हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 156 ☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह – “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहेंपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 156 ☆

☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक ‏: कि आप शुतरमुर्ग बने रहें (व्यंग्य संग्रह)

व्यंग्यकार : श्री शांतिलाल जैन 

प्रकाशक‏ : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ संख्या‏ : ‎ 160 पृष्ठ 

मूल्य : 200 रु 

श्री शांतिलाल जैन 

बधाई श्री शांतिलाल जैन सर। उम्दा, स्पर्शी व्यंग्य लिखने में आपकी महारत है। थोड़े थोड़े अंतराल पर आपकी प्रभावी किताबें व्यंग्य जगत में हलचल मचा रही हैं। “कबीर और अफसर”, “न आना इस देश “, “मार्जिन में पिटता आदमी “, ” वे रचनाकुमारी को नहीं जानते ” के बाद यह व्यंग्य संग्रह “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ” पढ़कर आपकी कल जहाँ खड़े थे उससे आगे बढ़कर नये मुकाम पर पहुंचने की रचना यात्रा स्पष्ट समझ आती है।  व्यंग्य में किसी मिथक या प्रतीक का अवलंब लेकर लेखन सशक्त अभिव्यक्ति की जानी पहचानी परखी हुई शैली है। शुतुरमुर्ग डील डौल की दृष्टि से कहने को तो पक्षी माना जाता है, पर अपने बड़े आकार के चलते यह उड़ नहीं सकता। रेगिस्तान में पाया जाता है।  संकट महसूस हो तो यह ज़मीन से सट कर अपनी लंबी गर्दन को मोड़कर अपने पैरो के बीच घुसाकर स्वयं को छुपाने की कोशिश करता है या फिर भाग खड़ा होता है। दुनिया भर में आजकल शुतुरमुर्ग व्यावसायिक लाभ के लिये पाले जाते हैं। व्यंग्य में गधे, कुत्ते, सांड़, बैल, गाय, घोड़े, मगरमच्छ, बगुला, कौआ, शेर, सियार, ऊंट,गिरगिटान वगैरह वगैरह जानवरों की लाक्षणिक विशेषताओ को व्यंग्य लेखों में समय समय पर अनेक रचनाकारों ने अपने क्थ्य का अवलंब बनाया है। स्वयं मेरी किताब “कौआ कान ले गया” चर्चित रही है। प्रसंगवश वर्ष १९९४ में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह “आक्रोश” की एक लंबी कविता “दिसम्बर ९२ का दूसरा हफ्ता और मेरी बेटी ” का स्मरण हो आया। कविता में अयोध्या की समस्या पर मैंने लिखा था कि कतरा रहा हूं, आंखें चुरा रहा हूं, अपने आपको, समस्याओ के मरुथल में छिपा रहा हूं, शुतुरमुर्ग की तरह। आज २०२४ में अयोध्या समस्या हल हो गयी है, मेरी बेटी भी बड़ी हो गई है, पर समस्याओ का बवंडर अनंत है, और शुतुरमुर्ग की तरह उनसे छिपना सरल विकल्प तथा बेबसी की विवशता भी है।

कोरोना काल में दूसरी लहर के त्रासद समय के हम साक्षी हैं।  जब हर सुबह खुद को जिंदा पाकर बिस्तर से उठते हुये विचार आता था कि भले ही यह शरीर जिंदा है, पर क्या सचमुच मन आत्मा से भी जिंदा हूं ?  मोबाईल उठाने में डर लगने लगा था जाने किसकी क्या खबर हो। शांतिलाल जैन के व्यंग्य संग्रह की शीर्षक रचना “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ” उसी समय का कारुणिक दस्तावेज है। उस कठिन काल के दंश कितने ही परिवारों ने भोगे हैं।  कोविड का वह दुष्कर समय भी गुजर ही गया, पर कल्पना कीजीये कि जब बेबस लेखक ने लिखा होगा … अंश उधृत है ….

“वे मुझसे सकारात्मक रहने की अपील कर रही थीं .. वे कह रहीं थीं हमारी लड़ाई कोविड से कम, बदलते नजरिये से ज्यादा है …. वे चाहती थीं कि मैं इस बात पर उबलना बंद कर दूं कि कोई आठ घंटे से अपने परिजन के अंतिम संस्कार के लिये लाईन में खड़ा इंतजार में है … चैनलों पर मंजर निरंतर भयावह होते जा रहे हैं, एम्बुलेंस कतार में खड़ी हैं, आक्सीजन खत्म हो रही है, चितायें धधक रही हैं, …. मेरे एक हाथ में कलम है दूसरे में रिमोट और रेत में सिर घुसाये रखने का विकल्प है। ” शांतिलाल जैन शुतुरमुर्ग की तरह सिर घुसाये रख संकट टल जाने की कल्पना की जगह अपनी कलम से लिखने का विकल्प चुनते हैं। उनकी आवाज तब किस जिम्मेदार तक पहुंची नहीं पता पर आज इस किताब के जरिये हर पाठक तक फिर से प्रतिध्वनित और अनुगुंजित हो रही है। एक यह शीर्षक लेख ही नहीं किताब में शामिल सभी ५६ व्यंग्य लेख सामयिक रचनाये हैं, व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिकार की चीखती आवाजें हैं। सजग पाठक सहज ही घटनाओ के तत्कालीन दृश्यों का पुनर्बोध कर सकते हैं। अपनी किताब के जरिये शांतिलाल जैन जी पाठको के सम्मुख समय का रिक्रियेशन करने में पूरी तरह सफल हुये हैं। रचनायें बिल्कुल भी लंबी नहीं हैं। उनकी भाषा एकदम कसी हुई है।  अपने कथ्य के प्रति उनका लेखकीय नजरिया स्पष्ट है। सक्षम संप्रेषणीयता के पाठ सीखना हो तो इस संग्रह की हर रचना को बार बार पढ़ना चाहिये। कुछ लेखों के शीर्षक उधृत कर रहा हूं … ब्लैक अब ब्लैक न रहा, सजन रे झूठ ही बोलो, चूल्हा गया चूल्हे में, आंकड़ों का तिलिस्म, फार्मूलों की बाजीगरि, अदाओ की चोरी, इस अंजुमन में आपको आना है बार बार, ईमानदार होने की उलझन, सिंदबाद की आठवीं कहानी …. आशा है कि अमेजन पर उपलब्ध इस किताब के ये शीर्षक उसे खरीदने के लिये पाठको का कौतुहल जगाने के लिये पर्याप्त हैं। बोधि प्रकाशन की संपादकीय टीम से दो दो हाथ कर छपी इस पुस्तक के लेखक म प्र साहित्य अकादमी सहित ढ़ेरों संस्थाओ से बारंबार सम्मानित हैं, निरंतर बहुप्रकाशित हैं।

