English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 116 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 116 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 116) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 116 ?

☆☆☆☆☆

Treasure of Love

 कभी किसी ने अपना थोड़ा सा

कीमती वक्त दिया था हमें,

हमने भी उसे दौलत-ए-इश्क़ समझ

आज तक दिल के करीब रखा है

 Someone had once given his

little bit of precious time,

I’ve also kept it close to the heart

as treasure of love till date…!

☆☆☆☆☆

क्यूँ तुम्हारे नाम को सुनते ही

मेरी सांस महकने  लगती है,

एहसास नशे का होता है और

हर फ़िक्र बहकने लगती है…

Why my breaths become fragrant

moment I hear your name

Feeling is of inebriation and

every worry starts to delude…

☆☆☆☆☆

दोबारा प्यार करना अब

कभी मुमकिन ही नहीं,

छोड़ा ही कहाँ तुमने इस

दिल को धड़कने के काबिल…

It is just not possible

to fall in love again,

You haven’t left this heart

capable of beaing again!

☆☆☆☆☆

सिरहाने मीर के

ज़रा आहिस्ता बोलो…

अभी तक रोते-रोते

सो गया है…!

Speak slowly near

the head of Mir…

He has just fallen off

to sleep crying…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन-1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन – 1 ☆?

भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। तरति पापादिकं तस्मात। अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला अथवा वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।

संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,

तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरै: संसार भिरूभि: पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणी विराजिषु।

पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।

अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।

नित्य तीर्थ में पवित्र कैलाश पर्वत, मानसरोवर, काशी,  गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी आदि का समावेश है। माना जाता है कि इन स्थानों पर सृष्टि की रचना के समय से ही ईश्वर का वास है।

जिन स्थानों की रज पर भगवान के चरण पड़े, वे भगवदीय तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनमें ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, अयोध्या, वृंदावन आदि समाविष्ट हैं‌।

संतों की जन्मभूमि, कर्मभूमि, निर्वाणभूमि को संत तीर्थ कहा गया है। ये क्षेत्र मनुष्य को दिव्य अनुभूति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।

प्रत्यक्ष जीवन में, नित्य के व्यवहार में निरंतर ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति अद्भुत है। वह अपने आसपास साक्षात तीर्थ देखती, दिखाती और जीवन को धन्य बनाती चलती है। इसी विराट व्यापकता ने अगले  6 तीर्थों में भक्त, गुरु, माता, पिता, पति, पत्नी को स्थान दिया है। अपने साथ ही तीर्थ लेकर जीने की यह वैदिक शब्दातीत दिव्यता है।

वैदिक दर्शन में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवनचक्र के लिए उद्दिष्ट माने गये हैं। तीर्थ का एक अर्थ तीन पुरुषार्थ धर्म, काम और मोक्ष का दाता भी माना गया है। एक अन्य मत के अनुसार सात्विक, रजोगुण या तमोगुण जिस प्रकार का जीवन  जिया है, उसी आधार पर तीर्थ का परिणाम भी मिलता है। समान कर्म में भी भाव महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ परमाणु ऊर्जा से एक वैज्ञानिक बिजली बनाने की सोचता है जबकि दूसरा मानवता के नाश का मानस रखकर परमाणु बम पर विचार करता है।

जिससे संसार समुद्र तीरा जाए, उसे भी तीर्थ कहा जाता है। अगस्त्य मुनि ने एक आचमन में समुद्र को पी लिया था। प्रभु श्रीराम के धनुष उठाने पर समुद्र ने रास्ता छोड़ा था। तीर्थयात्रा संसार समुद्र के पार जाने का सेतु बनाती है।

तीर्थ मृण्मय से चिन्मय की यात्रा है। मृण्मय का अर्थ है मृदा या मिट्टी से बना। चिन्मय, चैतन्य से जुड़ा है। देह से देहातीत होना, काया से आत्मा की यात्रा है तीर्थ। आत्मा के रूप में हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस भाव को पुनर्जागृत और पुनर्स्थापित करता है तीर्थ। अनेक से एक, एक से एकात्म जगाता है तीर्थ। अत: मनुष्य को यथासंभव तीर्थाटन करना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता ♣ उलटबांसी ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ बाल कविता ♣ उलटबांसी ♣  डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

धत् तेरे की, धत् तेरे की

यह भी कोई बात हुई ?

