हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #161 – चिड़िया चुग गई खेत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “चिड़िया चुग गई खेत…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #161 ☆

☆ चिड़िया चुग गई खेत…

रहे देखते स्वप्न सुनहरे

चिड़िया चुग गई खेत

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।

 

पूर्ण चंद्र रुपहली चाँदनी

गर्वित निशा, मगन

भूल गए मद में करना

दिनकर का अभिनंदन,

पथ में यह वैषम्य बने बाधक

जब हो अतिरेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली….।

 

मस्तिष्कीय मचानों से

जब शब्द रहे हैं तोल

संवेदनिक भावनाओं का

रहा कहाँ अब मोल,

अंतर्मन है निपट मलिन

परिधान किंतु है श्वेत

बँधी हुई मुट्ठी से….।

 

लगे हुए मेले फरेब के

प्रतिभाएँ हैं मौन

झूठ बिक रहा बाजारों में

सत्य खरीदे कौन,

एक अकेला रंग सत्य का

झूठ के रंग अनेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? ☆ श्री कमलेश भारतीय और डॉ मनोज छाबड़ा

(12 जून 2020 को ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशित यह ऐतिहासिक साक्षात्कार हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए पुनः प्रकाशित कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

डॉ मधुसूदन पाटिल

( इस ऐतिहासिक साक्षात्कार के माध्यम से हम हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का हार्दिक स्वागत करते हैं। श्री कमलेश भारतीय (वरिष्ठ साहित्यकार) एवं डॉ मनोज छाबडा  (वरिष्ठ  साहित्यकार, व्यंग्यचित्रकार, रंगकर्मी) का हार्दिक स्वागत एवं हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम पीढ़ी के व्यंग्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का यह बेबाक साक्षात्कार साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। कुछ समय पूर्व हमने संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश से जनवरी 1977 में प्रकाशित व्यंग्य की प्रथम पत्रिका “व्यंग्यम” की चर्चा की थी जो इतिहास बन चुकी है। उसी कड़ी में डॉ मधुसूदन पाटिल जी द्वारा प्रकाशित “व्यंग्य विविधा” ने 1989 से लेकर 1999 तक के कालखंड में व्यंग्य विधा को न केवल अपने चरम तक पहुँचाया अपितु एक नया इतिहास बनाया। सम्पूर्ण राष्ट्र में और भी व्यंग्य पर आधारित पत्रिकाएं प्रकाशित होती रहीं और कुछ अब भी प्रकाशित हो रही हैं।  किन्तु, कुछ पत्रिकाओं ने इतिहास रचा है जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया उस संघर्ष की कहानी को एवं बेबाक विचारधारा को डॉ मधुसूदन पाटिल जी की वाणी में ही आत्मसात करें। हम शीघ्र ही डॉ मधुसूदन पाटिल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आपसे साझा करने  का प्रयास करेंगे। )   

डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है?

 – कमलेश भारतीय /डॉ मनोज छाबडा

मराठा वीर डॉ. मधुसूदन पाटिल। हरियाणा के हिसार में। मैं भी पंजाब – चंडीगढ से पिछले बाइस वर्षों से हिसार में। संयोग कहिए या दुर्योग हम दोनों परदेसी एक ही गली में अर्बन एस्टेट में रहते हैं। बस। दो-चार घरों का फासला है बीच में। पत्रकार और आलोचक व व्यंग्यकार दोनों बीच राह आते-जाते टकराते नहीं, अक्सर मिल जाते हैं और सरेराह ही देश और समाज की चीरफाड़ कर लेते हैं। कभी हिसार के साहित्यकार भी हमारी आलोचना के केंद्र में होते हैं। कभी हरियाणा की साहित्यिक अकादमियां भी हमारे राडार पर आ जाती हैं। हालांकि, मैं भी एक अकादमी को चला कर देख आया। डॉ मनोज छाबड़ा भी चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून के समय से ही परिचित रहे और हिसार आकर मिजाज इन्हीं से मिला। जब  हमारे जयपुर संधि वाले डॉ प्रेम जनमेजय को डॉ. मधुसूदन पाटिल के साक्षात्कार और त्रिकोणीय श्रृंखला की याद आई तो मेरे जैसा बदनाम शख्स ही याद आया। मैंने सोचा अकेला मैं ही क्यों यह सारी बदनामी मोल लूं तो डॉ मनोज छाबड़ा को बुला लिया कि त्रिकोण का एक कोण वह भी बन जाये। कई दिन तक वह बचता रहा। आखिर हम दोनों जुटे और डॉ मधुसूदन पाटिल का स्टिंग कर डाला।

❃ ❃  ❃  ❃  ❃

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

डॉ मनोज छाबड़ा

(जन्म- 10 फ़र. 1973 शिक्षा- एम. ए. , पी-एच. डी. प्रकाशन- ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ (कविता संग्रह) 2008, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक  सम्मान 2009-10, ‘तंग दिनों की ख़ातिर ‘ (कविता संग्रह), 2013, बोधि प्रकाशन, जयपुर ‘हिंदी डायरी साहित्य’  (आलोचना),2019, बोधि प्रकाशन, जयपुर विकल्पों के बावजूद (प्रतिनिधि कविताएं) 2020 सम्पादन – वरक़-दर-वरक़ (प्रदीप सिंह की डायरी) का सम्पादन (2020) सम्प्रति – व्यंग्यचित्रकार, चित्रकार, रंगकर्मी))

