमचे सीट नंबर सांगा. मी त्या डेपोमध्ये फोन करून तुम्ही येइपर्यंत ती बस थांबवून ठेवायला सांगतो. ”

आणि खरंच, ती बस पुढच्या स्टॉपला गाठून सुधा लग्नाआधी व्यवस्थित पोचली.

उगीच चेष्टेचा विषय व्हायला नको म्हणून हॉलमध्ये ती कोणालाही – अगदी आईलाही काही बोलली नाही.

दोन दिवसांनी राहवलं नाही म्हणून सुरेशला सांगितलं.

‘‘एवढं काय अडलं होतं नसते उपद्-व्याप करायचं? तू गेली नसतीस तर काय लग्न लागायचं राहणार होतं?”

तेव्हा सुधा हिरमुसली होती; पण आज तिला स्वत:च्या समयसूचकतेचं कौतुक वाटलं. खरंच किती पटापट निर्णय घेतले आपण!

सुधानं आपल्या जागी आई, सासूबाई, दादा… एकेकाला उभं केलं, पण कोणीच एवढं शांतपणे विचारपूर्वक निर्णय घेऊ शकलं नसतं. सुरेशचं पितळ तर उघडं पडलंच होतं. समोरच्या आरशात सुधाला दिसली तेजस्वी, ‘स्व’ ची ओळख पटलेली सुधा.

ती उठली. आरशाच्या जवळ गेली. ‘त्या’ सुधाच्या डोळ्याला डोळा भिडवून चक्क इंग्रजीत म्हणाली – ‘I am a confident lady. I can take my own decisions. ’

– समाप्त – 

©  सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “डोंबिवली आठवणीतली, साठवणीतली !” ☆ श्री मनोज मेहता ☆

श्री मनोज मेहता

? मनमंजुषेतून ?

डोंबिवली आठवणीतली, साठवणीतली ! ☆ श्री मनोज मेहता 

डोंबिवली जुन्या जमान्यातली,

डोंबिवली गर्द हिरव्या झाडीत लपलेली !

इवलुशा लाल लाल मातीच्या रस्त्यांची ! टुमदार बंगल्यांची, सुंदर,

चिकनी -चिकनी, डोंबिवली !! 

माझी फोटोग्राफी १५ मे १९७२ पासून, माझ्या वयाच्या अवघ्या दहाव्या वर्षी सुरु झाली. भावाने सांगितले की इथे जाऊन अमुक अमुक यांना भेट, लग्नाचे इतकेच फोटो काढायचेत. हो, त्या जमान्यात ३६ ते ४८ म्हणजे ३ / ४ रोलची छायाचित्रं, म्हणजे भरपूर मोठा अल्बम. बारा फोटो एका रोल मध्ये. मग माझी स्वारी कॅमेऱ्याची बॅग घेऊन इच्छित स्थळी, म्हणजे त्यांच्या घरी पोचायची. ‘अरे वा वा, ‘ये मनोज ! अगं, मनोज आलाय, आटपा गं लवकर, अशा आरोळीनं माझं स्वागत व्हायचं. कारण त्याकाळी घरी देवाला नमस्कार करताना, हातावर दही देताना, मनांत असेल तर एक समूह फोटो असा शुभकार्याच्या फोटोंचा क्रम असायचा.

नंतर छान कौलारू घराच्या बाहेरील मंडपात किंवा आफळे राम मंदिरात अथवा मोजक्या मंगल कार्यालयात ही कार्य होत असत. सुरूवातीला  गुरुजींच्या पाया पडून, माझा छायाचित्रणाचा प्रवास सुरु व्हायचा.

मी लग्नाचे सर्व ब्राम्हण -विधी अन् जेवणावळींचे फोटो काढून, माझ्या घरी दुपारी १२ पर्यंत परतायचो.