दिनभर कैसे सूरज चमका

डूब गया तो रात हुई ?

 

हा – हा – ही – ही हँसते हैं हम

पक्षी भी क्या गाता है ?

कौआ राग अलापे भी तो

तानसेन कहलाता है ?

 

दादा दादी बुड्ढे हैं क्या ?

दाँत नहीं तो नहीं सही।

छोटू का तो एक दाँत है

वह भी बुड्ढा हुआ कहीं ?

 

नहीं पढ़ा, न हुआ होमवर्क,

टीचर आग उगलते हैं।

डंडा नहीं, आइसक्रीम दें !

ठंडे से क्या डरते हैं ?

        

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ 

☆ दोहा सलिला –  मन दर्पण में देख रे!

कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान

पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण

मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ

हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ

हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर

मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.

मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स

वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स

जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार

छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार

माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार

माटी माटी से मिले, माटी ले आकार

मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम

मैना – कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-१०-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #148 ☆ आलेख – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 148 ☆

☆ ‌आलेख – एक हृदय स्पर्शी संवाद – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

अगर सच कहा जाए तो सूर दास जी के द्वारा रचित कृष्ण चरित पर आधारित सूर  सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है।  

उससे भी कहीं अनंत गुना ज्यादा आत्म स्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक-एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है वहीं प्रेम के  वियोग श्रृंगार-श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती हैं, कृष्ण की यादों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वह कृष्ण की यादों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्म विभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।

जिसका जीवंत उदाहरण कृष्ण-उद्धव, तथा उद्धव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है। जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।

तब, कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग, गायों तथा गोप समूहों के साथ बिताए गए दिन तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते – बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं —-

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हसै, देश कहै नटि जाय।।

तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उद्धव से अपने मन की बात कह ही देते हैं। – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”। 

ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।

चले मथुरा से जब कुछ दूर, बृंदावन निकट आया।

वहीं पर प्रेम ने उनको, अनोखा रंग दिखलाया।

उलझ कर वस्त्र से कांटे, लगे ऊधव को समझानें।

तुम्हारा ज्ञान परदा फाड़ देंगे, प्रेम दीवाने।

…में प्रेम की गहन अनुभूति नहीं कराता बल्कि ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है फिर तो एक हाथ में यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए  राधे राधे गा उठते हैं। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा चित्रण सूरसागर के अलावा कहाँ मिलेगा?

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ झाले कसे निखारे ?… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ झाले कसे निखारे ?… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

गालावर तव ओघळला ,

दव वेलीच्या फुलांचा.

मी चकोर अधीर टिपण्या ,

कणकण साैंदर्याचा.

सुखदुःखाच्या लाटांची,

तू कालप्रवाही सरिता .

मी हरवल्या काठाची,

निर्बंध मूक कविता.

साक्षात काैमुदी तू,

तू चाँद पूनवेचा.

मी नाममात्र उरलो,

ऋतू शरद चांदण्याचा.

झाले कसे निखारे,

ओंजळीतल्या फुलांचे.

अरण्यरुदन ठरले,

अप्राप्य चांदण्याचे.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ दावा परमार्थ… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – श्री श्रीकांत पुंडलिक ☆

डॉ निशिकांत श्रोत्री

? काव्यानंद ?

