हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी व्यंग्य पत्रिका की समीक्षा  “# समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆

☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ 

आज के युग में हर व्यक्ति भागम-भाग की जिंदगी जी रहा है, किसी के भी पास समय नहीं है   की , थककर, बैठकर शांति से कुछ पल बिता सकें. इन्हीं अमूल्य पलों में मन के दरवाजे पर दस्तक देकर, अंतर्मन को आल्हादित कर हृदय को झंकृत करने का प्रयास हास्य-व्यंग्य की पत्रिका द्वारा किया जाता है. इसी कड़ी में “अट्टहास” पत्रिका का योगदान महत्वपूर्ण है.

” अट्टहास” पत्रिका का परसाई विशेषांक अगस्त, 2023 एक अनूठा प्रयास है .

स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग की दुनिया में प्रथम पायदान पर है, उनके जैसा दूसरा व्यंग्यकार होना असम्भव है, जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेक व्यंग अनेक विषयों पर लिखें, उन्हें खूब प्रशंसा भी मीली.

उन्होंने सामान्य व्यक्ति के जिव्हा को अपने शब्द दीये, पिड़ा को अपनी समझकर व्यक्त किया, सरल सहज व्यक्ति के मन की बात जन-जन तक पहुंचाई. अपने   तिक्ष्ण बाणों से घांव किये,और उस चुभन को सदा के लिए जागृत छोड़ दिया, जो आज भी हम अपने आसपास महसूस करते है.

इस विशेषांक का विश्लेषण दो भागों में करना मुझे उचित लगा.

1) परसाई जी के लिखे हुए व्यंग्य 

2) परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ 

1) परसाई जी ने अपने ” व्यंग्य क्यों? कैसे ? किसलिए ? मे लिखा है कि –  आदमी कब हंसता है ?

एक विचार यह है कि जब आदमी हंसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता. हंसने के क्षणभर पहले  उसके मन में मैल हो सकता है और हंसी के क्षणभर बाद भी. पर जिस क्षण वह हंसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता.

आदमी हंसता क्यों है ?

वह  कहते है, लोग किसी भी बात पर हंसते हैं, हलकी, मामूली विसंगति पर भी हंस देते है. दीवाली पर कुत्ते की दूम में पटाखे की लड़ी बांधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं, बेचारा कुत्ता तो मृत्यु के भय से भागता और चीखता है, पर लोग हंसते हैं.

व्यंग्य किसलिए ?

वह  कहते है, मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता है. व्यंग मानव सहानुभूति से पैदा होता है. वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है. वह उससे कहता है – तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन .

अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती है, चेखव में शायद यह बात साफ है, चेखव की एक कहानी है – बाबू की मौत. इस कहानी को पढ़ते -पढ़ते हंसी आती है पर अन्त में मन करूणा से भर उठता है।

व्यंग के सम्बंध में यह बातें, व्यंग का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी.

2) उखड़े खंभे

इस व्यंग्य में बहुत ही सुन्दर कथा के द्वारा यह बताया गया है की, मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए कैसे प्रपंच रचे जाते हैं।

एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटका दिया जाएगा , लोग शाम तक इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगें जाएंगे – और अब, पर कोई टांगा नहीं गया।

सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं, राजा ने सभी जिम्मेदार दरबारी यों से जब पूछा, यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने लिए करने वाला हूं, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?

सेक्रेटरी ने कहा,’ साहब,  पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था, अगर रात को खम्भे ना हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता. यह सलाह मुझे विशेषज्ञ ने दी थी.यह सुनकर सारे लोग सकते में खड़े रहे,  वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये. वे सब उस संकट से अविभूत थे,जिसकी कल्पना उन्हें दी गई थी, जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे, चुपचाप लौट गये.

उसी सप्ताह बैंक में सेक्रेटरी एवं संबंधित अधिकारियों के खाते में मोटी रकम जमा की गई, उनको उपकृत किया गया।

उसी सप्ताह ” मुनाफाखोर संघ ” के हिसाब में सारी रकमें ‘ धर्मादा ‘ खाते में डाली गयी.

यह व्यंग आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।

3) विकलांग श्रध्दा का दौर

इस व्यंग्य में दिखावे की श्रद्धा पर चुभता हुआ कटाक्ष है.

” अभी अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है, मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है.

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है, लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है.

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं -‘ यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है. मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ.

4) एक अशुद्ध बेवकूफ

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है वह सब झूठ है – बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है।

“एक प्रोफेसर साहब थे क्लास वन के। वे इधर आए। विभाग क डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।

डीन मेरे यार है। कहने लगे- यार चलो केंटीन में, अच्छी चाय पी जाएं। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाए।

अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।

हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गए कि मैं ” अशुद्ध” बेवकूफ हूं।

5) खेती

सरकारी घोषणाओं में और वास्तविक जमीन पर क्या होता है इस समस्या पर यह व्यंग बहुत ही मार्मिक है।

“एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा – हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया –‘ अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज़ पर अन्न पैदा कर रहे हैं।

6) अरस्तू की चिट्ठी

इस व्यंग्य में जनता जनार्दन पर कटाक्ष है कि वे कैसे ईव्हेंट मॅनेजमेंट में शिकार होते हैं

“तुम्हारे मुखिया में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है, जिस दिन यह अदा नहीं है, या अदाकार नहीं है उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी।जब तक यह अदा है तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा मुखिया एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा।। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक ‘ अदा ‘ पर टिकी हुई है।

आज भी यह कितना प्रासंगिक है?

7) गर्दिश के दिन

परसाई जी ने अपने जीवन में विपत्तियों को अलग अंदाज में लिया, कभी टूटें नहीं, बेफिक्र होकर सब कुछ सहा और अपनी पिड़ा को अपने लेखन में लायें, उन्होंने गर्दिश के दिन में लिखा है कि ” मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा  तो नौकरियां गयी।लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैरजिम्मेदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूं।रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी – साग  खाकर मजे में बैठा हूं कि चिंता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। “

वो आगे लिखते है, ” गर्दिश कभी थी, अब नहीं है,आगे नहीं होगी – यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता इस लिए गर्दिश नियति है।  “

वो आगे लिखते हैं, ” मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा खयाल है, तब ऐसी ही बात होगी।”

वो अंत में लिखते हैं कि,” मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन है। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। “

उन्होंने सही कहा है,” पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है।”

8) प्रेमचंद के फटे जूते

इस लेख में उन्होंने लेखक की आर्थिक स्थिति के ऊपर व्यंग किया है कि प्रसिद्ध लेखक भी ऐसे जीते हैं।

वो लिखते हैं, ” प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, 

गालों की हड्डियां उभर आई है, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा भरा बतलाती है।

पांवों में केनवास के जूते है, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग – मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उनपर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहें हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार मारकर जूता फाड़ लिया है, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बचा रहा और मैं चलता रहा,  मगर तुम अंगुली ढांकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ? “

यहां पर उन्होंने सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग किया है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.

9) सरकारी भ्रष्टाचार का विरोध

इस व्यंग्य में भ्रष्टाचार करने वाले महानुभावों की सच्चाई व्यक्त की है।

वो लिखते है,” सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी कोई नहीं डरता। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है, जैसे कब्बड्डी का मैच। इससे ना सरकार घबड़ाती, न मुनाफाखोर, ना कालाबाजारी, सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं। “

यह हमारी व्यवस्था पर किया हुआ व्यंग्य , एक कटु सत्य है।

परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ  

आइये हम इस कड़ी में सर्व प्रथम ” अट्टहास ” पत्रिका के अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी की बात करते हैं,उनका परिश्रम प्रशंसनीय है, उन्होंने सभी व्यंग कारों को आमंत्रित कर, उनकी रचनाओं को सलिके से माला में पीरो कर, एक हास्य -व्यंग का सुगंधित हार बनाया है, जिसकी सुगंध सदैव पाठकों को लुभाती रहेगी, यह प्रयास अविस्मरणीय संस्मरण बनकर पाठकों के हृदय को हमेशा गुदगुदाता रहेगा.

उनके शब्दों में,” समाज से, सरकार से,मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते है, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी। व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लंबी गाथा है।

उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि – “कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे”।

उनके द्वारा परसाई जी का साक्षात्कार मील का पत्थर है, उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में

काफी समय व्यतीत किया है, यह उनके लिए सौभाग्य की बात है.

