हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #129 – बाल कथा – “चप्पल के दिन फिरे” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “चप्पल के दिन फिरे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 129 ☆

☆ बाल कथा – “चप्पल के दिन फिरे” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पीली चप्पल ने कहा, “बहुत दिनों से भंडार कक्ष में पड़े-पड़े दम घुट रहा था। कम से कम अब तो हम कार में घूम रहे हैं।”

“हां सही कहती हो,” नीली बोली, श्रेयांश बाबा ने हमें कुछ ही दिन पहना था और बाद में भंडार कक्ष में डाल दिया था।”

“मगर हम एक कहां-कहां घूम कर आ गए हैं? कोई बता सकता है?” भूरी कब से चुपचाप थी। तभी श्रेयांश की मम्मी की आवाज आई, ” श्रेयांश जल्दी से गाड़ी में बैठो। हम वापस चलते हैं।”

यह सुनकर सभी चप्पलों का ध्यान उधर चला गया।  श्रेयांश, उसकी मम्मी और पापा कार में बैठ चुके थे। कहां चल दी। तभी उसकी मम्मी ने पूछा, “ताजमहल कैसा लगा है श्रेयांश?”

जैसे ही श्रेयांश ने कहा, “बहुत बढ़िया! शाहजहां के सपनों की तरह,” वैसे ही उसके पापा बोले, “अच्छा! यानी तुम्हें पता है ताजमहल शाहजहां ने बनाया है।”

“हां पापाजी,” श्रेयांश ने कहा, “मुझे आगरा के ताजमहल पर प्रोजेक्ट बनाना था। इसलिए ताजमहल की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थीं।”

तभी उनकी गाड़ी का ब्रेक लगा। कार जाम में फस गई थी। उनकी बातें रुक गई।

“वाह!” तभी नीली चप्पल ने श्रेयांश की बातें सुनकर कहा, ” हमें भी ताजमहल की जानकारी मिल जाएगी।”

“हां यह बात तो ठीक है,” तभी लाली बोली, “मगर हमें कार में क्यों लाया गया है? कोई बता सकता है।”

“यह तो हमें भी नहीं मालूम है,” कहते चुपचाप बैठी नारंगी चप्पल बोली, ” श्रेयांश की मम्मी ने भी है पूछा था तब उसने कहा था- बाद में बताऊंगा मम्मी जी।”

तभी जाम खुल चुका था। कार चल दी। तभी पापा ने पूछा, “अब बताओ, ताजमहल के बारे में क्या जानते हो?”

“पापाजी जैसा हमने देखा है आगरा का ताजमहल यमुना नदी के दक्षिणी तट पर बना हुआ है। यह संगमरमर के पत्थर से बना मुगल वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है।”

“हां, यह बात तो ठीक है,” पापा ने कहा तो श्रेयांश बोला, “मुगल सम्राट शाहजहां ने सन 1628 से 1658 तक शासन किया था। इसी शासन के दौरान 1632 में ताजमहल बनाने का काम शुरू हुआ था।”

” अच्छा!” मम्मी ने कहा।

“हां मम्मीजी,” श्रेयांश ने कहना जारी रखा,”शाहजहां  ने अपनी बेगम मुमताज महल के लिए आगरे का ताजमहल बनवाया था। जिसका निर्माण 1642 में पुर्ण हुआ था।” 

“यानी ताजमहल को बनवाने में 10 वर्ष लगे थे,” पापा बोले तो श्रेयांश ने कहा, “हां पापाजी, इस विश्व प्रसिद्ध इमारत को 1983 में यूनेस्को ने विश्व विरासत की सूची में शामिल किया था।”

“सही कहा बेटा,” मम्मी ने कहा, “यह समृद्ध भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है।”

“आप ठीक कहती है मम्मीजी,” श्रेयांश ने अपनी बात को कहना जारी रखा,” इस विरासत को 2007 में विश्व के सात अजूबों में पहला स्थान मिला था।”

“कब? यह तो हमें पता नहीं है,” पापा जी ने पूछा।

“सन 2000 से 2007 तक ताजमहल विश्व विरासत में नंबर वन पर बना रहा,” श्रेयांश ने कहा। तभी उसकी निगाह कांच के बाहर गई।

“पापाजी गाड़ी रोकना जरा!” उसने कार के बाहर इशारा करके कहा तो मम्मी ने पूछा, “क्यों भाई? यहां क्या काम है?”

“उस लड़की को देखो,” करते हुए श्रेयांश ने कार का दरवाजा खोल दिया।

सामने सड़क पर एक लड़की खड़ी थी। उसके कपड़े गंदे थे। हाथ में एक बच्चा उठा रखा था। उसके पैर में चप्पल नहीं थी। वह तपती दुपहरी में सड़क पर नंगे पैर खड़ी थी।

श्रेयांश ने सीट से हरी चप्पल उठाई। उस लड़की की और हाथ बढ़ा दिया, “यह तुम्हारे लिए!”