☆ दावा परमार्थ… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – श्री श्रीकांत पुंडलिक ☆

☆ दावा परमार्थ… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆

तुमच्या पायी आलो मजला दावा परमार्थ

जय जय स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ   ||ध्रु||

 

जीवन सारे व्यतीत केले मानव सेवेत

नव्हती कसली जाण काय आहे अध्यात्म

परउपकार न मजला ठावे अथवा ना स्वार्थ

जय जय स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ    ||१||

 

दारी आले त्यांच्या ठायी तुम्हांस देखियले

नाही आले त्यांच्यातुनिया तुम्हांस जाणीले

तुम्हाविना ना काहीच भासे जीवनात अर्थ

जय जय स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ    ||२||

 

जाणीव आता पैलतिराची शिरी असो हात

नाही कसली आंस असो द्या तुमचीच साथ

कृपा असावी उजळावे हो जीवन न हो व्यर्थ

जय जय स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ    ॥३॥

©️ डॉ. निशिकांत श्रोत्री, ९८९०११७७५४

☆ दावा परमार्थ – डाॅ. निशिकान्त श्रोत्री यांच्या कवितेचा रसास्वाद – श्री श्रीकांत पुंडलिक ☆

कविवर्य डॉ निशिकांत यांची ही एक भावपूर्ण कविता आहे. ही कविता म्हणजे कविवर्यानी आपल्या आयुष्याकडे वळून बघताना केलेले आत्मपरीक्षण आहे.जणू काही आयुष्याचा लेखाजोखाच मांडला आहे.

माणसाचं जीवनच प्रश्नमय आहे. जन्मल्याबरोबर माणसाला प्रश्न पडतो, “कोsहं?” या प्रश्नापासून सुरू झालेलं आयुष्य ‘”सोहं” या उत्तराप्रत येईपर्यंत अनेक प्रश्नांनी भारलेलं असतं. आणि माणूस त्या प्रश्नांची उत्तरं शोधण्याचा आटोकाट प्रयत्न करत असतो. या जीवन प्रवासात पुष्कळ वेळा आत्मकेंद्री बनत जातो आणि तो फक्त स्वतःपुरता जगायला लागतो. मी, माझं कुटुंब, माझा उदरनिर्वाह, माझी समृद्धी याचा विचार करताना स्वार्थ काय परमार्थ काय या संबंधी तो विचार देखील करत नाही. पण जो ज्ञानी मनुष्य असतो तो मात्र या सर्व क्रियाकलापापासून अलिप्त होत स्वार्थ, परमार्थ, जीवन याचा, साकल्याने विचार करितो. प्रस्तुत  कविता म्हणजे याच विचाराचं भावपूर्ण प्रकटीकरण आहे.

कविवर्य आपल्या कवितेच्या पहिल्या कडव्यात अतिशय नम्रपणे, त्याच्या जीवनाचं अधिष्ठान असलेल्या सद्गुरू स्वामी समर्थाच्या चरणी लीन होतात आणि त्यांना आपल्या आयुष्यात केलेल्या जीवन प्रवासाची माहिती देतात.

कविवर्य स्वतः आयुःशल्य विज्ञान  स्नातक आहेत. त्यांना शारीरिक व्याधी आणि त्यातून सुटकेचा मार्ग माहिती आहे. या ज्ञानाच्या आधारे त्यांनी अनेकांना व्याधीमुक्त केलेलं आहे. त्यात त्यानी कुठलाही स्वार्थ जोपासला नाही. त्यामुळे स्वतच्याही नकळत कविवर्य अध्यात्मच जगले आहेत.

दुसऱ्या  कडव्यामध्ये कवींनी आपल्या कामागची प्रेरणा स्पष्ट केली आहे. कवींचा व्यवसाय जरी वैद्यकीचा असला तरी त्यामागची प्रेरणा मात्र, “शिव भावे जीव सेवा” हीच होती.  जीवनाच्या प्रत्येक अंगामध्ये कवींनी आपल्या आराध्य देवतेलाच पाहिले. व्यवसाय आणि जीवनातील यशाचं श्रेय मात्र विनम्रपणे कवी  स्वामी समर्थाना देतात.