अब हम दूसरे व्यंग्यकारों की सम्मिलित रचनाएं, और परसाई पर उनकी टिप्पणी या देखते हैं

डाॅ. आभा सिंह के लेख ” परसाई व्यंग्य के चप्पू ” में लिखती हैं, ” टूटती तो चाल भी है, चलन भी टूटता है। चाल और चलन के टूटने पर चिंतन करो तो टांग भी टूटती है। यह दर असल व्यंग्य का चक्र है”.

डाॅ. नामवर सिंह अपने लेख मे ” एक अविस्मरणीय चरित नायक” में लिखते हैं,” परसाई जी की समस्त रचनाओं में वह तेज पैनी नजर वाला एक व्यक्तित्व है, जो इस दुनिया को तार तार करके देखता है, चिकोटी काटता है, झकझोरता है, चुनौती देता है, वह उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है “

प्रेम जनमेजय: व्यंग को भी दिल बहलाव के साधन के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ।”

एम.  एम. चंद्रा: इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास सम्बंधी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है ।

राजीव कुमार शुक्ल : बुद्धिजीवी वर्ग पर बेहद निर्मम विश्लेषण के साथ परसाई जी ने लिखा है, मसलन ‘ इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर है, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते है”।

अलका अग्रवाल सिग्तिया : परसाई की कलम से आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचरण, छल,  कपट, स्वास्थ्य परता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में  आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।

गिरीश पंकज : व्यंग्य विधा है या शैली ? इस प्रश्न पर परसाई जी बोले, ‘ मैं व्यंग्य को एक शैली मानता हूं, जो हर विधा में हो सकती है।”

सुसंस्कृति परिहार : वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर-फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होगी। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी। अफसोसजनक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।”

डाॅ. महेश दत्त मिश्र : 

इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,

अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,

वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,

जो उलझाना है मौजों में, न कश्ती दे न साहिल दे ।

परसाई जी पर यह शेर बखूबी लागू होता है.

डॉ कुन्दन सिंह परिहार :  “परसाई जी का साहित्य सोद्देश्य, समाज के हित में, समाज में परिवर्तन की आकांक्षा से रचा गया। उनके मित्र स्व. मायाराम सुरजन ने उनके विषय में लिखा है,” परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी निजी जिंदगी केवल दूसरों की समस्यायों की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं।”

परसाई जी ने अपने जन्मदिन पर रचना लिखी, “इस तरह गुजरा जन्मदिन” में कुछ घटनाओं का वर्णन किया है कि जन्मदिन मनाना नहीं चाहते हुए भी उन्हें मनाना पड़ा।

इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ” रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया।  नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है।”

डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’: “परसाई ने आज से पांच साल पहले जो लिखा वह आज भी केवल प्रासंगिक नहीं बल्कि एक तरह से भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हो रहा है। उनका लिखा अक्षरशः सही साबित हो रहा है, नई दुनिया में जब  वे “सुनो भाई साधो” स्तंभ लिख रहे थे तो उन्होंने व्यवस्था पर प्रहार किए थे। यह लेख उसी दौर का है जो आज आपको सच जान पड़ेगा क्योंकि आज भी हालत ऐसे हैं। ‘ न खाऊंगा न खाने दूंगा ‘ की असलियत सामने आ गयी है।

श्री अनूप शुक्ल : इन्होंने “परसाई के व्यंग्य बाण” मे उनके व्यंग्य बाणों का संकलन दिया है, जो बहुत ही सुन्दर प्रयास है।

लीजिये एक व्यंग्य बाण – “कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। “

“हरिशंकर परसाई की कलम से” में वे लिखते हैं कि मुझे प्रशंसा के साथ साथ गालियां बहुत मिली है,

“बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘ तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मै तुम्हारे खानदान का नाश कर दूंगा। मुझे शनि सिद्ध है।”

वे आगे लिखते हैं कि, “हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य – व्यंग्य का अभाव है।”

अनूप श्रीवास्तव : आखिरी पन्ना में लिखते हैं, ” परिस्थितियों के चलते चाहे अनचाहे क ई  मोड़ पर उन्हें मन के खिलाफ जाना पड़ा। लेकिन परसाई जी तमाम दबावों के बावजूद न खुद झुके ना ही उनकी विचारधारा बदली। इसलिए उनका व्यंग्य लेखन आज भी शास्वत है। आज भी वे व्यंग्य शिखर पर शक्ति पुंज की तरह स्थापित है। “

यही उनकी जीवन भर की पूंजी है।

पदमश्री (डॉ.) ज्ञान चतुर्वेदी जी ने परसाई जी के बारे में लिखा है कि, “उनका तथाकथित तात्कालिक व्यंग्य लेखन दर असल शोषक शक्तियों और शोषित जनों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अंतर्संबंधों से बावस्ता शास्वत प्रश्नों के हल तलाशता शाश्वत लेखन है। तभी वे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि ये सारे प्रश्न भेष बदलकर आज भी हमारे सामने है।,”

इस “अटृहास” के परसाई विशेषांक में परसाई जी के व्यंग्यों का एक उत्कृष्ट संकलन है, व्यंग्यकारों की टीप्पणी यां है,जो आपको हंसने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करेगी.

अगर आप तनाव में हैं तो आपको एक सुकून देगी, आप के जीवन में कुछ पल के लिए ही सही शांति प्रदान करेगी. यह विशेषांक संग्रहण करने योग्य है, अदभुत एवं बेमिसाल है.

सभी “अट्टहास” के संपादक मंडल का प्रयास अतुलनीय है, और सोने पे सुहागा अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी का संपादन प्रशंसनीय है.

आखिरी में ” शनि की प्रतिमा को विनम्र अभिवादन”

होली की रंग- गुलाल के साथ बहुत बहुत शुभकामनाएं

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भूख… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…’।)

☆ लघुकथा – भूख… ☆

शांति, घर घर में जाकर बर्तन धो कर अपनी आजीविका चलाती थी, पिछले कई दिनों से बीमार थी, वह काम पर नहीं जा पाई थी, घर में, दाल, चावल, आटा सब खत्म हो चुका था, फाके की नौबत आ गई थी, अपने बेटे को भी कुछ नहीं बना पाई थी, बेटा कल रात से भूखा था, शाम होने को आई, घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, वह जानती थी, अभी उसका शराबी पति, आकर, पैसे मांगेगा, अब उसके पास पैसे नहीं हैं, जब भी शराब पीने के लिए पैसे नहीं देगी, तो उसका पति उसकी पिटाई करेगा, यह रोज का नियम बन गया था, उसका पति रमेश कई दिनों से बेकार था, काम पर नहीं जाता था, उधार ले लेकर शराब पीता था, और अब तो उसके सभी जानने वालों ने, उसे उधार देना बंद कर दिया था, परंतु वह सोचता था, कि, उसकी पत्नी के पास पैसे रखे होंगे, वही वह मांगता था, जब वह मना करती तो वह अपनी पत्नी को पीटता था, आज भी जैसे ही घर में घुसा उसने देखा, बच्चे ने कागज खा लिया है, उसने बच्चे की पिटाई करना शुरू कर दी, बच्चा रोता रहा, परंतु उसने कुछ नहीं बताया कि कागज क्यों खाया,

क्योंकि बच्चा जानता था, कि पिता कुछ नहीं सुनेगा, फिर मारेगा,

उसके पिता ने, अपनी पत्नी से शराब के लिए पैसे मांगे, जब शांति ने पैसे देने से मना किया, कहा नहीं हैं, तो  रमेश ने उसकी डंडे से पिटाई की,

बहुत मारा, और कहा बच्चा कागज खा रहा था, तो यह भी नहीं देख सकती, ,

और मार पीट कर बाहर चला गया,

शांति कराहती हुई उठी, बेटे को उठाया, और आंसू बहाते हुए, बेटे से बोली,

क्यों जान लेना चाहता है मेरी,

क्यों कागज खा रहा था, ,

बेटे ने कहा, मां कल से भोजन नहीं मिला, बहुत भूख लगी थी, कागज पर रोटी बनी थी, इसलिए कागज खा लिया था..

