हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 35 ☆ व्यंग्य – “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में”।) 

☆ शेष कुशल # 35 ☆

☆ व्यंग्य – “समस्याएँ कम नहीं हैं मैकदा घर में बनाने में” – शांतिलाल जैन 

कागजों में वे शिद्दत से कुछ ढूंढ रहे थे. पूछा तो बोले – पुराने इनकम टैक्स रिटर्न्स की कॉपी ढूंढ रहा हूँ. वजह ये कि कुछ दिनों पहले उत्तराखंड सरकार ने ‘होम मिनी बार’ योजना के अंतर्गत के लायसेंस देने की जो शर्तें रखीं हैं उनमें पहली शर्त यही रही कि पाँच साल के इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल किए हुए होने चाहिए. वे आशावान हैं कि अपनी छत के नीचे आसवपान की जो योजना देवभूमि में लागू होने जा रही है वो एक दिन मध्यप्रदेश में भी लागू की जा सकती है. घर में मधुशाला उनका ड्रीम था, जल्द ही सच होता दीख रहा है. ये तो आचार संहिता लग गई श्रीमान वरना इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कॉलोनी में कोई आगंतुक पूछ रहा होता – भाईसाहब, ये श्रीवास्तवजी कहाँ रहते हैं ?

कौनसे वाले श्रीवास्तवजी ? वोई जिनके घर में एक मैकदा है ? आप ऐसे करें आगे से बायीं ओर की दूसरी गली में मुड़ जाईए. जैसे ही मुड़ेंगे मदहोश बयार आने लगेगी, राईट साईड में जिस मकान के बाहर जोर का भभका आने लगे बस वहीं रहते हैं श्रीवास्तवजी.’ बहादुरशाह ज़फर होते तो ग़ज़ल का मिसरा बदल लेते – ‘जिस तरफ उसका घर उसी तरफ मैकदा.’

खैर यह जब होगा तब होगा,  फ़िलहाल समस्या ये भी है कि घर के किस हिस्से में बनाई जाए मधुशाला. वास्तुवाले कह रहे हैं ईशान कोण ठीक रहेगा, दारू में बरकत रहती है. पूर्व दिशा की ओर बैठकर पीने से सुरूर अच्छा चढ़ता है. बीम के नीचे नहीं पीना चाहिए, अटैक आने का खतरा रहता है. सो उत्तर-पूर्व का कमरा तय रहा. किचन लगा हुआ ही है, एक इंट्री इधर से भी दे देते हैं – आईस, चखना वगैरह लाने में ठीक रहेगा.

मैंने पूछा – ‘उल्टियाँ कहाँ करोगे ?’

वे बोले – ‘उस कार्नर में, दो तीन बड़े और गहरे आकार के वाश-बेसिन लगवाने से हो जाएगा.’  मैंने धीरे से मुआयना किया, इसी रूम के पीछे जो गली पड़ती है गिरने के लिए उसकी नाली मुफीद पड़ेगी. वे बोले – ‘पूजा घर पीछे माँ के रूम में शिफ्ट कर देते हैं और गेट पर बायोमेट्रिक्स लॉक भी लगवा लेते हैं.’

‘वो किसलिए ?’ – मैंने पूछा.

बोले – रूल है गौरमिंट का. होम मिनी बार में 21 वर्ष से कम के फेमेली मेम्बर्स की पहुँच नहीं रहनी चाहिए. चुन्नू, चिंकी और चिंटू के थम्ब इम्प्रैशन से खुलेगा नहीं – ‘द हाउस ऑफ़ वाईंस’. विक्की के इक्कीस बरस में चार महीने कम पड़ रहे हैं. लायसेंस आने तक वह भी पीने योग्य हो जाएगा.

मैंने पूछा –‘एट ए टाईम,  कित्ता माल रख सकोगे?’

वे बोले – उत्तराखंड सरकार ने तो अधिकतम नौ लीटर इंडियन फॉरेन लिकर, 18 लीटर फॉरेन लिकर, 9 लीटर वाइन और 15.6 लीटर बीयर स्टोर करने की परमिशन दी है. एम.पी. में इससे तो कुछ बढ़कर ही समझो. ओवरऑल लिमिट हंड्रेड लीटर्स की हो जाए तो सोने में सुहागा. संयुक्त परिवार है, रिश्तेदारी है, यारी दोस्ती है इतना स्टॉक रखना तो बनता है. कल को आप ही मिलने आए तो पूछना तो पड़ेगा कि ट्वंटी एमएल चलेगी शांतिबाबू.  मैंने कहा – आपको पता है मैं पीता नहीं हूँ.  बोले – वो मैंने एक बात कही. हम नहीं पूछते तो आप कहते – लो साब श्रीवास्तव के घर गए और उनने दो घूँट का पूछा तक नहीं. बहरहाल, कंपोजिट लायसेंस मिल गया तो थोड़ी देसी भी रख लेंगे – घर में नौकर-चाकर भी तो हैं.

मैंने कहा – ‘आबकारी नीति के अनुसार ड्राई-डे पर मिनी होम बार बंद रखना पड़ेगा.’

वे बोले – मना तो ट्रेन में भी होती है. तो क्या कोल्ड्रिंक में लेकर गए नहीं कभी ? श्रीवास्तव को आप जानते नहीं हो शांतिबाबू, सरकार डाल-डाल तो श्रीवास्तव पात-पात. उनके चेहरे पर किला फतह करने के भाव आए.

इस बीच खबर आई कि उत्तराखंड सरकार ने कुछ दिनों के लिए अपना निर्णय स्थगित कर दिया है. श्रीवास्तवजी आशावान हैं निरस्त तो नहीं किया ना! अच्छा है तब तक पुराने आईटीआर भी ढूंढ लेंगे और बाकी तैयारियाँ पूरी करके रख लेंगे. मुझे मेराज फैजाबादी याद आए – ‘मैकदे में किसने कितनी पी, खुदा जाने. मयकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया..’

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 216 ☆ “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?)

व्यंग्य – “कौन बनेगा मुख्यमंत्री?☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

सच में ये मीडिया वाले इतने निष्ठुर हो गए हैं कि आम आदमी की पीड़ा को भूलकर विज्ञापन और अपने फायदे में लगे रहते हैं। सेलेब्रिटी, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि की तरफ देखते रहते हैं। एक चैनल के पत्रकार से कहा कि गंगू के यहां की गाय बियानी है बछड़ा के तीन आंखें हैं तो जाकर फोटो-ओटो, वीडियो-ईडिओ बना लो… लोगों को पता चलेगा तो दान दक्षिणा, चढ़ावा-चढ़ोत्री खूब होगी बेचारे गंगू की गरीबी दूर हो जाएगी। बेरोजगारों को रोजगार मिल जाएगा, नारियल अगरबत्ती, चिरौंजीदाना, प्रसाद, पकोड़ा, चाय-पान की दुकानें लग जाएंगी, श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ेगी… पर वो पत्रकार सुनता ही नहीं, कहता है अभी ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ के बहाने टीवी चैनल वालों को ज्यादा कमाई हो रही है।