❃ ❃  ❃  ❃  ❃

हरियाणा का पानीपत तीन लड़ाइयों के लिए इतिहास में जाना जाता है। पानीपत में कभी मराठे लड़ाई लडऩे आए और यहीं बस गये। पानीपत करनाल में आज भी मराठों के वंशज हैं। हिसार में भी एक मराठा वीर रहता है जिसका परिवार किसी लड़ाई के लिए नहीं आया। यह कह सकते हैं कि रोजी-रोटी की लड़ाई में अकेले डॉ पाटिल ही आए और लड़ते-लड़ते यहीं बस गये। कई शहरों में अस्थायी प्राध्यापकी करने के बाद आखिर हिसार के जाट कॉलेज में हिंदी विभाग के स्थायी अध्यक्ष हो गये। फिर तो कहां जाना था? डेरा और पड़ाव यहीं डाल दिया।

इस मराठा वीर ने एक और लड़ाई लड़ी-वह थी व्यंग्य लेखन में जगह बनाने की। दस वर्ष तक यानी सन् 1989 से 1999 तक व्यंग्य विविधा पत्रिका और अमन प्रकाशन चलाने की। वैसे मेरी पहली मुलाकात अचानक कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के स्टूडेंट सेंटर में किसी ने करवाई थी। डॉ. पाटिल तब भी ज्यादा चुप रहते थे और आज भी लेकिन उनके व्यंग्य के तीर तब भी दूर तक मार करते थे और आज भी। उनके तरकश में व्यंग्य के तीर कम नहीं हुए कभी। न तब न अब। शुरूआत का सवाल बहुत सीधा :

कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्यकार की भूमिका क्या है समाज में? कहते हैं कि व्यंग्यकार या आलोचक विपक्ष की भूमिका निभाता है। यह कितना सच है? आबिद सुरती ने तो यहां तक कहा कि अब कोई कॉर्टून बर्दाश्त ही नहीं करता तो बनाऊं किसलिए?

डॉ. पाटिल : आलोचना को कौन बर्दाश्त करता है? आज आलोचना ही तो बर्दाश्त नहीं होती किसी से तो कॉर्टून का प्रहार कौन बर्दाश्त करे? सही कह रहे हैं आबिद सुरती?

कमलेश भारतीय : आपने भी हिसार के सांध्य दैनिक नभछोर में कुछ समय व्यंग्य का कॉलम चलाया लेकिन जल्द ही बंद कर देना पड़ा, क्या कारण रहे ?

डॉ. पाटिल : मैं हरिशंकर परसाई की गति को प्राप्त होते होते रह गया। समाजसेवी पंडित जगतसरुप ने मेरे कॉलम का सुझाव दिया था और एक बार लिखने का सौ रुपया मिलता लेकिन जैसे ही चर्चित ग्रीन ब्रिगेड पर व्यंग्य लिखा तो मैं पिटते-पिटते यानी परसाई की गति को प्राप्त होते होते बचा। राजनेता प्रो. सम्पत सिंह के दखल और कोशिशों से सब शांत हो पाया। वैसे व्यंग्य के तेवरों से शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा था। मैं क्या चीज था?

मनोज छाबड़ा : अपनी सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए एक स्थान पर आपने कहा है आज स्थितियां विसंगतिपूर्ण हैं। ये विसंगति साहित्य-जगत की है, समाज की है, बाहरी है या भीतर की?

डॉ पाटिल : सबसे अधिक विसंगति समाज की है। वही सबसे अधिक प्रभावित करती है, आक्रोश पैदा करती है। इसके अतिरिक्त घरेलू स्थितियां हैं, जो असहज करती हैं। इन सबका परिणाम है कि इसकी प्रतिक्रिया सबसे पहले कहीं भीतर उथल-पुथल मचाती है, व्यंग्य के रूप में अभिव्यक्त होती है।

कमलेश भारतीय : ऐसा क्या लिखा कि…?

डॉ पाटिल : आर्य समाज में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन और वही ग्रीन ब्रिगेड पर एपीसोड मेरे इस कॉलम पर ग्रहण बन गये। आलोचना और व्यंग्य में ठकुरसुहाती नहीं चल सकती। पूजा भाव का क्या काम? आरती थोड़े करनी है? मूल्यांकन करना है?

कमलेश भारतीय : व्यंग्य विविधा एक समय देश में व्यंग्य का परचम फहरा रही थी। दस वर्ष तक चला कर बंद क्यों कर दी?

डॉ. पाटिल : मेरा पूरा परिवार जुटा रहता था पत्रिका को डाक में भेजने के लिए। बेटे तक लिफाफों में पत्रिका पैक करते लेकिन कोई विज्ञापन नहीं। विज्ञापन दे भी कोई क्यों? इसी समाज की तो हम आलोचना करते थे। फिर नियमित नहीं रह पाई तो यहां उपमंडलाधिकारी मोहम्मद शाइन ने नोटिस दे दिया कि नियमित क्यों नहीं निकालते? ऊपर से प्रकाशन और कागज के खर्च बढ़ गये। इस तरह व्यंग्य विविधा इतिहास बन गयी।

मनोज छाबड़ा : हम धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे हैं। लघुकथाएं, छोटी कविताएं पाठकों को खूब रुचती हैं। लम्बे-लम्बे व्यंग्य-लेखों की मांग कुछ कम नहीं हुई?

डॉ. पाटिल : अखबरों में जगह कम है। वे अब छोटे-छोटे आलेख मांगने लगे हैं। पाठकों में भी धैर्य की कमी है। बड़े लेख धैर्य मांगते हैं। पाठक से शिकायत बाद में,  इधर लेखक भी प्रकाशित होने की जल्दी में हैं। ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण व्यंग्य-लेखों का आकार छोटा हुआ है। आजकल तो दो पंक्तियों, चार पंक्तियों की पंचलाइन का समय आ गया है। चुटकुलेनुमा रचनाएं आने लगी हैं।

कमलेश भारतीय : हरिशंकर परसाई ने कभी कहा था कि व्यंग्य तो शूद्र की स्थिति में है। आज किस स्थिति तक पहुंचा है? क्या ब्राह्म्ण हो गया?