शांति कुछ नहीं बोल सकी, जड़ हो गई, आंसू भी थम गए, बेटे को गले लगाकर स्तब्ध हो गई.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळी… ☆ सौ. प्रतिभा संतोष पोरे ☆

सौ. प्रतिभा संतोष पोरे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होळी  ☆ सौ. प्रतिभा संतोष पोरे ☆

✒️

फाल्गुन पौर्णिमेसी

सण येई होळी

लाकडांसमवेत

विकारही जाळी ।१।

*

होलिका राक्षसी

घेई प्रल्हाद संगती

जीवे मारण्या त्यासी

जाळ करी भोवती ।२।

*

करी नामस्मरण

प्रल्हाद भक्तीभावे

वाचवण्यास वत्सा

नारायण वेगी धावे।३।

*

शिव उघडी त्रिनेत्र

कामदेव होई दहन

होण्या रिपूंचे हनन

होळीचे करा ज्वलन।४।

*

एरंडासी लाभे मान

शोभे मध्ये स्थान

करूनिया पूजन

पोळी करू अर्पण।५।

*

आळस, रोग ,दुःख

आसक्ती, मत्सर, द्वेष

समर्पिता ज्वाळेत

शुद्ध चित्त उरे शेष ।६।

शब्दसखी प्रतिभा

✒️

© सौ. प्रतिभा पोरे

पत्ता – ‘सोनतुकाई’, शांतीसागर कॉलनी, सांगली – भ्रमणध्वनी क्रमांक – ८७८८४५८६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ उंबरा… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ उंबरा… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

उघडता ताटी,

झालो ज्ञानेश्वर .

भेटला ईश्वर ,

आपोआप ॥

आपोआप लिहू,

मुक्तीची अक्षरे.

उघडावी दारे,

मंदिराची॥

मंदिरे शोधती,

हरवला देव.

परागंदा भाव,

सनातन ॥

सनातन आहे,

रिकामा गाभारा .

ओलांडू उंबरा,

संयमाचा॥

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 165 ☆ होळी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 165 ? 

☆ होळी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

तप्त उन्हाच्या झळा

चैत्र महिना तापला

पळस फुलून गेले

होळीचा सण आटोपला…०१

*

तप्त उन्हाच्या झळा

जीव कासावीस होतो

थंड पाणी प्यावे वाटते

उकाडा खूप जाणवतो…०२

*

तप्त उन्हाच्या झळा

शेतकरी घाम गाळतो

अंग भाजले उन्हाने

तरी राब राब राबतो…०३

*

तप्त उन्हाच्या झळा

पायाला फोड तो आला

अनवाणी फिरते माय

चारा बैलाला टाकला…०४

*

तप्त उन्हाच्या झळा

सोसाव्या लागतील

काही दिवसांनी मग

सरी पावसाच्या येतील…०५

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ विसावा… – सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ विसावा… – सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

विसावा (रसग्रहण)

विसावा या शब्दाच्या उच्चारातच निवांतपणा जाणवतो. विसावा म्हणजे विश्रांती. अर्थात विश्रांती म्हणजे समाप्ती नव्हे, अंमळ थांबणं. “आता थोडं थांबूया” हा आदेश विसावा शब्द सहजपणे देतो. अधिक विस्तृतपणे सांगायचं तर विसावा म्हणजे एक ब्रेक, एक इंटरव्हल. असाही अर्थ होतो. मात्र विसावा घेण्याची पद्धत व्यक्तीसापेक्ष आहे. कोणी निवांतपणे, डोळे मिटून राहील, कुणी एखादी वामकुक्षी घेईल, कुणी सततची कामे थांबवून एखाद्या कलेत मन रमवेल. पण ही झाली छोटी विश्रांती.  विसावा याचा आणखी पुढे जाऊन अर्थ शोधला तर विसावा म्हणजे रिटायरमेंट. निवृत्ती. आणि आयुष्याच्या उतरणीवर अथवा आयुष्याच्या अखेरच्या टप्प्यावर घ्यावासा वाटणारा  विसावा. हाही व्यक्तीसापेक्षच असतो. पण कवयित्री अरुणा मुल्हेरकर यांची विसावा ही  याच आशयाची सुरेख गझल नुकतीच वाचण्यात आली आणि त्यातले एकेक शेर किती अर्थपूर्ण आणि रसमय आहेत हे जाणवले.

☆ विसावा ☆

मिळतो मला तुझ्या रे नामात या विसावा

घेते जरा तुझ्या रे भजनात या विसावा

*

असते तुझ्या सख्या रे मी संगतीत जेव्हा

शांती मनास लाभे श्वासात या विसावा

*

भेटीत आपुल्या रे आहे अती जिव्हाळा

वृक्षा समान आहे किरणात या विसावा

*

गेले निघून गेले सोन्यापरी दिवस ते

आता तुझ्याच ठायी स्मरणात या विसावा

*

आधार घेत आहे पाहून मी रुपाला

मन शांत होत आहे प्रेमात या विसावा

*

 – अरूणा मुल्हेरकर

ही संपूर्ण गझल वाचल्यानंतर प्रकर्षाने एक जाणवते ते  कवयित्रीचं उतार वय. आयुष्य जगून झालेलं आहे, सुखदुःखाच्या पार पलीकडे मन गेलं आहे आणि आता मनात फक्त एकच आस उरलेली आहे आणि ती व्यक्त करताना मतल्या मध्ये त्या म्हणतात

मिळतो मला तुझ्या रे नामात या विसावा

घेते जरा तुझ्या रे भजनात या विसावा

कसं असतं, जीवन जगत असताना जीवनातली अनेक ध्येयं, स्वप्नं, जबाबदाऱ्या पार पाडत असताना भगवंताच्या आठवणींसाठी सुद्धा उसंत नसते. पण जसा काळ उलटतो, वय उलटते तशी आपसूकच माणसाला अध्यात्माची  गोडी वाटू लागते. ईश्वराकडे मन धावतं, म्हणूनच कवयित्री म्हणतात,

आता देवा! मला तुझ्या नामस्मरणातच खरा विसावा वाटतो. तुझ्या भजनातच माझे मन खरोखरच रमते आणि निवांत होते.

असते तुझ्या सख्या रे संगतीत जेव्हा

शांती मनास लाभे श्वासात या विसावा

मनाने,पूजाअर्चा या विधी निमित्ताने जेव्हा जेव्हा मी तुझ्या संगतीत असते तेव्हा माझ्या मनाला शांती लाभते माझ्या प्रत्येक श्वासात तुझ्या नामाच्या अस्तित्वाने मला विसावल्यासारखे वाटते

या शेरात सख्या हा शब्द थोडा विचार करायला लावतो. भगवंत  सखाच असतो. त्यामुळे सख्या हे देवासाठी केलेले संबोधन नक्कीच आवडले, परंतु या दोन ओळी वाचताना आणि सख्या या शब्दाची फोड करताना मनात ओझरतं असंही येतं की या उतार वयात न जाणो कवयित्रीला जितका ईश्वराचा सहवास शांत करतो तितकाच जोडीदाराच्या आठवणीत रमण्यातही शांतता लाभते का? सख्या हे  संबोधन त्यांनी जोडीदारासाठी योजलेले आहे का?

भेटीत आपुल्या रे आहे किती जिव्हाळा

वृक्षासमान आहे किरणात या विसावा

भेटी लागे जीवा लागलीसे आस याच भावाने कवयित्री सांगतात जसा वृक्षाच्या सावलीत विसावा मिळतो तसाच तुझ्या जिव्हाळापूर्वक स्मरण भेटीत भासणारी, जाणवणारी अदृश्य किरणे ही मला शांती देतात. या ओळी वाचताना जाणवते ती एक मनस्वी, ध्यानस्थ स्थिती. या स्थितीत संपूर्ण मन कुणा दैवी शक्तीच्या प्रभावाखाली स्थिर आहे.

गेले निघून गेले सोन्या परी दिवस ते

आता तुझ्याच ठायी स्मरणात या विसावा

आयुष्य तर सरलं. गेलेल्या आयुष्याबद्दल मी नक्कीच म्हणेन की अतिशय सुखा समाधानाचं, सुवर्णवत आयुष्य माझ्या वाटेला आले. त्याबद्दल मी तुझी आभारीच आहे पण आता मात्र माझं चित्त्त फक्त तुझ्याच ठायी एकवटू दे. तुझ्या नामस्मरणातला आनंद हाच माझा विसावा आहे.

हाही  शेर वाचताना माझ्या मनात सहज येऊन गेले की कवयित्रीला याही ठिकाणी त्यांच्या जोडीदाराचीच आठवण होत आहे. सहजीवनातले वेचलेले अनंत सोनेरी क्षण त्यांना नक्कीच सुखावतात. निघून गेलेल्या त्या दिवसांसाठी त्यांच्या मनात खरोखरच तृप्तता आहे आणि आता केवळ जोडीदाराच्या सुखद स्मृतींत त्या विसावा शोधत आहेत का?