प्रस्तावना में कैलाश मंडलेकर लिखते हैं “इस संग्रह की तमाम व्यंग्य रचनाओं में हमारे समय को समझने की कोशिश की गई है। जो अवांछित एवं छद्मपूर्ण है, उस पर तीखे प्रहार किये गए हैं। जहां आक्रोश है वह सकारात्मक है। जहाँ हास्य है, वह नेचुरल है। सबसे बड़ी बात यह कि व्यंग्यकार किसी किस्म के डाइरेक्टिव्ह इश्यु नहीं करता वह केवल स्थितियों की भयावहता से अवगत कराते चलता है। … व्यंग्यकार पाठक के सम्मुख युग की समस्यायें रेखांकित कर विकल्प देता है कि वह शुतुरमुर्ग बनना चाहता है या समस्या से अपने तरीके से जूझना चाहता है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 117 – वसंत पंचमी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “वसंत पंचमी…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 117 – वसंत पंचमी… ☆

माघ माह की पंचमी, शुक्ल पक्ष तिथि आज।

वीणा वादिनि शारदे, रखती सिर पर ताज।।

*

विद्या की शुभ दायिनी, करती तम का नाश।

ज्ञान चक्षु को खोलती, काटे भ्रम का पाश।।

*

ऋतु वसंत का आगमन, मन में भरे उमंग।

धरा मुदित हो नाचती, नेह प्रेम हुड़दंग।।

*

खिलें पुष्प हर डाल पर, भ्रमर करें रसपान।

तितली झूमें बाग में, करते कवि ऋतु गान।।

*

पीत वसन पहने धरा, लाल अधर कचनार।

शृंगारित दुल्हन चली, ऋतु वसंत गलहार ।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 1 – द ग्रेट नानी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – द ग्रेट नानी  ?

मैं डॉरोथी किंग्सवेल।

अपनी पच्चीसवीं सालगिरह मनाने के लिए मैं पहली बार भारत आई थी। यद्यपि यह पहली यात्रा थी मेरी पर ऐसा लगता रहा मानो हर शहर मेरा परिचित है। हर चेहरा मेरे देशवासियों का है, मेरे अपने हैं। यह मेरी जन्मभूमि तो नहीं है पर फिर भी मुझे यहाँ सब कुछ अपना – सा महसूस होता रहा। इस तरह के भावों के लिए मैं अपनी नानी की शुक्रगुजार हूँ।

इस संस्मरण को पूर्णता प्रदान करने के लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना होगा क्योंकि यहाँ तीन पीढ़ियाँ और तीन स्त्रियों का जीवन रचा- बसा है।

तेईस वर्ष की उम्र में मेरी माँ एम. एस. करने अमेरिका गई थीं। वहीं उनकी मुलाकात मेरे पापा से हुई थी। पापा नेटिव अमेरिकन  हैं जिन्हें अक्सर आज भी भारतीय रेड इंडियन कहते हैं। माँ ने जब पापा से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की तो नाना – नानी असंतुष्ट हुईं। माँ कुछ समय के लिए भारत लौट आईं। फिर छह माह बाद उन्हें USA में काम मिल गया और वे लौट गईं। उन्होंने पापा से विवाह कर लिया और वहीं बस गईं। फिर कभी भारत न आईं।

माँ की शादी होने पर तीन साल तक नाना – नानी उनसे नाराज़ रहे। मेरी माँ नाना- नानी की इकलौती औलाद थीं, बड़े लाड़ – प्यार से पाला था उन्हें। इस तरह स्वेच्छा से शादी कर लेने पर उनके दिल को भारी ठेस पहुँची थी। नानी बैंक में उच्च पदस्थ थीं । मृदुभाषी, मिलनसार महिला थीं।