“मेरे लिए!” कहते हुए उसने चुपचाप हाथ बढ़ा दिया। उसकी आंखों में चमक आ गई थ श्रेयांश में ने उसे चप्पल दे दी। पापा को इशारा किया। उन्होंने कार आगे बढ़ा दी।

“ओह! इसीलिए तुम पुरानी चपले लेकर आए थे। मैंने पूछा तो कह दिया-कुछ काम करूंगा। यह तो बहुत अच्छी काम किया है।” मम्मी खुश होकर बोली।

“हां मम्मीजी, उस लड़की का तपती दुपहरी में पैर जल रहे थे। उसे चप्पल की ज्यादा जरूरत थी। मेरी चप्पल भंडार कक्ष में पड़ी-पड़ी बेकार हो रही थी। इसलिए।”

“शाबाश बेटा! यह बहुत अच्छा काम किया है,” कहते हुए पापाजी ने फिर गाड़ी रोक दी।

तभी कब से चुपचाप बैठी नीली चप्पल बोली, “इसीलिए श्रेयांश हमें भंडार का खेल निकाल कर लाया है। हमारा भी सहयोग होगा। हम भी बाहर की दुनिया की सैर कर सकेंगे।”

“हां नीली तुम सही कह रही हो,” पीली चप्पल ने कहा, “कब से हम भंडार कक्ष में पड़े-पड़े बोर हो रही थी। हमारा भी कब उपयोग होगा?”

तभी श्रेयांश ने भूरी, लाल और नारंगी को उठाकर एक-एक लड़के को दे दिया। पीली को उठाया साथ खेले रही लड़की को बुलाकर उसे भी दे दिया। सभी लड़के-लड़कियां चप्पल पाकर खुश हो गए।

अब कार में केवल नीली चप्पल बची थी। उसे देखकर श्रेयांश बोला, “मम्मीजी इसे किसी को नहीं दूंगा। क्यों यह अच्छी चप्पल है। इसका फैशन वापस आ गया है। इसे तो मैं ही पहनूंगा,” करते हुए श्रेयांश ने पापाजी को कहा, “आप सीधे कार घर ले चलिए।” 

“ठीक है बेटा।”

“चलो इन चप्पलों के भी दिन फिरें।” मम्मी ने मुस्कुरा कर कहा तो श्रेयांश को कुछ समझ में नहीं आया कि मम्मी क्या कह रही है? इसलिए उसने पूछा, “आप क्या कह रही है मम्मीजी? चप्पलों के दिन भी फिरें।” 

“हां, इनके भी अच्छे दिन आए है।” मम्मी जी ने कहा तो श्रेयांश मुस्कुरा दिया, “हां मम्मीजी।” 

नीली चप्पल अकेली हो गई थी इसलिए वह किसी से बोल नहीं पा रही थी। इसलिए चुपचाप हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

05-04-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 139 ☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 139 ☆

☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हवा – हवा कहती है बोल।

मानव रे! तू विष मत घोल।।

 

मैं तो जीवन बाँट रही हूँ

तू करता क्यों मनमानी।

सहज, सरल जीवन है अच्छा

तान के सो मच्छरदानी।

 

विद्युत बनती कितने श्रम से

सदा जान ले इसका मोल।।

 

बढ़ा प्रदूषण आसमान में

कृषक पराली जला रहा है।

वाहन , मिल धूआँ हैं उगलें

बम – पटाखा हिला रहा है।।

 

सुविधाभोगी बनकर मानव

प्रकृति में तू विष मत घोल।।

 

पौधे रोप धरा, गमलों में

साँसों का कुछ मोल चुका ले।

व्यर्थं न जाए जीवन यूँ ही

तन – मन को कुछ हरा बना ले।।

 

अपने हित से देश बड़ा है

खूब बजा ले डमडम ढोल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #140 ☆ भक्त शिरोमणी… संत नामदेव ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 140 ☆ भक्त शिरोमणी… संत नामदेव ☆ श्री सुजित कदम ☆

भक्त शिरोमणी संत

रेळेकर आडनाव

नामवेद नामविस्तार

सांप्रदायी‌ सेवाभाव…! १

 

वारकरी संप्रदायी

जन्मा आले नामदेव

दामाशेठ गोणाईला

प्राप्त झाली पुत्र ठेव….! २

 

गाव नरसी बामणी

जन्मा आले नामदेव

दामाशेठ गोणाईला

प्राप्त झाली पुत्र ठेव….! ३

 

सदाचारी हरिभक्त

शिंपी कुल  नामांकित

हरि भजनाचे वेड

नामदेव मानांकित…! ४

 

जिल्हा हिंगोली आजचा

नामदेव जन्म भुमी

कार्तिकाची एकादशी

सांप्रदायी कर्म भुमी…! ५

 

भागवत धर्मातील

आद्य प्रचारक संत

भाषा भेद करी दूर

नामदेव नामवंत…! ६

 

बालपण पंढरीत

लागे विठ्ठलाचा लळा

जेवी घातला विठ्ठल

फुलवला भक्ती मळा…! ७

 

घास घेरे पाडुंरंगा

निरागस भक्ती भाव

अडिचशे अभंगात

दंग झाले रंक राव….! ८

 

दैवी कीर्तन कलेने

डोलतसे पांडुरंग

भावनिक एकात्मता

सारे विश्व झाले दंग…! ९

 

दैवी कवित्व संतत्व

चिरंतन ज्ञानदीप

रंगे कीर्तनाचे रंगी

नामदेव ध्येय दीप…! १०

 

औंढा नागनाथ क्षेत्री

नागराजा आळवणी

भक्ती सामर्थ्य अद्भुत

फिरे देवालय झणी…! ११

 