आजकल हर मंत्री और बड़े नेताओं की बयानबाजी से चैनल और अखबार को बहुत फायदा मिल रहा है भरपूर विज्ञापन के साथ कुछ गोपनीय फायदे भी हो जाते हैं। सब तरफ झूठ और झटके का माहौल है। कुछ साल से झूठ के पांव इतने लम्बे और मजबूत हो गए कि मीडिया के कैमरे झूठ के पांव से दौड़ने लगे हैं। आजकल नेता लोग नशे में कुछ भी बोल देते हैं फिर होश आने पर बयानों में तोड़-फोड़ का आरोप लगाकर गंगा में नहा लेते हैं। अभी सबसे बड़ी बात है, सबसे बड़ा सस्पेंस मुख्यमंत्री कौन होगा है ।

यहां मंच के बीच में एक सजी-धजी कुर्सी रखी है कुर्सी में मुख्यमंत्री लिखा है… सब देख रहे हैं कि सच में ‘मुख्यमंत्री’ लिखा है। भीड़ में कुर्सी की सजावट की चर्चा है। पर्यवेक्षक के आने में थोड़ा देर है, सस्पेंस है, रोमांच है और इसे बढ़ाने में चैनल के चिल्लाने वाले एंकर खासकर महिलाएं खूब मजा ले रहीं हैं। तरह-तरह के तरीकों से झूठ-मूठ का सस्पेंस घुसेड़ने की तरकीबें चल रहीं हैं। गंगू के पेट में भूख कुलबुला रही है, दिमाग में टेंशन है, हाल-बेहाल हैं, पर ऐसे में सस्पेंस और रोमांचक क्षणों का स्वाद लेना ही पड़ेगा, बीच में भाग नहीं सकते। 

भीड़ से आवाज आयी – जिन्हें मुख्यमंत्री बनना है वे सब आने में देर क्यों कर रहे हैं ? 

पीछे से किसी ने कहा – दिल्ली गए थे डांट पड़ी है मन उदास है…

हलचल मची, वे सब आ गये शायद… सच में आ गए पर वे मुख्यमंत्री की कुर्सी तरफ नहीं गए सामने तरफ की पब्लिक वाली कुर्सी में धंस गए…। पूरे हाल में सन्नाटा छा गया, प्रश्न उछल – कूद करने लगे… सब परेशान। अपने तरफ से सब अंदाज लगाने लगे अचानक ये पुराने मुख्यमंत्री को क्या हो गया? अभी तक तो कुर्सी देख कर दौड़ लगा देते थे पर आज… कुर्सी से मोह भंग…।

आकाशवाणी हुई – क्या आज मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली रहेगी? कुर्सी में कोई नहीं बैठेगा ? क्या आनंद की अनुभूति उदासी के साथ होगी?…

टी आर पी के चक्कर में मीडिया हैरान-परेशान दिखा। उनसे कुर्सी में बैठने का निवेदन हुआ पर वे टस से मस नहीं हुए। खड़े होकर उदास स्वर में बोले – “मैं तो जा रहा हूँ मेरी कुर्सी पर कोई भी बैठ सकता है…”

मुख्यमंत्री का ये बयान ‘धजी का सांप’ बन के फन काड़ के खड़ा हो गया। खबरिया चैनलों ने इसे गंभीर संकेत समझ लिया। बवडंर उठा और तूफान बनकर चैनलों में बहस में तब्दील हो गया। दिन भर सोशल मीडिया में अफवाहों का दौर चला। लोगों ने भावी मुख्यमंत्री के नामों का अंदाजा भी लगाना शुरू कर दिया। 

एक पर्यवेक्षक ने  अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पर कमाल की बयानबाजी कर दी, पद के दावेदारों के मन ही मन में लड्डू फूटने लगे। अध्यक्ष की कुर्सी मिलते ही बड़ी भारी कुर्सी हिल गई। अध्यक्ष गोटी फिट करने में तेज हैं और लगा कि लक जो है तो लकलका रहा है…

मीडिया उतावलेपन और एक दूसरे को पीछे छोड़ने के फेर में पगला गया। राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ गईं, बयानबाजी का बाजार लग गया। विपक्षी नेताओं के ट्वीट आने लगे। अफवाहों ने अचानक एक दावेदार को मुख्यमंत्री बनाकर परोस दिया। विपक्ष ने कहा कि पुराने वाले अब  हताश होकर निराश हो गये हैं तभी तो सजी-सजी सजाई कुर्सी में नहीं बैठे। मीडिया जो भी खबरें दे रहे थे  कन्फ्यूजन से भरी। आंखों में इमेज झोंक कर सच-झूठ एक साथ बोल रहे थे, कुर्सी का मोह बड़ा खराब होता है। ज्यादा हो-हल्ला मचता देख पुराने मुख्यमंत्री ने ट्विटर पर ट्वीट कर दिया कि हम ‘मिशन 29’ में बिजी हैं हमें मुख्यमंत्री की कुर्सी अभी सपने में दिख रही है, और मन में लड्डू फूट रहे हैं, तो हम क्या करें…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 220 ⇒ खुश्की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुश्की…।)

?अभी अभी # 220 खुश्की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

खुश्की  ~ dryness ~

अगर कोई अनजान व्यक्ति अचानक आपसे शायराना अंदाज़ में पूछ बैठे, ” होंठ क्यों फट रहे हैं, जरा कुछ तो बोलो “, तो आप क्या जवाब देंगे ?

आप न तो खुश ही होंगे और न ही नाराज, और न ही आपको आश्चर्य ही होगा, क्योंकि मौसम के बदलते ही हमारी त्वचा, जिससे हमारी उम्र का कभी पता ही नहीं चलता था, अचानक खुश्क हो उठी है। अजी होंठ तो छोड़िए, पांव की एड़ियां तक फटने लगी हैं। पौ तो रोज फटती है, अचानक यह त्वचा फटने वाली बीमारी हमने कहां से गले लगा ली।।

सभी जानते हैं, हमारी तरह, मौसम भी अंगड़ाई लेता है। शरद पूर्णिमा के बाद से ही वातावरण में ठंडक शुरू हो जाती है।

त्योहारों की गर्मी में कहां किसे ठंड महसूस होती हैं, लेकिन यह बेईमान मौसम, ईमानदारी से अपनी छाप छोड़ता जाता है। आप कितने भी खुशमिजाज क्यों न हों, त्वचा में रूखापन घर कर ही जाता है।

जो शरीर की विशेष परवाह करते हैं, रोजाना आइने के सामने कुछ वक्त गुजारते हैं, उनका यह मौसम कुछ नहीं बिगाड़ पाता। जहां नियमित पेडीक्योर और मेडीक्योर हो, वहां तो काया को कंचन जैसा होना ही है।।

एक शब्द है परवाह ! इसके दो भाई और हैं, लापरवाह और बेपरवाह। Careful, careless and carefree. इनमें सबसे समझदार तो वही है, जिसको अपनी परवाह है। लापरवाही अथवा बेपरवाही का ही नतीजा खुश्की है। फिर भी आप चाहें तो आसानी से, मौसम पर दोषारोपण कर सकते हैं।