मैं जब इस संसार में आनेवाली थी तो नाना -नानी सारी कटुता भूल गए। कहते हैं असली से ज्यादा सूद प्रिय होता है। नानी ने छह महीने की छुट्टी ली और पहली बार अमेरिका आईं। माँ – बेटी के बीच का मनमुटाव दूर हुआ। नानी ने  माँ की और मेरी खूब सेवा की और फिर भारत लौट आईं। बाकी छह माह फोन पर और फिर कंप्यूटर पर चैटिंग,  ईमेल आदि द्वारा बातचीत जारी रही। अपनी बढ़ती उम्र के साथ -साथ नानी के साथ मैं जुड़ी रही। मेरी दादी और बुआ जी भी आती – जाती रहती थीं।

मैं नानी के बहुत करीब थी। साथ रहती तो मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। बचपन से उन्होंने मुझे हिंदी भाषा से परिचित करवाया। भारतीय संस्कृति, कथाएँ, राम ,कृष्ण और अन्य देवों की कथा सुनाई। भारतीय शूरवीर महाराणाओं, राजाओं , रानियों की कथा सुनाई। भारत की आज़ादी और गुलामी के कष्टों की  दास्तां सुनाती रहीं , विविध उत्सवों का महत्त्व समझाया और भारत देश के प्रति मेरे मन में जिज्ञासा और प्रेम को पनपने का मौका दिया।

मेरे पापा एक अच्छे पिता हैं,एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन अपनी जाति के लोगों की सुरक्षा और अधिकार दिलाने में समर्पित कर दिया। वे लॉयर हैं। उन्होंने माँ को सब प्रकार की छूट दी और हम भारत से दूर रहकर भी भारतीय त्योहार मनाते रहे, गीत- संगीत का आनंद लेते रहे। हमें दोनों संस्कृतियों के बीच आसानी से तालमेल बिठाने का अवसर भी पापा ने ही दिया। पापा के कबीले की कहानियाँ, उन पर सदियों से होते आ रहे जुल्मों की कथा दादी सुनाया करती थीं। मुझे दोनों देशों और संस्कारों से परिचित करवाया गया। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता जैसे इन दोनों देश की  कथाएँ एक जैसी हैं। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं दो अलग संस्कृतियों को समझने और उसका हिस्सा बनने के लिए अमेरिका में जन्मी।

नानी हर साल आतीं, छह माह रहतीं और मुझे इस भारत जैसे सुंदर देश से परिचित करवाती रहतीं। यह सिलसिला मेरी सत्रह वर्ष की आयु तक चलता रहा। मैं जब सत्रह वर्ष की हुई तो ग्रेज्यूएशन के लिए होस्टल में भेज दी गई। अमेरिका का यही नियम है।नानी का भी अमेरिका आना अब बंद हो गया। इस बीच नाना जी का स्वर्गवास हुआ।

मेरी नानी एक साहसी महिला हैं। नानाजी के जाने के बाद भी वे स्वयं को अकेले में संभाल लेने में समर्थ रहीं। अब तक हम  दोनों खूब एक दूसरे के करीब आ गईं थीं।अब हम एक दूसरे के साथ विडियो कॉल करतीं। खूब मज़ा आता। अब वह मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं।

इस साल नानी का भी पचहत्तरवाँ जन्म दिन था। उन्होंने मुझे बताया था कि अब उन्हें बड़े घर की ज़रूरत  नहीं थी। वे अकेली ही थीं तो एक छोटा घर किराए पर लिया था। अपना मकान बेचकर सारी रकम बैंक में जमा कर दी और छोटे से घर में रहने गईं। वहाँ पड़ोसी बहुत अच्छे थे। उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होने देते थे।

मैं अमेरिका से उनसे मिलने आई तो मेरे आश्चर्य  की कोई सीमा न थी। नानी शहर से दूर एक वृद्धाश्रम में रहती थीं। जहाँ उनके लिए एक कमरा और स्नानघर था । इसे ही वे अपना छोटा – सा  घर कहती थीं। वे खुश थीं, उस दिन वृद्धाश्रम में धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाया गया। उनकी कई सहेलियाँ आई थीं जो अपने परिवार के साथ रह रही थीं।

मेरी नानी सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं, सबसे स्नेह करती हैं, क्षमाशील हैं। मैं अब अपने घर लौट रही हूँ । अपने साथ एक अद्भुत ऊर्जा लिए जा रही हूँ। नानी ने मुझे जीवन को समझने और जीने की दिशा दी। कर्त्तव्य  करना हमारा धर्म है। फल की अपेक्षा न रखें तो जीवन सुखमय हो जाता है। अपनी संतानों के प्रति कर्त्तव्य करो पर अपेक्षाएँ न रखो।

मैं उमंग,  उम्मीद और उत्साह से भर उठी। प्रतिवर्ष नानी से मिलने आने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली।

अपने जीवन में कुछ निर्णय स्वयं ही लेने चाहिए ये मैंने अपनी नानी से ही सीखा।

(डॉरोथी किंग्सविल की ज़बानी)

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 287 ⇒ बड़े काम के आदमी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े काम के आदमी।)

?अभी अभी # 287 ⇒ बड़े काम के आदमी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता, आदमी ही बड़ा छोटा होता है, फिर भी, काम के आदमी के लिए, काम की कोई कमी नहीं। होते हैं कुछ लोग, काम के न काज के, दुश्मन अनाज के।

यह दुनिया भी अजीब है। यहां किसी को काम की तलाश है, तो किसी को काम के आदमी की तलाश। एक कहावत भी है, जिसका काम, उसी को साजे। क्या बात है, मकान का काम क्यूं ठप पड़ा है, क्या बताएं, कोई ढंग का कारीगर ही नहीं मिलता। अच्छा मिलता है तो टिकता नहीं, और जो टिकता है, वह किसी काम का नहीं।।

