हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-२ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-२ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(मनमोहिनी मॉलीन्नोन्ग, डिव्हाईन, डिजिटल डिटॉक्स (divine, digital detox))

प्रिय पाठकगण,

कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

यहाँ प्राकृतिक रूप से बसे बांस के बनों का कितना और कैसे बखान करें! मुझे तो बांस इस शब्द से बेंत से ज्यादातर रोज खाई मार(रोज  कम से कम ५) ही याद आती है| उसमें से ९९. ९९% बार मार पड़ती थी, स्कूल में देरी से पहुँचने के लिए| (मित्रों, ऐसा कुछ खास नहीं, स्कूल की घंटी घर में सुनाई देती थी, इसलिए, जाएंगे आराम से, बगल में ही तो है स्कूल, यह कारण होता था!) यहाँ बांस का हर तरफ राज है! कचरा डालने हेतु जगह जगह बांस की बास्केट, यानी खोह (khoh), उसकी बुनाई इतनी सुंदर, कि, उसमें कचरा डालने का मन ही नहीं करेगा! यहाँ लोगोंके लिए धूप तथा बारिश से बचाव करने के लिए भी फिर बांस के अत्यंत बारीकी और खूबसूरती से बने प्रोटेक्टिव्ह कव्हर होते हैं! अनाज को सहेज कर रखने, मछली पकड़ने और आभूषण बनाने के लिए बांस ही काम आता है ! बांस की अगली महिमा अगले भाग में!

सवेरे सवेरे यहाँ की स्वच्छता-सेविकाएं कचरा इकठ्ठा करने के काम में जुट जाती हैं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं के बराबर, क्यों कि पॅकिंग के लिए हैं छोटे मोटे पत्ते! प्राकृतिक रूप से जो भी उपलब्ध हो उसी साधन संपत्ती का उपयोग करते हुए यहाँ के घर बनाये जाते हैं(फिर बांस ही तो है)! जैविक कचरा इकठ्ठा कर यहाँ खाद का निर्माण होता है| यहाँ है open drainage system परन्तु क्या बताएं, उसका पानी भी प्रवाही और स्वच्छ, गटर भी कचरे से बंद नहीं(प्रत्यक्ष देखें और बाद में विश्वास करें!) सौर-ऊर्जा का उपयोग करते हुए यहाँ के पथदीप स्वच्छ रास्तोंको प्रकाश से और भी उज्जवल बना देते हैं| अलावा इसके हर घर में सौर-दिये(बल्ब) और सौर-टॉर्च होते ही हैं, बारिश के कारण बिजली गायब हो तो ये चीजें काम आती हैं! प्रिय पाठकगण, ध्यान दीजिये, यह मेघालय का गांव है, यहाँ मेघोंकी घनघोर घटाएं नित्य ही छाई रहती, तब भी सूर्यनारायण के दर्शन होते ही सौर-ऊर्जा को सहेज कर रखा जाता है! और यहाँ हम सूर्य कितनी आग उगल रहा है, यह गर्मी का मौसम बहुत ही गर्म है भैय्या, इसी चर्चा में मग्न हैं! यहाँ होटल नहीं हैं, आप कहेंगे फिर रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या? क्यों कि पर्यटक के रूप में यह सुविधा अत्यावश्यक होनी ही है! यहाँ है होम् स्टे(home stay) , आए हो तो चार दिन रहो भाई और फिर चुपचाप अपने अपने घर रवाना हो जाओ, ऐसा होता है कार्यक्रम! यहाँ आप सिर्फ मेहमान होते हैं या किरायेदार! मालिक हैं यहाँ के गांव वाले! हमें अपनी औकात में रहना जरुरी है, ठीक है न? कायदा thy name!  किसी भी प्रकारका धुआँ नहीं, प्लास्टिक का उपयोग नहीं साथ ही पानी का प्रबंधन है ही(rain harvesting). अब तो “स्वच्छ गांव” यहीं इस गांव का USP (Unique salient Point), सन्मान निर्देशांक तथा प्रमुख आकर्षण बन चुका है! गांवप्रमुख कहता है कि इस वजह से २००३ से इस गांव की ओर पर्यटकों की भीड़ में बढ़ौतरी होती ही जा रही है! गांववालों की आय में ६०%+++ वृद्धि हुई है और इस कारण से भी यहाँ की स्वच्छता को गांव वाले और भी प्रेमपूर्वक निभाते हैं, सारा गांव जैसे अपना ही घर हो ऐसी आत्मीयता और ऐसा भाईचारा देखने को मिलते हैं यहाँ! मित्रों,यह विचार करने योग्य चीज है! स्वच्छ रास्ते और घर इतने दुर्लभ हो गए हैं, यहीं है कारण कि हम लज्जा के मारे सर झुका लें!

मावलीन्नोन्ग(Mawlynnong) इस दुर्घट नाम का कोई गांव पृथ्वीतल पर मौजूद है , इसका मुझे दूर दूर तक अता-पता नहीं था! वहां जाने के पश्चात् इस गांव का नाम सीखते सीखते चार दिन लग गए (१७ ते २० मई २०२२), और गांव को छोड़ने का वक्त भी आ गया! शिलाँग से ९० किलोमीटर दूर बसा यह गांव| वहां पहुँचने वाली राह दूर थी, घाट-घाट पर वक्राकार मोड़ लेते लेते खोजा हुआ यह दुर्गम और “सुनहरे सपनेसा गांव” अब मन में बांस का घर बसाकर बस चुका है! उस गांव में बिताये वो चार दिन न मेरे थे न ही मेरे मोबाइल के! वो थे केवल प्रकृति के राजा और उनके साथ झूम झूम कर खिलवाड़ करती बरसात के! मैंने आज तक कई बरसातें देखी हैं! अब तक मुंबई की बरसात मुझे सबसे अधिक तेज़ लगती थी! लेकिन इस गांव के बारिश ने मुंबई की घनघोर बारिश की “वाट लगा दी भैय्या”! और यहाँ के लोगों को इस बरसात का कुछ खास कुतूहल या आश्चर्य नहीं होता! शायद उनके लिए यह सार्वजनिक स्नान हमेशा का ही मामला है! अब मेघालय मेघों का आलय (hometown ही कह लीजिये) फिर यह तो उसीका घर हुआ न, और हम यहाँ मेहमान, ऐसा सारा मामला है यह! वह यहाँ एंट्री दे रहा है यहीं उसके अहसान समझ लें, अलावा इसके लड़कियां झूले और लुकाछुपी खेल कर थक जाती हैं और थोड़ी देर के लिए विश्राम लेती हैं, वैसे ही वह बीच बीच में कम हो रहा था| हमारा नसीब काफी अच्छा था, इसलिए उसके विश्राम की घड़ियाँ और हमारी वहां के प्राकृतिक स्थलों को भेंट देने की घड़ियाँ पता नहीं पर कैसे चारों दिन खूब अच्छी तरह मॅच हुईं! परन्तु रात्रि के समय उसकी और बिजली की इतनी मस्ती चलती थी, कि  उसे धूम ५ का ही दर्जा देना होगा और गांव की बिजली (आसमानी नहीं) को धराशायी करने वाले इस जबरदस्त आसमानी जलप्रपात के आक्रमण के नूतन नामकरण की तयारी करनी होगी!  

मॉलीन्नोन्ग सुंदरी: सैली!