मी कर्ता म्हणशी तेणे तू कष्टी होसी।

परा कर्ता म्हणस। तेणे तू पावसी। यश कीर्ती प्रताप॥”

ही समर्थ रासमदास स्वामी याची उक्ती कवी आचरणात आणतात. स्वामी समर्थाविना जीवन निरर्थक आहे हीच भावना या कडव्यात कवींनी मांडली आहे.

तिसऱ्या कडव्यात मात्र कविवर्याची भावना मात्र व्याकुळ झाली आहे. “संध्या छाया भिवविती हृदया” अशी भावना या कडव्यातून व्यक्त होते आहे. व्यासाच्या या वळणावर फक्त स्वामी समर्थाची साथ असावी आणि जीवन उजळून निघावे हीच भावना प्रकट होते आहे. आयुष्य हेच स्वामी समर्थाची पूजा, आणि आता उत्तरपूजा सुरू झाली आहे

न्यूनं संपुर्णतांयाती सद्यो वंदेतमच्युतं

ही कविता वाचत असताना शब्दांचा साधेपणा, प्रासादिकता, यामुळे कवितेमध्ये अंगभूत नादमाधुर्य निर्माण झाले आहे. कवितेतील आर्तता थेट  जगद्गुरू संत तुकारामाच्या, “तुका म्हणे आता उरलो उपकारापुरता” या भावनेशी नाते सांगणारी आहे.

© श्री श्रीकांत पुंडलिक

अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तुळस… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये 

? विविधा ?

☆ तुळस… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

तुलसी श्रीसखी शिवे । पापहारिणी पुण्यदे |

नमो नारायणप्रिये ! नमस्ते नारदनुते ! नमो नारायणप्रिये ||

प्रत्यक्ष श्रीकृष्णांची सखी असणाऱ्या, पवित्र, पापांचे हरण करणाऱ्या, पुण्य प्रदान करणाऱ्या, नारदाकडून स्तुती केल्या गेलेल्या, नारायणाला प्रिय असलेल्या तुळशीला प्रणाम असो—- सकाळी स्नानानंतर तुळशीला पाणी देऊन प्रदक्षिणा घालण्याचे वेळी हा श्लोक म्हणण्याची प्रथा आहे. तुळशीत असलेल्या अनेक गुणांमुळे तिच्या सानिध्यात राहण्याने मिळणाऱ्या फायद्यामध्येच या प्रथेचे मूळ असावे.

तुलसी यस्य भवने प्रत्यहं परिपूज्यते | तद् गृहं नोपसर्पंति कदाचित् यमकिंकरा: ||

—-स्कंद पुराणात असा श्लोक आहे. याचा अर्थ असा आहे की ज्या घरात नेहमी तुळशीची पूजा केली जाते त्या घरातील सदस्य कमी आजारी पडतात. तुळशीची पाने आरोग्याच्या दृष्टीने अत्यंत महत्त्वाची असतात. तिच्या मंजिरी विष्णूला अर्पण केल्या तर मोक्ष मिळतो.

….. एका कीर्तनकाराने तिची कथा सांगितली होती ती अशी…… 

….. एका गावात तुळशी नावाची एक काळी सावळी मुलगी रहात होती. तिची आई लहानपणीच वारली. सावत्र आई तिला खूप त्रास द्यायची. म्हणायची, ” तू इतकी काळी. तुझे लग्नच होणार नाही.” तुळशी मोठी झाली आणि तिने एक दिवस आईला उत्तर दिले ,” पंढरपूरचा विठुराया माझ्यापेक्षा काळा आहे. तो करेल माझ्याशी लग्न.” 