त्यात सीकेपींचं लग्न असेल तर  अर्धा तास अगोदरच घरी ! मग सायंकाळी ६ ते ८ स्वागत समारंभ असायचा. तेव्हा आलेल्या प्रत्येकाला प्रचंड प्रसिद्ध असा गोल्डस्पॉट, व्हॅनिला / तिरंगी / टूटी-फ्रूटी आईस्क्रीम किंवा जॉय आईस्क्रीमचे कप, अशाप्रकारे हे डोंबिवलीतील स्वागत समारंभाला असायचं हं ! नो जेवण भानगड ! आणि या स्वागत समारंभाचे फोटू काढून मी अन नवरा नवरी साडेआठला आपापल्या घरी असायचो बरं !

तर मंडळी सत्तर ते ऐंशीच्या दशकात फोटोग्राफर, गुरुजी, वाजंत्रीवाले व मंगल कार्यालयं यांची संख्या अगदीच तुटपुंजी असायची. आणि मुख्य म्हणजे ज्यांना बोलावलं जायचं ते वेळेच्या आधी हजर असायचे. माझ्या छायाचित्रणाच्या सुरवातीच्या, म्हणजे १९७२ पासूनच्या कार्रकिर्दीत, साखरपुडा, लग्न- समारंभ इ. साठी, श्री. धामणकर, दीक्षित वा भातखंडे गुरुजी असायचे. त्यात प्रामुख्याने मला गुरु म्हणून लाभले ते ‘धामणकर गुरुजी’. मी इतक्या लहान वयात फोटो काढतो, म्हणून कौतुक आणि त्यांचं माझ्यावर खूप प्रेमही होतं. शिस्तबद्ध पण शांत स्वभाव हे त्यांचं वैशिष्ट्य ! प्रत्येक विधीचा अर्थ वधू -वरास समजावून, मगच त्यांच्याकडून कृती करून घ्यायचे. त्यात अजून एकाची भर पडली तो म्हणजे मी ! ‘मनोज, आता या विधीचा फोटो काढ. नीट काढ हो, पुन्हा मी फोटो काढायला देणार नाही. ‘ ते अर्थ सांगत असताना, माझंही लक्ष असायचं. धामणकर गुरुजींच्या ‘गुरुकृपेने’ मी  हळूहळू का होईना पण सर्व आवश्यक विधींचे फोटू काढण्यात तरबेज होऊ लागलो होतो.

सुमारे ४८ वर्षांपूर्वीची घडलेली गोष्ट आहे ही ! मला नक्की आठवत नाही १९७५ की ७६, पण डोंबिवली पश्चिमेला नाख्ये यांच्या एव्हरेस्ट मंगल कार्यालयात लग्न होते. त्या मंडळीचं नावही आता लक्षात नाही. कार्यालयाच्या चौफेर फेरी मारून, कुठं क्लोजअप फोटो घेता येतील, याचा मी आधी अंदाज घ्यायचो. मग पुढचा प्रवास सुरु व्हायचा.

तर मंडळी, त्यादिवशी या लग्नकार्यात गुरुजींचा पत्ताच नाही, कुजबुज सुरु झाली. काही मंडळी गुरुजींच्या घरी जाऊन आली, अजून कोण गुरुजी उपलब्ध आहेत का ते ही पाहून झालं. दोन्हीकडची मंडळी चिंतेत ! बरं गंमत म्हणजे, मला याचा काहीच थांगपत्ता नाही. काही वेळाने मी विचारायला गेलो की एवढा का उशीर होतोय, तेव्हा मला हे कारण समजलं. मी भाबडेपणाने विचारलं, ‘ मी करु का विधी ? मला मंत्र येत नाहीत, पण सगळे विधी व्यवस्थित करून घेईन आणि हो, मंगलाष्टका मात्र म्हणा कोणीतरी, हे सांगताच ते उडालेच की ! एकतर मी अर्ध्या चड्डीत फोटो काढायला आलेलो आणि हा एवढासा मुलगा हे काय सांगतोय ?

नंतर कोणीतरी आजोबा आले व त्यांनी माझी नीट चौकशी करून, खात्री करून, होकार दिला.