महाराष्ट्र पंजाबात

बाबा नामदेव वारी

गुरूमुखी लिपीतून

नामदेव साक्षात्कारी…!१२

 

नामदेवाचे कीर्तन

वेड लावी पांडुरंगा

भक्ती शक्तीचा गोडवा

भाव  अभंगाच्या संगा . . . ! १३

 

विठ्ठलाची सेवा भक्ती

हेची जाहले संस्कार

निरूपण अध्यात्माचे

मनी जाहले साकार. .  . ! १४

 

ज्ञाना, निवृत्ती ,सोपान

समकालीन विभूती

गुरू विसोबा खेचर

नामयाची ज्ञानस्फूर्ती . .  ! १५

 

गौळण नी भारूडाचा

आहे अजूनही ठसा

जनाबाई ने घेतला

एकनाथी वाणवसा.. .  ! १६

 

देशप्रेम  आणि भक्ती

रूजविली नामयाने

भागवती धर्म शिखा

उंचावली संकीर्तने. . . ! १७

 

ग्रंथ साहिब ग्रंथात

नामदेव साकारला

हरियाणा, पंजाबात

प्रबोधनी आकारला. .  ! १८

 

संत कार्य भारतात

नामदेव सेवाव्रती

हिंदी मराठी पंजाबी

शौरसेनी भाषेप्रती…! १९

 

संत नामदेव गाथा

बहुश्रुत अभ्यासक

शीखांसाठी मुखबानी

भक्ती भाव संग्राहक…! २०

 

जेऊ घातला विठ्ठल

पायरीची विट झाला

भक्ती मार्ग  उपासक

भजनात दंग झाला . . . ! २१

 

पायरीच्या दगडाचा

महाद्वारी मिळे मान

आषाढाची त्रयोदशी

नामदेव त्यागी प्राण…! २२

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेच्या उत्सव ☆ प्रार्थना धरणी आईची… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

सौ. जयश्री पाटील

? कवितेच्या उत्सव ?

☆ प्रार्थना धरणी आईची… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

ऋणी ..धरणी आईचा

काळया सुंदर मातीचा

तूच ……जगत जननी

मुखी घास भाकरीचा. १.

 

तुझ्या कुशीत जन्मलो

ताठ जगलो ..वाढलो

तूच ..श्वास जीवनाचा

तुझ्या ..वरती पोसलो. २.

 

घाव …निमूट सोसते

भले बुरे ते ….झेलते

माया .‌‌..तरीही करते

सर्वांसाठी ….बहरते. ३.

 

देते भरभरु ….सारे

ठायी नसे  भेदभाव

किती गुण तुझे गावे

उपकारा नसे ..ठाव. ४.

 

टिळा लावतो मस्तकी

नित …चरण स्पर्शितो

अशी फुलावी फळावी

हीच ..प्रार्थना अर्पितो. ५.

 

नाते हे …..युगायुगांचे

तुझ्या कुशीत विश्रांती

तुझ्या सोबत …अखेर

आयुष्याची चीर शांती. ६.

 

© सौ. जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ “माझ्या आठवणीतले गदिमा” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “माझ्या आठवणीतले गदिमा” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

एक अद्भुत, मनभावन आविष्कार म्हणजे रामायण. अगदी वाचन शिकायच्या सुद्धा आधी हे अद्भुत रामायण कळलं ते दोन व्यक्तींमुळे एक म्हणजे “गीत रामायणा” चे रचयिता ग.दि. माडगूळकर आणि दुसरे म्हणजे ही गीत सुस्वर आवाजात गाऊन आम्हाला झोपाळ्यावर झुलवणारे माझे बाबा. माझ्या बाबांचा आवाज खूप गोड आहे आणि अगदी मोजकीच आवडीची गीतं ते गातात त्यातीलच एक “गीत रामायणा”मधील गाणी. अर्थात बाबांना ऐकलं फक्त आणि फक्त घरच्यांनीच आणि खास करुन आम्ही, त्यांच्या मुलांनी. ते बाहेर कुठेही,कधीच गात नाहीत. पण खर सांगायचं तर लहानपणी रामायण, ऐकलं,समजलं आणि आवडलं ते फक्त आणि फक्त गदिमांमुळे आणि बाबांमुळेच. ग.दि.माडगूळकर ह्यांना  “गदिमा” ह्या संक्षिप्त नावाच्या रुपात लोक ओळखायचे.

Best Bhojpuri Video Song - Residence w

स्व गजानन दिगंबर माडगूळकर ‘गदिमा’

माडगूळकर म्हणजे एका चांगल्या अर्थाने सर्वगुणसंपन्न व्यक्ती. ते कवी,गीतकार, लेखक असून त्यांनी विविध अंगी  साहित्यिक क्षेत्रात अनमोल योगदान दिलयं.आज त्यांचा स्मृतीदिन.त्यांना विनम्र अभिवादन.