ज्यादा नहीं, सुबह नहाने के पहले, सरसों के तेल से त्वचा की खुश्की मिटाई जा सकती है। साबुन बदला जा सकता है, और नहाने के बाद खोपरे का तेल और स्वादानुसार होठों पर घी अथवा मलाई भी लगाई जा सकती है। स्वदेशी और आयातित कई सौंदर्य प्रसाधन उपलब्ध हैं हर्बल ब्यूटी और हल्दी चंदन के नाम पर।।

अब धूप स्नान अर्थात् विटामिन डी के सेवन का समय शुरू हो गया है। गर्म कपड़ों को सहेजना, संवारना जोरों पर है। जो मां अपने छोटे बच्चों का विशेष ख्याल रखती है, वह विज्ञापन के अनुसार पियर्स ग्लिसरीन सोप का ही उपयोग करती है। जो लोग दूध से नहीं नहा सकते, वे डॉव साबुन से नहाकर काम चला लेते हैं।

गर्मी की सुस्ती, ठंड में काम नहीं आती। जैसे जैसे ठंड पांव पसारेगी, पांव में मोजे, गले में स्वेटर मफलर, और बिस्तर में कंबल रजाई का प्रवेश होता चला जाएगा। फिलहाल तो बस, होंठ भले ही सूख जाएं, लेकिन फटे नहीं।

बोरोलिन नहीं तो बोरोप्लस ही सही।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 157 ☆ # परिनिर्वाण दिन # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# परिनिर्वाण दिन #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 157 ☆

☆ # परिनिर्वाण दिन #

(बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिन के निमित्त उस महामानव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि)

आंख भर आती है,जब याद तुम्हारी आती है

है महामानव यह तिथि हमें कितना रूलाती है

 

जब जीवन था दूभर, भयावह चुभते साये थे

सब तरफ था तिरस्कार,  कैसा जीवन पाये थे

पग पग पर अपमान,  हम जुल्म से घबरायें थे

आवाज़ नहीं थी होंठों पर,  सामंतों के सताये थे

स्याह अंधेरे में तुम,  सूरज बनकर आए थे

काले मेघों को चीरकर,  नया सवेरा लाए थे

वो शोषित, पीड़ित जनता,  आज अश्रु धारा बहाती है

आंख भर आती हैं, जब याद तुम्हारी आती है

 

हम तो थे पेड़ सूखे,  तुमने देह में प्राण फूंके

रक्त कोशिकाओं में हलचल हुई, तुमने जब देखा छुंके

हम थे अज्ञानी, विवश,  हम लाचार थे रूखे

तुमने शिक्षा की ज्योति जलाई, हम थे शिक्षा के भूखें

जीवन में बदलाव आ गया,  आंखों से हट गए धूंके

शिक्षा शेरनी का दूध है,  बोलने लगे जो थे मुके

रूदन देख जन सैलाब का, आज धरती भी थर्राती है

आंख भर आती है, जब याद तुम्हारी आती हैं

 

अब हमें अधिकार मिले हैं, पर दिन बीते नहीं संघर्षो के

अब मांगने लगे हैं हक अपना, जो वंचित थे वर्षों से

खुशियां आई जीवन में, दिन लौटे हैं हर्षों के

सपने देख रहे हैं सब, अपने अपने उत्कर्षों के

भेदभाव मिटा नहीं है पर, अर्थ बदलें है स्पर्शो के

हमें संगठित होना होगा, वर्ना आयेंगे दिन अपकर्षों के

यह परिनिर्वाण की बेला, क्या सामाजिक क्रांति लाती हैं ?

आंख भर आती है, जब याद तुम्हारी आती है

हे महामानव यह तिथि हमें कितना रूलाती हैं

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होरा… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होरा☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

निरर्थकातून अर्थ काढला

व्यर्थच गेला सारा

चिंतन करूनी चुकला नाही

 या जन्माचा फेरा

 

जगण्यामधले भोग भोगले

जे वाट्याला आले

जाते वेळी हाती उरला

फक्त उतारा कोरा

 

आयुष्याच्या आरशातली

छबी निरखता कळले

अंधुक होते प्रतिमा तेव्हा

उडून जातो पारा

 

खरी स्थिरता होती कोठे

सतत धावणे झाले

रोज नव्याने खेळ रंगला

अद्भुत न्यारा न्यारा

 

कोणासाठी जीव जाळणे

कमी आले नाही

जो तो दिसला वरवरचा अन्

संपूरन गेला तोरा

 

ताळमेळ या आयुष्याच्या

 बसला नाही काही

 कुंडलीतल्या ग्रहमानाचा

 फसला नव्हता होरा

 

जन्म मरण तर अचूक येथे

जाता येता घडते

चिंता कसली करायची मग

मारत राहू चकरा

 

काय खरे अन् खोटे कुठले

कळले नाही काही

भ्रामकतेच्या प्रतिमांचा पण

नाही चुकला मारा

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 152 ☆ हास्य कविता, जाडू बाई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 152 ? 

☆ हास्य कविता, जाडू बाई… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

 बालपण आठवलं मला

मला माझी शाळा आठवली

शाळेजवळची जाडूबाई

डोळ्यासमोर तरळली…०१

 

शाळेत जायच्या रस्त्यावर

घर होते जाडूबाईचे

अवजड प्रचंड होती ती

सखुबाई नाव तिचे…०२

 

ठेगणी होती खूपच

दिसायला सुद्धा सावळी

आरडायची, ओरडायची

जशी वाघिणीची डरकाळी…०३

 

पोरं तिला चिडवायचे

जाडी जाडी म्हणायचे

ती मागे लागताच मग

लगेच पळून जायचे…०४

 

तिला पाहून खरेच हो

हसायला खूप यायचे

चेष्टा तिची करतांना

हसून हसून पोट दुखायचे…०५

 

होती मात्र खूप प्रेमळ

बोरं, चिंचा खायला द्यायची

तहान लागली उन्हाळ्यात

थंड थंड, पाणी पाजायची…०६

 

आम्ही थोडे मोठे झालो

पश्चाताप आम्हाला झाला

तिची चेष्टा न करण्याचा

संकल्प आम्ही केला…०७

 

सखुबाई आम्हाला बोलायची

मोकळी मुक्त, सहज हसायची

मला जाडी म्हणा रे सर्वजण

स्वतःच निर्भेळ, ठुमकायची…०८

 

एक शिकायला मिळाले

दोष कुणाला न द्यावा

ईश्वराची निर्मिती सर्व

सन्मान सर्वांचाच करावा…०९

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “आनंद मानायला शिकूया…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “आनंद मानायला शिकूया…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

दोन तीन दिवसांपूर्वीच त्यांचं आमच्या घरी आगमन झालयं आणि जणू खूप तहान लागली असतांना समोर फक्त आणि फक्त अथांग समुद्र  असावा किंवा नुकतीच शुगर डिटेक्ट झाल्याबरोबर समोर पंचपक्वान्नाचे ताट यावे,असा फील आलाय. कारणं बँकेचे ऑडिट सुरू असल्याने बँक सोडून बाकी कशालाही जणू वेळच उरत नाही. अर्थातच बँकेचे काम हे नोकरी असल्याने माझ्यासाठी प्रायोरीटी मध्ये वरच्या क्रमांकावर.