वैसे तो दुनिया चलती रहती है, किसी का काम नहीं रुकता। फिर भी आदमी वही, जो वक्त पड़ने पर किसी के काम आए।

अपना काम तो सभी करते हैं, लेकिन होते हैं कुछ ऐसे लोग भी, जो बिना किसी स्वार्थ अथवा लालच के, किसी का अटका हुआ काम, आसानी से पूरा करवा देते हैं। उनके लिए अक्सर अंग्रेजी के एक शब्द का प्रयोग होता है, वे बड़े हेल्पिंग नेचर के हैं।

यह दुनिया इतनी भली भी नहीं। दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब नहीं।

यहां कुछ काम जब आसानी से नहीं निकलते, तब टेढ़ी उंगली से घी निकालना पड़ता है, और तब काम आते हैं कुछ ऐसे लोग, जिन्हें बड़े काम का आदमी कहा जाता है।।

ऐसे लोगों की एक क्लास होती है, जो साम, दाम, दंड भेद, यानी by book or by crook, आपका काम निकलवाना जानते हैं, फिर भले ही काम, दफ्तर में आपके ट्रांसफर का हो, प्रमोशन का हो, अथवा

रुकी हुई पेंशन का। मकान का नक्शा पास नहीं हो रहा हो, लड़की की शादी नहीं हो रही हो, साले की कहीं नौकरी नहीं लग रही हो, ऐसे में जो व्यक्ति संकटमोचक बनकर प्रकट हो जाए, वही आदमी बड़े काम का आदमी कहलाता है।

सरकारी दफ्तरों में नौकरशाही चलती है। वहां भी एक फोर्थ क्लास होती है, बाकी सभी क्लास थर्ड क्लास होती है। अफसर, बाबू, और बड़े बाबू

जो काम नहीं करवा सकते, वह काम कभी कभी साहब का ड्राइवर अथवा चपरासी चुटकियों में करवा देता है, क्योंकि उसकी पहुंच साहब के गृह मंत्रालय तक होती है।।

एक चीज आपको बता दूं, बड़े काम का आदमी, कभी ओहदे से बड़ा नहीं होता। बड़े काम का आदमी वह होता है, जो उस ओहदे वाले से आपका काम निकलवा दे। कांटा कितना भी बड़ा हो, एक सुई ही काफी होती है, उसे निकालने के लिए।

सुई की तरह कहीं दबे हुए, छुपे हुए होते हैं समाज में ये बड़े काम के आदमी। बस जिसके हाथ लग जाए, समझिए उसकी लॉटरी लग गई। बड़े मिलनसार, व्यवहार कुशल, हमेशा मुस्कुराने वाले होते हैं ये बड़े काम के आदमी। साहित्य, धर्म, राजनीति, समाज के हर क्षेत्र में, यत्र, तत्र, सर्वत्र खुशबू की तरह फैले हुए हैं, ये बड़े काम के आदमी, तलाशिए जरूर मिलेंगे। हो सकता है, आप उन्हें जानते भी हों। पूरी दुनिया टिकी हुई है, ऐसे ही बड़े काम के आदमियों के कंधों पर। मानिए या ना मानिए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 71 – देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 71 ☆ देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्षों पूर्व हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने इस बात को लेकर अपने उदगार व्यक्त किए थे।

विगत दो तीन वर्षों से फरवरी माह में सड़कों पर बड़ी और खुली कारों जिसको आजकल एसयूवी के नाम से जाना जाता है,में स्कूल के अंतिम वर्ष के छात्र और छात्राएं खुले आम यातायात के नियमों की अवेहलेना करते हुए दृष्टिगोचर  होते हैं।

स्कूल से परीक्षा पूर्व विदाई कार्यक्रम को अब सड़कों पर कार की खिड़कियों से लटकते हुए,हाथों में मोबाइल से लाइव प्रसारण भी होता रहता हैं।

परिवार के सदस्य सब से बड़े दोषी है, जो बिना लाइसेंस प्राप्त बच्चों को कार की चाबियां देकर कहते है, जिंदगी के मज़े ले लो। वैसे इसको फैशन परेड भी कहा जा सकता हैं। हमारे परिवारों की बेटियां भी इन सब में बेबाकी से भाग लेती है,वरन तरुणों को जोखिम भरे कदम उठाने के लिए उकसाती भी हैं। बाज़ार में बिना छत की कार भी किराए से लेकर इस नग्नता का हिस्सा बनती हैं।

ये, ही बच्चे कल के नेता बनकर देश को आगे बढ़ाएंगे। हमारे नेता भी तो आजकल जनता के बीच में “रोड शो” करने के समय इसी प्रकार से कारों से लटकते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ नेता ट्रैक्टर पर बड़ी संख्या में बैठ कर “सड़क सुरक्षा” को परिभाषित करते हैं। शायद हमारे बच्चे इन नेताओं के चरण चिन्हों पर चलकर आने वाले समय में आज के बच्चे देश की बागडोर संभाल सकने में सक्षम होंगे।

ये ही बिगड़े हुए बच्चे स्कूल से उत्तीर्ण होकर महाविद्यालय में छात्र यूनियन के नेता बन जायेंगे। राजनैतिक दल भी छात्र नेताओं को प्राथमिकता से अपने अपने दल में ग्रहण कर लेते हैं।

नियम और कानून की धज्जियां उड़ाने वाले व्यक्ति ही हमारे नेता बनने में सक्षम होते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #225 ☆ वाकळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 225 ?