वास्तविक कवीच्या मनापर्यंत काव्य प्रवाहातून पोहोचणं हे तसं काहीसं अवघडच असतं.  म्हणूनच ही गझल वाचताना भक्ती आणि प्रीती या दोन्ही किनाऱ्यांवर मी माझ्या अर्थ शोधणाऱ्या नावेला घेउन जात आहे.

आधार घेत आहे पाहून मी रुपाला

मन शांत होत आहे प्रेमात या विसावा

देवा! तुझे सुंदर ते ध्यान सुंदर ते रूप! तुझ्या राजस रूपाला पाहून माझे मन आपोआपच शांत होते. तुझ्या.अपार मायेतच मला ऊब जाणवते, स्थैर्य लाभते, मनोधैर्य मिळते.

याही  शेरात कुठेतरी पुन्हा लपलेला प्रेम भाव जाणवतो.

पुष्कळ वेळा काव्य वाचताना काव्यात नसलेले किंवा अदृश्य असलेले शब्दही वाचकाच्या मनाजवळ हळूच येतात. या शेरात लिखित नसलेले शब्द जे मी वाचले ते असे असावेत,

“ तू तर आता या जगात नाहीस, शरीराने आपण अंतरलो आहोत पण सख्या रात्रंदिवस मी तुझी छबी न्याहाळते कधी चर्मचचक्षुंनी तर कधी अंतर्नेत्रांतून आणि तुझे माझ्यावर किती निस्सीम प्रेम होते या भावनेतच मला अगाध शांतता प्राप्त होते.

तसंही गझल हा एक संवादात्मक काव्य प्रकार आहे.आणि गझलेत विषयाचं बंधन नसतं आणि विषय असलाच तरी एकाच  विषयावर वेगवेगळ्या भावरसातली गझलीयत असू शकते.

अशी ही श्लेषार्थी अरुणाताईंची सुंदर गझल. यात भक्तीरस आणि शृंगार रसाचीही उत्पत्ती जाणवते.

गझल म्हटलं म्हणजे ती शृंगारिकच असा समज आहे पण अनेक नवीन गझलकारांनी वेगवेगळ्या रसयुक्त गझलांची निर्मिती केलेलीच आहे. त्यामुळे भक्तीरसातली  गझलही स्वीकृत आहे. नेमका हाच अनुभव अरुणाताईंची ही गझल वाचताना मला आला.

आनंदकंद या वृत्तातील आणि, गागालगा, लगागा गागालगा लगागा अशी लगावली असलेली ही गझल काटेकोरपणे नियमबद्ध अशीच आहे.

यातील नामात भजनात श्वासात किरणात स्मरणात हे काफिया खूप लयबद्ध आहेत. मतला आणि शेर वाचताना गझलेतील खयालत विलक्षण अर्थवेधी आहे. प्रत्येक शेरातला राबता सुस्पष्ट आहे आणि रसपूर्ण आहे.

थोडक्यात विसावा एक छान आणि परिपूर्ण, अर्थपूर्ण गझल असे मी म्हणेन.

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “गाव बदलाचा ‘पाडोळी’ प्रयोग…” ☆ श्री संदीप काळे ☆

श्री संदीप काळे

? विविधा ?

☆ “गाव बदलाचा ‘पाडोळी’ प्रयोग…” ☆ श्री संदीप काळे ☆

धाराशिवमध्ये ‘फॅमिली गाईड’च्या प्रशिक्षणाचा कार्यक्रम संपवून मी आता लातूरकडे निघत होतो. तितक्यात ज्येष्ठ पत्रकार, माझे मित्र योगेंद्र दोरकर (नाना) आले. सकाळपासून मी नाना यांची वाट पाहत होतो. चहापान झाल्यावर नाना मला म्हणाले, ‘‘मी मुंबईवरून माझे मित्र शेषराव रावसाहेब टेकाळे यांनी सुरू केलेला प्रोजेक्ट बघायला आलोय. महावितरणमध्ये ते इंजिनिअर होते. आता ते सेवानिवृत्त झालेत. त्यांनी त्यांच्या गावी सुरू केलेल्या ‘मागे वळून पाहताना’ या उपक्रमाला खास भेट देण्यासाठी मी आलोय. तो उपक्रम समजून घेऊन मलाही माझ्या गावात तसा उपक्रम सुरू करायचा आहे.’’

टेकाळे यांनी सुरू केलेला तो उपक्रम नेमका काय आहे? तो कशासाठी सुरू केला? त्याचे स्वरूप नेमके काय आहे, हे सगळे मी दोरकर नाना यांच्याकडून समजून घेत होतो. खरं तर मलाही तो उपक्रम पाहण्याची उत्सुकता लागली होती. आम्ही रस्त्याने निघालो. काही वेळामध्येच लातूर-बार्शी रोडवर असलेल्या ‘पाडोळी’ या गावात आम्ही पोहोचलो.

टेकाळे आमची वाटच पाहत होते. त्या उपक्रमाच्या ठिकाणी खूप प्रसन्न वाटत होते. लहान मुलांसाठी इंग्रजी शाळा, मुलांना कुस्ती, शेतकऱ्यांसाठी प्रशिक्षण वर्ग, तरुणांची स्पर्धा परीक्षा, महिला बचत गटाचे प्रशिक्षण हे सारे काही तिथे सुरू होते. समोर भारत मातेचे मंदिर होते. टेकाळे म्हणाले, ‘‘चला अगोदर भारत मातेचे पूजन करू या. मग तुम्हाला मी सर्व प्रोजेक्ट दाखवतो.’’

दर्शन घेऊन आम्ही तो सारा प्रोजेक्ट पाहत होतो. ती कल्पना जबरदस्त होती, तिथे होणारी सेवा अगदी निःस्वार्थपणे होती. ते पाहताना वाटत होते, आपण हे सर्व आपल्या गावी करावे. लहान मुले, महिला, तरुण, शेतकरी, वृद्ध माणसांसाठी एकाच ठिकाणी सर्वकाही शिकण्यासाठी, मनोरंजनासाठी, माहितीसाठी, नवीन स्वप्न पाहण्यासाठी जे जे लागणार होते, ते ते सर्व काही तेथे होते.

ही संकल्पना, हा उपक्रम नेमका काय आहे. हे सारे आम्ही टेकाळे यांच्याकडून समजून घेतले. जे गावाशी संबंधित आहेत, ज्यांनी गाव सोडून बाहेर आपल्या मेहनतीमधून साम्राज्य उभे केले, त्या, गावाशी नाळ जोडलेली असणाऱ्या प्रत्येकाला कुठे ना कुठे वाटत असते की आपण आता खूप मोठे झालो. आता आपण आपल्या गावासाठी, आपल्या माणसांसाठी, आपल्या मातीसाठी काहीतरी केले पाहिजे. त्या प्रत्येकासाठी हा प्रोजेक्ट म्हणजे एक उतम उदाहरण होते. तो प्रोजेक्ट पाहण्यासाठी दोरकर नाना यांच्यासारखे अनेक जण आले होते.

आम्ही प्रोजेक्ट पाहत होतो. तितक्यात आमची भेट विजय पाठक यांच्याशी झाली. पाठक रत्नागिरी जिल्ह्यातील होते. पाठक डीवायएसपी म्हणून नुकतेच सेवानिवृत्त झाले होते. त्यांना त्यांच्या गावासाठी काहीतरी करायचे होते. यासाठी त्यांनी टेकाळे बंधू यांच्या पाडोळी येथील ‘मागे वळून पहा’ या उपक्रमास भेट दिली. भेटीमध्ये पाठक म्हणाले, ‘‘माझ्या वडिलांनी आयुष्यभर गावाची पूजेच्या माध्यमातून सेवा केली. त्यांचीही इच्छा होती, गावासाठी काहीतरी करावे. आता हा उपक्रम मी माझ्या गावात सुरू करणार आहे.’’

मी ‘व्हिजिटर बुक’ पाहत होतो. तिथे रोज हा उपक्रम पाहण्यासाठी येणाऱ्यांची संख्या मोठ्या प्रमाणावर होती. मी, दोरकर नाना, टेकाळे, त्यांचे भाऊ अशी आमची गप्पांची मैफल रंगली. ज्याला आपल्या माणसांविषयी, मातीविषयी आत्मियता असते. तेच या स्वरूपाचा उपक्रम राबवू शकतात हे दिसत होते.