परवा मस्त दिवाळीअंकाचा गठ्ठा घरी आला.समोर वाचण्यासाठी इतकी वाचनसंपदा पसरली आहे आणि आपली अतिव्यस्त दिनचर्येमुळे आपण त्याचा धडपणे आस्वाद घेऊ न शकल्याने मन खरचं व्यथित होतं.

खरचं बोटांवर मोजण्याइतक्या काही व्यक्ती असतात त्यांना आपल्या आवडीनिवडी आणि आपल्या जबाबदा-या ह्यांचा योग्य समतोल साधण्याचं कसबं असतं.नाहीतर बहुतेक ठिकाणी दात असले की चणे नसतात आणि चणे येतात तेव्हा दात गायब होतात.

सहसा आपण लोकं आधी पैसा मिळवणे, तो साठवणे ह्या मागे इतके हात धुवून लागतो की आपण आपल्याच साठी क्षणाचीही उसंत घेत नाही. प्रसंगी आपण आपल्या आवडींना फाटा देतो आणि आधी कर्तव्य बजावायला सज्ज होतो.हे करतांना स्वतःची मोठी स्वप्ने पूर्ण करण्याच्या ध्यासाने इतके कामात गुरफटतो की स्वतःच्या आवडीच्या छोट्या  छोट्या गोष्टींचाही आस्वाद घेण्यात वेळ घालवायचा विसरतो.आणि जेव्हा सगळ्या जबाबदा-या आटोपून आपण जरा हूश्श् करतो आणि आपल्या आवडींकडे वळू असे ठरवितो तेव्हा आपलेच शरीर आपल्याला साथ देत नाही.

सध्या आपण चार ओळी वाचायला वेळ काढत नाही आणि जेव्हा वेळच वेळ मिळतो तेव्हा वाचण्यासाठी आपली नजर,आपले डोळेच साथ देत नाहीत. हीच गोष्ट पर्यटनाच्या बाबतीत पण लागू पडते.कित्येकदा आपण परदेशी फिरण्याच्या स्वप्नापाई तरुणपणात नुसती ढोर मेहनत करतो. जेणेकरून सगळ्या जबाबदा-या उरकल्या की सहजतेने परदेशी फेरफटका मारता येईल. पण वस्तुस्थिती अशी येते की तेव्हा पैसा तर येतो पण परदेशी फिरण्याची शरीरात ताकदच नसते.ह्या परदेशी फिरण्याच्या ध्यासापायी आपण आपला भारत देश सुध्दा धड पूर्णपणे बघत नाही.

खरचं मला फार कौतुक वाटतं अशा लोकांच जे आयुष्यातील जबाबदा-या पार पाडतांना प्रत्येक पायरीवर काही क्षण का होईना विसावा घेतात,त्या विसाव्यातच आपल्या आधी लहान का होईना पण आवडी,ईच्छा पूर्ण करतात.नाहीतर काहीजणं भराभर पूर्ण जीना घाईघाईने चढायच्या नादात कधीकधी अजिबात विराम न घेता धावतपळत  ध्येय गाठण्यासाठी उरापोटावर जावून इच्छित स्थळी पोहोचतात तर खरं पण पोहोचेपर्यंत पार दमून गेल्यामुळे त्यातला आनंद, त्यातला रसच गमावलेला असतो.

त्यामुळे शरीराला आणि मनाला सुध्दां टप्प्याटप्प्यावर विश्रांतीची ,थकवणा-या मोठमोठ्या स्वप्नांमागे न धावता छोट्याछोट्या गोष्टीतही आनंद मानायला शिकण्याची सवय हवी हे नक्की.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पोट्रेट – भाग-२ (अनुवादीत कथा) – मूळ इंग्रजी कथा – रोअल्ड डाल्ह – हिन्दी अनुवाद – श्री सुशांत सुप्रिय ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ पोट्रेट – भाग-२ (अनुवादीत कथा) – मूळ इंग्रजी कथा – रोअल्ड डाल्ह – हिन्दी अनुवाद – श्री सुशांत सुप्रिय ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(मागील भागात आपण पाहिले- तो साकाळ होईपर्यंत ट्रिओलीच्या पाठीच्या त्वचेवर काढलेलं पेंटिंग गोंदवत राहिला. ट्रिओलीला आता स्पष्ट आठवलं, जेव्हा शेवटी त्या कलाकाराने बाजूला सरून म्हंटलं, ‘ चला. झालं आपलं पेंटिंग’, त्यावेळी बाहेर प्रकाश पसरला होता. रस्त्यावरून लोकांच्या येण्या-जाण्याचे आवाज ऐकू येऊ लागले होते. आता इथून पुढे)

‘मला हे पेंटिंग बघायचय.’ ट्रिओली म्हणाला. मुलाने तिथला आरसा उचलला आणि भिंतीवरच्या मोठ्या आरशापुढे ट्रिओलीला उभं करून,त्याच्या मागे लहान आरसा धरत त्याने त्याला पाठीवरचे पेंटिंग दाखवले. ट्रिओलीने पेंटिंग नीटपणे न्याहाळण्यासाठी आपली मान उचलली.

‘अरे देवा….’ तो ओरडला. ते एक चकित करणारं दृश्य होतं. त्याची सगळी पाठ रंगांनी चमकत होती. तिथे अनेक रंग चमकत होते. सोनेरी, हिरवा, निळा, काळा लाल… किती तरी  रंग. त्वचेवर गोंदलेलं गोंदण गाढ होतं. ते पेंटिंग सजीव वाटत होतं. त्या मुलाच्या अन्य पेंटिंगची वैशिष्ट्येही त्यात दिसत होती.

‘हे जबरदस्त आहे.’

‘मलादेखील माझं हे पेंटिंग चांगलं वाटतय.’ मुलगा म्हणाला. मग तो थोडा मागे सरकला आणि पारखी दृष्टीने पेंटिंग पाहू लागला. ‘ हे एक सुंदर पेंटिंग झालय. मी त्यावर माझी सही करतो.‘ मग त्याने मशीन हातात घेऊन, पाठीच्या त्वचेवर   पेंटिंगच्या उजव्या बाजूला आपलं नाव गोंदवलं चॅम सुतीने.

* * * * *

ट्रिओली नावाचा तो म्हातारा प्रदर्शनाच्या खिडकीतून तिथे लावलेल्या पेंटिंगकडे एकटक बघत स्तब्धसा उभा होता. खूप काळापूर्वीची ही गोष्ट होती. वाटत होतं, जशी काही ही वेगळ्याच कुठल्या तरी जन्मातली गोष्ट आहे.