☆ वाकळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दिशाहीन ही वणवण केवळ

आयुष्याचे झाले वादळ

*

अश्रू करती सांत्वन माझे

डोळ्यांमधले रडते काजळ

*

छोटे मासे आत उतरले

मला गाठता येईना तळ

*

नाही म्हणणे शिकून घ्यावे

आश्वासन ना द्यावे पोकळ

*

रितीच होती रितीच आहे

लेकुरवाळी नाही ओंजळ

*

सभ्य पणाचा मुखडा त्याचा

हुबेहूब तो करतो भेसळ

*

तुझ्या नि माझ्या प्रेमासाठी

दोघांपुरती शिवते वाकळ

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मराठी साजूक तुपातली… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

मराठी साजूक तुपातली… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

(शनिवार दि १७ रोजी श्री.विश्वास  देशपांडे यांच्या लेखावर (बाळा मला समजून घेशील ना?) प्रतिक्रियात्मक काव्य)

मराठी ईंग्लीश प्रेमानं समदा समाज झालाय बाद ;

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥

*

अाई बाप म्हणजे मदर फादर

वाटत न्हाई जराबी कदर

करत न्हाई म्हणती आदर

गळ्यातली वाटतीया ब्याद

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ १॥

*

ढवळ्या शेजारी पवळा बांधला

वाण न्हाई पण गुण लागला

ईंग्लीशचा पगडा येवढा पडला

पिझ्झा बर्गरलाच स्वाद

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ २ ॥

*

ईंग्लीश वरती न्हाई पकड

मराठी सुद्धा  बोलेना धड

वाक्यात अनेक ईंग्लीश शब्द

घालू किती मी वाद

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ ३॥

*

टिळक आगरकर रानडे गोखले

मराठीतच शाळा शिकले

ईंग्लीश ज्ञान जरी संपादले

मराठीचीच ऐकली साद

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ ४॥

*

शेव शेव म्हणता करतोया दाढी

सर सर म्हणता होतोया गडी

रोज रोज म्हणता गुलाब हाती

मागू कुणाला दाद

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ ५ ॥ 

*

देणा-याने देत जावे

घेणा-याने घेत जावे

घेता घेता एक दिवस

देणा-याचे हात घ्यावे

ईंग्लीश देते मराठी घेते

ईंग्लीशचाच होणार का माद (Mad)

मराठी साजूक तुपातली ,हिला ईंग्लीशचा लागलाय नाद ॥ ६ ॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अलिप्तता सिद्धांत… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

☆ अलिप्तता सिद्धांत… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

बरेचदा असे होते आपण सकारात्मक इच्छा करतो. योग्य मेडीटेशन करतो पण पाहिजे तसे रिझल्ट्स मिळत नाहीत.मग आपला विश्वास कमी होत जातो. असे का होते याचा आज आपण विचार करु या.

योग्य परिणाम होण्यासाठी सगळे निसर्ग नियम एकत्रित वापरले पाहिजेत.

आपण जी इच्छा मागतो त्या पासून अलिप्त झाले पाहिजे. इच्छा पूर्तीची मागणी करायची आणि त्या पासून अलिप्त व्हायचे हे परस्पर विरोधी वाटू शकते. पण आपण ज्याच्या मागे लागतो ते पुढे पळते आणि ज्याचा फारसा विचार करत नाही ते अलगद मिळते याचा अनुभव बरेचदा आला असेल. हे कसे होते हे बघू या.

समजा आपण चांगले घर  मिळाले आहे अशी इच्छा केली आहे. पण आपण निसर्ग शक्तीकडे इच्छा करुन सोडून देत नाही. नाना शंका डोक्यात येतात.

असे घर मला कसे मिळेल?

लोन मिळेल का?

मी ते फेडू शकेल का?

माझा कडे अजून पैसा येईल का?

अशा नाना शंका मनात घेऊन  चिंता करत रहातो. म्हणजेच या इच्छापूर्ती विषयी अनिश्चितता वाटते. अनंत अडथळ्यांचा विचार आपण करतो.  आणि हेच आपल्या इच्छापूर्ती मधील अडथळे असतात. हेच अडथळे दूर करायचे असतात.

 इच्छापूर्ती होण्यासाठी पुढील गोष्टी कराव्यात.

▪️ Self commitment – स्वतःशी वचन बद्धता

मी इच्छा निर्माण करेन पण त्यातील अडथळ्यांचा विचार करणार नाही.अलिप्तता सिद्धांत अंमलात आणणार आहे. ज्या घटना घडणार आहेत त्याचा स्वीकार करणार आहे.कोणतेही लेबल लावणार नाही.

▪️ मी अनिश्चिततेच्या क्षेत्रावर विश्वास ठेवणार आहे.

अनिश्चिततेचे क्षेत्र म्हणजे आपल्या शंका. ही इच्छा पूर्ण होणार की नाही असे वाटणे ही अनिश्चितता आहे.

▪️ मी इच्छेशी निगडित उत्तरे कशी मिळतील याचा विचार करणार नाही.

▪️ मी फक्त इच्छा पूर्ण होणार आहे यावर विश्वास ठेवणार आहे.