खासी समाज में मातृसत्ताक पद्धति अस्तित्व में है! महिला सक्षमीकरण तो यहाँ का बीजमंत्र ही है| घर, दुकान, घरेलु होटल और जहाँ तक नजर पहुंचे वहीँ महिलाऐं, उनकी साक्षरता का प्रमाण ९५-१००%. आर्थिक गणित वे ही सम्हालती हैं! बाहर काम करने वाली प्रत्येक स्त्री के गले में स्लिंग बॅग(पैसे के लेनदेन के लिए सुविधाजनक व्यवस्था)| हमने भी एक दिन एक घर में और तीन दिन एक अन्य घर में वास्तव्य किया! वहां की मालकिन का नाम Salinda Khongjee, (सैली)! यह मॉलीन्नोन्ग सुंदरी यहाँ के क्यूट, नटखट और चंचल यौवन की प्रतिनिधि समझिये! फटाफट, द्रुत लय में काम निपटने वाली, चेहरे पर कायम मधुर हास्य! यहाँ की सकल स्त्रियों को मैंने इसी तरह काम निपटते देखा! मैंने और मेरी लड़की ने इस सुन्दर सैलीसे छोटासा साक्षात्कार किया| (इस जानकारी को प्रकाशित करने की अनुमति उससे ली है) वह केवल २९ वर्ष की है! ज्यादातर उसके पल्लू अर्थात जेन्सेम में छुपी (खासी पोशाक का सुंदर आविष्कार यानी जेन्सेम, jainsem) दो बेटियां, , ५ साल और ४  महीने की, उनके पति, , Eveline Khongjee (एवलिन), जिनकी उम्र केवल २५ साल है! हमने जिस घर में होम स्टे कर रहे थे वह घर था सैलीका और हमारे इस घर के बाएं तरफ वाला घर भी उसीका है, जहाँ वह रहती है! हमारे घर के दाहिने तरफ वाला घर उसके पति का मायका, अर्थात उसकी सास का और बादमें विरासत के हक़ के कारण उसकी ननद का! उसकी मां थोड़े ही अंतर पर रहती है|सैली की शिक्षा स्थानिक स्कूल और फिर सीधे शिलाँग में जाकर बी. ए. द्वितीय वर्ष तक हुई|(पिता का निधन हुआ इसलिए अंतिम वर्ष रहा गया!) विवाह सम्पन्न हुआ चर्च में (धर्म ख्रिश्चन)| यहाँ पति विवाह के बाद अपनी पत्नी के घर में जाता है! अब उसके पति को हमारे घर के सामने से(उसके और सैली के)मायके और ससुराल जाते हुए देखकर बड़ा मज़ा आता था| सैली को भी अगर किसी चीज की जरुरत हो तो फटाफट अपनी ससुराल में जाकर कभी चाय के कप तो कभी ट्रे जैसी चीजें जेन्सेम के अंदर छुपाकर ले जाते हुए मैं देखती तो बहुत आनंद आता था! सारे आर्थिक गणित अर्थात सैली के हाथ में, समझे न आप! पति ज्यादातर मेहनत के और बाहर के काम करता था ऐसा मैंने निष्कर्ष निकाला! घर के ढेर सारे काम और बच्चियों की देखभाल, इन सब के रहते हुए भी सैलीने हमें साक्षात्कार देने हेतु समय दिया, इसके लिए मैं उसकी ऋणी हूँ ! इस साक्षात्कार में एक प्रश्न शेष था, वह मैंने आखिरकार, उसे आखरी दिन धीरेसे पूछ ही लिया, “तुम्हारा विवाह पारम्परिक या प्रेमविवाह? इसपर उसका चेहरा लाज के मारे गुलाबी हुआ और “प्रेमविवाह” ऐसा कहकर सैली अपने घर में तुरंत भाग गई! 

प्रिय पाठकगण, मॉलीन्नोन्ग का महिमा-गीत अभी शेष है, तो, बस अभी के लिए खुबलेई! (khublei यानी खासी भाषा में खास धन्यवाद!) 

क्रमशः -2 

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री प्रभा सोनवणे आणि सौ. अर्चना देशपांडे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ सम्पादकीय निवेदन 

   

सुश्री प्रभा सोनवणे

सौ.अर्चना देशपांडे

? सुश्री प्रभा सोनवणे आणि सौ.अर्चना देशपांडे – अभिनंदन  ?

साहित्यप्रेमी भगिनी मंडळ – पुणे यांचे पुरस्कार नुकतेच जाहीर झाले असून, ई-अभिव्यक्तीच्या कवयित्री सुश्री प्रभा सोनवणे यांना ज्येष्ठ कवयित्री योगिनी जोगळेकर स्मरणार्थ काव्यातील योगदानाबद्दल काव्ययोगिनी हा पुरस्कार मिळाला आहे, तर मंडळाने घेतलेल्या कथास्पर्धेत आनंदीबाई लिमये लघुकथा पुरस्कार, सौ. अर्चना देशपांडे या आपल्या ई-अभिव्यक्तीच्या लेखिकेला मिळाला आहे. या स्पर्धेत त्यांना पहिल्या क्रमांकाचा  पुरस्कार मिळाला आहे.  

? सुश्री प्रभा सोनवणे आणि सौ. अर्चना देशपांडे यांचे ई-अभिव्यक्तीतर्फे हार्दिक अभिनंदन! व पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा ?

संपादक मंडळ

 ई-अभिव्यक्ती मराठी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ समाधीस्थ  ज्ञानदेव… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ समाधीस्थ  ज्ञानदेव… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

आळंदी सोडून चालली ती,

चार सान गोजिरी  मुले !

काट्याकुट्यांच्या मार्गामध्ये,

अडखळत होती त्यांची पाऊले!….१

   आळंदीकरांनी  हिणविले तयांना,

‘.   ‘संन्याशाची मुले’ म्हणूनी!

      व्याकुळलेली मने घेऊनी,

     चालली लेकरे हतबल होऊनी!..२

निवृत्तीचा स्वभाव संयत,

ज्ञानाची त्या होती साथ!

सोपान मुक्ता पाठी त्यांच्या,

 चालू लागले अवघड वाट!…३

  पैठण क्षेत्री गेली भावंडे,

  मिळेल काही न्याय म्हणूनी!

 मोठे पण त्यांचे नाही आले,

  शास्त्री पंडित यांच्याही ध्यानी!..३

दुःखी होऊनी परत निघाली,

घेऊन आली शुद्धिपत्रास !

आता तरी मिळेल का हो,

 करण्या आम्हा आळंदीत वास!..४

पैठण,नेवासे वाट चालता,

 केले काही चमत्कार जनी!

कळून येता त्यांची महती,

 अवाक् झाली सारीच मनी!…५

आळंदीला परतून येता,

 ज्ञाना म्हणे कार्य ते झाले!

गुरु निवृत्तीची आज्ञा होता,

 समाधी घेण्या सिद्ध जाहले!..६

तिथे पाहिली जागा सत्वर,

 खोल विवर शोधिले त्यांनी!

ज्ञानदेव त्या विवरी शिरता,

 शिळा ठेवली निवृत्तीनाथांनी!…७

योगेश्वर रूप ते ज्ञानदेव,

आळंदीस समाधीस्थ झाले!

अजून त्याची साक्ष देत हा,

 सोन्याचा पिंपळ त्यावरी झुले !…८

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 208 ☆ वाट माझी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे


? कवितेच्या प्रदेशात # 208 ?

वाट माझी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

चांदण्याची वाट माझी

चालले आहे सुखाने

भोगले जे सौख्य येथे

तृप्ततेच्या जाणिवेने

एक छोटा गाव माझा

डोंगराच्या पायथ्याशी

जन्म माझा धन्य झाला

चंद्र घेता मी उशाशी

वाट माझी गंध ल्याली

रातराणी शुभ्र साधी

चार वाटा ज्या मिळाल्या

चौक झाला की सुगंधी

त्या सुगंधी वादळाला

काय आता नाव द्यावे

जन्म घेण्या या इथे मी

चांदणी, आकाश व्हावे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डुल्लू… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

☆ डुल्लू… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

हा शब्द ऐकला आणि खूप गंमत वाटली. आणि आठवले लहान बाळ. ज्याला पहिली टोचणी मिळते पाचव्या किंवा बाराव्या दिवशी.आणि जगात आल्याचे बक्षीस म्हणून पाहिला दागिना मिळतो तोच हा डुल्लू म्हणजेच डूल त्या डुलच्या सोन्याच्या तारेने कान टोचणी होते.अर्थात हे हौसेचे असते. आणि न रडणारे बाळ पण त्या टोचणीने अगदी आकांताने रडते. जणू पुढच्या आयुष्यात होणाऱ्या कान टोचणीची नांदीच! अर्थात दोन्ही अर्थाने होणारी कानटोचणी फायद्याचीच असते.

कानाच्या खालच्या भागात एक बिंदू असतो तो डोळे व मेंदू यांना ऍक्टिव्ह बनवतो.  डोळ्यांच्या नसा या बिंदूतून जातात. त्यामुळे  दृष्टी तीक्ष्ण होण्यास मदत होते. त्याच बरोबर लहान व मोठा मेंदू एक्टिव्ह होतो.या बरोबरच कान टोचल्याने शरीराचा तो बिंदू उघडतो ज्यामुळे पचनक्रिया सुधारण्यास मदत होते. कान टोचल्याने लठ्ठपणाही कमी होतो.

एक्यूप्रेशर तज्ञांच्या मते, कानाच्या खालच्या भागात मास्टर सेन्सरी आणि मास्टर सेरेब्रल नावाचे 2 कानाचे लोब असतात. या भागांना छेद दिल्यास बहिरेपणा निघून जातो. कानाला छिद्र केल्याने स्पष्ट ऐकू येते.

ज्या ठिकाणी कान टोचले जाते ते थेट स्त्रियांच्या प्रजनन अवयवांशी संबंधित आहे. कान टोचल्याने महिलांना मासिक पाळीच्या अनियमिततेच्या समस्येपासून आराम मिळतो  त्याचप्रमाणे मासिकपाळीच्या काळात  होणारा त्रास कमी होतो. मध्यभागी कान टोचले तर सगळ्या रक्तवाहिन्या एक्टिवेट होतात.

कानाचे बिंदू टोचून घेऊन धातू वापरल्याने अंगातील वात ताब्यात राहतो.  आपल्या या सर्व जुन्या आणि मागासलेल्या परंपरा चालीरीतींना वैज्ञनिककदृष्ट्या  महत्त्व आहे.