मग मी सीमांतपूजन करून, मुलीला गौरीहाराजवळ बसून पूजन करायला सांगितलं. नंतर कार्यालयाच्या मुख्य दारात वराकडच्या मंडळींना उभं करून, वधूच्या आईने वराचे पाय धुवून, तिलक लावून ओवाळायला सांगितलं. वधूच्या बाबांनी वराच्या हातात नारळ देऊन त्याला मंडपापाशी आणलं. माझ्या नशिबाने दोघा तिघांनी मंगलाष्टका म्हटल्या. बरोबर मुहूर्तावर, ‘आता वधू-वरांनी एकमेकांना हार घाला, ‘ अशी मी जोरात आरोळी ठोकली, मी दोघांचे फोटो काढले अन् वाजंत्रीही वाजली. ‘वधूवरांना करवल्यांनी ओवाळा हो !’ ते झाल्यानंतर नवरा-नवरीला मी पाटावर बसण्यास सांगितलं. नंतर कन्यादान, सप्तपदी इ. झालं. इतकं सारं, मी फोटो काढत -काढत (आजच्या जमान्यातील 20-20 की. ) पार पाडलं. लक्ष्मीपूजनाला नवऱ्यामुलाला मी विचारलं, ‘तुझ्या बायकोचं नाव काय ?  तेच लिहायचं हं, ताटातल्या तांदुळात !  हे सारे विधी मी प्रत्येक विधीचा फोटो काढून व पुढच्या विधीला काय करायचं ते सांगत, असं एक तासात आटोपलं. आता हे सर्व पाहायला, दर्दी ज्येष्ठांची गर्दी होतीच. सर्व विधी झाल्यावर, त्या ज्येष्ठांपैकी कोणी आजी होत्या, त्यांनी वधुवराला माझ्या पाया पडायला लावलं. ‘अहो, ते नवरा नवरी माझ्यापेक्षा मोठे आहेत, मीच त्यांच्या पाया पडतो ! असं मी म्हटल्यावर तुफानी हास्यकल्लोळ झाला !  पण मला काही कळेना, हे माझ्या का पाया पडतायत ? आणि वरती हातात पाकिट देऊन, मला आजींनी जवळ घेऊन माझी पापी घेतली, मला त्यांच्या जवळ बसवून प्रेमानं जेवायला घातलं.

ते पाकिट न उघडता, मी घरी आल्यावर वहिनीच्या हातात दिलं. तिने विचारलं, ‘ काय आहे यात ?’ मी म्हटलं, ‘मला काय माहित ? लग्नात दिलं मला. ‘ तिनं उघडल्यावर कळलं, त्यात २१ रू. होते.

नंतर फोटोचा अल्बम घ्यायला, ती मंडळी घरी आल्यावर, मी केलेले प्रताप भावाला व माझ्या वडिलांना कळले. ‘मनोजनेच आमच्याकडच्या लग्नात सर्व विधी पार पाडले !’ ‌’काहीतरी काय सांगताय ? आम्हाला काही बोलला नाही, ‘ असं म्हणत, भावानी मला हाक मारली. त्यांच्या समोर आल्यावर मी सांगितलं, यांच्याच आजीनं नवरा -नवरीला माझ्या पाया पडायला लावलं !’ हे ऐकताच सगळे खो खो हसायला लागले.

पण त्यादिवशी गुरुजी न आल्यामुळे हे सुंदर लग्न- रामायण घडलं. या प्रसंगातील प्रेमळ आज्जी, नवरा -नवरी, माझी चौकशी करून मला विधी करायला परवानगी देणारे आजोबा अन् सारी मंडळी… आजही हे आठवलं की मला गुदगुल्या झाल्याशिवाय रहात नाहीत.

यानंतर असा प्रसंग कधीही परत माझ्या वाट्याला आला नाही.