आणि तो मुलगा? चॅम सुतीने…. त्याचं काय झालं? त्याला आठवलं, पहिल्या महायुद्धानंतर परतल्यानंतर त्याला त्या मुलाची अनुपस्थिती जाणवली होती. त्याने जोसीला त्या मुलाबद्दल विचारलं.

‘ माझा तो छोटा पेंटर कुठे आहे?’

‘कुणास हाऊक, तो कुठे निघून गेला!’ तिने उत्तर दिले.

‘कदाचित तो परत येईल.’

‘असंच होवो. कुणास ठाऊक?’

त्याच्याबद्दल ती दोघे बोलली ती, ती शेवटचीच वेळ होती. त्याच्यानंतर लगेचच ते ‘ले हॅब्रे’ ला गेले. तिथे मोठ्या संख्येने नावाडी रहात. तिथे व्यापार करणं खूप फायद्याचं होतं. मोठे खुशीचे दिवस होते ते. दोन महायुद्धातील मधला काळ. बंदराजवळ त्याचे छोटेसे दुकान होते. तिथेच रहायला आरामशीर घर होते आणि कामाची मुळीच कमतरता नव्हती.

मग दुसरे महायुद्ध सुरू झाले. जोसी मारली गेली. जर्मन फौजा तिथे पोचल्या आणि त्याबरोबरच त्याच्या व्यापाराचा शेवट झाला. त्यानंतर कुणालाही आपल्या हातावर चित्र नको होते. कुणालाही गोंदवून घ्यायचे नव्हते. आता नावीन काही काम शिकायचं म्हंटलं, तर तो खूप म्हातारा झाला होता. निराश होऊन  तो पॅरीसला गेला. त्याला काहीशी आशा होती, की या मोठ्या शहरात जगणं सोपं होईल. पण तसं झालं नाही.

आता युद्ध समाप्तीनंतर त्याच्यापाशी काही साधने उरली नव्हती, ना पैसा, ना ऊर्जा, की तो आपला छोटासा व्यापार पुन्हा सुरू करू शकेल. जगण्यासाठी काय करायला हवं, हे जाणून घेणं, त्याच्यासारख्या म्हातार्‍यासाठी सोपं नव्हतं. विशेषत: भीक मागण्याची त्याची इच्छा नसताना. पण मग तो कसा जिवंत रहाणार?

त्याने पेंटिंगकडे एकटक बघत विचात केला, हे पेंटिंग तर माझ्या जुन्या मित्राचे आहे. त्याने आपला चेहरा खिडकीच्या काचेच्या अगदी जवळ आणला. आतमधील प्रदर्शनाकडे बघितले. प्रदर्शनातील भिंतींवर त्याच चित्रकाराची आणखीही अनेक चित्रे टांगलेली होती. अनेक लोक प्रदर्शनात लावलेली चित्रे बघत फिरत होते. हे एक विशेष प्रदर्शन होते. अचानक कुठल्या तरी आवेगाने ट्रिओली वळला आणि प्रदर्शनाचे दार उघडून तो आत गेला. ती एक लांबलचक खोली होती. खाली फरशीवर मद्याच्या रंगाचा गालीचा पसरलेला होता. परमेश्वरा, इथे सगळं कसं सुंदर आणि ऊबदार आहे. तिथे असलेले बहुसंख्य कलाप्रेमी पेंटिंग्जची वाखाणणी करत होते. ते सगळे नीट-नेटके, प्रतिष्ठित, सभ्य लोक होते. प्रत्येकाच्या हातात, सूची-पत्र होते. ट्रिओलीला त्याच्याच जवळून, त्यालाच संबोधणारा एक आवाज ऐकू आला. ‘तू इथे काय करतोयस? ’ ट्रिओली निश्चल उभा राहिला.

‘कृपा करून तू या माझ्या प्रदर्शनातून बाहेर निघून जा.’ काळा सूट घातलेला एक माणूस म्हणत होता.

‘ का? मला पेंटिंग बघण्याची परवानगी नाही? ‘

‘मी तुला इथून निघून जायला सांगतोय.’  पण ट्रिओली आपल्या जागी तासाच दृढपणे उभा राहिला. अचानक त्याला आपण पराजित आहोत, अपमानित झालो आहोत, असे वाटू लागले.

‘ इथे गडबड, गोंधळ करू नकोस.’ तो माणूस म्हणत होता. ‘चल. इकडे या बाजूला ये.’ त्याने आपला जाडजूड गोरा हात ट्रिओलीच्या खांद्यावर ठेवला आणि त्याला दरवाजाकडे जोरात ढकलू लागला. मग काय?

‘ आपला माझा खांद्यावरचा हात काढून घ्या.’ ट्रिओली किंचाळला. त्याचा आवाज त्या  प्रदर्शनाच्या खोलीत घुमला आणि सगळे लोक त्या आवाजाच्या दिशेने वळले. सगळे खोलीतले चेहरे दुसर्‍या बाजूने त्या आवाजाच्या दिशेकडेच बघत होते. सगळे आपआपल्या जागी गुपचूप उभे राहून हे भांडण बघत होते. त्यांच्या चेहर्‍यावर असा भाव होता, की बाकी काही का होईना तिकडे, आम्ही ठीक आहोत. आमच्यावर काही संकट ओढवलेले नाही. दूर होईल ही समस्या.

‘माझ्याजवळदेखील या पेंटरने बनवलेले हे पेंटिंग आहे.’ तिथल्या एका पेंटिंगकडे बोट दाखवत ट्रिओली ओरडला. ‘तो माझा मित्र होता. माझ्याजवळ त्याने दिलेले असेच एक पेंटिंग आहे.’

‘हा कुणी तरी वेडा दिसतोय.’

‘अरे, कुणी तरी पोलिसांना बोलवा. ‘

आपल्याला मागे वळवत अचानक ट्रिओली त्याच्या पकडीतून सुटला. त्याला थांबवण्यापूर्वीच, तो ओरडत खोलीच्या दुसर्‍या टोकाकडे पळाला. ‘ मी आपल्या सर्वांना दाखवतो’, असं म्हणत त्याने आपला ओव्हरकोट काढून फेकून दिला. मग त्याने आपलं जाकीट आणि शर्टदेखील काढून टाकला. तो वळला. त्याची उघडी पाठ आता लोकांच्याकडे होती. ‘हे बघा. ‘ भराभरा श्वास घेत तो म्हणाला. ‘बघितलंत आपण? हे पेंटिंग तेच आहे ना! ‘

अचानक त्या खोलीत नि:स्तब्ध शांतता पसरली. जो जिथे होता, तिथेच थांबला. न हलता, न बोलता. ते सगळे अस्वस्थसे  त्याच्या पाठीवर गोंदलेले  पेंटिंग एकटक पहात होते. पेंटिंग पाठीवर होते आणि त्यातील रंग पाहिल्यासारखेच अजूनही उठावदार दिसत होते. लोक म्हणू लागले, ‘अरे देवा, हे पेंटिंग खरोखरच इथे आहे.’