एका डूल ने सुरु झालेला दागिन्यांच्या प्रवास कितीही दागिने घेतले,घातले तरी संपत नाही.पण आज आपण फक्त कानातील दागिने बघू.

तसे कान न टोचता सुद्धा विविध प्रकारे कानात घालू शकतो.आणि त्याचे फायदे पण विविध आहेत. जसे क्लिपचे,चुंबकीय,नुसते दाब देऊन चिकटणारे इत्यादी. बरे हे इथेच संपत नाही. याच बरोबर कानातले चौकडा,कुडी,भोकर, वेल,पट्टी,रिंग,झुबे,टॉप्स,सोन्याचे कान असे विविध प्रकार असतात. शिवाय पुरुषांचे  कानातील दागिने पण असतातच. ही परांपरा अगदी पूर्वी पासून आहे. पूर्वीचे राजे,महाराजे यांचे फोटो किंवा चित्रे तर त्यांच्या कानात भिकबाळी व बाळी दिसतेच.

रामायण महाभारत काळापासून कर्णभूषणे प्रचलित होती. त्यांचे दोन प्रकार होते. १) कानाच्या वरच्या भागात घालायचे कर्णभूषण याला कर्णिका म्हणत. २) कानाच्या खालच्या पाळीत घालायची कर्णभूषणे याला कुंडल म्हणत.

गोलाकार व नक्षीदार कुंडलांना मकरकुंडले म्हणत. वर्तुळाकार प्रफुल्ल कमळाप्रमाणे असलेल्या कर्णभूषणास कनक कमल म्हणत.

भिकबाळी ही उजव्या कानात वरच्या बाजूस घातली जात होती.

ती घातल्याने मूत्र साफ होते.

व मानसिक स्वास्थ्य चांगले रहाते. जेथे पाण्याचे दुर्भीक्ष असेल तेथे ही भिकबाळी लघवी साफ होण्यासाठी उपयुक्त असते.म्हणून वाळवंटी प्रदेशात कानाच्या पाळीच्या वरच्या बाजूस कान टोचून तेथे भिकबाळी, सुंकली किंवा छोटी बाळी घातली जाते.

पूर्वी सोन्याची तार  खोबऱ्याच्या वाटीला टोचून ठेवायचे आणि त्या तारेने बाळाचे कान टोचले जायचे. आता वेगवेगळी मशिन्स आहेत. पूर्वी कानाच्या पाळीला खालच्या बाजूला एकाच ठिकाणी छिद्र करत असत.पण आता कान २/३ ठिकाणी तर ५/६ ठिकाणी पण टोचलेला दिसतो. म्हणजे ही आरोग्या विषयी जागृती व फॅशन दोन्ही एकत्र करता येते. आहे की नाही फायदा?

या एका कान टोचण्याने (दोन्ही अर्थाच्या) कितीतरी फायदे होतात. तर आपणही याचा फायदा मिळवू व इतरांना पण करुन देऊ.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

हिलिंग, मेडिटेशन मास्टर, समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पाणक्या… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ पाणक्या… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

विजयराव देवाचे स्तोत्र म्हणत होते, सायंकाळचे सात वाजले होते, स्तोत्र म्हणता म्हणता विजयरावांच्या डोक्यात विचार येत होते, थोड्या वेळाने कुकर लावू, दुपारी हॉटेल मधुरमधून मागवलेली आमटी व भाजी आहे, फ्रिजमध्ये दही आहे. विजयरावांची ही नेहमीची पद्धत, सायंकाळी सातच्या सुमारास देवापुढे निरंजन लावायचे, मग स्तोत्र म्हणायचे. वसुधा आजारी पडेपर्यंत देवाचे सर्व तीच पहायची. त्यामुळे रात्री आठ पर्यंत विजयराव पार्कमध्ये फिरत. वसुधा आजारी पडली आणि विजयरावांचे फिरणे थांबले. बाहेर पडायचे ते फक्त बाजारहाट करण्यासाठी, आता बऱ्याच गोष्टी ऑनलाइन होतात, त्यामुळे बाहेर जाणे कमीच, पेन्शन बँकेत जमा होते, सुनील चा फोन रात्री नऊ वाजता नेहमीचाच, तोपर्यंत जेवून घ्यायचे आणि त्याच्या फोनची वाट पाहायची, असा त्यांचा दिनक्रम.

सव्वासाच्या सुमारास बेल वाजली, विजयरावांनी होल मधून बाहेर पाहिले, मध्यम वयाचा एक गृहस्थ बाहेर उभा होता.

कोण पाहिजे? विजयरावांनी विचारले.

” दादासाहेब एवढ्या वर्षांनी तुम्ही ओळखणार नाही मला.’

” दादासाहेब ‘ ही हाकच इंदोरची. इंदूरच्या घरात सर्वजण त्यांना दादासाहेब म्हणत.

” तुम्ही इंदोरहून आलात का,? दादासाहेबांनी विचारले.

“नाही ‘, दादासाहेब मी शामू, तुमच्या इंदोरच्या वाड्यात कामाला होतो लहानपणी.

“कोण शामू? अरे तू म्हणजे……., दादासाहेब थोडं थोडं आठवू लागले.” दादासाहेब मी शामू “पाणक्या’, तुमच्या दातेंच्या वाड्यावर मी पाणी भरायचो। आठवलं नाही का?’

” अरे तू शामू?’, दादासाहेबांनी संपूर्ण दार उघडलं.

” कुठे होतास इतकी वर्ष?

शामू आत आला आणि दादासाहेबांच्या पाया पडला.

” अरे एवढा मोठा झालास तू, माझ्या पाया काय पडतोस, ये. ये. बस.’

” नाही दादासाहेब पहिल्यांदा तुम्ही बसा ‘.

” बर बाबा ‘, म्हणत विजयराव कोचवर बसले. त्याच क्षणी शामू येऊन त्यांच्या पायाकडे बसला आणि त्यांचे पाय चुरू लागला.

” अरे शामू काय करतोस हे?, माझे पाय दाबतोस, केवढा मोठा झालास तू.’ “मोठा झालो इतरांसाठी, तुमच्यासाठी नाही दादासाहेब. अजून मी  ” पाणक्या ‘ शामूच आहे तुमच्यासाठी. तुम्ही माझे अन्नदाते मालक, तुमच्या वाड्यावर मिळणाऱ्या तुकड्यावर माझे बालपण गेले, ते कसे विसरू?”

” ते जुने दिवस होते रे बाबा, इंदूर मध्ये आम्ही रावसाहेब, संस्थानिकांचे सरदार होतो. पण ते सर्व संपले आता. या मुंबईत आम्हाला कोण विचारतो?’

” कोणी विचारू न विचारू, तुम्ही माझे अन्नदातेच आहात,”

” ते असू दे, तू आधी त्या खुर्चीवर बस पाहू “.तसा शामू एका लहानशा स्टुलावर बसला.” कुठे होतास इतकी वर्ष? माझ्या अंदाजाने 35 40 वर्षानंतर दिसतोयस तू मला.”

” हो दादासाहेब, इंदूरला तुमच्या वाड्यावर होतो तेव्हा आठ नऊ वर्षाचा होतो. आणि तुम्ही कॉलेजमध्ये होतात.“

” हो बहुतेक तेव्हा मी एम. कॉम.ला होतो. मग मी बँकेत लागलो आणि मग भारतभर बदल्या. शेवटी मुंबईत येऊन स्थायिक झालो.”

” मग इंदूरचा वाडा आणि त्यातले संस्थानिकांचे सरदार सरदार, एवढी माणसं? नोकर मंडळी? “

” सगळा पोकळ वासा होता तो, संस्थानिकांचे सरदार म्हणून सगळा खर्च सुरू होता. आमच्या पाच-सहा पिढ्यांनी नुसतं बसून खाल्लं. तळ्यात साठवलेलं पाणी किती दिवस पुरणार? त्यासाठी झरा हवा असतो, तो झरा तलाव रिकामा करू देत नाही., आमच्या कुटुंबात झराच नव्हता. शेवटी मी निर्णय घेतला, कर्ज अंगावर येत होतं, सगळे डाम दौंल बंद केले. नोकर चाकर कमी केले, आई वडील गेल्यावर मी बँकेत नोकरी धरली.”

” आणि दादासाहेब एवढा मोठा वाडा? “

“वाडाही कोसळत होता मागून, तो विकला,  आता त्या ठिकाणी मॉल उभा राहिलाय, कालाय तस्मै नमः”

“हो दादासाहेब, मी पाहून आलो.“

” तू इंदूरला गेला होतास? “

” हो तर, तुमच्या शोधात होतो मी, दोन वर्षांपूर्वी खूप वर्षांनी भारतात आलो, पहिल्यांदा इंदूरला गेलो तर वाड्याच्या ठिकाणी मॉल उभा,, शेवटी तुमचा पत्ता शोधत शोधत या ठिकाणी आलो.”