डॉ. पाटिल : नहीं। यह सर्वजातीय हो गया। सभी लोग इसे अपनाना चाहते हैं। यहां तक कि वे शिखर नेता भी जो कॉर्टून बर्दाश्त नहीं करते वे भी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते हैं विरोधियों पर। व्यंग्य का जादू अब सिर चढ कर बोलने लगा है।

कमलेश भारतीय :  इन दिनों कौन सही रूप से व्यंग्य लिख रहे हैं?

डॉ. पाटिल :  इसमें संदेह नहीं कि व्यंग्य लेखन में डॉ प्रेम जनमेजय बड़ा काम कर रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के माध्यम से व्यंग्य को केंद्र में लाने में भूमिका निभा रहे हैं। हरीश नवल हैं। सहीराम और आलोक पुराणिक हैं। काफी लोग लिख रहे हैं।

कमलेश भारतीय :  पुरस्कारों व सम्मानों पर क्या कहेंगे?

डॉ. पाटिल : पुरस्कार सम्मान तो मांगन मरण समान हो गये हैं। मुझे नजीबाबाद में माता कुसुमकुमारी सम्मान मिला था और आजकल नया ज्ञानोदय के संपादक मधुसूदन आनंद और विद्यानिवास मिश्र भी थे।

मनोज छाबड़ा : लघुकथा के नाम पर भी लोग घिसे-पिटे चुटकुले चिपका रहे हैं?

डॉ. पाटिल : हां, सब जल्दी में जो हैं।

मनोज छाबड़ा : परसाई-शरद-त्यागी की त्रयी के बाद के लेखकों से उस तरह पाठक-वर्ग नहीं जुड़ा, अब भी किसी भी बातचीत में  संदर्भ के लिए वे तीनों ही हैं।  मामला लेखकों की धार के कुंद होने का है या कुछ और?

डॉ. पाटिल : सामाजिक स्थितियां-परिस्थितयां तो जिम्मेवार हैं ही, धार का कुंद होना भी एक कारण है। लेखक गुणा-भाग की जटिलता में फंसा है। गुणा-भाग से निश्चित रूप से धार पर असर पड़ता ही है। धार है भी, पर सही लक्ष्य पर नहीं है, इधर-उधर है।

कमलेश भारतीय : हरियाणा में आपकी उपस्थिति कांग्रेस की सोनिया गांधी की तरह विदेशी मूल जैसी तो नहीं?

डॉ. पाटिल : बिल्कुल। मैं महाराष्ट्र से था यही मेरी उपेक्षा का कारण रहा। फिर ऊपर से पंजाबन से शादी। यह मेरा दूसरा बड़ा कसूर। महाविद्यालय में कहा जाता कि यह हिंदी भी कोई पढ़ाने की चीज है?  हिंदी का कोई प्रोफैसर होता है भला?  ईमानदारी और मेहनत तो बाद में आती। किसी ने बर्दाश्त ही नहीं किया। निकल गये बरसों ।

कमलेश भारतीय : हरियाणा में हिंदी शिक्षण का स्तर कैसा है?

डॉ. पाटिल : बहुत दयनीय। तुर्रा यह कि शान समझते हैं अपनी कमजोरी को।

कमलेश भारतीय : लघुकथा में व्यंग्य का उपयोग ऐसा कि किसी मित्र ने एक बार कहा कि व्यंग्य की पूंछ जरूरी है लघुकथा के लिए। आपकी राय क्या है ?

डॉ. पाटिल : व्यंग्य का तडक़ा जरूरी है। एक समय बालेंदु शेखर तिवारी ने व्यंग्य लघुकथाएं संकलन भी प्रकाशित किया था। यदि इसमें संवेदना का पुट कम रह जाये तो यह लघु व्यंग्य बन कर ही तो रह जाती है। कथातत्व के आधार पर कम और व्यंग्य के आधार पर लघुकथा लेखन अधिक हो रहा है। यानी व्यंग्य का तडक़ा लगाते हैं ।

मनोज छाबड़ा : कुछ डर का माहौल भी है?

डॉ. पाटिल : हाँ, अस्तित्व की रक्षा तो पहले है। जाहिर है डर है। फिर, आलोचना कौन बर्दाश्त करता है?  व्यंग्य-लेख में उन्हीं मुद्दों को सामने लाया जाता है जो शक्तिशाली की कमजोरी है। प्रहार कौन सहन करेगा जब आलोचना ही बर्दाश्त नहीं हो रही।

मनोज छाबड़ा : आपके लेखन के शुरूआती दिनों में भी यही स्थिति थी?

डॉ. पाटिल : उस समय आज की तुलना में सहनशक्ति अधिक थी। वह ‘ शंकर्स वीकली’ का दौर था। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी उदार थे, हालांकि तब भी शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा, बाद में इंदौर में रहे।

मनोज छाबड़ा :  एक दौर था, आप खूब सक्रिय थे लेकिन अब?

डॉ. पाटिल : शारीरिक, सामाजिक व पारिवारिक समस्याएं हैं। अब उम्र भी आड़े आने लगी है। पत्नी का स्वास्थ्य भी चिंता में डालता है।

कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्य लेखन बहुत कम क्यों कर दिया? ज्यादा सक्रिय क्यों नहीं?

डॉ. पाटिल : कुछ शारीरिक तो कुछ मानसिक और कुछ पारिवारिक कारणों के चलते। वकीलों के चक्कर काट रहा हूं। वे वकील जो संतों के मुकद्दमे लडते हैं और गांधीवादी और समाजसेवी भी कहलाते हैं। यह दोगलापन सहा नहीं जाता। अपराध को बढावा देने में इनका बडा हाथ है ।मैं तो कहता हूं -वकील, हकीम और नाजनीनों से भगवान बचाये।

मनोज छाबड़ा : एक समय था जब आपकी पत्रिका ‘व्यंग्य विविधा’ देश की अग्रणी व्यंग्य पत्रिकाओं में थी। 30-35 अंक निकले भी, अचानक बंद हो गयी ऐसी नौबत क्यों आई?