आई म्हणाली, ” जा मग त्याच्याकडेच. नाहीतरी तू भूमीला भार आणि खायला कहार आहेस.” तुळशी देखील रागारागाने घराच्या बाहेर पडली. पंढरपूरला आली. तिथल्या बायका तिला चिडवू लागल्या. ” अग, त्याचे रुक्मिणीशी लग्न झाले आहे, तो तुझ्याशी कसा लग्न करेल? नुसता भुईला भार आहेस.” तुळशी रात्रंदिवस विठ्ठलाचे नामस्मरण करत राहिली. तिने अन्न पाणी सोडले. विठुराया काही तिच्याकडे आला नाही. तिने भूमातेला वंदन केले व आर्त विनवणी केली. ” आता माझ्याने सहन होत नाही. तू मला तुझ्या उदरात घे.” आणि खरोखरच भूमाता दुभंगली. तुळशी विठ्ठल विठ्ठल करत गडप होऊ लागली. इकडे विठुरायाला ते समजले. तो धावत धावत त्या  ठिकाणी आला. पण उशीर झाला होता. तुळशी गडप व्हायला लागली होती. त्याने तिचे फक्त केस दिसले तेवढे घट्ट धरून ठेवले. पण  तुळशी गडप झाली. आणि विठोबाच्या हातात फक्त तिचे केस राहिले. त्याने मूठ उघडली आणि त्याच्या डोळ्यांतले अश्रू त्या केसांवर पडले. त्याच्या मंजिऱ्या झाल्या. विठोबाने त्या आपल्या हृदयाशी धरल्या आणि तेथील जमिनीवर पेरल्या. तिथे एक झाड उगवले .त्याला सगळे तुळशी म्हणून लागले. रखुमाईला ते समजले. इकडे विठोबा सारखे तुळशी तुळशी म्हणून उदास होत होता. रखुमाईला राग आला. ती म्हणाली सारखं तुळशी तुळशी करताय. घ्या तिला गळ्यात बांधून. आणि विठोबाने देखील तुळशीचा हार तयार केला आणि आपल्या गळ्यात घातला. तेव्हापासून ती त्याच्या हृदयापाशी रहात आहे…

तुळस अंगणात लावल्यावर दुष्ट शक्ती घरात येत नाहीत. तिच्या बुंध्याभोवतीची काळी माती विषारी माशी, किडा वगैरे चावल्यावर लावली तर उपयोग होतो. मधमाशीने दंश केल्यास त्या जागी तुळशीतील माती लावतात. आराम पडतो. किडा, मुंगी, डास चावल्यास पानांचा रस दंशाचे जागी लावतात. आग थांबते. तिचे खोड, मूळ, फुले आणि मंजिरी अँटिबायोटिक म्हणून वापरतात. ताप आला, घसा खवखवू लागला तर तिची पाने चघळावी. चेहऱ्यावर डाग असतील तर तुळशीचा लेप लावावा. पाण्यात तुळशीची पाने टाकली तर पाणी आपोआप शुद्ध होते. फुफ्फुसे हृदय व रक्ताभिसरणाशी संबंधित असलेली अनेक औषधे तुळशीचा रस व मधाच्या अनुपानासोबत देतात. तुळशीचा रस मधाबरोबर दिला तर सर्दी पडसे नाहीसे होते. तिच्या पानांचा रस लहान मुलांना दिला तर त्यांचा खोकला बरा होतो व टॉनिकप्रमाणे उपयोग होतो. नायटा झाल्यास तिच्या पानांचा रस लावतात. तिचे बी पाण्यात पाच-सहा तास भिजवून, दूध साखर घालून खाल्ल्यास अंगातली उष्णता कमी होते.

….. देवाला वाहिलेल्या फुलांचे निर्माल्य होते. पण देवाला वाहिलेल्या तुळशीचे निर्माल्य होत नाही. तिची पाने, फांद्या झाडापासून तोडल्या तरी तिच्यातील प्राणशक्ती जिवंत असते. तुळशीमध्ये वनस्पतीज सोने असते. धातू रूपातील सुवर्णापेक्षा वनस्पतीज सोने जास्त प्रभावी असते.

….. तुळशीला इंग्रजीत बासिल म्हणतात. हिंदीत विश्व पूजिता ,विश्व पावन, भारवी, पावनी, त्रिदशमंजिरी, पत्रपुष्पा, अमृता, श्रीमंजरी, बहुमंजरी, वृंदा ,वैष्णवी, अशी अनेक नावे आहेत. विठोबाच्या गळ्यातील तुळशीला वैजयंती म्हणतात.