गदिमा भावकवीही होते. त्यांच्या काव्यावर संत काव्य आणि शाहिरी काव्य या दोन्हींचा प्रभाव जाणवतो. त्यांच्या लावण्या व चित्रपट गीतेही प्रसिद्ध आहेत. उत्तम समरगीते आणि बालगीतेही त्यांनी लिहिली. त्यांनी लिहिलेली बालगीते आणि भक्तीगीते आजही फार लोकप्रिय आहेत. शिर्डीच्या साई बाबांची काकड आरती ही माडगूळकरांनी लिहिलेली आहे, या आरतीला सी. रामचंद्र यांनी अतिशय उत्तम चाल लावली आहे. या काकडआरती साठी गदिमांनी ‘रामगुलाम’ हे टोपणनाव घेतलं होतं.पेशवाईवर त्यांनी गंगाकाठी नावाने काव्य कथा लिहिली आहे. गदिमांनी अथर्वशिर्षाच मराठीत भाषांतर केले.

ग दि माडगूळकर यांनी ‘भूमिकन्या सीता”  या नाटकातील पदेसुद्धा लिहिली होती. ‘मी पुन्हा वनांतरी फिरेन हरिणीवाणी’, ‘मानसी राजहंस पोहतो’,’सुखद या सौख्याहुनी वनवास ‘ ही त्यातील लोकप्रिय आणि प्रसिद्ध गाणी.

कित्येक आपल्याला खूप आवडत असलेली गाणी आपण कायमं ऐकतो आणि गुणगुणतो पण बरेचदा आपल्याला मिहीती सुद्धा नसतं ह्या गीतांचे रचयिते कोण ?

गदिमांची आपण कायम आवडीने ऐकतं आलो ती बालगीतं पुढीलप्रमाणे,” नाचरे मोरा आंब्याच्या वनात,नाच रे मोरा नाच”, “झुक झुक झुक झुक अगीनगाडी, धुरांच्या रेषा हवेत काढी, पळती झाडे पाहूया, मामाच्या गावाला जाऊया,”बाळा जो जो रे,बाळा जो जो रे,”गोरी गोरीपान, फुलासारखी छान, दादा, मला एक वहिनी आण”,”चांदोबा चांदोबा भागलास का? निंबोणीच्या झाडामागे लपलास का?”, तसेच त्यांची लोकप्रिय भक्तिगीते पुढीलप्रमाणे,

“कबिराचे विणतो शेले, कौसल्येचा राम बाई कौसल्येचा राम, भाबड्या या भक्तासाठी, देव करी काम ! “,”दैवजात दुःखे भरता.. दोष ना कुणाचा पराधीन आहे.. जगती पुत्र मानवाचा “, “इंद्रायणी काठी देवाची आळंदी “,”वेदांनाही नाही कळला अंतपार याचा कानडा राजा पंढरीचा “,”विठ्ठला तू वेडा कुंभार “,. याबरोबरच त्यांची देशभक्तीपर गीतं ही मनाचा ठाव घेतात ती पुढीलप्रमाणे,”हे राष्ट्र देवतांचे, हे राष्ट्र प्रेषितांचे आ-चंद्रसूर्य नांदो स्वातंत्र्य भारताचे”,

“माणुसकीच्या शत्रूसंगे युद्ध आमुचे सुरू जिंकू किंवा मरू ,”वेदमंत्राहून आम्हां वंद्य वंदे मातरम्”

त्यांचे चित्रपटक्षेत्रात ही तेवढेच महत्त्वाचे योगदान आहे, त्यांची ह्या क्षेत्रातील काही लोकप्रिय गीतं पुढीलप्रमाणे,”बुगडी माझी सांडली ग… जाता साताऱ्याला,”सांगा या वेडीला, माझ्या गुलछडीला”,”एक धागा सुखाचा, शंभर धागे दुःखाचे”,”उद्धवा, अजब तुझे सरकार”,”या चिमण्यांनो परत फिरा रे”,फड सांभाळ तुऱ्याला ग आला तुझ्या उसाला लागंल कोल्हा”,”अपराध माझा असा काय झाला का रे दुरावा ,का रे अबोला” आणि अशी कित्येक लोकप्रिय गीतं गदिमांनी त्यांच्या कारकिर्दीत १५७ पटकथा आणि २००० गाणी लिहिली. त्यांनी बऱ्याच मराठी व हिंदी चित्रपटांसाठी कथा, पटकथा आणि संवाद लिहिले आहेत. लिखाणासोबत त्यांनी काही चित्रपटांमध्ये अभिनय देखील केला.

गदिमा स्वातंत्राच्या चळवळीत देखील अग्रभागी होते. याच काळात त्यांची यशवंतराव चव्हाण यांच्याशी चांगली ओळख झाली. त्या वेळी त्यांनी जे काही काव्य रचलं ते “शाहीर बो-या भगवान”ह्या टोपणनावाने. पुढे संयुक्त महाराष्ट्राच्या निर्मितीनंतर यशवंतराव चव्हाण मुख्यमंत्री असताना १९६२ मध्ये गदिमांची राज्यपाल कोट्यातून विधानपरिषदेवर आमदार म्हणून करण्यात आली होती.

भारत सरकारने १९६९ मध्ये गदिमांना पद्मश्री हा चौथा सर्वोच्च नागरी सन्मान देऊन त्यांचा गौरव केला.१९५७ मध्ये गदिमांना संगीत नाटक अकादमीचा उत्कृष्ट नाट्य लेखक पुरस्कार मिळाला. तसेच १९५७ मध्ये संगीत नाटक अकादमी चा उत्कृष्ट नाट्य लेखक पुरस्कार ,१९६९ मध्ये ग्वाल्हेर येथीलअखिल भारतीय मराठी नाट्य संमेलनाचे अध्यक्षपद त्यांनी भूषविले.१९७१ मध्ये विष्णुदास भावे सुवर्णपदकाचे मानकरी हे झालेत.१९७३ मध्ये यवतमाळला झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे अध्यक्षपद ह्यांनी भुषविले.त्यांच्या बऱ्याच गाण्यांना व चित्रपटांना महाराष्ट्र राज्य सरकारचे पुरस्कार मिळाले आहेत.