‘ हे त्याच्या सुरुवातीच्या पेंटिंगसारखं आहे.’

‘हे सारं विलक्षण आहे…  विलक्षण आहे… ‘

‘आणि बघा ना, चित्रकाराने इथे आपली सहीदेखील केली आहे.’

‘ हे  त्याचे जुने पेंटिंग आहे. कधी बनवले त्याने हे पेंटिंग?’

न वळता  ट्रिओली म्हणाला, हे पेंटिंग १९१३ मधे बनवलं. १९१३च्या पानगळीच्या वेळी. सुतीनेला गोंदण्याचे काम कुणी शिकवलं? त्याला ते काम मी शिकवलं. आणि या चित्रात जी युवती दिसते आहे, ती  कोण होती? ती माझी पत्नी होती.’

त्या प्रदर्शनाचा मालक गर्दीला धक्के मारत ट्रिओलीकडे येत होता. तो शांत आणि अतिशय गंभीर होता. त्याच्या ओठांवर आता एक हसू खेळत होतं. ‘ मी हे पेंटिंग विकत घेईन. ऐकलत मान्यवर, मी म्हंटलं, मी हे पेंटिंग विकत घेईन.’

‘आपण हे पेंटिंग कसं विकत घेऊ शकाल? ‘ ट्रिओलीने हळुवारपणे विचारले.

‘ या पेंटिंगसाठी मी आपल्याला दोन लाख फ्रॅंक्स देईन. ‘

‘छे:: छे: असं करू नका.’ गर्दीतील कुणी तरी फुसफुसला. ‘याची किंमत त्याच्या वीस पट तरी जास्त असली पाहिजे.’

ट्रिओलीने बोलण्यासाठी तोंड उघडलं, पण त्याच्या तोंडातून शब्द काही फुटला नाही. म्हणून त्याने तोंड बंद केलं. मग त्याने दुसर्‍यांदा तोंड उघडलं आणि हळूच म्हणाला, ‘पण मी कसा विकणार?’त्याने आपले हात उचलले आणि असहाय्यसे खाली पडू दिले.

पोट्रेट – क्रमश: भाग २ 

मूळ इंग्रजी कथा – रोअल्ड डाल्ह

हिन्दी अनुवादखाल हिंदी अनुवादक  – सुशांत सुप्रिय मो. -8512070086

मराठी स्वैर अनुवादपोट्रेट  अनुवादिका –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तोच चंद्रमा नभात” ☆ श्री मनोज मेहता ☆

श्री मनोज मेहता

? मनमंजुषेतून ?

“तोच चंद्रमा नभात☆ श्री मनोज मेहता 

कधीकाळी बाबूजींची अन् माझी ओळख तरी होईल का, हेच माहीत नव्हतं, मैत्री तर दूरच ! आणि अचानक डॉ. पुणतांबेकर यांनी १८ एप्रिल २००० रोजी, फर्मान सोडलं, “मनोज, बाबूजींची छायाचित्रं तूच काढायचीत, आपल्याला उद्या त्यांच्या घरी जायचे आहे.” आणि त्याप्रमाणे आम्ही सकाळी १० वाजता बाबूजींच्या घरी पोचलो. सोसायटीच्या नामफलकावर एकच नाव मराठीत होतं, ते म्हणजे………… ‘सुधीर फडके’.

डॉक्टरांच्या मागून मी जरा घाबरतच घरात प्रवेश केला आणि, ज्यांनी करोडो मराठी रसिकांच्या मनावर आपले नाव कोरले, त्यांचे मला साक्षात  दर्शन  झाले. लेंगा – झब्बा, बुटकी मूर्ती, प्रसन्न चेहरा! मी  भारावून काही क्षण पहातच राहिलो. त्यांनी “पाणी घ्या”, असं म्हटल्यावर, मी भानावर आलो.

डॉक्टर आणि बाबूजींचं बोलणं सुरू झालं. आणि माझं काम झपाझप सुरू झालं. आत्ताच्या भाषेत कँडीड छायाचित्रं… पूर्ण रोल संपला. त्यांच्या गप्पा संपल्या व डॉ. पुणतांबेकर म्हणाले, “मनोज आता आमची छायाचित्रे काढ”. 

मी लगेच म्हणालो, “माझी छायाचित्रे काढून झालीत”. 

मी असं म्हणताच डॉक्टर अचंबित होणे स्वाभाविक होते, पण बाबूजींनाही कुतूहल वाटले. गप्पांच्या ओघात त्यांचे माझ्या हालचालींकडे लक्षच नव्हते. आम्ही मग चहा घेऊन डोंबिवलीत परतलो. 

दुसऱ्या दिवशी मी रंगीत छायाचित्रे घरीच डेव्हलप केले आणि डॉक्टरांना फोन करून बाबूजींचा क्रमांक घेतला. बाबूजींशी दूरध्वनीवर बोललो. ते म्हणाले, “अहो, मीच तुमचा क्रमांक मागणार होतो. बरं झालं तुम्हीच दूरध्वनी केला. उद्या येताय का माझ्या घरी, वेळ आहे का तुम्हाला?”

“अहो बाबूजी, मी यासाठीच फोन केला होता, येतो नक्की”, असे सांगून दुसऱ्या दिवशी सकाळी १० वाजता दादरला त्यांच्या घरी पोहचलो. त्यांना नमस्कार केला, तेव्हा ते म्हणाले, “नमस्कार आई-बाबांना करायचा”.

छायाचित्रे हातात दिल्यावर, कधी एकदा ते उघडुन पाहू, अशी एखाद्या लहान मुलासारखी उत्सुकता दर्शवणारी बाबूजींची गंमत मी पाहिली. सगळी छायाचित्रे पाहून झाल्यावर मला म्हणाले, “इकडे या हो”. 

मी त्यांच्याजवळ गेल्यावर, त्यांनी दोन्ही हात माझ्या खांद्याला पकडून, माझ्या दोन्ही गालांचे गालगुच्चे घेतले. त्या क्षणाला मला माझा ‘सर्वोच्च बहुमान’ झाला असे वाटले. ते म्हणाले, “अहो, इतकी वर्ष कुठे होतात?”

त्यानंतर डोंबिवलीचे शिवसेनेचे धड़ाडीचे कार्यकर्ते नितिन मटंगे ह्यांनीही, ‘मला बाबूजींच्या गाण्यांच्या सूचीचे पुस्तक करायचे आहे, तूच बाबूजींची छायाचित्रे काढायचे’, असे म्हणून मला त्यांच्या घरी नेले. मला पाहताक्षणी बाबूजी नितिनला म्हणाले, “तुमच्या पुस्तकात माझे झक्कास छायाचित्र येणार”. असे बाबूजींनी म्हणताच, नितिन व वसंतराव वाळुंजकर हे उडालेच ! 

तद्नंतर वारंवार बाबूजींचा आणि माझा कधी प्रत्यक्ष, कधी दूरध्वनीवरून संवाद होणे तर कधी त्यांच्या घरी गप्पांचा फड कसा रंगत गेला हे कळलेच नाही. असे आमचे मैत्रीचे धागे जुळत गेले. 