” मग पत्ता मिळाला कसा?”

” इच्छा असली तर मार्ग सापडतो दादासाहेब, मी इंदोरहून बाहेर पडलो तेव्हा तुम्ही कोणत्यातरी बँकेत नोकरीला लागला होतात, हे माहीत होतं, मात्र कुठली बँक हे माहीत नव्हतं, मग मी भारतातील प्रमुख बँकांच्या ऑफिसमध्ये पत्र लिहून तुमचा पत्ता विचारला, पण तुमचा सध्याचा पत्ता कोणाला माहित नव्हता. इंदूर मध्ये चौकशी केली तेव्हा कोणी अचलपूर, नागपूर तर कोणी पंढरपूरचा पत्ता दिला, या प्रत्येक शहरात तुमचा पत्ता मिळविण्याचा प्रयत्न केला, पण यश आले नाही, शेवटी मुंबईत जीपीओ मध्ये या नावाचे पत्र कोणत्या पत्त्यावर देता अशी चौकशी केली आणि हा सांताक्रूझ चा तुमचा पत्ता मिळाला.”

” धन्य आहे तुझ्यापुढे! एवढी आठवण ठेवून तू येथे पोहोचलास याचे मला कौतुक वाटते, तू भेटलास आणि दादासाहेब अशी हाक मारलीस, मी इंदूरला असल्यासारखे वाटले. रम्य आठवणी असतात रे त्या. आता मी मुंबईत एकटाच राहतो, बायको वसुधा चार वर्षांपूर्वी गेली, मुलगा सुनील जर्मनीत स्थायिक झालाय, तिथल्या मुलीशी लग्न करून तेथेच सेटल झालाय. इंदूरचा वाडा विकला मी कारण कर्ज फार झालं होतं. रावसाहेबांचा तोरा मिरवताना खर्च सुरूच होते. उत्पन्न नव्हते. आता परत इंदूरमध्ये जाऊन छोट्या घरात राहणे कमीपणाचे वाटते, नोकरीत शेवटचा स्टॉप मुंबई होता, सुनील चे शिक्षण पण होते, या दृष्टीने मुंबईत सेटल झालो, पण इंदूर ते इंदूर, तिथली मजा मुंबईत नाही, स्वच्छ शहर, खाण्यापिण्याची लय लूट, गाणे संगीत भरपूर.     “अरे शामू पण तू मुंबईत राहतोस कुठे?”                                 ” दादासाहेब, आता यापुढे मी मुंबईतच राहणार आहे. त्याविषयी सर्व सांगतो नंतर, पण दादासाहेब, आज मात्र मी या घरी रहाणार आहे.”                        ” अरे रहा ना, मी पण इथे एकटाच,आहे. बोलायलाही कोणी नाही. सुनील चा रोज रात्री नऊ वाजता फोन येतो, त्याची मुलगी आहे पाच वर्षाची ती पण बोलते., कधी कधी सून बोलते, बरं दुपारची आमटी भाजी आहे, दही आहे, भात लावतो थोडा.”

” मी लावतो दादासाहेब, तुम्ही बसा. मला फक्त तांदळाचा डबा दाखवा.”

” अरे मी करतो भात मला रोजची सवय आहे. “

” नाही दादासाहेब, मी असताना तुम्हाला कसलेही काम करू देणार नाही, तुम्ही बसा. “

विजयरावांनी शामला तांदळाचा डबा दाखवला. त्यातून तोडे तांदूळ घेऊन शामने गॅसवर भात लावला. फ्रिज उघडून दही बाहेर काढलं, फ्रिज मधून दोन अंडी बाहेर काढून त्याचे हाफ आमलेट तयार केले. छोट्या पातेल्यात सकाळची आमटी भाजी झाकून ठेवली होती. ती गॅसवर गरम केली. भांड्याच्या स्टॅन्ड वरून ताटे, वाट्या, ग्लासेस बाहेर काढले, आणि दोन ताटे तयार केली. त्यातील एक टेबलावर ठेवले. शेजारी पाणी ठेवले आणि म्हणाला, “दादासाहेब बसा.”                             विजयराव टेबलावर जेवायला बसले, त्यांनी पाहिलं दुसरे ताट घेऊन श्याम खाली फरशीवर बसला होता.

” अरे शाम वर बस जेवायला.’

“नाही दादासाहेब, तुम्ही जेवत असताना याआधी मी कधी तुमच्या सोबत बसलो नाही आणि यापुढे बसणार नाही. “

“अरे शाम, ते दिवस गेले, मागचे विसरायचे आता. “

” नाही विसरणार दादासाहेब, एका खेड्यातल्या अनाथ मुलाला तुमच्या घरात आश्रय मिळाला, “पाणक्या ” होतो मी. तुमच्या घरात आडावरून पाणी भरत होतो, रोज प्रत्येकाच्या खोलीत पाण्याचा तांब्या नेऊन ठेवत होतो, तुम्ही कॉलेजमधून किंवा खेळून आलात की मला हाक मारत होतात, मी तुम्हाला पाण्याचा तांब्या आणून देत असे, जेवणाची वेळ झाली की तुमचे ताट तुमच्या खोलीत आणून देत असे, मग तुमच्या खोलीत माझी जेवणाची ताटली घेऊन येत असे आणि खाली बसून जेवत असे.”

” होय पण या त्या वेळच्या गोष्टी होत्या, त्यावेळी आम्ही इंदूरच्या संस्थानिकांचे रावसाहेब होतो, सध्याची माझी ओळख म्हणजे एका बँकेतून रिटायर झालेला माणूस “. ” असू दे, पण तुम्ही इंदूरच्या रावसाहेबांच्या पोटी जन्म घेतला हे विसरू नका, माझ्यासारख्या कित्येक आश्रीतांना तिथे अन्न वस्त्र निवारा मिळाला होता. “

क्रमश: भाग १

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ झेन आणि आनंदी राहण्याची कला ☆ श्री सुनील काळे ☆

श्री सुनील काळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ झेन आणि आनंदी राहण्याची कला ☆ श्री सुनील काळे 

झेन आणि आनंदी राहण्याची कला 

काही दिवसांपूर्वी झेन तत्वज्ञानाविषयी एक पोस्ट वाचनात आली होती . त्या पोस्टमध्ये फार सोप्या शब्दात जीवन आनंदाने जगण्याची तत्वे सांगितली होती .

* झेन हा शोधाचा आणि आनंदाने जगण्याचा मार्ग आहे. आयुष्याला आत्ता आणि इथेच अनुभवण्याचा स्पष्टपणे पाहण्याचा आणि सरळपणे अनुभवण्याचा मार्ग आहे.

* कोणतीही गोष्ट करताना ती मनाच्या विशिष्ट एकाग्रतेने,मनाच्या शांतपणानं आणि साधेपणानं करणं,ज्यात ज्ञानाचा अनुभव येतो आणि त्या अनुभवातून आनंद मिळतो  ही गोष्ट म्हणजे झेन होय.

*आपले आयुष्य जगत असताना आपल्या सोबत घडणारी प्रत्येक गोष्ट ही आपल्या सोबत घडु शकणारी सर्वोत्तम गोष्ट आहे असे समजावे म्हणजे आपण आनंदात जगु शकतो.

* तुमचा सर्वात वाईट शत्रू तुमचे जितके नुकसान करु शकणार नाही तितकेच बेसावध विचार तुमचे नुकसान करु शकतात पण एकदा का आपण त्यांच्यावर प्रभुत्त्व मिळवले की आपण आनंदाने राहु शकतो.

* माणसाच्या मनातल्या नकारात्मक भावना या मानसिक आजारासाठी कारणीभूत ठरतात तर सकारात्मक भावना या रोगमुक्तीसाठी अत्यंत आवश्यक असतात.

* एखादी गोष्ट तेव्हाच अनुकूल ठरते जेव्हा माणूस तिच्याशी जुळवून घेतो.

* आयुष्याच्या मार्गांवर जशी तुमची वर्तणूक असेल त्याचप्रमाणे तुमचे आयुष्य उलगडत जाते.

* तुम्ही तुमच्या आयुष्यात घडणाऱ्या प्रसंगांना कशी प्रतिक्रिया देता,हे तुमच्या वैयक्तिक तत्त्वज्ञानानुळे निश्चित होतं.तुमच्या आनंदासाठी आणि हितासाठी ते पुर्णपणे जबाबदार असते .

* सत्य नेहमीच हाताच्या अंतरावर,तुमच्या आवाक्यातच असते.

* जेव्हा धामधुमीतसुद्धा तुम्ही शांत राहु शकता तीच निसर्गाची खरी अवस्था असते.

* जेव्हा तुम्ही दुःखाच्या काळातही आनंदी राहु शकता तेव्हा तुम्ही मनाचे खरं सामर्थ्य पाहु शकता.