खरोखरच ह्यांच्या सारख्या अनेक साहित्यिक  कलावंतानी आपल्यासाठी आनंद फुलविणारी किती अनमोल संपत्ती ठेवलेली आहे हे बघून नतमस्तक व्हायला होतं.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆‘स्वप्न…’ – लेखक – श्री चंद्रशेखर गोखले ☆ प्रस्तुती – सुश्री श्रेया साने ☆

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘स्वप्न…’ – लेखक – श्री चंद्रशेखर गोखले ☆ प्रस्तुती – सुश्री श्रेया साने ☆ 

त्याला शाळा सुटल्या वर एकट्यानेच

घरी जावं लागायचं

कोणाची आई न्यायला यायची तर कोणी आपल्या बाबां सोबत उड्या मारत घरी जायचं

स्कूल बस वाल्यांचा तर वेगळाच रुबाब असायचा

पण याला मात्र आपली इवलीशी पावलं झपाझप टाकत घराकडे धाव घ्यावी लागायची

मग गावाची वेस ओलांडे पर्यंत अंधारून यायचं

त्यात रानातला रस्ता सुरु व्हायचा

मग एक मोठी उतरण यायची

आणि मग जरा खाचखळग्यातून चाचपडत  चालल्यावर

 त्याचं एका बाजूला असलेलं घर एकदाचं यायचं

इवल्याशा मुठीत  धरलेला इवलासा  जीव त्याच्या आधी घरात पळायचा

आई ला बघितली की त्याला घरी आल्या सारखं वाटायचं

आणि आई ला ही जिवात जीव आल्या सारखं वाटायचं

मग दोघं माय लेकरं नशिबी आलेला अंधार अर्धा अर्धा वाटून घ्यायचे

चुलीत ज्वाले पेक्षा धूर जास्त असायचा

आणि ताटात घासा पेक्षा मोकळी जागा जास्त उरायची

तरी घासा सोबत दोघं भोवतीचा अंधार गिळून टाकायचे

त्या मुळे च असेल

नदी काठच्या त्यांच्या घरची रात्र लवकर सरायची

भल्या पहाटे घरात अंधूक अंधूक  दिसायला लागायचं

भल्या पहाटे आई दारातल्या दोन शेळ्या ना चरण्या साठी घेऊन जायची आणि येताना जमेल तेव्हढा लाकूड फाटा घेऊन यायची

आली की पाहिलं काम शेळ्यांच दूध काढून शेळ्या ना मोकळं करायची

आहे त्यात दोन दशम्या थापायची

आणि उठल्या पासून पुस्तकांत डोकं खुपसून बसलेल्या आपल्या मुलाला शेळीच्या दुधा सोबत गरम गरम खरपूस भाजलेली दशमी खायला लावायची

मग जस जसा दिवस वर यायचा तसं त्यां मायलेकरांच नदी काठचं घर आंगण प्रकाशानी भरून जायचं

अंधार गिळून गिळून त्यांच्या आयुष्याला अंधार असाच संपून गेला

एकदा त्यांच्या घरी असं उजाडलं की पसरलेला उजेड परतलाच नाही

उगवलेला दिवस मावळला च नाही

आई च्या श्रद्धा सबुरी ला फळ आलं

मुलाच्या कष्टा वरच्या निष्ठेला फळ आलं आणि

गावा बाहेर नदी काठी पर्ण कुटीत राहणारी ही माय लेकरं

महानगर्यातल्या उच्चभ्रू वस्तीत पोहोचली

चौसोपी चिरेबंदी घर तर मिळालच त्या सोबत दिमतीला नोकर चाकर ही आले

त्या शिवाय त्या मुलाने मिळवलेल्या सरकारी हुद्द्या मुळे  दिवस रात्र त्यांच्या भोवती सिक्युरीटी गार्ड्स तैनात होते

पण तरी कामाच्या व्यापातून कसाही वेळ काढून

आपल्या मुलांना शाळेत पोहोचवायला आणायला तो स्वतः च जायचा

त्याचा हा अट्टाहास बघून त्याची शहरात वाढलेली बायको  विचारायची इतका आटा पिटा करायची काय गरज आहे?

तो हसून म्हणायचा बाकीचे व्याप मी आटा पिटा करून पूर्ण करतो

पण मुलांना आणायला जाणं आणि सोडायला जाणं हे मी जपलेलं स्वप्न आहे

जी सुरक्षितता मुलांना आई बापाच्या सोबत जाणवते

ती नेमलेल्या चाकरांच्या सान्निध्यात मिळत नाही.

लेखक – श्री चंद्रशेखर गोखले

प्रस्तुती – सुश्री श्रेया साने

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ अभ्यासक्रमातील बदल आणि माझं ‘बाल’ पण ☆ सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

? मनमंजुषेतून ?