डॉ. पाटिल : पत्रिका 1989 से 1999 तक छपी। लघु पत्रिकाओं का खर्चा बहुत है, स्वयं ही वहन करना पड़ता है, हिसार में अच्छी प्रेस भी नहीं थी तब। दिल्ली न सिर्फ जाना पड़ता था बल्कि तीन-तीन चार-चार दिन रुकना भी पड़ता था। पत्नी लिफाफों में पत्रिका डालने में व्यस्त रहती। बच्चे कितने ही दिन टिकट चिपकाते रहते। ऐसा कितने दिन चलता। आर्थिक बोझ भी था और मैन-पॉवर तो  कम थी ही। जिनके खिलाफ लिखते थे वही विज्ञापन दे सकते थे, पर क्यों देते? दोस्त लोग कब तक मदद करते। वे पेट और जेब से खाली थे।

मनोज छाबड़ा : कविता मन की मौज से उतरती है। व्यंग्य के साथ भी ऐसा ही है या ये कवियों की रुमानियत ही है?

डॉ. पाटिल : कविता में मन की सिर्फ मौज है। व्यंग्य में तूफान है, झंझावात है, मन के भीतर उठा चक्रवात है।

मनोज छाबड़ा : आज जब चुप्पियाँ बढ़ रही हैं, संवेदनहीनता का स्वर्णकाल है, अब व्यंग्यलेखक की भूमिका क्या होनी चाहिए?

डॉ. पाटिल : देखिये,  इस समय भी सहीराम, आलोक पुराणिक सटीक और सार्थक लिख रहे हैं। चुप्पियां डर की होंगी कहीं, पर बहुत से लेखक आज भी मुखर हैं, ताकत से अपनी बात कह रहे हैं। यही एक लेखक की भूमिका है कि वे इस चुप समय में मुखर रहे।

©  श्री कमलेश भारतीय/डॉ. मनोज छाबड़ा

सपर्क –

श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी, 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

डॉ  मनोज छाबड़ा,  ‘हिमशिखर’, 356, सुंदर नगर,हिसार – 125001 (हरियाणा) मो. 70152-03433 (मनोज छाबड़ा)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लेखन ??

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध, न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जिंदगी की शाम ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करते रहते हैं।

☆ कविता  – जिंदगी की शाम ☆श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

कोई नहीं जानता

(और जानता भी हो

तो कोई फर्क नहीं पड़ता )

कि कब और किस गली में

 

डूब जाए

आपके हिस्से का सूरज

कब सूख जाए

आपके भीतर की नमी

 

सांसों की आवाजाही के रास्ते

कब जल उठे लाल बत्ती

 

और उसे हरा होते हुए

न देख पाएं आप

 

और कम हो जाए

जनगणना विभाग की सांख्यिकी में

आबादी का एक अंक

 

शेषनाग को मिले

थोड़े से ही सही

पर कम हुए वजन से राहत

 

खाली हो जाए

बरसों बरस से

बेवजह सा घिरा हुआ

धरती का एक कोना

 

घर में नकारात्मक ऊर्जा फैलाता

एक अनुपयोगी सामान

हो जाय घर से बाहर

 

और घर की ऊब हो कुछ कम

 

तो बेहतर होगा

जाने से पेशतर

 

पूर्वाग्रहों और कुंठाओं की

घृणा और ईर्ष्या द्वेष की

फफूंद लगी गठरी

झूठ के झंडे

और तृष्णा की चादर

सम्मान के कटोरे

और यश की थाली

 

इन सबको दे दी जाए

जल समाधि

 

मित्रों की शुभकामनाओं

उनसे मिले प्रेम

और उनके साथ की

बेशकीमती दौलत की

 

करते हुए कद्र

खुशी की चादर ओढ़

सोया जाए चैन से

 

उनकी यादों की महक से

सराबोर

आत्मा के बगीचे की क्यारी में

चहलकदमी करते

 

डूबते सूरज को देखना

और मिला देना उसी में

अपने भीतर की धूप

 

शाम को बना लेना है

अपनी अगली

सुनहरी सुबह

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, एक कविता संग्रह (स्वर्ण मुक्तावली), पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता माँ। )  

☆ कविता ☆ माँ ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

सबसे प्यारी, न्यारी मेरी मां,

सबसे सुंदर, निराली मेरी मां,

हर धर्म, जाति के लोग रहते,

कभी न किया भेदभाव,

अपनाया हर किसी को दिल से,

ममता न्योछावर की सब पर एक,

माना कि गणित की कच्ची है,

भावों से पूरित है मां भारती,

न आने देंगे आंच इन पर कभी,

आंख उठायेगा मां पर कोई भी

नोच लेंगे आंखे उसकी,

पास नहीं आने देंगे दुश्मनों को,

नहीं शिकन आने देंगे चेहरे पर

जब भी देखा मां को मुस्काते

पाया भाई व बहन के साथ,

अपनी ही दुनिया में खोई सी,

एक अनजान सुलभ दुनिया,

आज तेरे बच्चे खड़े है माँ,

न आंसू का कतरा बहने देंगे,

रक्षा हम करेंगे नादान मां की,

अजीब है तेरी संस्कृति,

अरे ! क्यों मनाते हो,

एक दिन मात्र मां का,

हर दिन मां की गोद में

खेलते हुए महफूज़ व प्रसन्न है,

जन्म से लेकर मौत तक,

निभाते है माँ का साथ,

बावजूद अनेक समस्या के

रहते सदा साथ मिलकर,

जन्म लिया धरती पर,

हमें मात्र चुकाना है ऋण ,

मत भूलो मां के संसार में,

वीर औ’ क्षत्राणी ने है लिया जन्म

मां तक गंदी हवा का

झोंका भी न आने देंगे,

जब तक यह सांसे चलेंगी,

लडेंगे हम मां के लिए,

सर पर चढाकर धूलि

मां के चरणों की कहो…

वंदेमातरम्‌, वंदेमातरम्‌

नारे लगाओ…..