▪️ इच्छापूर्तीचा आनंद घेणार आहे.

हे विचार स्वतःच्या मनाशी करायचे आहेत. आपल्याला सगळ्याची चिंता करायची व स्वतःवर जबाबदारी घेण्याची सवय लागलेली असते.तीच सवय आपल्याला बदलायची आहे. थोडा वेळ लागेल पण प्रयत्न करुन हे बदलू शकतो.

आज पासून आपल्या इच्छापूर्ती मधील अडथळे आपणच दूर करु या.

धन्यवाद! 🙏🏻

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांताक्लॉज – भाग-1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ सांताक्लॉज – भाग-1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

छोटी मेरी पायरीवर बसून आजूबाजूचा आनंदात साजरा करत असलेला नाताळ बघत होती..मुलं फटाके उडवत होती, मिठाया खात होती.नवे कपडे घालून चर्चला जाणार होती..मेरी हे बघत होती.तिची ममा अजून कामावरून आलेली नव्हती.  मेरीला आता खूप भूक लागली.घराची किल्ली तिच्याकडे होती. छोटीशी खोली त्या दोघींची.आणि किती छोटे विश्व सुद्धा. चार वर्षांपूर्वीचं मेरीचं जग किती वेगळं आणि सुंदर होतं. तिचे पपा ममा आणि मेरी.खूप लाड करत तिचे पपा ..लाडकी एंजल होती मेरी त्यांची.  पपाना चांगली नोकरी होती आणि खुशीत रहात ते तिघे. कामावरून घरी येताना  अचानक पपाना एका ट्रकने उडवलं आणि हॉस्पिटलला नेण्याआधीच सगळं काही संपलं होतं. त्या दिवसापासून मेरी आणि तिची आई रोझीचे सुखाचे दिवस  संपून गेले.  चांगल्या कॉन्व्हेंट  स्कूल मधून मेरीचं नाव काढलं आणि साध्या कॉर्पोरेशनच्या शाळेत तिला नाईलाजाने रोझीने प्रवेश घेऊन दिला.रोझी फार शिकली नव्हती.एका मॉल मध्ये तिला सकाळी आठ ते आठ अशी बारा तास नोकरी करावी लागे.  पिचून जाई रोझी या कामाच्या रगाड्यात.घरी आल्यावर तिला नवीन  काही करायची उमेद रहात नसे.मॉल मध्ये उद्या एक्सपायर होणारे ब्रेड अंडी असे पदार्थ तिला फुकट घरी आणता येत.मेरी लहान होती तरीअतिशय समजूतदार होती.तिने कसलाही हट्ट कधी केला नाही की नवे कपडे मागितले नाहीत.किती गुणी लेकरू होतं ते.तिला पोटाशी धरून रोझी अश्रू ढाळे. आपल्या चिमुकल्या हातानी मेरी ममाचे अश्रू पुसे आणि म्हणे, रडू नको ग ममा. मी खूप शिकेन आणि खूप पैसे मिळवींन.मग बघ, आपण मोठ्या घरात जाऊ.’ रोझीला आणखीच उमाळे येत.मेरीच्या शाळेत अतिशय उत्तम ग्रेडस् असत.शिक्षक रोझीला म्हणत तिला या शाळेत नका हो ठेवू.फार हुशार आहे मेरी.चांगल्या शाळेत तिचे शिक्षण आणखी छान नाही का होणार?’रोझी खिन्न हसून म्हणे,सर,ते बरोबर आहे पण मी एवढी फी कुठून आणू?शिकेल इथेच. असेल तिच्या नशिबात तेच होणार ना . मेरी सातच तर  वर्षाची होती.चाळीतल्या घराशेजारी  मायकेल अंकल रहात. एकटे होते अंकल. पायरीवर सणाच्या दिवशी उदास बसलेली ती छोटी मुलगी बघून पोटात तुटलं त्यांच्या.. मेरीचे वडील जोसेफ आणि मायकेल चांगले मित्र होते. दुसऱ्या दिवशी पंचवीस डिसेंबर!  आज नाताळ बाबा हळूच मुलांना सरप्राईज गिफ्ट देणार.मेरीने आईला विचारलं” ममा,खरंच का ग इतक्या लांबून मुलांना भेटायला येतो ख्रिसमस बाबा?मला भेटेल तो?मी सांगेन मग त्याला , मला माझे पपा  आणून दे परत .बाकी नको   मला काही.’रोझीच्या डोळ्यात पाणी आलं.तिने आज मेरीला आवडतात म्हणून केक आणले होते.जा मेरी ,शेजारी मायकेल अंकलला नेऊन दे.’मेरीने मायकेलला डिश नेऊन दिली.मायकेलने हे सगळं संभाषण ऐकलं होतं.फार वाईट वाटलं त्याला.मनात एक विचार आला त्याच्या. दुसऱ्या दिवशी पहाटे उठून मेरी बघते तर तिच्या उशाशी छान पुस्तकं एक  बाहुली आणि थोडा खाऊ होता.मेरीला इतका आनंद झाला.’ममा कधी ग आला नाताळ बाबा?कधी ठेवल्या त्याने या गिफ्ट्स?का माझे पपा येऊन ठेवून गेले?’रोझीही आश्चर्यचकित झाली.पण लेकीच्या आनंदात तीही सहभागी झाली.ते चिमुकलं घर आनंदाने  भरून गेलं.दुरून बघणाऱ्या मायकेलच्या डोळ्यात  आनंदाश्रू आले.आपण आता या लेकरासाठी एवढं दर वर्षी करायचंच असं त्याने मनाशी ठरवलं.हे रोझीला समजलं असतं तर तिला आवडलं नसतं. तिच्या  स्वाभिमानाला धक्का लागला असता. रोज शाळा सुटली की ममा येईपर्यंत मेरी पायरीवर बसे.शेजारी मायकेल अंकल कधीकधी येऊन बसत.तिला  छान गोष्टी सांगत.तिचा अभ्यास घेत.