☆ अभ्यासक्रमातील बदल आणि माझं ‘बाल’ पण ☆ सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆ 

नातवाचा अभ्यास घेताना मला हे बदल फार जाणवले, विशेषतः ‘अक्षरबदल’ !  शेंडीवाला ‘श’ शेंडी कापून थेट मुंडक्याने रेषेला चिकटवला. लयदार ‘ल’च्या हाती काठी देऊन टाकली. नातू म्हणाला, ‘ शाळेत असंच शिकवलंय.’ आता नवीन प्रचलित पद्धती आपल्याला माहीत नसतात, त्यामुळे मी गप्प बसले. पण अशा वेळी मी त्याला आवर्जून आपल्या वेळी शाळेत काय शिकवलं, हे सांगत रहाते. पण मजा अशी आहे की, हे बदल कोण, केव्हा, कशासाठी करतं, हेच मुळी कळत नाही. जाग येते तीही कित्येक पिढ्या यात भरडल्या गेल्या की.   

— माझ्या आठवणीत माझ्या शैक्षणिक कालात (१९५६ – १९६६) घनघोर बदल झाले. माझे अर्धेअधिक शिक्षण जुन्या पद्धतीने झालेले — म्हणजे —

इंग्लिश भाषेचा समावेश, जो आठवीपासून अभ्यासक्रमात असे, तो पाचवीपासून सुरू झाला. तोवर आम्ही सहावीत सरकलो होतो, मग आम्ही त्या एका वर्षात पाचवी, सहावी अशा दोन पुस्तकात दबलो.

शुद्धलेखन – तेव्हा आठवतंय, शुद्धलेखन घालताना शिक्षिका किती जाणीवपूर्वक उच्चार करायच्या, त्यामुळे कळायचं तरी. (कां, कांहीं, आंत, नाहीं, जेंव्हा, तेंव्हा, कीर्ति, मूर्ति इ.) ह्या अनुस्वारांचा उद्देश त्यावेळी बालबुद्धीला उमगला नाही आणि कळवण्यास अत्यंत खेद होतो की अजूनही कळला नाहीये.                                                                   

नवीन पद्धतीत किती तरी अनुस्वार गायब झाले, (ते बाकी बरीक झाले.) -हस्व – दीर्घ बदलले.                                                          

पण आता संगणकावर काही जोडाक्षरे टंकित केली की चमत्कार होतो – उदा. अद् भुत – आता  ‘भ’ द’च्या पायाला लोंबकळतो – अद्भुत / उद् घाटन – यातही तसेच – ‘द’च्या पायाशी ‘घ’ – उद्घाटन.

विचार करा – ‘अब्द’, जो उच्चारतांना ‘ब’चा उच्चार ‘द’च्या आधी आणि अर्धा होतो – अ+ब्+द या पद्धतीने बघायला गेल्यास अ+द्+भु+त अशी उकल करता येते. पण या नवीन टंकपद्धतीने मात्र हा अद्भुत – अ+भ्+दु+त असा वाचला जाईल. तेच ‘उद्घाटना’चे – उ+घ्+दा+ट+न. वा+ङ्+म+य – या नवीन पद्धतीत वाङ्मय – ‘म’चा उच्चार पूर्ण करायचा की ‘ङ्’चा? अशी आपल्या जोडाक्षरांची तोडफोड अपेक्षित आहे का?  

‘र’ हे अक्षर अर्धं होऊन विविध प्रकारे जोडाक्षरांत येते. उदा. – अर्धा, रात्र, व्रण, तऱ्हा, कृपा इ. यातील आडवा होऊन जोडला जाणारा ‘रफार’ टंकलिपीत गायब झाला – आता असा ‘र’ जोडायचा तर गो+र्+हा असं टंकित केलं की तो ‘गो-हा’ न दिसता ‘गोर्हा’ असा दिसतो. मग चेहेरा होतो गोर्हामोर्हा!

दशमान पद्धती आणि नाणी – दशमान पद्धत सोपी होती, पण आपण या ‘बदला’च्या (transit period) तडाख्यात (की चरकात?) सापडलो होतो – डझन, औंस, पौंड, इंच, फूट, मैल यांची सांगड कि.मी., सें.मी., किलोग्रॅम वगैरेशी झगडून जमवली. (अजूनही इंच, फूट, डझन सोप्पं वाटतं.) माझी उंची मला फूट-इंचात सांगता येते. पण सें. मी. म्हटलं की झालीच गडबड. फळं डझनाच्या भावात असत, ती वजनावर मिळू लागली. चोवीस रूपयात डझनभर मिळणारे चिक्कू चोवीस रूपये किलो घेताना सहाच मिळू लागले.  (एवढेच बसतात वजनात?) नाण्यांनी तर घोळसलंच. पैसे, आणे, रूपये हे आबदार वाटायचे, नाण्यांना वजनही चांगलं असे. कमी किंमतीचा पैसा तांब्याचा, आणि तरी चांगला ढब्बू असायचा, किंवा भोकाचा ! भोकाची नाणी गोफात बांधून ठेवता यायची. (भोकाचे पैसे वापरून लोकरीच्या बाळमोज्याचे छोटे गुंडे करता यायचे.) नाणी – आणा, चवली, पावली, अधेली (अशी गोंडस नावे असली तरी) वजनदार असत. रूपया तर ठणठणीत – त्याला ‘बंदा’ म्हणावा असाच ! सुरुवातीला रूपया चांदीचा होता – त्यातून ब्रिटिश राजवटीतील रूपये तर कलदार चांदीचे – राजा छाप, राणी छाप असे होते. हे चलनातून बाद केल्यावर ते दागिन्यांच्या पेटीत गेले. मग दिवाळीत ओवाळणीपुरते बाहेर येत, परत कडीकुलपात !