* माझ्यासोबत जे काही घडतं ते केवळ मला त्यापासुन सर्वाधिक फायदा व्हावा या एकाच हेतुनं घडते.

* आयुष्यातील अटळ बदलांशी जुळवून कसं घ्यावं,निरोगी मार्गानं तणाव कसा हाताळावा आणि तुमच्या दैनंदिन आयुष्यात आनंद कसा जोपासावा? वर्तमानात जगत असतानाही भविष्य कसं बदलावे ? याविषयी झेन तत्वज्ञान सकारात्मक शिकवते .  

आपण ज्या क्षेत्रात कार्यरत असतो त्या विशिष्ट क्षेत्रात अनेक छोटे छोटे विषय असतात आणि या विषयात सुद्धा अनेक छोटे छोटे संप्रदाय तयार झालेले असतात . या संप्रदायानांसुद्धा अनेक वेगवेगळे फाटे फुटलेले असतात आणि या फाट्यांमध्ये सुद्धा अनेक नवनवीन प्रयोग होत असतात . 

काही जण हे प्रयोग , नव्या दिशा , नव्या वाटा , नवे विचार यांचे सहजपणे आत्मचिंतन करून आपल्या जीवनात खरोखर परिवर्तन करून घेतात . या नव्या चिंतनामुळे जो आतमधून बदल होतो , तो बदल होत असताना व झाल्यानंतर आतमध्ये अनेक रोमांचित घटना तयार होत असतात . 

आपल्या वाढण्याऱ्या शरीरात वयामुळे , अनुभवांमुळे , मनामध्ये खूप नाजुक , हळुवारपणे नकळतपणे खूप आश्चर्यचकीत करणारे बदल होत असतात पण त्याकडे आपण जाणीवपूर्वक दुर्लक्ष करतो . त्यामूळे खरं तर आपले नुकसानच होते .

झेन तत्वज्ञान स्वतःला ओळखवायला , आतमध्ये डोकावयाला प्रेरीत करत असते .

एकदा एक उत्कृष्ट नाव कमावलेला , निष्णात जसे दिसते तसे रेखाटणारा , रंगवणारा निसर्गचित्रकार होता . तो वेळ मिळाला की सर्व साहीत्य घेऊन निसर्गात जायचा . डोंगर , दऱ्या , इमारती , रस्ते , नद्या , समुद्र , बोटी , किल्ले यांची प्रत्यक्ष जागेवर जाऊन चित्र काढायचा . अगदी बारीकसारीक सर्व डिटेल्स रंगवायचा , रंगवताना तल्लीन होऊन जायचा . त्याला स्वतःचे रंगवलेले निसर्गचित्र पाहुन खूप आनंद व्हायचा व आपण खूप भारी चित्रकार आहोत असा थोडा अहंकारही त्याच्या मनात निर्माण झाला होता . त्या चित्रकाराने आपल्या निसर्गचित्रांची प्रदर्शने करून थोडेफार व्यावसायिक यशही मिळवले होते .

एक दिवस त्याने आपल्या चित्रांचा एक मोठा गट्टा सोबत घेतला आणि तो त्याच्या एका गुरूनां दाखवायला व मार्गदर्शन घेण्यासाठी घेऊन गेला . हे गुरुजी झेन तत्वज्ञानाचे अभ्यासक होते . मोठी साधना केली होती त्यांनी . गुरुजींनी त्याचे प्रत्येक चित्र नीट ,शांतपणे , व्यवस्थितपणे पाहीले आणि चित्राची फाईल पुन्हा होती तशी ठेवली .

निसर्गचित्रकाराने मार्गदर्शनपर बोलण्याची विनंती केली पण गुरुजी काही पुढे बोलण्यासच तयार दिसेनात. त्याचा मोठा अपेक्षाभंग झाला व तो परत जायला निघाला . निघताना त्याने गुरुजींच्या पायावर डोके ठेवले .

दरवाजातून बाहेर जाताना त्याने पाहीले की गुरुजी काही तरी सांगत आहेत . तो परत आत आला व जमीनीवर मांडी घालून शांतपणे डोळे मिटून बसला .

गुरुजी म्हणाले प्रत्येक ठिकाणी जाऊन जसे दिसते तसे रेखाटण्याचे कौशल्य तू फार कष्टाने मिळवले आहेस . त्याबद्दल तुझे स्वागत व अभिनंदन करतो . पण आता तुझे डोळे मिटलेले आहेत . आता तुझ्या आतमध्ये डोकावून पहा . तिथला निसर्ग तुला दिसतो आहे का ?

आपण सगळेच जण बर्हीमुखी झालेलो आहोत . आपण बाहेरचा निसर्ग , बाहेरचे रुप , बाहेरचे जग पाहुन एकमेकांची कॉपी व तुलना करून , स्पर्धा करून , जसे दिसते तसे पाहतोय . तेच चित्रण कागदावर , कॅनव्हासवर रंगवतो . आतला निसर्ग , आतला आवाज , आतले जग, आतली अद्भूत दृश्ये , आतला आनंद , आतल्या वेदना कागदावर कधी रंगवणार ?  ज्या दिवशी तु आनंद , दुःख , सर्व संवेदना रंगवायला सुरुवात करशील त्यावेळी तुझी चित्रे नक्की वेगळी असतील . निसर्गात फिरशील त्यावेळी चिंतन कर , खूप वेळा नजर खिळवून एकाच ठिकाणी बस . ते दृश्य मनात साठव . शरीरातल्या सर्व रक्तवाहिन्या , धमन्यांमध्ये ते दृश्य खेळते राहील व नंतर हृदयावर त्याचे एक प्रतिबिंब उठेल असे ठरव व नंतर त्या प्रतिबिंबालाच कागदावर उतरव . तन मन धन चित्रांवर केद्रींत कर ,एक वेगळे अनवट चित्र निर्माण होईल . जे आतून येईल ते तुझे खरे चित्र असेल.

मग मी देखील या झेन गुरुजींना मनःपूर्वक नमस्कार केला व आतून चित्र काढता येतात का त्याचा प्रयत्न करू लागलो . मनाच्या आतमध्ये खुप खोलवर गेल्यावर उंचचउंच पाचगणीच्या टेबललॅन्डचे पठार दिसू लागले . त्या पठाराच्या अतिउंच कड्यावर मी स्वतः उभा राहून खाली वाकून पाहतोय असे काहीसे दिसू लागले . सभोवतालच्या डोंगररांगा कडेकपाऱ्या , आसमंतात भरलेली शुद्ध हवा , धुक्याची किमया , सुर्यकिरणांमुळे चमकणाऱ्या निसर्गाचे अद्भूत दर्शन दिसू लागले . मग पेन्सीलने रेखाटणे करण्याचीही गरज वाटत नव्हती . सगळे रंग आपोआप एकमेकांचा हात धरून हे अनोखे आकार , वेगळे भावविश्व वेगळे रूप धारण करून चित्रे कागदावर उतरू लागली . जसजसे आत जावू लागलो तसतसे बाहेरच्या जगाचा विसर पडू लागला . स्पर्धा संपल्या, टिकास्त्रे संपली , द्वेष संपला , विरोध संपला , मोठा चित्रकार होण्याची हाव संपली . आतमध्ये एक अद्भूत उजेड आहे . एक मोठी पोकळी आहे . त्या स्वच्छ निर्वात पोकळीतून प्रवास करताना आता फक्त आनंदच आनंद दिसत आहे .

तुम्ही देखील या झेन गुरुजींचे कधी तरी ऐका 🙏

कदाचित तुम्हालाही झेन गुरुजींचे ऐकल्यामूळे धर्मभेद ,जातीभेद , व्यक्तिभेद , स्वार्थ , आंदोलने , टिकास्त्र , हिंसा , द्वेष , सामाजिक , राजकीय , आर्थिक , मानसिक भेदाभेदीचा विसर पडेल व आपल्या आतल्या अनोख्या विश्वात संचार करून नव्या प्रकाशाचा उजेड सापडेल . 

प्रत्येकाला असा आतला नवा आनंद, नवा उजेड सापडावा यासाठी शुभेच्छा ! 💐

© श्री सुनील काळे

संपर्क – 32, निसर्ग बंगला, मेणवली रोड, स्वप्नपूर्ती मंगल कार्यालयाजवळ, मु .पो. भोगाव, ता. वाई, जि.सातारा – ४१२८०३. 

मेल : [email protected]

मोब. 9423966486, 9518527566

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ आपण यांना ओळखलंत का? ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

? इंद्रधनुष्य ?

आपण यांना ओळखलंत का? ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆ 

हे आहेत क्रांतिकारक बटुकेश्वर दत्त, क्रांतिकारी भगतसिंह यांचे सहकारी. 

भगतसिंह आणि बटुकेश्वर दत्त. यांनी नॅशनल असेंब्ली मध्ये बाॅम्ब टाकला होता. तेव्हा हे नाव सर्वतोमुखी झाले. भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव यांना फाशी झाली आणि बटुकेश्वर दत्त यांना अंदमानला काळ्या पाण्याची शिक्षा झाली. तेथील यातनामय शिक्षेने त्यांना क्षयरोगाची बाधा झाली, परंतु ते वाचले. नंतरही अन्यत्र त्यांना तुरुंगवास भोगावा लागला.

१९४७  साली भारत स्वतंत्र झाला तेव्हा बटुकेश्वर दत्त यांची सुटका झाली. अंजली नावाच्या मुलीशी त्यांचा विवाह झाला. बटुकेश्वर दत्त यांच्यापुढे आता पोटाचा प्रश्न उभा राहिला. स्वातंत्र्यासाठी आयुष्य समर्पित करणार्या बटुकेश्वर दत्त यांना दोन वेळच्या जेवणासाठी गोळ्या -बिस्कीटे विकावी लागली. 

त्यांना कळाले की पटना येथे बस चालवण्यासाठी लायसन्स मिळत आहे. त्यासाठी ते कमिश्नरला भेटले परंतु त्यांना स्वतंत्र भारतात स्वातंत्र्यसैनिक असल्याचे प्रमाणपत्र मागण्यात आले. काय वाटले असेल या क्रांतिकारकाला? ज्याला ब्रिटीश सरकार भयभीत व्हायचे, ज्याने स्वतंत्र भारतासाठी सर्वस्व अर्पण केले, तो आता स्वतंत्र भारतात लाचाराप्रमाणे सरकारी कार्यालयात खेटे घालत होता.

१९६४ मध्ये ते आजारी पडले तेव्हा त्यांना सरकारी दवाखान्यात भरती केले गेले, त्यांची अवस्था पाहून त्यांचे मित्र चमनलाल आजाद यांनी लिहिले होते

” बटुकेश्वर दत्त यांच्यासारख्या क्रांतिकारकांनी भारतात जन्म घ्यावा का? परमेश्वराने त्यांना या देशात जन्माला घालुन फार मोठी चुक केली आहे. ज्या व्यक्तीने देशाच्या स्वातंत्र्यासाठी प्राणाची बाजी लावली तो  दवाखान्यात तळमळत आहे,  विचारणारासुध्दा कोणी नाही ?” 

हा लेख प्रसिध्द झाला तेव्हा सरकारला जाग आली, पण वेळ निघुन गेली होती. त्यांची प्रकृती गंभीर झाली होती. शेवटी त्यांना भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानमध्ये (एम्स) दाखल करण्यात आले. तेथील डाॅक्टरांनी सांगितले की आधी पैसे भरा. लोक म्हणाले “अहो, हे महान क्रांतिकारक बटुकेश्वर दत्त आहेत” डाॅक्टर म्हणाले “आम्ही नाही ओळखत, आधी पैसे भरा”

या क्रांतिकारकाचे मन नक्कीच म्हणाले असेल  “जर मी भगतसिंह, राजगुरु आणि सुखदेवसोबत फासावर गेलो असतो, तर मला हा दिवस पहावा लागला नसता”

२० जुलै १९६५ रोजी त्यांचे दिल्ली येथे निधन झाले. त्यांच्या अंतिम इच्छेनुसार त्यांचा अंत्यसंस्कार हुसैनीवाला येथे भगतसिंह, राजगुरु आणि सुखदेव यांच्या समाधिजवळ करण्यात आला. भगतसिंहाच्या आई विद्यावतीदेवी  त्यांना भेटायला आल्या होत्या. त्या बटुकेश्वर दत्तांना “भगतसिंहच” मानत असत.

स्वतंत्र भारतात अशा हजारो क्रांतिकारकांची आम्ही उपेक्षा केली. सावरकरांसारख्या क्रांतिकारकाची तर मेल्यानंतरही उपेक्षा केली जात आहे. आज ज्यांची गीते भारतातल्या तरुणांच्या ओठावर असले पाहिजे, त्यांना आम्ही विसरलो आहोत. टिपु सुलतानसारख्या अत्याचारी लोकांच्या जयंत्या सरकारी खर्चाने साजऱ्या झाल्या आणि मातृभुमीसाठी समर्पण करणार्या क्रांतिकारकांच्या समाध्यांवर “ना दीप जलते है, ना फुल चढते है” अशी अवस्था आहे. क्रांतिकारी रामप्रसाद यांनी लिहिले होते,

कभी वह दिन भी आयेगा,

की आझाद हम होंगेl

अपनी ही जमी होगी l

अपना आसमाॅ होगा

शहिदो की चिताओ पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मरमिटनोवाला यही निशाँ होगा ll

परंतु  या क्रांतिकारकांना  काय माहित ज्यांच्यासाठी आपण फासावर जात आहोत, ते आपली आठवणही काढणार नाहीत. तेच लोक आपल्याला विसरुन जातील. पंडीत नेहरु जेव्हा म्हणाले की, “आम्ही रक्ताशिवाय स्वातंत्र्य मिळवले ” तेव्हा या लोकांच्या आत्म्याला किती वेदना झाल्या असतील? 

हे स्वातंत्र्य आम्हाला “बिना खड्ग बिना ढाल” मिळाले नाही.

हजारो क्रांतिकारकांना त्यासाठी फासावर जावे लागले आहे.

महान क्रांतिकारक बटुकेश्वर दत्त यांची आज जयंती…

अशा महान क्रांतिकारकाला विनम्र अभिवादन ! 🙏

लेखक : अज्ञात 

संग्राहक : अनंत केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर
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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ वेळीच टकटक ऐकायला शिका… ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ वेळीच टकटक ऐकायला शिका… ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

(लहानपणीची अर्धी राहिलेली गोष्ट)

एक होती चिमणी आणि एक होता कावळा. 

चिमणीचं घर होत मेणाचं, याउलट कावळयाचं घर शेणाचं होतं. 

एक दिवस काय झालं आकाशात मोठे मोठे काळे ढग आले. सोसाटयाचा वारा सुटला. टप् टप् पाऊस पडू लागला. झाडे भिजली. जमिनीवरून धो धो पाणी वहायला लागलं. 

कावळयाच घर होत शेणाचं, ते गेले  पाण्यात वाहून, कावळा काकडला. आता कुठे जावं बरं ? एवढयात त्याला आठवलं, चिमणीचं घर आहे शेजारीच. मग कावळा आला चिमणीकडे. 

.. पण चिमणीच्या घराचे दार तर बंद होते. 

‘ चिऊताई, चिऊताई, दार उघड ! ‘ 

चिमणी आतून म्हणाली ‘ थांब माझ्या बाळाला काजळ-पावडर लावते ‘

 थोडावेळ थांबून पुन्हा कावळयाने कडी वाजवली ‘ चिऊताई, चिऊताई, दार उघड ! ‘ 

चिमणी आतून म्हणाली ‘ थांब माझ्या बाळाला झोपवते ‘ 

इकडे कावळयाला खूप भूक लागली होती. पण सगळीकडे पाणीच पाणी झाले होते. काय करतो बिचारा ! एवढंस तोंड करून कुडकुडत उभा राहिला. पण चिमणीने काही केल्या दार उघडले नाही.

 गोष्टीचा पुर्ण केलेला उत्तरार्ध – 

चिमणीचे सगळे काम आटोपले. ती जरा निवांत झाली आणि तेव्हा तिच्या लक्षात आलं की, 

अरेच्च्या ! आपण अजून कावळ्यासाठी दारच उघडलेलं नाही. 

तिला विलक्षण अपराधी वाटलं. 

तिनं बंद दारामागचा कानोसा घेतला. दाराबाहेर शांतता होती. 

ती शांतता चिमणीला असह्य झाली. तिनं तत्परतेनं दार उघडलं. दाराबाहेर कावळा नव्हता. तिने आजू बाजूला फिरून पाहिलं, कावळा कुठेही नव्हता.

‘ गेला असेल कुठेतरी… येईल परत ‘ …. तिने स्वत:च्या मनाची समजूत काढली. 

मात्र, रात्र मावळली… दिवस उगवला, संध्याकाळ झाली आणि परत रात्र आली तरी कावळ्याचा काही पत्ताच नव्हता. 

चिमणीचं मन आज कशातच रमेना … बाळाला न्हाऊ घालण्यातही नाही आणि बाळाला गंध-पावडर करण्यातही नाही … 

कारण एव्हाना तिला सवय झाली होती …. कावळ्याने बंद दारावर केलेल्या टकटकीची …… 

तो आवाज असा काही कानात साठला होता की दिवसातून अनेक वेळा तिने दारावर टकटक झालीय असं समजून दार उघडलं होतं आणि बाहेर कोणी नाही हे पाहून निराशेने बंद केलं होतं… 

अनेक दिवस उलटले …

चिमणीच्या मनातून काही कावळा जाईना. 

मग तिने कावळ्याचा शोध घ्यायचाच असं ठरवून घरट्याबाहेर पाऊल ठेवलं. मजल दरमजल करत फिरताना थकून एका झाडाच्या फांदीवर विश्रांती घेण्यासाठी ती थांबली. 

एवढ्यात त्याच झाडाच्या दुसऱ्या फांदीवरून चिरपरिचित आवाज तिच्या कानावर पडला… 

तो ‘कावळ्याचा’ आवाज होता. तो आवाज ऐकून चिमणीला काय आनंद झाला. सारा थकवा, सारा शीण कुठल्या कुठे पळाला. तिने मोठ्या उत्साहाने त्या फांदीच्या दिशेने झेप घेतली. पहाते तर काय ! 

…. कावळा आपल्या घरट्यात आपल्या पिल्लांसोबत आनंदाने मौज मस्ती करत होता. 

कावळ्याचं लक्ष चिमणीकडे गेलं. चिमणीला पाहून त्याला फार आनंद झाला. तो आनंदाने म्हणाला, 

‘ या या चिमणाबाई. तुमचं स्वागत आहे आमच्या घरट्यात. तुम्हाला भेटून खूप आनंद झाला. बोला, काय करू तुमच्यासाठी? ‘ 

कावळ्याचं ते अगत्य पाहून चिमणी खूप ओशाळली. म्हणाली,- ‘ तुला राग नाही आला माझा? ‘

‘ का यावा? ‘

‘ मी माझ्यात विश्वात गुंग होते म्हणून?’

‘ छे छे! प्रत्येकाचं आपलं असं स्वतंत्र विश्व असतं.. जसं तुझं होतं. तुला त्यात माझी गरज कधीच नव्हती .

तर माझी ती गरज होती म्हणून मी तुझ्या दाराशी आलो. पण नंतर मला माझी चूक कळली. 

माझी गरज भागवण्यासाठी तू तुझ्या विश्वातून बाहेर येऊन मला साथ देणं किंवा तुझ्या विश्वात मला प्रवेश देणं या दोन्हीही गोष्टी ‘अतिक्रमणासारख्याच’ घडल्या असत्या नाही का? आणि कुणाच्याही वस्तूवर, अधिकारावर, भावविश्वावर ‘अतिक्रमण’ करणे चूकच नाही का? म्हणून मग मी स्वत:च वजा व्हायचं ठरवलं आणि निघालो एकटाच …. तुझ्या विश्वापासून दूर.’ 

-’ पण मला एकटे करून? अरे, कावळेदादा मला सवय झालीय आता तुझी.’

‘ चिमणाबाई, या जगात एकटे कोणीच नसतं. जेव्हा आपण एकटे आहोत असं वाटतं ना तेव्हा तो एकांतच आपला सोबती असतो,. जो दाखवत असतो आपल्याला आपल्या आयुष्यातल्या पुढच्या प्रवासाची वाट… 

मलाही दाखवली त्याने आणि बघ ……. आज मी किती आनंदी आहे … माझ्या ‘घरट्यात… माझ्यावर जीवापाड प्रेम करणाऱ्या ‘माझ्या माणसांमध्ये’ ‘

चिमणी नि:शब्द होऊन तिथून निघाली तेव्हा कावळा तिला एवढंच म्हणाला –

‘ चिमणाबाई, माझ्या घरट्यात तू केव्हाही येऊ शकतेस हो. तुझी टकटक ऐकून मी लगेच दार उघडेल … क्षणाचाही विलंब न करता.’ 

चिमणीचे डोळे पाणावले… भरल्या कंठाने निरोप घेऊन तिने परतीची झेप घेतली आपल्या घरट्याकडे… 

पण आज तिच्या पंखात पूर्वीइतकं बळ राहिलं नव्हतं….

आपल्या सगळ्यांचीच अवस्था ना थोड्याफार प्रमाणात त्या चिमणाबाई सारखी झालीय. 

– म्हणजे ?

– म्हणजे कुणीतरी आपलं माणूस आर्तपणे आपल्याला साद घालतंय हे आपल्या ध्यानीच नसतं. 

ह्या आपल्या माणसांमध्ये भाऊ, बहिण, मित्र, मैत्रीण,आई, वडील, बऱ्याचदा पोटची मुलंही असू शकतात…

त्यांची आर्त साद आपल्याला ऐकूच येत नाही…. म्हणजे ते पोटतिडकीने साद घालतात आणि आपण म्हणतो ‘ .. …’थांब मला जरा  करिअर करु दे…. थांब जरा मला आता घर घ्यायचंय… थांब जरा मला आता कार घ्यायचीय … थांब मला काम आहे … थांब मला विश्रांती घ्यायची आहे … थांब जरा मला आता.. ….’ आणि मग ही जंत्री वाढतच जाते.

त्यांची सहन शक्ती संपते … ते त्यांचं वेगळं विश्व तयार करतात… त्या विश्वात आपल्याला स्थान नसतं… आपल्या ते लक्षात नसतं आणि जेव्हा येतं तेव्हा …. आपण फार एकटे झालेले असतो…!!

– आणि असं होऊ नये असं वाटत असेल तर? 

तर मग ‘ मला कोणाचीच  गरज नाही ‘ हा अहंपणा बाळगू नका. 

– वेळीच ‘टकटक’ ऐकायला शिका.

काहीतरी निमित्त करून एकमेकांना भेटत रहा…

कवी : अज्ञात 

संग्राहक : अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈
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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘चांदणे शब्दफुलांचे’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – डॉ मीना श्रीवास्तव ☆

डॉ मीना श्रीवास्तव

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘चांदणे शब्दफुलांचे’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – डॉ मीना श्रीवास्तव ☆

पुस्तक – चांदणे शब्दफुलांचे

लेखक- श्री विश्वास देशपांडे

प्रकाशक-सोहम क्रिएशन अँड पब्लिकेशन, पुणे  

पृष्ठसंख्या- १६८ पाने

मूल्य-२०० रुपये

परिचय : डॉ. मीना श्रीवास्तव 

कोजागिरीच्या मनोरम चांदण्या रात्री अर्थात २८ ऑक्टोबर २०२३ ला चाळीसगावचे जेष्ठ आणि प्रथितयश साहित्यिक श्री विश्वास देशपांडे यांचे ‘चांदणे शब्दफुलांचे’ हे नवे पुस्तक प्रकाशित झाले. पुस्तक वाचल्यावर लक्षात आले की यातील काही लेख समाजमाध्यमांवर आलेले होते. मात्र एक सलग पुस्तक वाचतांना तेच लेख नवे रूप लेऊन आल्याचे जाणवले. जणू चांदण्या रात्रीच्या गोड स्वप्नाची अनुपम अशी अनुभूती जागृतावस्थेत परत अनुभवली. पुस्तकाचे शीर्षक उत्कंठावर्धक आणि देखणे आहेच आणि त्याला साजेशी गर्द निळाईच्या पार्श्वभूमीवर फुललेली कुमुदिनी मुखपृष्ठावर अतिशय आकर्षक दिसते. विश्वास सरांच्या ललित लेखांचा सुरेख कोलाज या आधीच्या पुस्तकांत अनुभवलेला आहे. मात्र या पुस्तकात कोलाज आहे तो विभिन्न व्यक्तिरेखांचा! याला कोलाज म्हणणेच योग्य, कारण प्रत्येक व्यक्तिरेखेची रूपरेषा, मांडणी आणि सजावट वेगवेगळी आहे! मग या सर्वांना जोडणारा एक धागा कोणता तर यातील सर्व मानवी व्यक्तिचित्रे काही सांगतात, बोलतात आणि आपल्याला विचार करायला प्रवृत्त करतात. कांहींचे व्यवसाय उच्चभ्रू तर कांही रोजच्या जीवनातले आपले भागीदार, कांही प्रसिद्धीच्या उंचच उंच शिखरावर विराजित तर कांहींच्या रोजच्या जीवनात अन्न, वस्त्र अन निवारा शोधण्याची धडपड सुरु! असे या पुस्तकातील विविधरंगी अन विविधगंधी व्यक्तिरेषांच्या आडव्या उभ्या धाग्यांनी विणलेले कोलाज वेगळेच सौंदर्य दर्शवते.