डोंबिवलीचे बाबूजी, म्हणजे विनायक जोशी, यांचा दिल्लीत महाराष्ट्र मंडळातर्फे कार्यक्रम होता. विनायकचा हट्ट होता छायाचित्रे मनोजनेच काढावीत. हा हट्ट विनायकचा काल, आज व उद्याही असणारच. त्याने इतके अचानकच ठरवले आणि बाबूजींनाही तिथे पुरस्कार दिला जाणार होता.

बाबूजींबरोबर जाण्यास, श्रीधरजींना वेळ नव्हता, म्हणून त्यांनी मला विचारले, “मनोज, तुम्ही याल का माझ्याबरोबर दिल्लीला?” त्यांना मी छायाचित्रे काढायला तिथे येणार हे माहीत नव्हते. माझा तर आनंदच गगनात मावेना! आणि दिल्लीत त्या संपूर्ण सोहळ्यात मी एकटाच छायाचित्रकार ! 

महाराष्ट्र मंडळाचे मुख्य संयोजक श्री. हेजिब यांनी ७ केंद्रीय मंत्र्यांसमोर, श्री. लालकृष्ण आडवाणी ह्यांच्या हस्ते माझा सत्कार केला, तेव्हा बाबूजी म्हणाले, “मनोज, कॅमेरा द्या, मी तुमचं छायाचित्र काढतो.” केवढा हा माझा सन्मान. मला तर गगणाला गवसणी घातल्यासारखे वाटू लागले.

लगेच दोन महिन्यांनी बाबूजींना कलकत्ता येथे पुरस्कार समारंभासाठी जायचे होते. तेव्हाही बाबूजींनी आग्रहाने मला बरोबर नेले. तेव्हा मी बाबूजींना म्हटलं, “बाबूजी, तुमच्यामुळे हा योग आला.” तेव्हा लगेच ते म्हणाले, “तुमचे काम छान आहे, म्हणून सगळे तुम्हालाच बोलवतात.” कुठेही ते स्वतःला मोठेपणा घेत नसत. अशा दिलखुलास, सदाबहार, प्रेमळ पितृतुल्य व्यक्तिमत्त्वाचा सहवास मला लाभला त्याबद्दल मी स्वतःला खूप भाग्यवान समजतो.

माझी व शंना नवरे काकांची ४५ वर्षांची मैत्री असूनही, शंना काकांनाही असूया वाटली. गमतीने म्हणाले, “मनोज, तुझी बाबूजींशी इतकी कशी रे मैत्री झाली ?”

बाबूजींना नतमस्तक होऊन म्हणावेसे वाटते,

“सूर गेले दूर आता, शब्द मागे राहीला, चंद्र होता साक्षीला… चंद्र होता साक्षीला….”

© श्री मनोज मेहता

डोंबिवली  मो ९२२३४९५०४४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ पहिला प्रकाश – भाग-1 ☆ श्री राजीव गजानन पुजारी ☆

श्री राजीव गजानन पुजारी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ पहिला प्रकाश – भाग-1 ☆ श्री राजीव गजानन पुजारी 

(सायके मोहिमेने सुदूर अंतराळातून लेसरद्वारा पृथ्वीशी साधलेला दूरसंवाद )

काल्पनिक विज्ञानचित्रपट व टी.व्ही. सिरीयल्समध्ये परग्रहवासीय पृथ्वीवरील व्यक्तींशी दूरसंवाद साधताना दिसतात. त्यावेळी ते किती सोपे वाटते नाही! लक्षावधी प्रकाश वर्षे दूर असणाऱ्या दूरच्या ग्रहावरून हे परग्रहवासी पृथ्वीवासीयांशी व्हिडिओद्वारे जो दूर संवाद साधतात त्यातील चित्रांची व आवाजाची गुणवत्ता अप्रतिम असल्याचे जाणवते आणि या दूरसंवादात परग्रहवासीयांचे पृथ्वीवासीयांशी  बोलणे व दिसणे क्षणाचाही विलंब न होता झालेले दिसते. या काल्पनिक दूरसंवादाची क्षमता वास्तवाशी मेळ खाते का? तर मुळीच नाही!!

पृथ्वीवरून अंतराळाकडे व अंतराळातून पृथ्वीकडे करण्यात येणारा दूरसंवाद ही एक आव्हानात्मक गोष्ट आहे. सुदैवाने इस्त्रो, नासा व इतर अंतराळ संस्थांकडे अंतराळातून मिळालेला विदा पृथ्वीकडे आणण्याची क्षमता व कौशल्य आहे. इस्त्रोचे दुरमिती, अनुपथन आणि समादेश ( ISRO Telemetry, Tracking and Command – ISTRAC) नेटवर्क व भारतीय सुदूर अंतराळ संपर्क व्यवस्था ( Indian Deep Space Network – IDSN) तसेच नासाचा अंतराळ दूरसंवाद आणि दिक् चलन कार्यक्रम ( Space Communications and Navigation – SCaN) आणि सुदूर अंतरीक्ष संपर्क व्यवस्था ( Deep Space Network – DSN ) व इतर देशांच्याही याप्रकाराच्या प्रणाली यांमुळे चंद्रयान सारख्या मोहिमा, आंतरराष्ट्रीय अंतरीक्ष थांबा (international space station), चंद्र व मंगळावरील बग्ग्या (rovers) किंवा नासाची आर्टिमिस योजना यांचेबरोबर विदेचे अदानप्रदान करणे शक्य झाले आहे.

चला तर मग, अवकाशीय दूरसंवाद साधतांना येणारी आव्हाने व विविध देशांच्या अंतराळसंस्था या आव्हानांचा सामना करतांना सध्या कोणते तंत्रज्ञान वापरतात व भविष्यात कोणते तंत्रज्ञान वापरणार आहेत याचा आढावा घेऊया.

१) मूलभूत माहिती :-

अगदी सोप्या भाषेत सांगायचे तर अवकाशीय दूरसंवाद दोन गोष्टींवर बेतला आहे. त्या म्हणजे प्रक्षेपक(transmeter) व ग्राहक किंवा प्राप्तकर्ता (receiver). प्रक्षेपक विद्युतचुंबकीय लहरींवर  मॉड्युलेटरच्या मदतीने संदेश (message) संकेतन (encode) करतो. संदेशानुसार किंवा पाठविल्या जाणाऱ्या विदेनुसार लहरींच्या गुणधर्मात बदल घडून येतो, ज्यामुळे पाठवल्या जाणाऱ्या विदेचा  मतितार्थ कळून येतो. या लहरी मग अंतराळातून प्राप्तकर्त्याकडे जातात. प्राप्तकर्ता मग या विद्युतचुंबकीय लहरींचे ग्रहण करून त्या  डिमॉड्युलेट करून संकेताचे उकलन किंवा विसंकेतन करतो. हे म्हणजे आपल्या घरातील वायफाय राऊटर व  त्याच्याशी संलग्न उपकरणांसारखे आहे. राऊटरला इंटरनेटद्वारे मिळालेला विदा तो प्रत्येक उपकरणांकडे प्रक्षेपित करतो. अवकाशीय दूरसंचार हा साधारण याच धर्तीवर घडवून आणला जातो. फक्त त्याचा आवाका मोठा व अंतर खूपच जास्त म्हणजे काही प्रकाश वर्षांइतके असू शकते.