आजोबांसारखा एक दोस्तच मिळाला मेरीला.मेरी वरच्या वर्गात उत्तम मार्क्स मिळवून जात होती.अजूनही दर वर्षी ख्रिसमस ला तिला हव्या त्या गोष्टीअचूक कोण ठेवून जातं हे तिला समजलं नव्हतं.कितीवेळा ती जागत बसायची पण नेमकी तिला पहाटे झोपच लागून जायची. मेरी मोठी होत होती. आता सांता क्लॉज चे फारसे नाविन्य राहिले नव्हते तिला.पण दर वर्षी  बरोबर पंचवीस डिसेंबरला येणारी   छोटी मोठी भेट वस्तू मात्र येतच राहिली.मेरीला बारावीत सुंदर मार्क्स  मिळाले. गव्हर्नमेंट मेडिकल कॉलेजला मेरिट वर प्रवेश मिळाला तिला.रोझीला अत्यानंद झाला.पण ही फी तरी तिला कुठे परवडणार होती?’ममा, फक्त चार वर्ष ग.आपण कशीही काढू.पण यावेळी मला नाही म्हणू नको ना.  मी  स्कॉलरशिप साठी प्रयत्न करीन.चर्च थोडी फी भरेल पण मी मेडिकलला जाणारच.’मेरीचा निर्धार कायम होता. पहिल्या वर्षाची फीची सोय झाली.मेरी त्यावर्षी कॉलेजमध्ये पहिली आली. त्या वर्षी पुढची फी माफ झाली तिला.पण बाकीचे खर्च आ वासून उभेच होते.पुस्तकं इतकी महाग होती  आणि काहीकाही तर विकत  घ्यावी लागणारच होती.मेरी आणि रोझी चिंतेत पडल्या.लायब्ररीत त्या पुस्तकावर इतके क्लेम्स होतें की मेरीला ते मिळणे अशक्यच वाटलं. बरं स्वस्त नव्हतं ते पुस्तक. काही  पौंडस मध्ये होती किंमत त्याची.  मेरीने जुनं कोणाचं मिळतं का म्हणून कॉलेज बोर्डवर नोटीस लावली.तिला मुळीच अपेक्षा नव्हती कोणी प्रतिसाद देईल.चार दिवसांनी तिला उत्तर मिळाले, माझ्याकडे आहे हे.येऊन घेऊन जा.’अत्यानंदाने मेरी त्या नोटीस लिहिणाऱ्या मुलाला भेटूनआली. रॉबिन नाव होतं त्याचं. तो मेरीच्या पुढे दोन वर्षे होता आणि म्हणाला’अग, चुकूनच हे राहिलं माझ्याकडे. माझीपुस्तकं मी मागच्या मुलांना देऊन टाकतो.मेरी म्हणाली,मला दर वर्षी विकत देत जाशील का?मी निम्मे पैसे देऊन घेईन सगळी.मला फार गरज आहे रे.पण मी बुडवणार नाही तुझे पैसे.’रॉबिनला  ही गरीब हुशार मुलगी मनापासून आवडली.अग, विकत काय?तशीच नेत जा.मला काही कमी नाही आणि तुला उपयोग होत असेलतर मला आनंदच होईल मेरी.’रॉबिन ने तिला आपली जर्नल्स पण दिली.

अत्यानंदात मेरी घरी आली.त्या 25 डिसेंबर ला तिच्या उशाशी पुढच्या फी इतके पौंड्स होते. मेरीच्या डोळ्यात आनंदाश्रू आले.हा कोंण देवदूत हे करतो याचे कोडे तिला सुटले नाही.शेजारच्या मायकेल अंकलला ती घडलेली प्रत्येक गोष्ट सांगत असे.तेच एक जिवलग होते तिला.दुसरं होतंच कोण?  आणि मायकेल अंकल ती सांगेल ते सगळं ऐकून घेत.ती म्हणाली,’ अंकल मला आयुष्यात एकदा तरी या सांताक्लॉज ला भेटायचं आहे.त्याचे आभार मानायचे आहेत हो.’मायकेल अंकल हसले आणि म्हणाले,तुझी इच्छा आहे ना?मग होईल ही पण पूर्ण.’ मेरी उत्कृष्ट ग्रेडस् मिळवून डॉक्टर झाली. आयर्लंडच्या एका विख्यात हॉस्पिटलमध्ये तिला जॉब मिळाला.

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘मानसपूजा…’ ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ ‘मानसपूजा…’ ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

सहज शांतपणे बसायचं …

हळूच डोळे मिटून घ्यायचे 

अंतरंगातले कल्लोळ शांत होईपर्यंत काहीही करायचं नाही.

 मनाला स्थिरता आली की 

मानसपुजा  सुरू करायची..

 

 प्रेमाने मायेने अंतकरणपूर्वक…

 हळूहळू आत आत  जायचं 

हे  आता जमायला लागले होते……….