नवी नाणी चिल्लर दिसत – एक पैसा – गोल, तांब्याचा – आकार नखावर मावेल एवढा ! पुढे तर तो ॲल्युमिनिअमचा चौकोनी झाला. एक आणा म्हणजे सहा नवे पैसे. दोन आणे म्हणजे बारा नवे पैसे. तीन आण्यांचा भाव एका नव्या पैशाने वधारला – म्हणजे एकोणीस नवे पैसे झाला. का? तर दशमानात एक रूपया = शंभर नवे पैसे, तर त्याचे चार भाग पंचवीस नवे पैसे म्हणजे जुने चार आणे – आता पंचवीसला चाराचा भाग समान कसा बसणार? तीन आण्याच्या पदरात एक नवा पैसा टाकून केली जुळवाजुळव ! त्यातून दोन, तीन, पाच, दहा, वीस पैसे नक्षीदार, पण (जनभाषेत) ती आलमिनची  नाणी, वजनाला हलकी – पुढे पुढे ती लमाण्यांच्या पोशाखावर जडवलेली दिसू लागली.

पावलीचं, अधेलीचं रूपांतर पंचवीस पैसे आणि पन्नास पैशात झालं आणि त्यांचे चेहरे पडेल दिसू लागले.

त्यातल्या त्यात रूपया जरा बरा म्हणायचा, तर अलिकडे तोही पन्नास पैशाच्या आकारात गेला आणि त्याचा रुबाबच  संपला. पाच आणि दहा रूपयाची नाणी अजून तरी अंग धरून आहेत.  

पण काय आहे, शिक्षणातील या  बदलांनी बालमनात घातलेले उटपटांग गोंधळ, ‘ बाल ‘ पांढरे झाले तरी अजून ठिय्या मारून आहेत, त्याचं काय करावं बरं????…. 

© सुश्री सुलू साबणे जोशी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ नापास… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ

? इंद्रधनुष्य ?

☆ नापास… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆ 

१९४२ – महात्मा गांधींनी इंग्रजांना ‘ छोडो भारत ‘  चा इशारा दिला होता. वणव्यासारखा हा इशारा सा-या हिंदुस्थानभर पसरला. गणपत शिंदे तेव्हा एका प्राथमिक शाळेत शिक्षक म्हणून काम करत होता. तालुक्याच्या गावी एका राष्ट्रीय नेत्याची सभा ऐकून, त्याच क्षणी आपल्या नोकरीचा राजीनामा देऊन, त्याने स्वतःला 

स्वातंत्र्य चळवळीत झोकून दिले.  घरदार सोडून रात्रंदिवस तो हेच काम करत राहिला. स्वातंत्र्य मिळाले तो दिवस तर त्याच्या दृष्टीने परमोच्च होता. तालुक्याच्या अनेक सरकारी कार्यालयांवरून इंग्रजी ध्वज उतरवून तिरंगा फडकावण्यात त्याला कोण आनंद झाला होता. स्वातंत्र्य मिळाल्यानंतर त्याचे सुराज्य  करण्याच्या  पंडित नेहरूंच्या  आवाहनाला प्रतिसाद देऊन त्याने खेडोपाड्यात जाऊन निरक्षर प्रौढांना विनामोबदला शिकवण्याचे काम हाती घेतले. त्याच्या कामाचे खूप कौतुक झाले. त्याच्याबरोबरीने स्वातंत्र्य चळवळीत भाग घेतलेले बरेच लोक सत्तेत सहभागी झाले होते. गणपतने स्वातंत्र्यसैनिक म्हणून ताम्रपट आणि पेन्शनही स्वीकारली नाही. ” मी स्वातंत्र्य चळवळीत असं काही मिळवायला भाग घेतला नव्हता ” ही त्याची भूमिका होती. आयुष्याच्या अखेरीस तो खूप थकला होता. नोकरी त्याने पूर्वीच सोडली होती. स्वातंत्र्य चळवळीत आणि नंतरही त्याने घराकडे लक्ष दिले नव्हते. गावाकडची शेती त्याच्या धाकट्या भावाने स्वतःच्या नावावर करून घेतली होती. त्याच्या फकीरी वृत्तीला कंटाळून त्याची बायकोही माहेरी निघून गेली होती. “तत्व“ म्हणून असं निरलस जीवन जगलेला गणपत  व्यवहारात मात्र नापास झाला होता.