पाडोळी जेमतेम दोन-अडीच हजार लोकसंख्या असलेले गाव. पाडोळीच्या आसपास अशीच छोटी-छोटी बारा-पंधरा गावे असतील. पाडोळी, पिंपरीसह ही सर्व गावे या प्रोजेक्टचा भाग होती. राज्यातल्या कानाकोपऱ्यामधून या उपक्रमाला आपलेसे करणाऱ्यांची संख्याही खूप होती.

वेगवेगळ्या क्षेत्रांत प्रचंड प्रगती करणाऱ्या पाच भावांनी ठरवले, आपण आपल्या गावासाठी चिरंतन टिकणारे काहीतरी करायचे‌ त्यांनी मनाशी हा चंग बांधला होता. जनक टेकाळे हे जिल्हा क्रीडा अधिकारी म्हणून काम करायचे. तरुणाईला नेमके काय द्यायचे म्हणजे ते बुद्धीने मोठे होतील हे ठरवून त्याप्रमाणे त्यांनी काम सुरू केले.

सूर्यकांत टेकाळे, रमाकांत टेकाळे, जनक टेकाळे, शेषराव टेकाळे, शशिकांत टेकाळे हे पाच भाऊ, या पाच भावांमध्ये जनक आणि शेषराव हे दोघेजण शासकीय नोकरीच्या निमित्ताने बाहेर असायचे. या दोघांनी त्यांच्या क्षेत्रामध्ये खूप मोठे नाव कमावले. आई-वडिलांना अपेक्षित असणाऱ्या कुटुंबासाठीचे कर्तव्यही पार पाडले.

आपल्या गावासह पंचक्रोशीत असणाऱ्या सर्व गावांसाठी आपण पाठीराखा बनून काम करायचे या भावनेतून त्यांनी ‘किसान प्रतिष्ठान’ची स्थापना केली. ‘किसान प्रतिष्ठान’च्या माध्यमातून त्यांनी शहर आणि गावामधली पूर्णतः दरी कमी करायचे काम केले. कोणाची मदत न घेता पदरमोड करून या कामामधून हजारो शेतकरी आधुनिक शेतीकडे वळवले. युवक गावातून शहराकडे जाण्यासाठी स्वप्न पाहू लागले. सरकारी मानसिकतेमध्ये अडकलेली अनेक कामे तातडीने मार्गी लागू लागली.

या प्रोजेक्टच्या कामाची १९९७ ला सुरुवात झाली. पिंपरीला टेकाळे बंधूंच्या आई केवळाबाईंच्या नावाने जमीन होती. ती जमीन या उपक्रमासाठी कामाला आली. तिथे भारत मातेचे मंदिर उभारले गेले. ज्या भारत मातेसमोर प्रत्येक जाती धर्मातला माणूस येऊन हात जोडत नतमस्तक व्हायचा. तिथे सावित्रीबाई फुले यांच्या नावाने वाचनालय सुरू झाले. आज त्या वाचनालयात चार हजार पुस्तके आहेत.

लोकांसाठी काहीतरी करायचे एवढ्यापुरते आता हे काम मर्यादित राहिलेले नव्हते, तर बेसिक लागणाऱ्या इंग्रजी मीडियमच्या शाळेपासून ते यूपीएससीच्या शिकवणीपर्यंतचा सगळा मेळ एकाच ठिकाणी बसवला गेला. ‘एव्हरेस्ट’ इंग्रजी स्कूलमध्ये शिकणारा प्रत्येक मुलगा इंग्रजी भाषेची कास धरू लागला. ध्यानगृह, शिशुगृह, घोड्यावर बसण्यापासून ते गाडी चालवण्यापर्यंत सगळे विषय एकाच ठिकाणी शिकवणे सुरू होते.

स्वच्छता अभियानामध्ये पाडोळी गाव पहिले आले. असे अनेक सुखद धक्के या उपक्रमामध्ये सहभागी झालेल्या अनेक गावांना मिळू लागले. पाहता पाहता पंचक्रोशीत, जिल्हा आणि राज्याच्या कानाकोपऱ्यामध्ये या उपक्रमाची माहिती पोहोचली. लोक पाहायला येऊ लागले. ‘मी माझ्या गावासाठी मागे वळून पाहिले पाहिजे’ मी माझ्या गावातल्या लोकांसाठी काहीतरी केले पाहिजे, ही मनामध्ये असलेली छोटीशी इच्छा हा प्रयोग जाऊन पाहिल्यावर विशाल रूप धारण करू लागते.

आम्ही प्रोजेक्टवर सगळीकडे फेरफटका मारत होतो. टेकाळे यांच्या आई केवळाबाई वय वर्षे ९२. त्यांच्या मुलाविषयी, तिथे झालेल्या कामाविषयी अभिमानाने सांगत होत्या. “गावकुसात असणाऱ्या बाईच्या आयुष्यात चूल आणि मूल या पलीकडे काहीही नसते. पण माझ्या मुलांनी दाखवून दिले, गावातली मुलगी, महिला जगाच्या कुठल्याही कानाकोपऱ्यात जाऊन तिचे कौशल्य दाखवू शकते. अभ्यासामध्ये हुशार असलेली मुलगी परदेशात जाऊन करिअर करू शकते. ज्या महिलेला घरच्या घरी चटणी बनवता येते ती जगातल्या बाजारपेठेत तिची चटणी विकू शकते. हे सगळे पाहायला पोराचा बाप पाहिजे होता, तो बिचारा खूप लवकर गेला,” असे म्हणत टेकाळे यांच्या आई चष्मा काढून अश्रूने भरलेले डोळे पुसत होत्या.

जनक आणि शेषराव या दोन भावांनी मिळून या कामाला प्रचंड गती दिली होती. हे दोघे जण शासकीय अधिकारी होते. आता सेवानिवृत्तीनंतर या दोघांनाही प्रचंड वेळ मिळतो, ज्या वेळेमध्ये त्यांनी तिथल्या कामाला अधिक गती दिली आहे.

जनक मला सांगत होते, प्रत्येकाला सतत वाटत असते, आपण आपल्या गावासाठी काहीतरी केले पाहिजे. सुरुवात काय करायची आणि सुरुवात केल्यानंतर त्याला गती कशी द्यायची, हा विषय होताच होता. आम्ही सुरुवातही केली आणि त्याला गतीही मिळवून प्रशिक्षणाच्या माध्यमातून शेकडो शेतकरी आणि उद्योगाच्या प्रशिक्षणातून जेव्हा शेकडो युवक कामाला लागले. तेव्हा कळले की आपले काम किती मोठे झाले.

शेषराव टेकाळे (9594935546)  म्हणाले, ‘‘आमच्या वडिलांना सामाजिक आस्था जबरदस्त होती. लोकसेवा करायची तर त्याचा इतिहास झाला पाहिजे, हे ते सातत्याने सांगायचे. त्यातून मग आम्हाला प्रेरणा मिळाली.’’

मी, दोरकर नाना, टेकाळे बंधू, त्यांची आई, आम्ही सगळेजण गप्पा मारत बसलो होतो. तिथल्या अनेक उपक्रमांमध्ये सहभागी झालेल्या मुलांशी, महिलांशी, माणसांशी आम्ही बोलत होतो, ती माणसे त्या प्रोजेक्टच्या माध्यमातून खूप समृद्ध झाल्याचे जाणवत होते. बचत गटाच्या महिलांनी तयार केलेल्या स्वयंपाकाचा मेनू आमच्यासमोर आला. जेवण झाले. आम्ही सर्वांचाच निरोप घेऊन निघालो. आईने माझ्या गालावर हात फिरवून कडकड बोट मोडले. “पुन्हा लवकर या भेटायला”, असा आग्रहही धरला.

आम्ही रस्त्याला लागलो. मी, दोरकर नाना गाडीमध्ये चर्चा करत होतो. जिथे आत्मियता आणि निःस्वार्थीपणा असतो तिथल्या कामाला चार चांद लागतात. असेच काम टेकाळे बंधूंनी त्यांच्या गावामध्ये उभे केले होते. केवळ पाडोळी, पिंपरी ही दोन गावे नाही तर शेकडो गावं या कामाचा आदर्श घेऊन कामाला लागले होते. जे हात गावातल्या मातीमध्ये मिसळून सुगंधित झाले, त्यांनी शहरांमध्ये त्या सुगंधातून कीर्ती मिळवली. अशा प्रत्येक हातालाही गावाच्या मातीची ओढ अजून निश्चितपणे आहे. आता खूप झाले, आपण ते मागे वळून पाहू. चांगले काम करण्यासाठी पुढाकार घेऊ.