जय हिन्द जय हिन्द

आज मार भगाना है शत्रु को,

देखो,  कभी भी मेरी मां के

आंचल मे दाग नही लगने देंगे,

मेरी मां में इतनी ममता भरी है

दुश्मन भी विवश हो जाएंगे,

वे भी घुटने टेक देंगे,

प्यारी, सुंदर मेरी मां ।

©डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 61 – जंगल में दंगल… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 62 – जंगल में दंगल – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जंगल में राजा शेर की मर्जी से वाट्सएप ग्रुप तो शुरु हो गया पर कुछ दिन सिर्फ राज़ा की रिकार्डेड दहाड़ की ही एकमात्र पोस्ट आती रही जिस पर चहेते और उपकृत पशु वाह वाह करते रहे. कुछ कमेंट्स की बानगी देखिये: आवाज़ हो तो ऐसी, सुनते ही हो जाय सबकी  ऐसी तैसी. पर जब ये ज्यादा चला नहीं तो सदस्यों की अरुचि को देखते हुये राजा शेर ने फिर से बैठक बुलाई और ग्रुप  में सबका साथ सबका मनोरंजन के सिद्धांत पर सहभागिता की अपेक्षा की.

ग्रुप का थीम वाक्य चुनने की प्रक्रिया में “Fittest will survive” सिलेक्ट किया गया.

जो शिकार होने के लिये ही पैदा हुये थे, उन्होंने दबी ज़ुबान से विरोध किया तो शेर ने समझाया कि अगर फिटेस्ट शिकार हो तो उसकी जीवन रूपी बैटरी लंबी चलेगी. अनफिट होने पर शेर को भी भूखे मरना पड़ जाता है. जंगल प्राकृतिक नियमों से चलते हैं और यहां रिटायरमेंट प्लान नहीं होते.

“जब तक सांस तब तक आस” जैसी कहावत सिर्फ मानव जीवन में संभव है. यहां कोई मसीहा नहीं होता न ही कोई अवतरित किताब जो जीवन जीने के नियम कानून कायदे बनाये. जंगल वो दुनिया है जो पाप पुण्य से परे है. यहां भोजन के लिये हिंसा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जो शिकार बन गया वो स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म की कल्पनाओं से परे अपनी कहानी उसी वक्त खत्म कर जाता है. न तो अस्थि विसर्जन, न पिंडदान, न ही तेरहवीं और न ही वार्षिक श्राद्ध.

लोगों को, सॉरी पशु पक्षियों को ये बात अपील कर गई और फिर कुछ सदस्यों ने आगे बढ़कर अपना रोल निर्धारित कर लिये. सुबह की गुडमार्निंग कड़कनाथ उर्फ मुर्ग मुसल्लम करने लगे. संगीत से ग्रुप को सज़ाने का काम मिस कोयल कुमारी और मि. पपीहा निभाने लगे. गिद्ध और चील समुदाय अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से दूसरे ग्रुप्स में चल रहे मैसेज को कॉपी पेस्ट करने लगे. कुत्तों ने पॉप संगीत के नाम पर भौंकना चाहा पर शेर की घुड़की से पीछे हट गये. इस तरह ये ग्रुप चलने लगा और जंगल की आवाज के शीर्षक का फायदा उठाते हुये सदस्यों की अभिव्यक्तियां भी सामने आने लगीं जिनका जवाब कभी एडमिन लोमड़ सिंह और कभी सरपरस्त राजा देने लगे जिसकी बानगी अगली किश्त में सामने आयेगी।

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संभ्रम… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संभ्रम… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : पादाकुलक)

जाते वाहुन महापुरी ते

ताठ कण्याचे झाड वेंधळे

टिकुन राहते जपता जपता

शारण्याचा मंत्र लव्हाळे !

 

      इथे फुलांनी जखमी कोणी

      मुळी खुपेना कोणा काटा

      कुणास जाळी रात्र चांदणी

      कुणास वणवा फुटकळ चटका !

 

झुंज ज्योतिची प्रभंजनाशी

किती थरारक किती मनस्वी

शिक्कामोर्तब स्वमरणावर

सहीच अंती एक आंधळी !

 

      कोणी भोगी इहलोकीचा

      कोणी योगी मोक्ष मुक्तिचा

      प्रियतम कोणा सिंहासन अन

      बोधिवृक्ष हा ध्यास कुणाचा !

 

जगते कोणी अपुल्यापुरते

दूभंग दुजांस्तव इथे कुणी

कुणी नांदते गोकुळ हसरे

कमनशिबाची कहाणी कुणी !

 

      कोणी इथले कोणी तिथले

      कोणी असले कोणी तसले

      कुण्या दिशेला गाव आपुले

      कधी कुणा का येथे कळले ?

(शारण्याचा=शरण जाण्याचा)

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 161 ☆ मनमुक्ता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 161 ?