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ

ईमेल- [email protected]

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ फक्त एक ‘इव्हेंट’…..अनामिक ☆ प्रस्तुति – सुश्री उषा आपटे ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ फक्त एक ‘इव्हेंट’…..अनामिक ☆ प्रस्तुति – सुश्री उषा आपटे ☆

अष्टमीचा अर्धचंद्र विलक्षण सौंदर्यानं लकाकत होता … समुद्राच्या लाटा त्याला भेटायला अधीर झालेल्या … आणि तशात पांढऱ्या शुभ्र वाळूवर प्रकाशाचा एक मोठा झोत पडला … तेज:पुंज पुष्पक विमान वाळूवर अलगद उतरलं … आणि दरवाजा उघडला. तसा इवलासा कान्हा धावत बाहेर आला … पाठोपाठ पेंद्या आणि बाकीचे बालगोपाल उतरले … 

कान्हा वळला आणि उत्साहात म्हणाला … “ सखे हो … आज किमान दहा हंड्या फोडायच्या बरं .. दही .. दूध .. लोणी .. सगळी चंगळ करून टाकायची …”  पेंद्या पुढे आला आणि कान्हाच्या डोईवरचं उत्साहानं थरथरणारं मोरपीस सरळ करत म्हणाला .. “आधी वाटणी ठरवायची कान्हा …”  कान्हाला काही कळेना … तो म्हणाला .. 

“ माझ्या हातचा दहीभाताचा घास मोत्यांच्या घासापेक्षा मौल्यवान मानणारी तुम्ही मंडळी .. अचानक ..”  

पेंद्या म्हणाला …” काळ बदलला .. कान्हा … आता हंड्या दह्याच्या नाही .. रुपयांच्या लागतात. लाखांत बोली लागते .. मग आम्ही दहीभाताच्या घासावर समाधान कसं मानायचं ? “  कान्हा समजुतीच्या स्वरात म्हणाला .. “ मग काय हवं तुम्हाला .. ?”  पेंद्यानं एकवार बाकीच्या बालगोपालांकडे पाहिलं … नि म्हणाला …” बक्षिसात सारखा वाटा … सेलिब्रिटी बरोबर फोटो .. स्टेजवर एन्ट्री … मिडियासमोर बाईटची संधी … आणि अपघाती विमा …”  कान्हाला आता हसू आवरेना. तो थेट पुष्पक विमानाच्या दिशेनं चालायला लागला … पेंद्या गोंधळला … म्हणाला … “ इतकं टोकाचं का वागतोयस … ? काहीतरी सुवर्णमध्य काढू हवं तर … काही मागण्या कमी जास्त करून .. “ 

कान्हा वळला … हसला. पेंद्याजवळ आला .. खांद्यावर हात ठेवून ममत्वानं म्हणाला .. “ प्रयोजनच संपलंय रे सगळं … ! पेंद्या .. मला घरात दूध दही मिळत नव्हतं म्हणून हंड्या फोडायचो का रे मी .. ? एकत्र या … मनोरा बांधा आणि ध्येय साध्य करा … इतका साधा सरळ विचार … पण ते चार हात एकमेकांच्या खांद्यावर ठेवण्यामागे माणसं जोडण्याची प्रेरणा होती … मुठभर दहीभात घासाघासाने खाण्यात अर्धी भाकरी प्रेमानं वाटून घेण्याची दीक्षा होती .. तेव्हा कान्हा हाच सेलिब्रिटी होता … त्याचा सहवास ही मोक्षाची संधी होती आणि कान्हाची बासरी ऐकायला मिळणं ही बक्षिसाची सर्वोच्च कल्पना होती … अपघात होईल अशी साधी कल्पनाही कधी मनाला शिवायची नाही .. कारण साक्षात शिव सोबत असताना जीवाची भिती कसली … ? पण आता तुझ्या बोलण्यातून जाणवलं .. आता तो विश्वास संपलाय … एकत्र येण्याची उमेद संपलीय … थर वाढले … पण श्रद्धा संपलीय … माझा जन्म हा आता सोहळा न रहाता फक्त एक “ इव्हेंट “ बनलाय … आता इथे न आलेलंच उत्तम .. “ आणि त्यानं विमानात पहिलं पाऊल ठेवलं सुद्धा … पेंद्याला एव्हाना चूक कळली होती … तो घाईनं म्हणाला .. “ पण कान्हा …” 

कान्हा शांत स्वरात म्हणाला .. “ अष्टमी येत राहील … पण त्यात कान्हा नसेल … आणि काळजी करू नकोस … कॉर्पोरेट विश्वात रमलेली माझी भक्त मंडळी कान्हाशिवाय हा सण असाच साजरा करत रहातील ..”  असं म्हणून तो आत गेला सुद्धा … क्षणात आतून बासरीचे करुण स्वर ऐकू येऊ लागले आणि पेंद्यासह बालगोपाल मंडळी जड पावलांनी विमानाच्या दिशेने चालायला लागली..

लेखक : अनामिक

संग्राहिका : उषा आपटे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – विचारात अशा, का गुंतली – ☆ डॉ. स्वाती पाटील ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – विचारात अशा, का गुंतली  ? ☆ डॉ. स्वाती पाटील 

हिरवाई अंगी ।नेसून षोडशा।

विचारात अशा। का गुंतली ।।

 

असतील काही । प्रश्नांचे काहूर।

विचार करीते। सोडवाया॥।

 

दिसे शिकलेली। नार ही गोमटी।

कोणाकडे दीठी। लागलीसे ।।

 

स्वप्न रंजनात। असेल झुलत ।

प्रीत झोपाळ्यात। मनातल्या ॥।

 

की साजन गेला। पर मुलखाला ।

आठवून त्याला । वाट पाहे।।

 

डोळ्यात उदासी । झाली असे कृश।

भेटण्या जीवासी ।आतुरली ।।

 

© डॉ.स्वाती पाटील

सांगली

मो.  9503628150

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares
image_print