२) दूरसंवाद उपकरणांचे जमिनीवरील जाळे :-

अंतराळाशी दूरसंवाद म्हणजे फक्त अंतराळयानाचा अँटीना जमिनीकडे रोखणे एव्हढेच नाही. नासाच्या दूरसंवाद अँटीनांचे जाळे जगभरात – सर्व सात खंडामध्ये- पसरलेले आहे. या अँटीना अंतराळयानांकडून येणारे प्रक्षेपण ग्रहण करतात. जमिनीवरील स्थानके आणि अंतराळयाने यांच्यातील दूरसंवादाची योजना नेटवर्क अभियंते काळजीपूर्वक आखतात. अंतराळयान अँटीनावरून जात असतांना अँटीना विदा ग्रहण करण्यासाठी सज्ज आहे याची ते खात्री करतात.

भूस्थित अँटीना विविध आकार व क्षमतेच्या असतात. अंतरीक्ष स्थानकला बॅकअप दूरसंवाद पुरविणाऱ्या अतिउच्च वारंवारीतेच्या लहान अँटीना ते ११ अब्ज मैल अंतरावर असणाऱ्या व्हॉयेजर अंतराळयांनांसारख्या सुदूर मोहिमांशी दूरसंवाद साधणाऱ्या २३० फुटी अँटीनांएवढ्या अजस्त्र!!

३) अंतराळ सहक्षेपक (space relays):-

थेट जमिनी बरोबर दूर संवाद साधण्याबरोबरच अनेक मोहिमा सहक्षेपक उपग्रहांद्वारा पृथ्वीशी संवाद साधतात. उदाहरणार्थ अंतराळस्थानक अनुपथन आणि विदासहक्षेपक उपग्रहांकडे  (Tracking and Data Relay Satellites – TDRS) विदा पाठविते. नंतर हे उपग्रह न्यू मेक्सिको व गुआम येथील भूस्थानकांकडे हा विदा सहक्षेपित करतात. चंद्रयान ३ चा लॅन्डर चंद्रयान दोनच्या ऑर्बिटर कडे विदा पाठवायचा, नंतर हा ऑर्बिटर पृथ्वीकडे विदा सहक्षेपित करायचा. सहक्षेपकांमुळे दूरसंवाद उपलब्धतेसाठी खास फायदा मिळतो. उदाहरणार्थ TDRS पृथ्वी भोवतालच्या अंतराळात तीन वेगवेगळ्या ठिकाणी प्रस्थापित करण्यात आले आहेत. त्यामुळे पृथ्वी समिप कक्षेतील अंतराळयाने आणि जमीन यांच्यातील संवाद अखंडित राहतो आणि आपणास पूर्ण पृथ्वीचा विदा प्राप्त होतो. अंतराळयान भूस्थीत स्थानकावरून जाण्याची वाट बघत बसण्यापेक्षा टीडीआरएस दिवसाचे २४ तास व आठवड्याचे सातही दिवस विदा सहक्षेपित करतात.

४) बँडविड्थ :-

नासा व इस्त्रो विद्युत चुंबकीय वारंवारितेच्या (frequency)विविध बँड्समध्ये विदा संकेतन करीत असतात. या वारंवारितांच्या श्रेणी म्हणजेच बँडविड्थ्सच्या वेगवेगळ्या क्षमता असतात. मोठ्या बँडविड्थ्स प्रत्येक सेकंदाला जास्त विदा वाहून नेतात, त्यामुळे अंतराळयान जमिनीकडे विदेचे प्रक्षेपण जास्त त्वरेने करू शकते. सध्या सर्वच अंतराळसंस्था दुरसंवादासाठी प्रामुख्याने रेडिओ तरंगांचा वापर करतात. पण आता नासा आवरक्त समीप लेसरचा वापर संप्रेषणासाठी करायचा प्रयोग करीत आहे. याविषयीची माहिती पुढे येईलच. या प्रकारच्या संप्रेषण पद्धतीमुळे – ज्याला प्रकाशकीय दूरसंवाद असे संबोधण्यात येते- पूर्वी कधीही मिळाला नव्हता एवढा विदा पाठवण्याचा वेग प्राप्त होणार आहे. लेसर दूरसंवाद सहक्षेपक प्रक्षेपण प्रात्यक्षिकांमुळे (Laser Communication Relay Demonstretion- LCRD) प्रकाशकीय दूरसंवादाचे फायदे समोर आलेच आहेत. या मोहिमेत कॅलिफोर्निया आणि हवाई स्थित भूस्थानकांमध्ये  प्रकाशकीय दुव्याद्वारे (optical link) पृथ्वीसमीप कक्षेतील उपग्रह वापरून विदेचे सहक्षेपण pकरण्यात आले. नासा लवकरच अंतराळ स्थानकावर प्रकाशिय अग्र (optical terminal) बसविणार आहे. यामुळे अंतराळस्थानक एलसीआरडी द्वारा जमिनीकडे विदा सहक्षेपित करू शकेल.

५) विदा पाठविण्याचा वेग :-

जास्त बँडविड्थ्स  म्हणजे मोहिमेसाठी विदेचा जास्त वेग. अपोलो ११ ज्यावेळी चंद्रावर उतरले त्यावेळी त्यांनी पाठविलेले व्हिडिओ कृष्णधवल रंगात व अस्पष्ट होते. तुमच्यापैकी जर कोणी ते बघितले तर तुम्हाला आढळेल की त्यात आपण ज्याला मुंग्या म्हणतो तशा दिसायच्या. अगदी नजीकच्या काळात आयोजिलेल्या आर्टीमिस-२ मोहिमेमध्ये यानावर प्रकाशीय अग्र असतील, त्यामुळे चंद्राच्या कक्षेतून मिळणारे व्हिडिओ ४ के अल्ट्रा हाय डेफिनेशनचे असतील. विदेच्या वेगवान देवाणघेवाणीसाठी बँड विड्थ हा एकमेव अडथळा नाही. विदेच्या वेगावर परिणाम करणाऱ्या इतर घटकांमध्ये प्रक्षेपक व प्राप्तकर्ता यांच्यातील अंतर, अँटिनाचा किंवा प्रकाशीय अग्र यांचा आकार, दोन्ही बाजूकडे उपलब्ध असणारी ऊर्जा क्षमता यांचा समावेश होतो. विविध  देशांच्या अंतरिक्ष संस्थांमधील अभियंत्यांना विदेचे वेगवान आदान प्रदान करण्यासाठी या सर्व गोष्टींचा समतोल साधावा लागेल.

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री राजीव गजानन पुजारी 

विश्रामबाग, सांगली

ईमेल – [email protected] मो. 9527547629

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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