☆ मनमुक्ता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मुक्त मनोमनी झाले

तरी का गुंतते आहे

पुन्हा हे स्वप्न सांजेला

अवेळी साकारताहे

 

जरी ना नीज डोळ्यात

पहाटे लागतो डोळा

खरी होतात ही स्वप्ने

 सजे स्वप्नात पाचोळा

 

जरी ही तृप्तता आली

 स्वतःला सांगते आहे

कळेना कोणता रस्ता

आता धुंडाळते आहे

 

पसारे आवरावे की

करावी संन्यस्त भाषा

कशी मी शिस्त लावावी

अशा बेशिस्त आयुष्या

 

मनाच्या एकांत वेळा

हव्याशा वाटतानाही

कुणी का ओढते आहे

मला गर्दीत आताही

 

असे अस्तित्व इवले

जणू मुंगीच छोटीशी

भरारी घ्यायची आहे

अखेरी याच आकाशी

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जा दू ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

 ☆ 🤠 जा दू ! 👀 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“जादू ssss तेरी नजर, खुशबू तेरा ssss बदन, तूं हां…..”

सॉरी, सॉरी, मंडळी, माफ करा मला ! आपण म्हणाल यात माफी मागण्या सारखं तुम्ही काय केलंय, म्हणून माफी मागताय ?  सांगतो, सांगतो मंडळी. त्याचं काय आहे, मला खरं तर “जादू तेरी नजर” या, मतकरींच्या एका नाटकाच्या नावाने आजच्या लेखाची सुरवात करायची होती. पण वरच्या गाण्याच्या ओळींची “जादू” आज इतक्यावर्षांनी देखील, माझ्यासकट तमाम रसिकांवर त्या गाण्यातील शब्दांचे असं काही गारुड करून बसली आहे, की त्याची पुढची ओळ माझ्या हातून आपोआपच लिहिली गेली हे मी मान्य करतो आणि त्यासाठी मी तुमची माफी मागितली मंडळी ! चला, म्हणजे एका अर्थाने लेखाच्या सुरवातीलाच, एखाद्या गाण्याची अनेक तपानंतर सुद्धा आपल्यावर कशी “जादू” शिल्लक असते, हा एक मुद्दा निकालात निघाला ! अर्थात ते गाणं त्यातील शब्दांमुळे, संगीतामुळे, का ते ज्या कलाकारांवर चित्रित झालं आहे त्यांच्यामुळे, कां अजून कोणत्या  गोष्टींमुळे रसिकांच्या मनावर आज तागायत जादू करून आहे हा वादाचा विषय होऊ शकतो, यात वादच नाही मंडळी. असं जरी असलं, तरी त्या गाण्याच्या जादूची मोहिनी आजच्या घडीपर्यंत टिकून आहे, हे आपण या लेखाद्वारे मी तुमच्यावर कुठल्याही प्रकारची शब्दांची जादू न करता सुद्धा मान्य कराल ! असो !

मंडळी, आपली माफी मागितल्या मागितल्या, मला एका गोष्टीची मनांत मात्र नक्की खात्री वाटत्ये आणि ती म्हणजे, आपण सुद्धा वरील गाण्याची पाहिली ओळ वाचताच, लगेच दुसरी ओळ मनांत नक्कीच गुणगुणली असेल, हॊ का नाही ? खरं सांगा ! बघा, मी जादूगार नसलो तरी “माझ्या” वाचकांच्या मनांत नक्की काय चाललं असेल ते ओळखण्या इतका मनकवडा जादूगार नक्कीच झालोय, असं लगेच माझं मीच म्हणून घेतो. दुसरं असं, की माझ्या मनावर अजून जरी जुन्या अनेकानेक अजरामर हिंदी गाण्यांची कितीही जादू असली आणि हिंदी आपली राष्ट्रभाषा असली तरी, राष्ट्रभाषेत लेख लिहिण्याइतकी काही त्या भाषेची माझ्यावर जादू झालेली नाही, हे मी मान्य करतो ! त्यामुळे आता या वयात अंगात नसलेली एखादी कला, कोणा जादूगाराच्या जादूने अंगी बाणेल, मग मी आपल्या राष्ट्र भाषेत एखादा लेख लिहीन यावर माझा 101% विश्वास नाही ! पण हां, स्टेजवरचे जादूचे प्रयोग पहात असतांना, हे सगळं खोटं आहे हे मनांला ठामपणे माहित असतांना देखील, माझे डोळे (चष्मा लावून सुद्धा) मात्र त्यावर विश्वास ठेवतात हे मात्र तितकंच खरं.  म्हणजे असं बघा, रिकाम्या नळकांड्यातून फुलांचा गुच्छ काढणे, तर कधी पांढरे धोप कबुतर ! तर कधी टेबलावर झोपलेल्या माणसाच्या शरीरारचे तीन तुकडे करणे, ते परत जोडणे, असे नाना खेळ करून तो जादूगार लोकांचे मनोरंजन करत असतो. मला असं वाटतं की “जादू” या शब्दातच एक प्रकारची अशी “जादू” आहे जी सानथोरांना तो खेळ बघताना, अक्षरशः देहभान विसरायला लावून खिळवून ठेवते. एवढच नाही, तर ज्या व्यक्तीला जादूगाराने एखाद्या खेळात आपल्या इंद्रजालाने वश केले आहे, त्या व्यक्तीला तर ती इतकी कह्यात ठेवते, की त्या जादूगाराने “आज्ञा” करताच, ती व्यक्ती सफरचंद समजून, कच्चा बटाटा पण साऱ्या प्रेक्षकांसमोर मिटक्या मारीत आनंदाने खाते, हे आपण सुद्धा कधीतरी बघितलं असेल !

या दुनियेत जादूचा उगम कधी झाला, जगात पाहिली जादू कोणी, कोणाला आणि कोठे दाखवली असे साधे सोपे प्रश्न घेवून, त्या प्रश्नांची मी उत्तर देईन अशी अपेक्षा हा लेख वाचतांना कोणा वाचकाने कृपया ठेवू नये.  कारण त्याची उत्तर द्यायला सध्याच्या विज्ञानयुगातला जागतिक कीर्तीचा “गुगल” नामक विश्व विख्यात जादूगार आपल्या खिशातच तर आहे मंडळी !  पण हां, माझ्या आयुष्यात मी पाहिलेल्या पाहिल्या दोन जादू कोणत्या या प्रश्नाचं उत्तर मात्र मी तुम्हांला नक्कीच सांगू शकतो. किंबहुना मी आयुष्यात पहिल्यांदाच पाहिलेल्या दोन जादू, आपल्या पैकी माझ्या पिढीतील लोकांनी पाहिलेल्या त्यांच्या आयुष्यातल्या सुद्धा त्यांनी पाहिलेल्या पहिल्या दोन जादू असू शकतात, (आधीच वाक्य वाचून तुम्हांला थोडं गोंधळायला झालं असेल, तर बहुतेक तो माझ्या लिखाणावर झालेला आजच्या विषयाचा परिणाम असू शकतो) यावर माझा ठाम विश्वास आहे !

मंडळी, त्यातील पाहिली जादू म्हणजे, आपल्या दादाने किंवा ताईने मुठीत राहणारी लहान वस्तू उजव्या हाताने दूर फेकल्याचा अभिनय करून, ती वस्तू आपण सांगताच आपल्याला लगेच दाखवणे आणि दुसरी जादू म्हणजे डाव्या हाताचा अंगठा उजव्या हाताने कापणे ! काय, बरोबर नां मंडळी ?

लहानपणी डेव्हिड कॉपरफिल्ड नामक एका विदेशी जादूगाराचे एका पेक्षा एक विलक्षण जादूच्या प्रयोगाचे विडिओ बघून डोळे आणि डोकं अक्षरशः गरगरायला लागायचं ! त्याच पाण्यावर चालणं काय, हवेत उडणं काय किंवा नायगाऱ्याच्या प्रचंड धबधब्यात पिंपात बसून उडी मारून परत काठावर प्रकट होणं काय ! बापरे, ते त्याचे सारे जादूचे खेळ आज नुसते आठवले तरी अंगावर काटा येतो मंडळी !

आपल्या देशातसुद्धा तसे अनेक छोटे मोठे जादूगार होऊन गेले, पण डेव्हिडशी तुलना करायची झाल्यास, पी सी सरकार, सिनियर आणि पी सी सरकार, ज्युनियर ही कलकत्याच्या पिता पुत्रांची नांव या संदर्भात प्रकर्षाने लगेच आठवतात.

माझे जन्मापासूनचे आजतागायतचे आयुष्य शहरात गेल्यामुळे, “काळी जादू” किंवा “चेटुक” या विषयात एखाद्या “गाववाल्याचे” जेवढे “ज्ञान” (का अज्ञान ?) आहे, त्याच्या ते 0.001% सुद्धा नाही. त्यामुळे या विषयावर मी काही बोलणे अथवा लिहिणे, हा या विषयात स्वतःला तज्ञ समजणाऱ्या एखाद्या “गाववाल्याचा” अपमान होऊ शकतो. म्हणून उगाच त्या तथाकथीत जादूच्या उप शाखेला कोणत्याही तऱ्हेनं स्पर्श नं केलेलाच बरा. शिवाय माझा हा लेख अशा एखाद्या तज्ञ गाववाल्याने “चुकून” वाचलाच, तर त्याला आलेल्या रागापोटी तो माझ्यावर एखादं “लिंबू” फिरवायचा ! उगाच नको ती रिस्क आता या वयात कशाला घ्या ?

मंडळी, शेवटी एकच सांगतो, माझा सुद्धा जादूवर विश्वास आहे.  पण ती जादू करणारा सर्वशक्तिमान जादूगार हा वर बसलेला आहे, असं माझं मत आहे ! आपल्या आयुष्यात वेळोवेळी निरनिराळे खेळ करून “तो” आपल्याला दाखवत असतो ! त्यातील त्याच्या कुठल्या खेळाला आपण टाळी वाजवायची, कुठला खेळ दाखवल्या बद्दल त्याचे मनापासून आभार मानायचे किंवा कुठल्या खेळातून काय बोध घेवून पुढे जायचं, हे ज्याचं त्यानं ठरवायचे !

तर अशा त्या सर्व शक्तिमान जादूगाराने आपल्याला दाखवलेल्या नानाविध खेळांचे वेळोवेळी अन्वयार्थ लावायची शक्ती, तो जादूगारच आपल्या सगळ्यांना देवो हीच सदिच्छा!

शुभं भवतु !

© प्रमोद वामन वर्तक

०३-१२-२०२२

स्थळ – बेडॉक रिझरवायर, सिंगापूर.

मो – 9892561086, (सिंगापूर)+6594708959

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘सांज…’ – भाग – 5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘सांज…’ – भाग – 5 ☆ श्री आनंदहरी  

वरकरणी कितीही काहीही म्हणले तरी अनेक वर्षे मुले आलेली नाहीत ही मनाची दुखरी बाजू होती आणि प्रत्येक आईबापांच्या मनात असतेच. ती असतील तिथे सुखात असावीत असे प्रत्येक आई-बापाला वाटत असतेच पण  कधीतरी त्यांनी यावे, चार दिवस सोबत राहावे असेही वाटतेच. पाखरे आकाशी झेप घेतात आणि घरट्याकडे परततही नाहीत. घरटी व्याकुळ होऊन त्यांची वाट पाहत सुकत चाललीत, विरु लागलीत..  तेच घरट्याचे व्याकुळपण तिच्या पापण्यात थबकून राहते.. माझ्या मनात साठून राहते.. पण तो साठपा दिसत नाही, मी दाखवतही नाही..

