हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 1 – द ग्रेट नानी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – द ग्रेट नानी  ?

मैं डॉरोथी किंग्सवेल।

अपनी पच्चीसवीं सालगिरह मनाने के लिए मैं पहली बार भारत आई थी। यद्यपि यह पहली यात्रा थी मेरी पर ऐसा लगता रहा मानो हर शहर मेरा परिचित है। हर चेहरा मेरे देशवासियों का है, मेरे अपने हैं। यह मेरी जन्मभूमि तो नहीं है पर फिर भी मुझे यहाँ सब कुछ अपना – सा महसूस होता रहा। इस तरह के भावों के लिए मैं अपनी नानी की शुक्रगुजार हूँ।

इस संस्मरण को पूर्णता प्रदान करने के लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना होगा क्योंकि यहाँ तीन पीढ़ियाँ और तीन स्त्रियों का जीवन रचा- बसा है।

तेईस वर्ष की उम्र में मेरी माँ एम. एस. करने अमेरिका गई थीं। वहीं उनकी मुलाकात मेरे पापा से हुई थी। पापा नेटिव अमेरिकन  हैं जिन्हें अक्सर आज भी भारतीय रेड इंडियन कहते हैं। माँ ने जब पापा से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की तो नाना – नानी असंतुष्ट हुईं। माँ कुछ समय के लिए भारत लौट आईं। फिर छह माह बाद उन्हें USA में काम मिल गया और वे लौट गईं। उन्होंने पापा से विवाह कर लिया और वहीं बस गईं। फिर कभी भारत न आईं।

माँ की शादी होने पर तीन साल तक नाना – नानी उनसे नाराज़ रहे। मेरी माँ नाना- नानी की इकलौती औलाद थीं, बड़े लाड़ – प्यार से पाला था उन्हें। इस तरह स्वेच्छा से शादी कर लेने पर उनके दिल को भारी ठेस पहुँची थी। नानी बैंक में उच्च पदस्थ थीं । मृदुभाषी, मिलनसार महिला थीं।

मैं जब इस संसार में आनेवाली थी तो नाना -नानी सारी कटुता भूल गए। कहते हैं असली से ज्यादा सूद प्रिय होता है। नानी ने छह महीने की छुट्टी ली और पहली बार अमेरिका आईं। माँ – बेटी के बीच का मनमुटाव दूर हुआ। नानी ने  माँ की और मेरी खूब सेवा की और फिर भारत लौट आईं। बाकी छह माह फोन पर और फिर कंप्यूटर पर चैटिंग,  ईमेल आदि द्वारा बातचीत जारी रही। अपनी बढ़ती उम्र के साथ -साथ नानी के साथ मैं जुड़ी रही। मेरी दादी और बुआ जी भी आती – जाती रहती थीं।

मैं नानी के बहुत करीब थी। साथ रहती तो मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। बचपन से उन्होंने मुझे हिंदी भाषा से परिचित करवाया। भारतीय संस्कृति, कथाएँ, राम ,कृष्ण और अन्य देवों की कथा सुनाई। भारतीय शूरवीर महाराणाओं, राजाओं , रानियों की कथा सुनाई। भारत की आज़ादी और गुलामी के कष्टों की  दास्तां सुनाती रहीं , विविध उत्सवों का महत्त्व समझाया और भारत देश के प्रति मेरे मन में जिज्ञासा और प्रेम को पनपने का मौका दिया।

मेरे पापा एक अच्छे पिता हैं,एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन अपनी जाति के लोगों की सुरक्षा और अधिकार दिलाने में समर्पित कर दिया। वे लॉयर हैं। उन्होंने माँ को सब प्रकार की छूट दी और हम भारत से दूर रहकर भी भारतीय त्योहार मनाते रहे, गीत- संगीत का आनंद लेते रहे। हमें दोनों संस्कृतियों के बीच आसानी से तालमेल बिठाने का अवसर भी पापा ने ही दिया। पापा के कबीले की कहानियाँ, उन पर सदियों से होते आ रहे जुल्मों की कथा दादी सुनाया करती थीं। मुझे दोनों देशों और संस्कारों से परिचित करवाया गया। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता जैसे इन दोनों देश की  कथाएँ एक जैसी हैं। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं दो अलग संस्कृतियों को समझने और उसका हिस्सा बनने के लिए अमेरिका में जन्मी।

नानी हर साल आतीं, छह माह रहतीं और मुझे इस भारत जैसे सुंदर देश से परिचित करवाती रहतीं। यह सिलसिला मेरी सत्रह वर्ष की आयु तक चलता रहा। मैं जब सत्रह वर्ष की हुई तो ग्रेज्यूएशन के लिए होस्टल में भेज दी गई। अमेरिका का यही नियम है।नानी का भी अमेरिका आना अब बंद हो गया। इस बीच नाना जी का स्वर्गवास हुआ।

मेरी नानी एक साहसी महिला हैं। नानाजी के जाने के बाद भी वे स्वयं को अकेले में संभाल लेने में समर्थ रहीं। अब तक हम  दोनों खूब एक दूसरे के करीब आ गईं थीं।अब हम एक दूसरे के साथ विडियो कॉल करतीं। खूब मज़ा आता। अब वह मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं।

इस साल नानी का भी पचहत्तरवाँ जन्म दिन था। उन्होंने मुझे बताया था कि अब उन्हें बड़े घर की ज़रूरत  नहीं थी। वे अकेली ही थीं तो एक छोटा घर किराए पर लिया था। अपना मकान बेचकर सारी रकम बैंक में जमा कर दी और छोटे से घर में रहने गईं। वहाँ पड़ोसी बहुत अच्छे थे। उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होने देते थे।

मैं अमेरिका से उनसे मिलने आई तो मेरे आश्चर्य  की कोई सीमा न थी। नानी शहर से दूर एक वृद्धाश्रम में रहती थीं। जहाँ उनके लिए एक कमरा और स्नानघर था । इसे ही वे अपना छोटा – सा  घर कहती थीं। वे खुश थीं, उस दिन वृद्धाश्रम में धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाया गया। उनकी कई सहेलियाँ आई थीं जो अपने परिवार के साथ रह रही थीं।

मेरी नानी सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं, सबसे स्नेह करती हैं, क्षमाशील हैं। मैं अब अपने घर लौट रही हूँ । अपने साथ एक अद्भुत ऊर्जा लिए जा रही हूँ। नानी ने मुझे जीवन को समझने और जीने की दिशा दी। कर्त्तव्य  करना हमारा धर्म है। फल की अपेक्षा न रखें तो जीवन सुखमय हो जाता है। अपनी संतानों के प्रति कर्त्तव्य करो पर अपेक्षाएँ न रखो।

मैं उमंग,  उम्मीद और उत्साह से भर उठी। प्रतिवर्ष नानी से मिलने आने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली।

अपने जीवन में कुछ निर्णय स्वयं ही लेने चाहिए ये मैंने अपनी नानी से ही सीखा।

(डॉरोथी किंग्सविल की ज़बानी)

© सुश्री ऋता सिंह

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