हां, कधी बारशाला तर कधी साखरपुड्याला मला समोरून कधीतरी कोणी विचारतं, ‘तुम्हीच सांगा हो मेहताजी, आता पुढे काय ते !’ मग मी त्या त्या प्रसंगी, कोणी काय करायचं ते व्यवस्थित सांगतो.

पण पण मी लग्नात कुण्या मुलीचा भाऊ तर कधी मामाचं पात्र, आयत्यावेळी अजूनही वठवतोय अन् कार्य सुरळीत पार पडतं. ते ही फोटोग्राफी करता करता हं.

हे घडून आलं ते फक्त अन फक्त माझ्या कारकिर्दीला वळण देणाऱ्या, गोविंद धामणकर गुरुजींच्या गुरुकृपेमुळेच, अन तेही बाल वयात !

त्यांच्या आत्म्यास विनम्र अभिवादन.

© श्री मनोज मेहता

डोंबिवली  मो ९२२३४९५०४४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय दुसरा – (श्लोक ६१ ते ७२) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय दुसरा – (श्लोक ६१ ते ७२) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । 

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥ 

गात्रा अपुल्या अधीन करुनी साधके करावे ध्यान

स्थिर करण्याला चित्ताला व्हावे मम स्वाधीन 

वश केले ज्याने गात्रांना संयमासि राखून

स्थिर होउनिया त्याची प्रज्ञा होइल तो स्थितप्रज्ञ  ॥६१॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । 

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ ६२ ॥ 

चिंतन करिता विषयांचे आसक्तीचा जन्म

आसक्ती पोटी होई निर्माण विषयांप्रति काम

ध्यास लागतो कामपूर्तिचा आसक्तीने अगाध 

विध्न कामनेमध्ये येता उसळुनी येई क्रोध ॥६२॥

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । 

स्मृतिभ्रंशाद्‌ बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥ 

क्रोधापोटी मूढभाव ये मूढता दे स्मृतिभ्रंश

स्मृतिभ्रंशाने बुद्धीनाश बुद्धीनाशाने हो सर्वनाश ॥६३॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्‍चरन्‌ । 

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥ 

क्रोधद्वेष विरहित गात्रे ठेवुनि अपुल्या अधिन

अपुल्या स्वाधिन आहे ज्याच्या अपुले अंतःकरण 

विषयांचा उपभोग भोगुनी मनातुनीही अलिप्त

प्रसन्नता अध्यात्मिक त्याच्या अंतःकरणा प्राप्त ॥६४॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । 

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥ 

समस्त दुःखहरण करी अंतःकरणी प्रसन्नता

निवृत्त प्रज्ञा  प्रसन्नचित्ता शाश्वत मिळे ती स्थिरता  ॥६५॥ 

नास्ति बुद्धिर‍युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । 

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ ६६ ॥ 

नाही जयाला इंद्रियविजय नाही तयाला स्थिरबुद्धी

चंचल बुद्धी अंतःकरणी ना कधी होते भावना वृद्धी 

भावनाहीन मनुजाला कशी प्राप्त व्हावी शांती

शांती नसता मनुष्याला कोठुनिया ती सुखप्राप्ती ॥६६॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । 

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥ 

जलातल्या तरनावेला वाहुन नेई पवन

विषयासक्त इंद्रिय भरकटते अपुले मन

अशा गात्रप्रभावाने येई ग्लानी बुद्धीला 

कशी मिळावी शांती भान हरपल्या प्रज्ञेला ॥६७॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥ 

विषयांपासून सर्वस्वी विरक्त इंद्रिये ज्याची

महावीरा सर्वस्वी प्रज्ञा स्थिर शाश्वत त्याची ॥६८॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । 

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥

सकल जीवांची असता रात्र संयमी असतो जागृत

सारे जीवित जागे असता परमज्ञानी मुनीची रात्र ॥६९॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ । 

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥ 

अचल प्रतिष्ठित परिपूर्ण जलधीत 

सरिताजल ना करित त्या विचलित

सर्व भोग जीवनी  विकार विरहित

स्थितप्रज्ञास ना विकारीस शांति प्राप्त ॥७०॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । 

निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥

कामनांचा त्याग निःस्पृह  निरहंकार निर्मम जीवन

प्राप्त तयाला होई अखंड समाधान शांतीचे वरदान ॥७१॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । 

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥ 

ब्रह्मप्राप्त स्थिती लाभता योगी मोहमुक्त

अंतकाळी देखिल तया ब्रह्मानंद प्राप्त ॥७२॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ 

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी सांख्ययोग नामे द्वितीय अध्याय संपूर्ण ॥२॥

– क्रमशः भाग दुसरा 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मला आवडते तुमची कलरफुल जनरेशन… – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ मला आवडते तुमची Colourful Generation…. लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

नात : “नानी, तू किती generations बघितल्या ?”

मी : “ मी न……. ५…… बघ हं… माझी आजी, माझी आई, मी, माझी मुलगी आणि माझी नात… तू…”

नात: ” यापैकी कोणती generation तुला सर्वात जास्त आवडते ?”

मी : “ तुझी…. “

नात : “ वॉव…. पण का ?”

मी: “ कारण ती सर्वात जास्त colourful आहे. ”

नात: “ म्हणजे कशी ?”

मी : “ म्हणजे असं….. की माझ्या आजीच्या पिढीचा एकच रंग होता… ‘ घर… घर काम, घरच्यांची सेवा आणि    घरी येणाऱ्यांचे आदरातिथ्य.

मग माझी आई… या घरकामाच्या रंगात अजून एक रंग वाढला…

तो म्हणजे शिक्षणाचा…. आणि या शिक्षणाबरोबर खेळ, कला, जवळपासचा समाज… यामुळे आईच्या जीवनात बरेच रंग आले.

मग माझी पिढी… माझ्या पिढीत उच्च शिक्षण आणि विस्तृत समाज यामुळे आमचं क्षितिज बरंच रुंदावलं…

 नवनवीन प्रयोग, प्रवाह, पाऊलवाटा तयार होऊ लागल्या… generation colourful होऊ लागली.

मग.. तुझ्या आईची generation………

Technology चा एक जबरदस्त रंग बाकी सगळ्या रंगांवर हावी होऊ लागला…. ‘स्पर्धेचा नवीनच रंग भराभर गडद होऊ लागला. नवनवीन पाश्चिमात्य रंग डोकावू लागले… जागतिकीकरणाचा पहाट-रंग क्षितिजावर दिसू लागला…

आणि त्यानंतर…

नात : “ मी….. पण माझीच generation तुला का आवडते ?”

मी: “ कारण आधीच्या सगळ्या रंगात घोळून आत्मविश्वासाचा प्रसन्न रंग  लेवून जन्मलेली तुझी पिढी…. technology ला तर तुम्ही आपली दासी बनवलयं… जग तुमच्या बोटांवर नाचतं…

ग्रहांच्या पलिकडे तुमचं क्षितिज विस्तारलयं…

समानता खऱ्या अर्थाने तुमच्या नसानसात भिनली आहे….

माझ्या आजीच्या ‘घर आणि संस्कार’  पासून ते…

तुमच्या ‘अवकाश’ या प्रचंड कक्षेतील सगळे ‘सुखद’ रंग जपण्याचा आणि ‘दु:खद’ रंगांशी झुंजण्याचा तुमचा ‘Cool’ रंग मला फार आवडतो……

तुमच्या या रंगात आधीच्या सगळया पिढ्या अक्षरशः न्हाऊन निघतात…

BE BOLD FOR CHANGE….

 व्हा धाडसी…. बदलासाठी… !!!