तुम्हालाही तुमच्या गावाची ओढ निश्चित असेल. तुम्हालाही वाटत असेल, आपण आपल्या गावासाठी ‘मागे वळून पाहिले पाहिजे’, पण सुरुवात कशी करायची हे पाहायला एकदा तुम्हाला पाडोळीला नक्की जावे लागेल. बरोबर ना…!

© श्री संदीप काळे

९८९००९८८६८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोष ना कुणाचा… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ दोष ना कुणाचा… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(असा विचार करताना कॉलेजमधल्या आवारात पिवळ्या गुलाबावर कळी फुलली होती. कोणी पाहत नाही हे पाहून हळूच ती खुंटली आणि पर्समध्ये टाकली.) – इथून पुढे — 

मुन्नीच्या घरी गेलो. तर मुन्नीची आई आणि भाऊ खुर्चीवर बसून कॉफी पित होते. मुन्नीच्या भावाकडे मी पाहत राहिले. अनोळखी तरुण मुलाकडे सतत पाहू नये हे माहीत असूनही त्याच्यावरुन नजर बाजूला करु नये असे वाटत होते. विलक्षण आकर्षण होते त्याच्यात. सरळ नाक, गोरा रंग, चेहर्‍यावर हुशारीची लकाकी आणि हसतमुख. मी पर्स उघडून गुलाबकळी बाहेर काढली आणि हळूच त्याच्या समोर धरली. त्याने माझ्याकडे पाहून स्मित केले आणि गुलाबकळी घेण्यासाठी हात पुढे केला. माझ्या बोटांना त्याच्या बोटांचा ओझरता स्पर्श झाला. त्याच्या बोटांचा स्पर्श होताच, सार शरीर थरारलं. पुरुषांचा स्पर्श घरीदारी होतच असतो. पण शरीरात अशी स्पंदने झाल्याचे कधी जाणवले नाही. मुन्नीच्या दादात काहीतरी विलक्षण जादू होती खरी. 

आणि मग मी या घरी कधी मुन्नीसोबत कधी एकटी जातच राहिली. मुन्नीचा दादा नेहमी कॉलेजात किंवा घरी असेल तेव्हा त्याच्या खोलीत बंद दाराआड अभ्यास करत असायचा. मला आता पक्के माहीत झाले होते, त्याच्या खोलीचा दरवाजा आतून बंद असेल तर तो घरी आहे, आणि त्याच्या खोलीचा दरवाजा उघडा असेल तर समाजव तो घरी नाही. मुन्नी खूपच लाडात वाढलेली. त्यामुळे तिचा घरात आरडाओरड चालायचा. मग मी तिला दटवायचे. दादाचा अभ्यास सुरु आहे ना, आवाज कमी कर. मुन्नीची आई गालातल्या गालात हसायची. 

मुन्नीच्या घरचा वातावरण मला आवडायचं. सर्वजण प्रेमळ आणि एकमेकांची थ्ाट्टा मस्करी करत रहायचे. मुन्नीचे बाबा फक्त रविवारी घरी असायचे. पण घरी असले की, दोन्ही मुलांसमवेत गप्पा, आपल्या धंद्यातल्या गोष्टी, मुलांचा अभ्यास, नातेवाईकांकडे जाणे असा मस्त कार्यक्रम असायचा. मुन्नीची आई म्हणजे मुन्नीची मैत्रीणच. मुन्नी आणि मुन्नीचा दादा आपल्या आईला कॉलेजमधील मित्र-मैत्रिणींच्या गंमतीजमती सांगायचे आणि एकदम मोकळं वातावरण ठेवायचे. उलट आमच्या घरी हिटलरशाही. बाबा रागीट आणि हेकेखोर. त्यांच्यापुढे कुणाचे काही चालायचे नाही. आमची आर्थिक स्थिती यथातथाच. बाबा एका केमिकल कंपनीत केमिस्ट म्हणून नोकरी करीत होते. ते एकटेच मिळवणारे आणि आम्ही चारजण खाणारे. माझी आईमात्र कमालीची सोशिक. संसार काटकसरीने करणारी. तिचे सर्वगुण माझ्यात आहेत असे सर्वांचे म्हणणे. पण बाबांसमोर बोलायला मला भीती वाटते. त्यांनी एकदा निर्णय घेतला म्हणजे घेतलाच. आई बिचारी भांडण नको म्हणून पडतं घ्यायची. आमच्या घरच्या या कोंदट वातावरणामुळे मी मुन्नीच्या घरी वारंवार जायला लागले आणि कळायच्या आधी मुन्नीच्या दादाच्या प्रेमात पडले. मुन्नीचा दादा इंजिनिअर झाला आणि बेंगलोरला निघाला पण. माझे काळीज कासावीस झाले. आता तो नेहमी नेहमी दिसणार नाही हे समजत होते. पण मला वाटत होते. तो मला आपल्या प्रेमाबद्दल बोलेल. अगदी ट्रेन सुटेपर्यंत मला आशा वाटत होती. त्याच्या डोळ्यात माझे प्रेम दिसत होते. मग ओठांवर का येत नव्हते? 

मुन्नीचा दादा बेंगलोरला गेला आणि काही महिन्यात मुन्नी पुण्याला गेली. मी मुन्नीच्या घरी जातच राहिले. मुन्नीच्या दादाची खबरबात घेत राहिले. मला वाटायचे. मुन्नीची आईतरी मला विचारेल? ती पण गप्प होती. मी मुलगी, आपल्या संस्कृतीत मुली असे उघड उघड प्रेम दाखवतात का? केव्हा केव्हा वाटत असे, मी नोकरी करणारी नाही म्हणून मुन्नीचा दादा माझा विचार करत नाही की काय? हल्ली सर्वांना नोकरीवाली बायको हवी असते. मुन्नीचा दादा आपले प्रेम व्यक्त करील यासाठी जीव आसूसला होता. तीन महिन्यांपूर्वी मुन्नीची आई म्हणाली, अगं वल्लभ कंपनीत असिस्टंट मॅनेजर झाला. आता एक्सटर्नल एम.बी.ए. करतोय. तेव्हा मात्र मी मनात घाबरले. हा असाच शिकत राहणार असेल तर माझे काय?

आमच्या घरी गेली दोन वर्षे माझ्या लग्नाचा विचार सुरु होता. मी गप्पच होते. पण गेल्या आठवड्यात पुण्याच्या मावशीने तिच्या पुतण्याचे म्हणजेच विनोदचे स्थळ आणले. आणि सर्वजण हुरळून गेली. आईवडिलांचे म्हणणे सोन्यासारखा मुलगा आहे. असा नवरा मिळणे म्हणजे मिताचे भाग्य. माझ्या इतर मावश्या, मामा यांचे हेच म्हणणे. मी विनोदला कोणत्या तोंडाने नाही म्हणणार होते. वल्लभ कडून निश्चित काही कळत नव्हते, किंवा वल्लभची आई ठोस काही बोलत नव्हती. माझ ‘मौनम्’ हिच सम्मती समजून आईबाबा तयारीला लागले सुध्दा. मी मुन्नीला फोन करुन माझे लग्न ठरतयं हे कळविले. म्हटलं वल्लभकडून किंवा वल्लभच्या आईवडिलांकडून काही हालचाल होते का हे पहावे. दोन दिवस वाट पाहून काल शेवटी वल्लभच्या घरी गेली. आईना सर्वकसे गडबडीत ठरते हे सांगत होते. आता लग्न करुन पुढील आठवड्यात ऑस्ट्रेलियाला जावे लागणार हे सांगताना डोळ्यातून पाणी वाहू लागले. एवढ्यात खोलीचा दरवाजा उघडून वल्लभ बाहेर आला. एक क्षणभर त्याची आणि माझी नजरानजर झाली. रात्रभर झोप न झाल्याने ताठरलेल्या डोळ्यांनी त्याने माझ्याकडे पाहिले. माझ्याकडे दुर्लक्ष करुन आईना बँकेत जाऊन येतो असे म्हणून तो निघाला. आईने त्याला हाक मारुन, मिता लग्नाचे सांगायला आली रे वल्लभ असे म्हणाली. आणि बाहेर पडणारा वल्लभ मागे आला. आणि ‘‘अभिनंदन’’ असे म्हणून धाड्कन दरवाजा लावून बाहेर पडला. 