पूर्वी कुणी ना कुणी कधी काही कामासाठी, कधी सहज गप्पा मारायला येत होते.. नाही म्हणलं तरी दिवसभर राबता होता. इतर काही विचार मनात यायला मनाची दारे मोकळी नसायचीच..  हळूहळू हे सारे कमी झाले.. काही समवयस्क गेले.. ,काहींची अवस्था माझ्यासारखीच झालेली. हळूहळू छान एकांत देणारे घर एकाकी होऊ लागले.. कुणाचे येणे- जाणे नाही तर कुणाकडे येणे -जाणे नाही. थकलेल्या गात्रांचे जगच नव्हे तर अंगणही क्षणाक्षणांगणिक पावला-पावलाने आकुंचन पावत असते.. लहान होत असते. 

‘साखर संपत आलीय’ ची आठवण झाली. ‘काय करावे ?’ मनात प्रश्न. आपले परावलंबित्व वाढत चाललंय याची जाणीव नाही म्हणलं तरी मनाला कुरतडत असतेच.. साधे रस्ता ओलांडून जायचे म्हणले तरी जमत नाही.. गतीने वाहणाऱ्या वाहतुकीची भीती सांज ढळताना अंधार दाटून येतो तशी दाटून राहिलेली आहे. त्यात खूप दिवस झाले ऐकायलाही कमी येऊ लागलेय..  आपल्याला ऐकायला येत नाही  हे आपल्याला ठाऊक असले तरी समोरच्या व्यक्तीला ठाऊक नसते.. चालताना मध्येच पाय लटपटायला लागतात..आधाराला काठी असूनही पडतोय की काय अशी भीती वाटू लागते. भीती मरणाची वाटत नाही, वेदनेचीही नाही.. पण पडून हाड-बीड मोडले तर येणाऱ्या परावलंबित्वाची वाटते.   

काही दिवसांपूर्वी तिचे एक औषध संपले म्हणून निघालो होतो.. जाणाऱ्या रिक्षाला हात केला.. ती शंभर फुटावर जाऊन थांबली. रस्त्यावरून अगदी कडेने सावकाश चालत जात असताना एक दुचाकी अगदी कर्कश हॉर्न वाजवत जवळ आली..  पाय लटपटले, तोल गेला सुदैवाने बाजूलाच विजेचा खांब होता.त्याचा आधार मिळाला म्हणून पडलो नाही..

“धड चालायला येत नाहीत तर म्हातारे घरात बसायचे सोडून रस्त्यावर कशाला येतात मरायला.. कुणास ठाऊक ? ” अंगावर खेकसत दुचाकीवाला निघून गेला..  खांबाच्या आधाराने थरथरत उभा राहून सावरण्याचा प्रयत्न करत काही क्षण उभा राहिलो तर रिक्षावाला  मागे वळून पाहत काहीतरी पुटपुटत निघून गेला..  ती काळजी करत राहते म्हणून तिला काही सांगितले नाही.

दोन-तीन वेळा रस्त्यापर्यंत जाऊन आलो.. जाणाऱ्या – येणाऱ्या मध्ये चुकून कुणी ओळखीचे दिसतंय का पहात होतो.. पण अडचणीच्या वेळी मदतीला ओळखीचे कुणी सहसा भेटत नाही हेच खरं !.  गेली अनेक वर्षे ज्या दुकानातून सामान घेत होतो तिथे फोन केला. दुकानदाराबरोबर व्यवहार – व्यापारापलीकडचे तसे  जिव्हाळ्याचे, काहीसे घरोब्याचे संबंध.. पण तिथेही आता केवळ व्यावसायिक दृष्टिकोण ठेवणारी पुढची पिढी असते.

“साहेब, फक्त एक-दोन किलो साखर एवढया लांब घरपोच करणे परवडत नाही. त्यात आज कामगारही कमी आहेत.  “

एवढेच बोलून तिकडून फोन ठेवला देखील. कामगारही कमी आहेत हे इच्छेचा अभाव लपवण्याचे व्यवहारी कारण. महिन्याचे सारे सामान त्याच दुकानातून घेत असूनही असे.. आताशा सारी गणिते पैसा आणि वेळेची असतात..

खरंतर असे इथं एकाकी राहण्यापेक्षा वृद्धाश्रमात जाऊन राहणे खूप चांगले.. निदान अवती भवती माणसे असतात, सोबत ही असते असे खुपदा वाटते. एकदा तिला तसे म्हणालो देखील.. पण तिने मानेनेच नकार दिला.. तिचे तिने उभारलेल्या घरावर नितांत प्रेम आहे.. तसे माझेही आहेच.. पण तिला वाटते तिने तिचा अखेरचा श्वास याच घरात घ्यावा.. खरंतर सोडावा.

कोण आधी जाणार, कोण नंतर,.कुणाचा अखेरचा श्वास कधी असणार हे कुणालाच ठाऊक नसतं..  आपल्या अखेरच्या श्वासापर्यंत तिची संगत- सोबत असावी असे आजवर वाटत होते. पण आताशा माझ्यामघारी तिचे काय होईल याची काळजी वाटू लागलीय. माझ्यासमोर,माझ्याआधी तिने अनंताच्या प्रवासाला निघून जावे असे वाटू लागलंय..  तिच्या डोळ्यांतही माझ्यावरच्या प्रेमाबरोबर माझ्यासाठीची हीच काळजी दाटून आलेली आहे.. माझ्याबाबतीत तिच्या मनात तोच विचार येत असतो हे ही मला ठाऊक आहे…

सांज सरून गडद काळोख दाटून यायला सुरुवात झाली होती.

ती स्वयंपाकघरातून भाताचा कुकर लावत म्हणाली,

“बाहेरची खिडकी लावा. सोप्यातला, बाहेरचा लाईट लावा. “

मी लाईट लावून सोप्यातील खिडकी बंद केली पण मला मनाची खिडकी बंद करताच आली नाही..  सांज ढळून तिच्या काळजीचा गडद काळोख माझ्या मनभर दाटतच राहिला होता.

◆◆◆

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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