लेखक : अज्ञात

संग्रहिका : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ माणुसकीचे कफन… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ माणुसकीचे कफन… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

“वाचवा. !.. वाचवा.. !. कोणी हाये का तिथं?… ऐका !… ऐका. !. मी बुडतोय!… अहो कुणीतरी लवकर मला बाहेर काढा हो!… नाका तोंडात पाणी गेलयं… श्वास कोंडलाय!… लवकर धावून या!.. नका उशीर करू… आता फार वेळ दम धरवणार नाही!… कसेही करा पटकन इथे उडी मारून या आणि मला इथून बाहेर काढा… “

जिवाच्या आकांताने तो ओरडून सांगत होता बिचारा… पाण्याच्या खोल डोहात फसला होता.. गरगर फिरत होता… त्याचे स्व:ताचे सुटकेचे प्रयत्न निष्फळ ठरले होते… तो अधिकाधिक डोहात गुरफटत गेला होता… त्याचा आरडाओरडा ऐकून बघ्यांची खूप गर्दी जमा झाली तेथे.. पण त्यांना या लाईव्ह ऑंखे देखा हालचं व्हिडिओ शुटींग करण्याचा मोह आवरला नाही.. ते बुडणाऱ्या माणसाला  म्हणाले,

” अरे थांब!लगेच असा बुडू नकोस.. दोन मिनिटे आधी शुटींग करून घेऊया मग तुला कसा यातून वाचविता येईल याची आम्ही आपआपसात चर्चा करतो… पट्टीचा पोहणारा तरी आमच्यात कुणी दिसत नाही.. एखादा मोठा दोरखंड मिळतोय का ते पहावे लागेल.. तो आणे पर्यंत तरी तुला असेच थांबणे गरजेचे आहे… आमच्या मोबाईल मध्ये व्हिडिओ शुटिंग करून झाले कि मग कुणाला तरी गावात पाठवतो.. तुझ्या घरी तसा निरोप देऊन ताबडतोब मदतीला या म्हणून सांगतो.. तू आता काळजी करू नकोस… तुझ्या जीवावर बेतलं आहे याची आम्हाला काळजी किती वाटते ते या व्हिडीओ शूटिंग व्हायरल झाले कि सगळ्यांना कळेल.. जो धाडसी आणि पट्टीचा पोहणारा असेल त्याने हा व्हिडिओ बघितला कि तो लगेच धावून आल्याशिवाय राहणार नाही… मग तू नक्की वाचशिल यात शंका नाही… तुला वाचताना पुन्हा आम्हाला शुटींग घेता येईल… एक  माणूस, सुजाण नागरिक या नात्याने आम्हाला आमचं माणुसकिचं कर्तव्य पार पाडल्याचं समाधान मिळेल… तू धिराचा आहेस, .. अखेर पर्यंत तुला लढा द्यायचा आहे… हिथं थांबून आम्ही हे शुटींग करता करता तुझं माॅरल कसं वाढेल हे आम्ही पाहतो… तू थोडावेळ असाच धीर धरून रहा मदतीला कोणी येईलच इतक्यात… आणि कुणी आलं कि तुला आम्ही मोठ्याने आवाज देऊ… होईल होईल तुझी सुटका नक्की होईल… मग आमच्या सोबत एक सेल्फी घेऊ… चॅनेलवर ब्रेकिंग न्यूज झळकवू  काळ आला होता पण वेळ आली नव्हती.. देव  तारी त्याला कोण मारी अशी सनसनाटी  हेड लाईन देऊन आम्हीच तुझ्या वतीने मुलाखत देऊ… या या व्हिडिओ शुटींगचा रिल व्हायरल झाल्याने बुडणाऱ्या माणसाचे प्राण वाचवले… पण पण हे केव्हा तूला मदत मिळून बाहेर काढल्यावरं.. बघं एका रात्रीत तू हिरो होणार आहेस.. तोवर हे तुला या डोहात गटांगळ्या खाऊन का होईना जिवंत राहावे लागणार आहे… अरे टि आर. पी. किती वाढेल याची तुला काहीच कल्पना करता येणार नाही.. ते सगळं आम्ही बघून घेतो.. तू मात्र डोहात लढते रहो हम कपडा संभालके देखते है… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares