मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆– “आयुष्ययात्रा…” – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – “आयुष्ययात्रा…” – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

गोजिरवाणे  बालपण इवले

त्याच्यापुढती बाल्य पहूडले

अगदी थोडे मोठे शैशव

कौमार्याच्या आधी ठाकले ।।

तारूण्याचे रसरशीत पर्ण हे

पूर्ण  वाढीने मोठे जाहले

प्रौढत्वाकडे झुकलेले  जे

पिवळसरपण तयास आले ।।

जरा वय वाढताच पुढती 

सुवर्णाची झळाळी लाभली

इथवर जगण्याची  शरिरी

कृतकृत्यता  तया लाभली ।।

म्हातारपण  येता देहाला

काया सारी शुष्क जाहली

आणि शेवटी सुकता कुडी

इतिकर्तव्यता इथेच झाली ।।

सारे इथेच डोळ्यासमोरी

पर्ण सांगते  जीवनचक्रा

तुमचे, आमचे, त्यांचे, तिचे

अशीच असते आयुष्य यात्रा ।।

जगण्याच्या साऱ्याच अवस्था

मनापासूनी जगून घ्याव्या

पुढती पुढती चालत असता

मागील अनुभव ध्यानी घ्यावा ।।

वळून पाहता येते केवळ

आयुष्यी मागे फिरणे नाही

जी जी अवस्था जे देते ती

कडू-गोड शिदोरी सोबत घ्यावी ।।

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #218 – 105 – “वो नज़र दोनों चुराते ही रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ।)

? ग़ज़ल # 105 – “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी में अक्सर एक भरम रहा,

आदमी  ताज़िंदगी  बरहम  रहा।

हाथ पर  हाथ धरे  वो बैठी रही,

यार मेरा  खून  थोड़ा गरम रहा।

वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे,

मुहब्बत का मगर बीच भरम रहा।

आँख रोती रात दिन फुरकत ए ग़म,

दिल मगर दोनों ही तरफ़ नरम रहा।

सूरत  वस्ल की  नज़र में  है नहीं,

आतिश उसे मिले बिना दरहम रहा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – खेल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा “खेल”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – खेल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

पिता को एक खेल सूझा। उसने अपने तीनों बेटों से कहा चलो देखते हैं कौन साँसें देर तक रोक सकता है।
पिता का कहना हुआ साँसे रोक कर जीवित रहना साधारण नहीं होता। पर जो ऐसा कर लेता है उसका नाम हो जाता है। पिता ने अब बात इस रूप में आगे बढ़ायी नाम रह जाने का वह स्वयं में एक प्रमाण है।
अब तो साल बीते। इस जमाने के लोग नहीं जानेंगे वह देर तक साँसें रोकने में कितना बड़ा खिलाड़ी था। उस समय के मित्र मिल जाते हैं तो उनके बीच यही बात सब के ओठों पर होती है। सारे मित्र तो हारने वाले थे। जीत के इस बंदे को आज भी वे सलाम करते हैं।
पिता ने इस खेल का जो खाका सामने रखा इसकी एक हल्की सी याद उसके मन में शेष थी। यही अपने बेटों को उकसाने का उसके लिए आधार हुआ। यह खेल अपने मित्रों के बीच एक बार हुआ था। जिस मरियल से लड़के ने अपने को जयी कहा था यह किसी ने माना नहीं था। हारे हुए सभी कहते रहे थे तुम बीच बीच में साँसें ले तो रहे थे। यह बहुत सूक्ष्म क्रिया होने से हमें दिखाई न दे पाता था। सच कहें तो तुम्हारे इस झूठ से हमारी आँखें खुल रही हैं। हम दस मिनट तक साँसें रोकने का कीर्तिमान स्थापित कर सकते थे।
पिता ने सदा अपनी जीत का जो बनावटी चिट्ठा बाँचा यह बेटों को रोमांचित कर रहा था। इस रोमांच का परिणाम कुछ देर में सामने आ जाता !
एक मित्र ने झूठ की आड़ से साँसें रोक कर बाकी को जिस तरह मूर्ख बनाया था पिता ने वही झूठ अपने बेटों के साथ किया। खेल तीनों बेटों के साथ शुरु हुआ तो पिता बेहद चुपके से साँसें ले कर सब को मात देता रहा। दो बेटों ने साँसों के इस खेल में पराजय मान कर पिता से कहा तुम जीते। पर एक बेटा हार न मान कर साँसें रोकने में तल्लीन बना रहा। पहले पिता को तो दुख हुआ वह अपने बेटे से हार गया। पर दूसरे क्षण जब उसमें बोध जागा कि इतनी देर तक कोई साँसें रोक नहीं सकता तो वह बेटे को झिकझोरने लगा। पर बेटा तो मर चुका था ! बेटा साँसें रोकने के इस खेल में सच्चा था। यही सच उसकी जान का दुश्मन हुआ।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 12 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आउट ऑफ बॉक्स ? ?

माप-जोखकर खींचता रहा

मानक रेखाएँ जीवन भर

पर बात नहीं बनी,

निजी और सार्वजनिक

दोनों में पहचान नहीं मिली,

आक्रोश में उकेर दी

आड़ी-तिरछी, बेसिर-पैर की

निरुद्देश्य  रेखाएँ;

यहाँ-वहाँ अकारण

बिना प्रयोजन,

चमत्कार हो गया!

मेरा जय-जयकार हो गया,

आलोचक चकित थे-

आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग का

ऐसा शिल्प आज तक

देखने को नहीं मिला,

मैं भ्रमित था-

रेखाएँ, फ्रेम, बॉक्स,

आउट ऑफ बॉक्स,

मैंने यह सब कब सोचा था भला?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाल रोटी खाओ ।)

?अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिनको प्रभु का गुणगान करना है, उन्हें और चाहिए भी क्या ! ईश्वर हमारे देश के सत्तर करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन यूं ही नहीं प्रदान कर रहा, २२ जनवरी को प्रभु श्री राम के गुणगान का यह स्वर्णिम पल है। ओ भाभी आना, जरा दीपक जलाना, आज घर घर अयोध्या के प्रभु श्री राम विराजेंगे।

दाल रोटी तो मैं भी खाता हूं, लेकिन मुझ अज्ञानी का ध्यान प्रभु के गुणगान की ओर तो कम रहता है और भोजन की गुणवत्ता और स्वाद और खुशबू की ओर अधिक रहता है। गेहूं कौन से हैं, अरहर की दाल तीन इक्का है कि नहीं, चावल कौन सा है, काली मूॅंछ, अथवा बासमती।।

ईश्वर सगुण हो अथवा निर्गुण, इंसान में तो, प्रकृति की तरह तीन गुण ही होते हैं, सत, रज और तम। यानी जैसा हम अन्न खाते हैं, वैसा हमारा मन बनता है, यानी सात्विक, राजसी अथवा तामसी। हम ज्यादा झमेले में नहीं पड़ते, बस दाल रोटी शाकाहार है, सात्विक आहार है, मस्त दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ।

लेकिन यह चंचल, प्रपंची मन कितने किंतु, परंतु और तर्क वितर्क लगाता है। मालूम है, दाल का क्या भाव है। हम तो दाल में देसी घी का तड़का लगाते हैं, और वह भी हींग जीरे के साथ। अब हम प्रभु को याद करें या बढ़ती महंगाई को।।

जिस तरह राम दरबार में, राम लक्ष्मण जानकी और जय हनुमान जी की बोली जाती है, उसी तरह हमारी रसोई के तड़के में असली घी के साथ हींग जीरा और राई का होना भी जरूरी है। मंदिर में धूप बत्ती की महक की ही तरह रसोई में हींग जीरे के बघार की खुशबू फैल जाती है। बस राम का गुणगान और धन्यवाद करने का मन करता है ;

राम का गुणगान करिए

राम प्रभु की भद्रता का

सभ्यता का ध्यान धरिए…

एक सुहागन के लिए जितना एक चुटकी भर सिन्दूर का महत्व है, उतना ही महत्व चुटकी भर हींग का घर गृहस्थी में है। लेकिन यह चुटकी आजकल बड़ी महंगी पड़ रही है। कभी सौ दो सौ रुपए किलो वाला जीरा आज चार अंकों को छूने की कोशिश कर रहा है, तो पूरी दुनिया में हींग तो ग्राम और तोला में बिक रही है। पहले इसे तौलने के लिए पीतल की छोटी सी तराजू आती थी, और छोटे छोटे ग्राम वाले पीतल के ही बांट। सोने की तरह तुलती थी यह हींग।।

हमें रंग चोखा लाने के लिए नहीं चाहिए फिटकरी, लेकिन बिना हींग के हम नहीं रह सकते। कल पुष्प ब्रांड की बांधनी हींग, पाउडर वाली, ५० ग्राम का भाव पूछा तो ₹३७५ !लेकिन यह हींग भी कहां असली होती है। डले वाली शुद्ध, खुशबूदार हींग के तो अलग ही ठाठ हैं, दस ग्राम शुद्ध हींग तीन चार सौ रुपए से कम नहीं।

अब इतनी महंगी हींग और जीरा खाकर भी अगर कोई महंगाई का रोना ना रोकर प्रभु का गुणगान करे, तो बस समझ लीजिए, उसके अच्छे दिन आ गए।।

नया वर्ष दस्तक दे रहा है, और उधर अयोध्या में इतिहास रचा जा रहा है। घर घर घी के चिराग जलें, हर मंदर और प्रत्येक मन मंदिर में भी प्रभु श्रीराम का वास हो, रामराज्य फिर से आए। नहीं चाहिए हमें घी और दूध दही की नदियां, बस सब की दाल में हींग जीरे का तड़का हो, सब प्रेम से दाल रोटी खाएं और प्रभु श्रीराम के गुण गाएं। जय रामजी तो बोलना ही पड़ेगा ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “महबूबा ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – महबूबा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक वृद्ध महाशय अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में दाखिल हुए। उनके होंठ एक फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे।

– आने से उसके आए बहार– बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा—महबूबा।

तभी एकाएक  सामने आई युवती को देखकर वह सकपका गए।

कहीं यह युवती छेड़छाड़ का उलाहना देकर तिल का ताड़ ना बना दे। वृद्धों पर इस तरह के इल्जाम जब तब लगते रहे हैं।

वह रास्ता बदलकर पतली गली से निकलना ही चाहते थे कि तरुणी बोली – ‘दादा जी आप तो इस उम्र में भी इतना अच्छा गा लेते हैं। यह गाना वहां बेंच पर बैठकर सुनाइए न, मजा आ जाएगा।’

वृद्ध महाशय अपनी आंखें झपकाने लगे। यह अजूबा कैसे हुआ, उसे तो इस युवती की अभद्र भाषा से दो चार होना था।

भाव विभोर होकर बोले – अरे कुछ खास नहीं बेटी, मन बहलाने के लिए थोड़ा बहुत गा लेता हूं।

मेरी पत्नी को भी यह गाना पसंद है। छै महीने अस्पताल में रहकर वह आज ही घर लौटी है। मैं यह गाना उसे सुनाने के लिए रिहर्सल कर रहा हूं।

उधर युवती सोच रही थी – कौन कहता है कि सारे बुजुर्ग एक से होते हैं जो अपने चेहरे पर एक दूसरा चेहरा लगाकर  घर से बाहर निकलते हैं। जिन पर महिलाओं को छेड़छाड़  का इल्जाम जब तब लगता रहता है।

युवती के चेहरे पर एक गुनगुनी मुस्कान खेलने लगी। उसे लगा कि यह वृद्ध महाशय थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जवान जिस्म में परिवर्तित हो गए हैं और वह उनकी महबूबा बन गई है।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆ मुक्तक ☆ ॥ बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बस कैलेंडर ही  नहीं   साल बदलना है।

जीने का कुछअंदाज ख्याल बदलना है।।

नई पीढ़ी सौंपकर जानी विरासत अच्छी।

दुनिया का यह बदहाल हाल बदलना है।।

[2]

हर समस्या का   कुछ   निदान  पाना है।

जन जन जीवन को   आसान बनाना है।।

बदलनी है समाज की सूरत और सीरत।

हर दिल से हर दिल का तार   जुड़ाना है।।

[3]

शत्रु के नापाक इरादों पर   भी काबू पाना है।

उन्हें ध्वस्त करना खुद को मजबूत बनाना है।।

दुनिया को देना है विश्व गुरु भारत का पैगाम।

शांति का संदेश सम्पूर्ण  संसार में फैलाना है।।

[4]

वसुधैव कुटुंबकम् सा यह   संसार बनाना है।

मानवता का सबको     ही प्रण दिलाना है।।

नर नारायण सेवा का भाव जगाना मानव में।

इस धरा को ही स्वर्ग से भी सुंदर बनाना है।।

[5]

जीवन शैली खान पान का   रखना है ध्यान।

आचरण वाणी को भी करना है मधु समान।।

प्रगतिऔर प्रकृति मध्य रखनाअपनत्व भाव।

विविधता में एकता को  बनना है अभियान।।

[6]

माला में हर गिर गया मोती  अब पिरोना है।

अब हर टूटा छूटा   रिश्ता   पाना खोना है।।

आंख मेंआंसू नहींआए किसीका दर्दों गम में।

हर कंटीली राह पर फूलों को   बिछोना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 158 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

 

मन के हर सुख चैन का अब खो गया आधार है

दुख का कारण बन गया खुद अपना ही परिवार है।

धुल गया है जहर कुछ वातावरण में इस तरह

जो जहाँ है अजाने ही हो चला बीमार है।

पहले घर-घर में जो दिखता प्रेम का व्यवहार था

आज दिखता झुलसा-झुलसा हर जगह वह प्यार है।

नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को

अब नहीं आता नजर वह स्नेह का संसार है।

बिखरती मुस्कान थी चेहरे पै जिनके नाम सुन

अब वो सुख सपना गया हो उजड़ा-सा घरबार है।

उनको जिनको कहते थे सब अपने घर की आबरू

वृद्धों को अब घर में रहने का मिटा अधिकार है?

बढ़ गई है धन की हर मन में अनौखी लालसा जिससे

धन केन्द्रित ही सारा हो रहा व्यवहार है।

जमाने की नकल करना आदमी यदि छोड़कर

समझदारी से चले तो ‘विदग्ध’ वह होशियार है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “प्रेषित…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “प्रेषित…” ☆ श्री सुनील देशपांडे

प्रेषित निघून जातात कालातीत विचारांचे ठसे ठेवत

आम्ही मात्र काळाच्या पडद्यावर रक्तलांच्छित ठसे ठेवतो

ते सुळावर चढतात आमच्या कल्याणा साठी

त्यांच्या विचारांना आम्ही सुळी देतो स्वार्थासाठी

ते आपलाच क्रूस वागवतात खांद्यावर स्वतःच्याच

आम्ही जबाबदारीचे ओझेही पेलत नाही स्वतःच्याच

मृत्यूनंतरही ते पुन्हा प्रकटतात आमच्या भल्यासाठी

मारेकरी मात्र सतत जन्म घेतात क्रौर्यासाठी 

एकदा क्रूरपणे त्यांना प्रत्यक्ष मारण्यासाठी

 मग अधिक क्रूरपणे विचारांना मारण्यासाठी.

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

?  विविधा ?

दत्त म्हणजे देणारा… ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

स्वत:च्याच ठायी असणारा आनंद चाखण्यासाठी निर्गुण निराकार परमेश्वर सगुण साकार झाला. आणि आपल्याला प्राप्त झाली. सर्व काही देणारा तोच म्हणून तो आहे दत्त.

विश्वरूपाने समोर, शरीर रूपाने जवळ व सच्चिदानंद रूपाने तो आपल्या अंत:करणात आहे.

शरिराच्या रुपाने साकार झाला, अवतिर्ण झाला. शरीर रुपाने आपण दिसतो पण मन व चैतन्य (ईश्वर) रुपाने आपण गुप्त आहोत. याचेच प्रतिक म्हणजे दत्त.  

तीन शिरे :- शरीर + मन + चैतन्य  (ईश्वर).

सहा हात :- शरीराचे दोन हात – डावा व उजवा

मनाचे दोन हात – बहिर्मन व अंतर्मन

चैतन्याचे दोन हात – जाणिव व नेणीव.

गाय म्हणजे अधिष्ठान असणारी चैतन्य शक्ती.

श्वान म्हणजे श्वास की ज्यामुळे जीवन आहे.

हातात त्रिशूळ म्हणजे हाताने काम, मुखाने नाम व अंतकरणात  राम अशी जगण्याची जीवन शैली.

काखेत झोळी म्हणजे अहंकार सोडून जिथून ज्ञान मिळते तिथून सतत ज्ञान मिळवत रहा.  

किंबहुना आपण (दत्त) जन्माला येतो तो ज्ञान मिळविण्यासाठी.

जो ज्ञान देतो तो गुरु आणि देतो तो देव.

सदगुरुने दिलेल्या ज्ञानाने आपणच दत्त म्हणजे देव होणे म्हणजेच गुरुदेव दत्त.

म्हणून खर्‍या अर्थाने असा दत्त आपल्या ठिकाणी जन्माला येणं म्हणजेच दत्तजयंती.

अशा दत्तजन्मौत्सवच्या मनःपूर्वक शुभेच्छा….

©  शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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