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

शीर्षकाच्या नावाच्याच ‘चांदणे शब्दफुलांचे’ या पहिल्या लेखातच वाचकांचे मन एका सुवर्णयुगात पोचते. बालगंधर्व आणि पु ल यांच्यावरचा हा लेख म्हणजे अखिल महाराष्ट्राच्या हृदयसिंहासनावर ज्यांच्या गौरवान्वित अन वलयांकित प्रतिमा कायम कोरल्या गेल्या आहेत, त्या दैदिप्यमान सूर्य चंद्र यांची जणू ‘ज्योतीने तेजाची केलेली आरती’! नारायणराव आणि पुरुषोत्तम या दोन नावातील साम्य साधत लिहिलेला हा अप्रतिम लेख म्हणजे गरम जलेबी अन थंडगार रबडीचे पौष्टिक अन रुचकर कॉम्बो! आता रंगमंचाचा पडदा उघडल्यावर जसे एकाहून एक सरस नटसम्राट रंगमंचावर अवतरतात, तद्वतच हे लेख कागदावर अवतरल्यावर जणू त्या रंगमंचाच्या लखलखीत प्रकाशाला चार चांद लागत आहेत असे वाटते. लावण्याचा गाभा असलेले देखणे महान संतूरवादक दिवंगत पंडित शिवकुमार शर्मा यांच्यावरील लेख विश्वास सरांच्या संगीताविषयी असलेल्या गहन जाणीवा आणि ज्ञानाची साक्ष देतात. तसेच ते दिवंगत झाल्यावर हा लेख लिहिलेला असल्याने पुरुषी सौंदर्याची मूर्तिमंत प्रतिभा अन प्रतिमा आणि संतूरला आंतरराष्ट्रीय ख्याती प्राप्त करून देणाऱ्या या दिग्गज वादकाचे मूर्तिमंत चित्र डोळ्यासमोर उभे राहिले! याच संगीतदालनात ज्यांच्या स्वरात आणि संगीतात ईश्वरी साक्षात्कार होतो, असे संगीतकार गायक हेमंतकुमार यांच्यावरील लेख खूपच वाचनीय असा आहे.

हा झाला एक रंग! मात्र सरांचा आवडीचा अन अभ्यासपूर्ण वाचन, लेखन, भाषण आणि चिंतनातून साकार झालेला भक्तिरंग त्यांना अन त्यांच्यासंगे आपल्यालाही सावळ्या रंगाची बाधा प्रदान करतो. विठू माउली, भगवान परशुराम, ज्ञानेश्वर माउली, गोंदवलेकर महाराज, गणेश उत्सव इत्यादी विविध लेखांतून झिरपत गेलेली दिव्य प्रकाशशलाका थेट आपल्या हृदयाच्या गाभाऱ्यात चैतन्याचे तेजस्वी दीप उजळून टाकते. यासोबतच भेट झालेली नसतांना देखील भेटीची आस धरून बाबासाहेब पुरंदरे यांना श्रद्धांजली समर्पित करीत लिहिलेला लेख असाच हृदयंगम आहे. बाबासाहेबांचे विस्तीर्ण जीवन पटल आपल्यासमोर उलगडण्यात लेखकाची कल्पनाशक्ती, शब्दवैभव अन भावनांचे कल्लोळ यांचा सुरेख मिलाप दिसून येतो. विविध क्षेत्रातील व्यक्तिमत्वे वेचताना लेखकाच्या सामाजिक जाणीवा अत्यंत प्रखर आणि दूरदर्शी आहेत हेच दिसून येते. वनस्पती शास्त्रज्ञ ल्युथर बरबँक, पोलिओची लस शोधून मानवाला निरामय अक्षत जीवन प्रदान करणारा डॉक्टर जोनास साक, कीटकनाशकांचे दुष्परिणाम शोधत नामधारी अन माजलेल्या मल्टिनॅशनल कंपन्यांशी दोन हात करणारा डॉक्टर टायरॉन हेज, सिंगापूरला नाव, रूप अन वैभव प्रदान करणारा ली क्कान यु, क्रांतिसूर्य हेमंत सोमण, सेरेब्रल पाल्सीग्रस्त, पण जिच्या आकांक्षांचा वेलू गगनाला भिडला आहे अशी स्फूर्तीदायिनी आणि चैतन्यमयी वल्लरी करमरकर आणि इतरही व्यक्ती या ललित लेखांच्या मांदियाळीत आपल्याला भेटतील.

सामाजिक व्यक्तिरेखांसह या पुस्तकात सुखनैव नांदणाऱ्या विश्वास सरांच्या नात्यातील अन आसपास वावरणाऱ्या व्यक्तींना देखील आपण जणू प्रत्यक्ष भेटतोय असा भास होतो. शीर्षस्थानी अर्थातच लेखकाच्या तीर्थरूप ‘आई’ आहेत. आई अन मुलाचे भावनिक प्रेममय नाते उलगडणारा हा लेख देवघरातील शांतपणे तेवणाऱ्या पावन नंदादीपाची स्मृती जागवून भावविभोर करून जातो. या पुस्तकात लेखकाने चित्रविचित्र व्यवसायातील मंडळी एकाच पंगतीत आरामात ऐसपैस बसवली आहेत. मिस्त्री, गवंडी, नाभिक अन कल्हईवाला यांच्या सोबत ज्ञानवंत गुरुमूर्ती सर, उच्च विद्याविभूषित डॉक्टर गोपाळ देशपांडे अन त्यांच्या स्वयंप्रकाशित सौ. विभा हे देखील या पंगतीत आहेत. लेखांची नावे अनवट आणि उत्सुकता ताणणारी पण मॅटरमध्ये अन मीटर मध्ये चपखल बसणारी (दोन उदाहरणे देते-वल्लरीवरच्या लेखाचे नाव ‘फिटे अंधाराचे जाळे’ तर नाभिकांवरील लेखाचे शीर्षक-‘सर जो तेरा चकराये’). लेखकाचे गीत-संगीताचे उपजत अन अद्ययावत ज्ञान असे संपूर्ण पुस्तकातून प्रतिबिंबित होत राहते.  

मंडळी, या पुस्तकाच्या व्यक्तिविशेषांकात एकंदरीत ३६ लेख आहेत. अशा रचनेची एक खासियत असते. मैफिलीत जसे प्रत्येक गायक एक स्वतंत्र गाणे म्हणतो, आपण ते गाणे संपल्यावर नवीन गायकाची वाट बघत नव्या कोऱ्या गाण्याची प्रतीक्षा करतो तसेच हे लेख स्वतंत्र, स्वयंसिद्ध आणि स्वयंपूर्ण आहेत. म्हटले तर एका बैठकीत वाचून संपवा, किंवा चवी-चवीने एक-एक लेख निवांतपणे वाचा. दोहोत तितकाच आनंद अनुभवास येतो. लेख प्रमाणबद्ध शरीर सौष्ठव लाभलेल्या सौंदर्यवती नवयौवनेसारखेच आहेत. कुठेही फाफटपसारा नाही, मात्र मॅटर बघावे तर पूर्णत्वास पोचलेले!

विश्वास सरांच्या लेखनशैलीविषयी त्यांच्या आधीच्या सात पुस्तकातून ओळख झाली, ती या पुस्तकांतून वर्धिष्णू झाली. साधी सोपी सरळ भाषा! गुंत्यात गुंता नाही, मात्र अनुभव ‘गुंतता हृदय हे’ असाच! भ्रमर एकदा का मधुर मधुकणांची आस बाळगून कमलदलात गुंतला की बाहेर येण्याचं विसरून जातो, तद्वतच हे पुस्तक वाचायला सुरुवात केलीत की शेवटचे पान येईस्तोवर आपण थांबत नाही. (आले तरी दोन पर्याय आहेत, एक तर यातील आपल्या आवडत्या प्रांतातील लेखांचा फिरफिरुनि आस्वाद घ्यावा अथवा याच कोजागिरीला लेखकाची प्रकाशित झालेली आणिक दोन पुस्तके आहेतच! मंडळी, त्यांच्याविषयी नंतर!)    

वाचकहो, प्रत्येक लेखाचा उहापोह करण्याचा मोह मी जाणीवपूर्वक टाळलाय. आपणही उत्सुक व्हावे आणि आणखी काय काय असेल बरं यात, हा प्रश्न स्वतःला विचारत हे पुस्तक वाचावे, हा माझा एकमेव उद्देश आहे! आता माझा सवाल ऐका मंडळी! सूर्याची धगधगीत उग्र किरणे नाहीत, उन्हाचा रखरखाट नाही, तर मुग्ध, मनोहर, शांत, शीतल, सौम्य, पवित्र आणि धवल चंद्रप्रकाशाची जाळी विखुरलेली आहे. निशिगंधाच्या धुंद सुगंधाने आसमंत अन आपलं मन भारून टाकलंय. या नीरव शांततेत काळ्याभोर रंगाच्या अन चांदण्यांच्या टिकल्यांचे नक्षीकाम असलेल्या चंद्रकळेच्या महावस्त्राने नटलेल्या निशेचे निश्चल मनमोहक सौंदर्य अनुभवायचे आहे कां? मग या पुस्तकातील शब्दफुले कधीही वेचा, चांदण्या रात्रीच्या निखळ सौंदर्याची आपल्याला नक्कीच भुरळ पडेल, हा झाला माझा अनुभव! अन तुमचा?

पुस्तक परीक्षण – डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे, फोन नंबर – ९९२०१६७२११

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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