– आई –

काल मिता आणि विनोद यांचे लग्न झाले. मुन्नी मैत्रिणीच्या लग्नासाठी मुद्दाम पुण्याहून आली. मी मुन्नीच्या बाबांना एक दिवस घरी थांबायला सांगितले. आणि आम्ही तिघेही लग्नाला गेलो. मुन्नी कार्यालयात गेली ती मिताच्या खोलीत तिची लग्नाची तयारी करायला. लग्नात मिताच्या शेजारी विनोदला पाहताना खूप त्रास होत होता. मुन्नीचे बाबापण गप्प गप्प होते. लग्नाच्या मंगलाष्टका सुरु झाल्या आणि मला वाटले या आनंदाप्रसंगी मला आता हुंदका येणार. कसे बसे रडू आवरले. मिता विनोदला भेटायला स्टेजवर गेलो. मला पाहताच मिता गळ्यात पडली. तिच्या डोळ्यातील दोन अश्रू माझ्या खांद्यावर पडले. आम्ही तिला अहेर केला आणि निघालोच. बाहेर पडून गाडी स्टार्ट करता करता हे म्हणाले, मला वाटलं होतं, वल्लभचं मिताशी लग्न होईल. हे असे कसे झाले ? मी म्हटले, वल्लभच्या मनात मिता होतीच. पण तो करियरच्या मागे लागला. मिताला तो गृहित धरुन बसला. आता दुखावलाय. मिताने तरी किती वाट पाहायची. प्रेमात पुरुषाने पुढाकार घ्यायला नको? तो तुमच्यावर गेलाय. मन मोकळ करावं माणसाने. नुसतं शिक्षण, शिक्षण… मिता किती दिवस वाट पाहिल याची?

मुन्नीचे बाबा शांतपणे गाडी चालवत होते, घरी येईपर्यंत कोण कोणाशी बोलले नाही. घरी आल्यावर कपडे बदलले. आणि बेडवर शांतपणे डोळे मिटून पडले. पहिल्यांदा मुन्नीसोबत आलेली १५-१६ वर्षाची मिता ते आज लग्नात शालू घातलेली मिता, मिताची अनेक रुपे डोळ्यासमोर आली. फार काहीतरी गमावलयं अशी हुरहूर मनाला लागून गेली. यात माझे काही चुकले का? या दोन तरुण मुलांची मने ओळखून मी पुढाकार घ्यायला हवा होता का? का नाही मी वल्लभला मिताबद्दल विचारले आणि मिताला वल्लभबद्दल? आता पुढे वल्लभ काय करील? विसरेल का तो मिताला आणि मिता वल्लभला ?

होय, वल्लभ आणि मिताप्रमाणे माझेपण चुकलेच. आता ही हुरहूर आयुष्यभर मन पोखरणार. त्रिकोणाच्या दोन बाजू तयार होत्या तिसरी बाजू त्याला जोडण्याची गरज होती. 

मी कुस बदलली आणि उशीत डोकं खूपसून रडू लागले.

— समाप्त —

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆– तेजस्वी पित्याचे ते वात्सल्याचे हात..! – ☆ सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ – तेजस्वी पित्याचे ते वात्सल्याचे हात..! – ☆ सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

(सोनेरी संक्रांत)

(आमचे दातार बाबा आता 94 व्या वर्षात पदार्पण करीत आहेत त्यानिमित्त त्यांना अनंत शुभेच्छा…)

१४ जानेवारीची संध्याकाळ. मी आणि सुनील नुकतीच मैत्री झालेल्या आमच्या एका मैत्रिणीच्या वाढदिवसानिमित्त  शुभेच्छा द्यायला स्कूटरवरून, अंधेरीला चाललो होतो. त्यादिवशी मुंबईत प्रथमच इतकं झोंबरं गार वारं वाहत असेल. गार गार वारं खात, शिवाजी पार्कहून अंधेरीला पोहोचेस्तोवर आमचाच बर्फ होऊन गेला होता! 

माझी मैत्रीण अनिताने (वाकलकर) अत्यंत प्रेमानं आमचं स्वागत केलं आणि आम्हाला घराच्या गच्चीत नेलं. तिथं ए.सी.पी. श्री.व सौ.लोखंडे, जयकर काका, अनेक कार्यक्रमांचे आयोजक, अनिताचे आईवडील, बहीण अशी काही मंडळी जमली होती. गप्पाटप्पा झाल्यावर लोखंडेंनी बेंजो वाजवून आणि काही इंग्लिश गाणी गाऊन पार्टीत साजेल अशी धमाल आणली! जयकर काकाही नेहमीप्रमाणे या आनंदात सामील झाले होते. आता माझीही गाण्याची वेळ  येणार, हे मी जाणून होते.

काळा फ्रिलवाला फ्रॉक घातल्याने आधीच पाय गारठून गेले होते. त्यात गावं लागणार, या विचाराने आणखी थंडी वाढत गेली. मित्रमंडळींची धमाल संपल्यावर, मला सर्वांनी गायला सांगितलं. अगदी घरगुती समारंभ असल्याने, मीही लगेच मानेनं होकार दिला. जयकर काकांनी फर्माईश केलेलं ‘मैं मंगल दीप जलाऊँ’ हे भजन मी गायलं. थंडीमुळे हरकतीही सरास्सर येत होत्या! गाणं नेहमीप्रमाणे झालं.

तिथं जमलेल्या मंडळींपैकी, साठीच्या आसपासचे एक सदृहस्थ मला येऊन भेटले. “अहो, तुम्ही गाणं छान म्हटलंत, पण याची कॅसेट मिळू शकेल काय? मी आत्ताच त्याचे पैसे देतो.” मला मनातून खूप हसू आलं, पण चेहऱ्यावर मी दाखवलं नाही. मराठी माणूस आणि ताबडतोब पैसे देऊन कॅसेट घ्यायची स्पष्ट तयारी? मी मनात म्हटलं, ‘असेल बुवा…. !’ आणि त्यांना सांगितलं, “माझी ‘मंगलदीप’ नावाची कॅसेट मी तुम्हाला देऊ शकते. ते म्हणाले, “उद्या सकाळी मी माझ्या माणसाला पाठवतो.”

त्याप्रमाणे दुसऱ्या दिवशी त्यांचा ड्रायव्हर दोन्ही हातात लालकंच, टचटचीत  स्ट्रॉबेरीची दोन प्युनेट्स घेऊन आला. “आमच्या दातार साहेबांच्या शेतावरची हायेत.” तो म्हणाला. “दातार साहेबांनी कॅसेट मागितली व त्याचे हे शंभर रुपये!”  मी त्यांना कॅसेट दिली व पैसे नकोत म्हणून खुणेनंच सांगितलं. मला खूपच गंमत वाटली. कितीतरी वेळ  मी त्या स्ट्रॉबेरीकडे पाहात होते आणि मनातल्या मनात हसत होते. मला स्ट्रॉबेरी आवडते म्हणून नाही –  तर कॅसेट दिली म्हणून स्ट्रॉबेरी दिली त्यांनी? असो. पण छान झालं म्हणून मी तो विषय तिथंच सोडला. 

३१ जानेवारी १९९४. माझ्या स्वतंत्र कार्यक्रमाला ‘मंगलदीप’ नावाने अधिष्ठान लाभलं आणि तो दिवस दोन्ही अर्थांनी माझ्या आयुष्याला सुरेल वळण देणारा, सुंदर कलाटणी देणारा ठरला. हा ‘तेजाचा मंगलदीप’ माझ्या आयुष्याला उजाळा देणाराही ठरला. ती माझ्या आयुष्यातली ‘सोनेरी संक्रांत’ होती!

तो कार्यक्रम गोरेगांवच्या अभिनव कला केंद्रातर्फे त्यांच्या शाळेच्या हॉलमध्ये होता. हॉल गच्च भरला होता. राजेश दाभोळकरांची सिस्टिम असल्याने माइक टेस्टिंग करतानाच आज कार्यक्रम सुंदर होणार, रंगणार, हे माझ्या लक्षात आलं. ‘मैं मंगलदीप जलाऊँ, ‘केव्हा तरी पहाटे’, ‘काय सांगू शेजीबाई’, ‘लव लव करी पातं’, अशी अनेक गाणी झाली. दातारसाहेब, अनिताच्या वडिलांबरोबर माझ्यासाठी फुलांचा सुंदर गुच्छ घेऊन आले होते. जयकर काकांनीही छान गुच्छ आणला होता. मला आपल्या ओळखीच्या लोकांनी कौतुक केलेलं पाहून खूप बरं वाटलं. कार्यक्रम खूपच रंगला, तसा दुसर्‍या दिवशी सर्वांचा फोनही आला.  आणि आश्चर्य म्हणजे, मला न सांगता, गुपचूप दातार साहेबांनी या कार्यक्रमाची ऑडिओ कॅसेट मोठ्या हिकमती करून मिळवली! हे त्यांनी आमच्या पुढच्याच भेटीत प्रांजळपणे सांगितलंही! 