….. तुळशीवरून काही वाक्प्रचार देखील आपण वापरत असतो.

१) तुळशी उचलणे म्हणजे शपथ घेणे.

२) तुळशी उपटून भांग लावणे म्हणजे चांगल्या माणसाला काढून वाईट माणसाची संगत धरणे

३) तुळशीच्या मुळात कांदा लावावा लागणे म्हणजे चांगले हेतू साध्य करण्यासाठी वाईट साधनांचा  उपयोग करण्याविषयीची सबब सांगणे.

४) तुळशीत भांग उगवणे म्हणजे चांगल्या माणसांच्या समुदायात चुकून एखादा वाईट माणूस आढळणे.

५) तुळशीत भांग व भांगेत तुळस उगवणे म्हणजे चांगल्या आणि वाईट गोष्टी एकाच ठिकाणी असणे.

६) तुळशीपत्र कानात घालून बसणे म्हणजे ऐकले न ऐकलेसे करून स्वस्थ बसणे.

७) घरादारावर तुळशीपत्र ठेवणे म्हणजे घरादाराचा त्याग करणे.

—–तिचा विवाह केल्यास कन्यादानाचे महत्त्व प्राप्त होते. विष्णू आणि लक्ष्मी प्रसन्न होतात. तुळस हे लक्ष्मीचे रूप आहे. 

महाप्रसाद जननी

सर्व सौभाग्यवर्धिनी

आधिव्याधी हरा नित्यं

तुलसी त्वं नमोऽस्तुते ||

 

लेखिका : सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 5 ☆  श्री आनंदहरी  ☆ 

बसून घोटभर पाणी प्याल्यावर त्यांना जरा बरं वाटलं. काहीतरी आठवताच तात्या झटकन उभाच राहिले. ते अचानक उभा राहिल्याने त्यांच्याकडे आश्चर्याने आणि घाबरून पाहणारी बायको त्यांना काहीतरी विचारणार तोच ते बॅटरी घेत म्हणाले,

“जरा त्याच्याकडे बघ. आलोच मी. “

” अहो पण…”

” आलोच..”

बायकोला पुढं काही बोलू न देता तात्या बॅटरी घेऊन बाहेर पडले आणि पुन्हा शेजारी आले. सावकाश कानोसा घेत साऱ्या ढिगाऱ्यावरून, तुळयांजवळून दोन तीनदा फिरले. कुठंच कण्हण्याचा आवाज येत नव्हता. त्यांना वाटत होतं जसा तो सापडला तशीच त्याची आईसुद्धा सापडेल. मनात आशा होती काहीच मागमूस लागत नाही म्हणल्यावर त्या दगड-मातीच्या मलब्यात गाडल्या गेल्या असणार.. आता जिवंत असण्याची तिळमात्र शक्यता नव्हती. ते निराश झाले, दुःखी-कष्टीही झाले. तात्या उदास मनाने घरी परतले. तात्यांची बायको त्याच्याजवळ बसली होती. तिने त्याचा चेहरा पुसून काढला होता.. जखम दिसेल तिथं हळद भरलो होती. रक्तस्त्राव थांबला होता. तो बेशुद्ध होता.

तात्यांना आल्याचे पाहताच त्यांच्या बायकोने त्यांच्याकडे प्रश्नार्थक नजरेने पाहिले. तात्यांनी नकारात्मक मान हलवली तेंव्हा त्यांच्या डोळ्यांच्या कडा ओलावल्या होत्या. आत येताच तात्यांनी चिंब भिजून निथळत असलेले त्यांचे कपडे बदलले. पाऊस मंदावला होता पण होताच.

” गावात पोलीसपाटलांकडे जाऊन येतो. “

हातात बॅटरी आणि छत्री घेत तात्या म्हणाले तसे त्यांच्या बायकोने हातानेच त्यांना थांबायची खूण केली. आत जाऊन चहा करून आणून तात्यांच्या हातात देत त्या म्हणाल्या,

” रात्रभर भिजलाय, चहा घ्या न् जावा. “

चहा पिता पिता त्यांची नजर  तात्यांच्या सालटे निघालेल्या पायाकडे गेली.

” अहो, हे काय लागलंय ?”

” काही नाही गं.. याला बाहेर काढताना जरासे खरचटलंय..”

” अहो, सांगायचंत तरी ..? “” अगं, वेळ कुठली ? अन् त्यात सांगण्यासारखं काय आहे  ? “

त्यांनी आतून हळद आणली. तात्यांच्या पायाला खरचल्याजागी लावली.

” जावा पण काळजी घ्या.. आणि आता फटफटायला लागलंय.”

” वेळेचं काही भानच राहिलं नाही बघ. “

बॅटरी फडताळात ठेवत तात्या म्हणले आणि छत्री  घेऊन बाहेर पडले.

गावात जाऊन तात्यांनी पोलीस पाटलांना सगळं सांगितले. गावात बऱ्याच ठिकाणी पडझड झाली होती पण ती किरकोळ होती. जीवघेणी पडझड त्याच्या घराचीच झाली होती.. सारे घरच भुईसपाट झाले होते. थोड्याच वेळात बातमी साऱ्या गावात पसरली.पडत्या पावसातही सारं गाव गोळा होऊन त्याच्या घराकडे धावले. तुळया बाजूला झाल्या, दगड माती बाजूला झाली. स्वयंपाकघराची भिंत आतल्या बाजूला त्याच्या आईच्या अंगावर पडली होती. बिचारी झोपल्या जागीच, झोपेतच गेली असावी.

गावातील डॉक्टरही धावून आले होते. तो बेशुद्धच होता. डॉक्टरनी त्याला तपासून औषधेही दिली होती. तात्या, त्यांची बायको त्याची काळजी घेत होते. त्या दोघांनाही त्याच्याबद्दल वाईट वाटत होते.. काही महिन्यांपूर्वी त्याचे वडील गेले होते.. अगदी अचानक आणि आत्ता आई गेली होती. तो पोरका झाला होता. डॉक्टरांच्या उपचाराने  तो दुसऱ्या दिवशी शुद्धीवर आला. शुद्धीवर येताच त्याने सभोवती नजर फिरवली. तो तात्यांच्या घरात होता. तात्या आणि त्यांची बायको समोर काळजीभरल्या डोळ्यांनी त्याच्याकडेच पाहत होते.

त्याला घराची भिंत पडल्याचे आठवले.. आपण आईकडे माजघराकडे जात असतानाच अंगावर भिंत कोसळून पडल्याचे आठवले.

” आई ss ! “

तो ओरडला तसे तात्यांची बायको त्याच्याजवळ आली आणि त्यांनी त्याला जवळ घेतले. तात्याही जवळ आले. त्या दोघांचेही वाहू लागलेले डोळे पाहून तो समजायचे ते समजला आणि ‘ आईss !’  म्हणून त्याने हंबरडा फोडला. तात्यां त्याच्या पाठीवरून हात फिरवत होते.

तात्यांचा, त्यांच्या बायकोचा तो मायेचा, आधाराचा स्पर्श जाणवला तेंव्हा त्याला तात्यांशी असणारे त्याचे वागणे, बोलणे आठवले. आपण त्यांच्याशी तसे वागूनही ते सारे विसरून संकटात तात्या धावून आले होते. त्यांनी तसल्या परिस्थितीतही प्रयत्नांची शिकस्त करून त्याला वाचवले होते. त्याला अपराधी वाटू लागले होते. तो क्षमायाचना करणारे काहीतरी बोलणार तितक्यात  जवळ घेत तात्या त्याला म्हणाले,

” काही बोलू नकोस पोरा. जशी ती दोन माझी मुलं तसा तू तिसरा…”

आणि त्याच्या, तात्यांच्या डोळ्यांतून घळाघळा आसवे वाहू लागली होती. त्या आसवांच्या पुरात त्यांच्या मनातील ‘हद्द ‘ ही पार विरून गेली होती, वाहून गेली होती.

समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ दोन चित्रे – लेखक -अनामिक ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ दोन चित्रे – लेखक – अनामिक ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

आईने तिच्यासाठी शब्दकोडे, चित्रकोडे यांचे पुस्तक आणले होते. आधी ती हरखून गेली. तिनं मग ते पुस्तक उघडले. पहिलाच खेळ होता– मांजराला माश्याकडे मार्ग दाखवा. तिनं पेन्सिलीने रेघांची वेटोळी ओलांडून क्षणात ते कोडं ओलांडलं. पुढचा खेळ होता योग्य जोड्या जुळवा– तिनं क्षणार्धात मोची आणि चप्पल, शिंपी आणि सदरा, डॉक्टर आणि औषध, सुतार आणि कपाट, असं सगळं जुळवलं. 

आई कौतुकाने ते बघत होती. पुढ़च्या शब्दखेळाला ती थबकली – थोडीशी हिरमुसली. तिनं ते पुस्तक बाजूला ठेवले. आई ते बघत होती. 

” काय झालं बाळा, तुला नाही आवडलं का पुस्तक.” 

“तसं नाही आई, मला तो पुढला चित्रखेळ नाही आवडला. ‘ दोन चित्रातील फरक ओळखा.’ –आई मला दोन चित्रातला फरक नाही ओळखता येत.”

आई म्हणाली, “अगं सोपाय. बघ ह्या चित्रात चेंडू लाल रंगाचा आहे, त्या चित्रात हिरवा. ह्या झाडावर पक्षी बसलेला आहे, त्या झाडावर नाहीये.” 

“आई मला फरक ओळखायला नाही आवडत. उलट दोन्ही चित्रात साम्य किती आहेत. ह्या मुलाकडाची बॅट आणि त्या मुलाकडची बॅट सारखी आहे. दोघांची टोपी सारखी आहे. दोन्ही मैदानावर गवत आहे, सुंदर हिरवे गार. दोन्ही चित्रात खूप खूप सुंदर, सारखी झाडं आहेत. दोन्हीकडे सूर्य सारखाच हसतोय. दोन्ही ढग सारखेच सुंदर आहेत. दोन्ही चित्रात इतकी अधिक साम्य असतांना, आपण जे थोडेसे फरक आहेत ते का शोधत बसतो.” 

आई एकदम चमकली— किती सहज सोपं तत्वज्ञान आहे हे. आपण आपला पूर्ण वेळ चित्रातला फरक शोधण्यात  घालवतो, पण हे करतांना आपण दोन चित्रातली साम्य– जी चित्रातल्या फरकांपेक्षा अधिक आहेत, ती लक्षात घेत नाही.

मुलांच्या बाबतीत सुद्धा अगदी हेच करतो. ‘ ती समोरची मुलगी आपल्या मुलीपेक्षा अधिक उंच आहे. वर्गातल्या बाजूचा मुलगा गणितात अधिक हुशार आहे, ती दुसरी मुलगी माझ्या मुलीपेक्षा छान गाते.’ —- आपण केवळ आणि केवळ फरकच शोधत बसतो आणि साम्यस्थळे अगदी आणि अगदी विसरून जातो.

आईने तो चित्रखेळ पुन्हा उघडला. त्यावर ‘ दोन चित्रातील फरक ओळखा ‘ मधील ‘फरक’ हा शब्द खोडून त्या जागी ‘साम्य’ हा शब्द लिहिला. आता तो खेळ ‘ दोन चित्रातील साम्य ओळखा ‘ असा गोमटा झाला होता. मुलीने हसुन तो खेळ सोडवायला घेतला. आईने मुलीला जवळ घेतले. 

दोन्ही चित्रे आता एक होऊन त्यातील फरक मिटला होता. आता त्यात राहिले होते ते फक्त आणि फक्त साम्य—आणि अमर्याद पॉझिटिव्हिटी.

लेखक – अनामिक.

संग्राहिका : सुश्री मीनल केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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