 

प्रथम डोळे भरून त्याच्याकडे बघायच.नमस्कार करायचा..पुजा सुरू करायची..

 पंचामृत स्नान ,मग शुद्धोदक स्नान जरतारीची मखमली  देवाची वस्त्र ..

ती अर्पण करायची..

सोन्यामोत्याचे अलंकार घालायचे .

 

सुंदर हार फुलं देवाला वहायची..

आणि मग एकटक .. 

ते गोजिर रूप बघतच राहावं असं वाटायचं ..

जीव त्यात रमायचा..

 

 मोठ्या चांदीच्या ताटात पंचपक्वानांचा नैवेद्य दाखवायचा

 आरतीच तबक निरंजनांनी सजवायचं….

 

 आरत्या म्हणायच्या सोबत टाळाचा गजर त्या नादात पाच-सहा आरत्या होऊन जायच्या..

 धूप लावायचा ..

कापूरच्या आरतीने ओवाळायच ओवाळताना कापूर आरती म्हणायची मंत्रपुष्पांजली झाली की

साष्टांग दंडवत घालायचा 

…..

 सगळं कसं यथासांग  करायचं

 नंतर त्याच्यासमोर बसून राहायचं…..

काही न बोलता शांतपणे…

कारण  

त्याला सगळंच माहित असत..

 

 असं वाटायचं पुजा  सफल झाली……

 पूर्वी तेवढ्याने जीव रमायला  लागला होता .

आताशा एक वेगळीच ओढ लागली होती…

 

मनात यायच  पंचामृताचा फुलांचा वास कधीतरी जाणवावा..

पक्वान्नांचा गंध नाकाला क्षणभर तरी यावा ..

निरंजनाची उष्ण ऊब आरती घेताना  हाताला स्पर्शून जावी..

 निदान कापराचा तो चिरपरिचित वास तरी यावा….

 

काहीतरी घडावं असं वाटायचं आजही क्षणभर तसंच वाटलं…..

 

 अर्थातच तिला माहीत होत आपला इतका अभ्यास नाही …भक्ती भाव नाही हे लगेच घडणार नाही..

 खूप मनोभावे अनेक वर्ष तप साधना करायला हवी तेव्हाच हे होईल 

 

आज तर मनाने बजावलच ही अपेक्षा करूच नकोस ..

अनुभव प्रचिती या फार लांबच्या गोष्टी आहेत …

तिथपर्यंत पोहोचायला अजून खूप वेळ आहे …

साक्षात्कार काय इतक्या सहजासहजी होत नसतो…

इथे सबुरी हवी .

 

आणि खरंतर असं कुठलं मागणं मागायलाच नको …

इथपर्यंत वाटचाल करायचं हे भाग्य मिळालं हेही खूप झालं .

 

हे सगळं कळत होतं पण मन मात्र आज खुळावलं होतं .

 

ती भानावर आली. पूजा पूर्ण झाली होती .कापूर अजून जळत होता. दिव्यांच्या वातीच्या उजेडातलं ते मोहक रूप  ती बघत  होती..

 

 किती वेळ गेला काही कळलच नाही आणि अचानक हवेच्या मंद झोक्याबरोबर खिडकी जवळच्या प्राजक्तांचा वास दरवळला..

 अंगावर एक अनामिक लहर आली मन भारल्यासारखं झालं ..

 

देवाने आज जणू कौलच दिला होता प्रसाद म्हणून हा सुवास आला होता का…जाणवला होता का..

काय सुचवायचे असेल बरं…

 

 केवळ मानस पूजेतच तो नाही तर चराचरात तो भरून राहिलेला आहे ही तर शिकवण देवाने दिली नसेल ..

एक हलकीशी गोड जाणीव मनाला स्पर्श करून गेली …

खरतर हा वास नेहमी यायचा..पण त्यातला हा गर्भित अर्थ आज ऊमगला..

 

तो असतोच आसपास कुठल्या ना कुठल्या रूपात.

 सगुणरूपाची पूजा करायची सवय असल्याने तेच रूप परिचित असते आणि तेच खरे वाटते.

 इतके संकुचित रूप असेल का बरं  त्याचे ?

 

त्यासाठी आता  शांतपणे  विचार करायला हवा  ….हळुहळु  मग तो चराचरात  दिसेल.

 अगदी आसपासच्या  माणसातही ….

हेच सुचवायचं असेल का ?

ती भानावर आली …

खरंच मनापासून प्रयत्न करायला हवे आहेत हे तिच्या लक्षात आले. वरवरच्या विचारातून बाहेर येऊन अंतरंगात खोल डोकावून पहायला हवे आहे..

 संकल्पना तपासून बघायला हव्या आहेत .

आज मनाला एक वेगळाच विचार स्पर्शून गेला होता .

त्यावर अभ्यास करायला हवा .

विचार नीट तपासून बघायला हवे

 तिला मनोमन संतोष वाटला. 

 

त्यानी  मार्ग दाखवला  आहे.. त्यावरून आता जायला हवे.

 जे हवेहवेसे वाटते आहे ते तिथे गवसेल.

 

डोळे उघडून ती लौकिकात परत आली. 

आज मन मात्र  काहीसे शांत स्थिर झाले आहे असे वाटत होते .

अननभूत असे काहीसे त्याला आज गवसले होते .

 

एक मात्र खरे होते..

आजची मानसपूजा खूप काही शिकवून गेली होती.

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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