असे हे नाशिकचे संपूर्ण दातार कुटुंबीय माझ्या गाण्यांचे चाहते! दातार साहेबांची  पत्नी निर्मला, ही माझ्या ‘निवडुंग’ चित्रपटातील ‘केव्हातरी पहाटे’ आणि ‘लवलव करी पातं’ या गाण्यांच्या  जबरदस्त प्रेमात! ‘ही छोटी पद्मजा संगीताच्या क्षेत्रात आणखी पुढे कशी जाईल? त्यासाठी आपल्याला काय करता येईल?’ असा विचार नेहमी निर्मलाकाकूंच्या  मनात असे. 

३१ जानेवारी १९९४ च्या रात्री  उशीरा नाशिकला घरी पोहोचल्यानंतर, दातार साहेबांचा  मुलगा राजन, सून शोभना, आणि नात स्नेहा यांना ती कॅसेट त्यांनी ऐकवली. त्यावर तत्काल या सर्वांच्या प्रतिक्रिया मला देण्यासाठी दुसऱ्या दिवशी फोन केला आणि म्हणाले, “स्नेहा केवळ दहा वर्षांची आहे. तुम्ही सादर केलेल्या ‘मैं मंगलदीप जलाऊँ’ या पहिल्याच गाण्यामध्ये ‘तू प्रेम का सागर बन जा, मैं लहर लहर खो जाऊँ’ या ओळी स्नेहाने ऐकल्या. ते सूर तिच्यापर्यंत पोहोचले आणि त्यात ती हरवून गेली. एका दहा वर्षांच्या मुलीला खिळवून ठेवणारी सुरांमधली ती ताकद बघून, आम्हां सर्व कुटुंबियांचा तुमची काही गाणी रेकॉर्ड करण्याचा निर्णय त्याक्षणी पक्का झाला.”  

दातार परिवाराच्या  या स्नेह आणि आशीर्वादातून ‘ही शुभ्र फुलांची ज्वाला’, ‘रंग बावरा श्रावण’, ‘घर नाचले नाचले’, ‘गीत नया गाता हूँ’, या ध्वनीफितींचा, तसंच अनेक उर्दू गझला, अभंग, गीते  यांचा जन्म झाला. ही फेणाणी-जोगळेकर आणि संपूर्ण दातार परिवारासाठीही  परम आनंदाची गोष्ट आहे! या सगळ्या ध्वनीफितींच्या रेकॉर्डिंग दरम्यान आम्हां दोन्ही कुटुंबियांच्या गाठी भेटी वाढल्या, आणि हे दातारसाहेब आमच्या संपूर्ण कुटुंबियांचे ‘दातारबाबा’ कधी झाले, ते कळलंच नाही! 

अशा ह्या तीर्थरूप दातारबाबांनी मला वैयक्तिक, सांस्कृतिक, सांगितिकदृष्ट्या सर्वार्थाने घडवलं, त्यांच्या ७५व्या वाढदिवसानिमित्त मी काय गाऊ, काय बोलू, असा प्रश्न मनात असतानाच, नाशिकचं आणि साहित्यातलं आपलं सगळ्याचं दैवत म्हणजे आदरणीय कुसुमाग्रज, अगदी श्रीकृष्णासारखे माझ्या मदतीला स्वप्नात धावून आले आणि कानात कुजबुजले, ‘पद्मजा, ज्यांच्यासाठी संगीत, साहित्य, कला, हाच परमोच्च आनंद आहे, परमेश्वर आहे आणि जीवनाचं हेच वैभव आहे, त्या आपल्या बाबांना तू एकच सांग…’

‘तुझेच अवघे जीवित वैभव काय तुला देऊ?

काय तुला वाहू मी काय तुला वाहू?…’

आज मला आठवते, ती १४ जानेवारी १९९४ची माझी आणि सुनीलची, बाबांशी झालेली पहिली भेट! मकरसंक्रांतीचा दिवस! त्यादिवशी एकदाच त्यांना, “तिळगूळ घ्या आणि गोड बोला” म्हणायची संधी मिळाली. कारण त्यानंतर त्यांच्यासारख्या स्पष्टवक्त्या माणसाला, गोड बोला म्हणणं, फार कठीण होतं! कधी कधी संगीतावरून, कवितेवरून आणि अनेक गोष्टींवरून आम्ही कैकवेळा अगदी कचाकचा भांडलो. अगदी जन्माचे वैरी असल्यासारखे! पाहणाऱ्याला वाटेल की झालं, आता सारं संपलं! पण त्यानंतर फक्त १० मिनिटांतच बाबांचा फोन येतो, “अगं, पद्मजा, आज वृत्तपत्रात वाचलेल्या एका लेखात, पत्रकार टेंबे काकांच्या लेखात इंदिरा संतांच्या कित्ती सुंदर ओळी आल्यात पहा…. अगदी चित्ररूप आहेत !”

*“दारा बांधता तोरण, घर नाचले नाचले,

आज येणार अंगणी सोनचाफ्याची पाऊले”*

खरोखरीच अस्साच सोनचाफ्याचा सुगंध घेऊन बाबा आमच्या आयुष्यात आले.आणि  इंदिराबाईंच्या शब्दांप्रमाणे…

“येऊ देत माझ्या घरी किरणांचे झोत ..  तेजस्वी पित्याचे ते वात्सल्याचे हात”….

असे वात्सल्याचे हात अगदी थेट, कधी आईच्या तर कधी वडिलांच्या मायेने आम्हां सर्वांच्या पाठीवरून कौतुकाने फिरले.

जगावं कसं? वागावं कसं? शब्दोच्चार स्पष्ट कसे म्हणावेत? कागदावरील शब्द ‘जिवंत’ करून ‘अर्थपूर्णरित्या’ कागदातून बाहेर कसे काढावेत, याचं भान मला बाबांनीच दिलं. सुरुवातीला वाटायचं दगड, माती, सिमेंट, धोंडे यात बुडालेला बिल्डर मला काय सांगणार? मी हट्टी! कलावंत ना! माझा हेका मी सोडत नव्हते, परंतु हळूहळू लक्षात आलं, या नाशिकच्या मातीत, काश्मीरसारखं जसं प्रत्यक्ष केशर फुलवून त्यांनी यश खेचून आणलं, तसंच माझ्या गाण्यातही, ही जाण वाढवून केशराचा सुगंध पेरला!

‘ही शुभ्र फुलांची ज्वाला’ रेकॉर्ड करत असताना, कवितेचा प्रत्येक शब्द न् शब्द स्पष्ट नि भावपूर्ण आला पाहिजे, याकडे त्यांचा आवर्जून कटाक्ष असे. सर्वस्व तुजला वाहुनी’ या गझलेतील ‘हुंदका’ हा शब्द, मला हुंदका फुटेस्तोवर माझ्याकडून गावून घेतला.  ही गझल जेव्हा कुसुमाग्रजांनी माझ्याकडून पहिल्यांदा ऐकली, तेव्हा विंदांच्या शब्दांच्या ताकदीमुळे तात्यांचे (कुसुमाग्रजांचे) पाणावलेले, तरीही तृप्त डोळे मला आजही आठवतात.

कोणतीही कविता गाण्यापूर्वी, बाबा त्या कवितेतील प्रत्येक शब्दाच्या अर्थाचा, उच्चारांचा   माझ्याकडून अभ्यास करवून घेत. ‘गीत नया गाता हूँ’ या माजी पंतप्रधान अटलजींच्या कविता ऐकून दुसरे माजी पंतप्रधान विश्वनाथ प्रताप सिंग यांनी, त्यांच्या कविता स्वरबद्ध करायला दिल्या. यातील काही कविता तीन ओळींच्या तर काही साडेसात ओळींच्या……  त्या भावपूर्ण होतील, अशा पद्धतीने बाबांनी मला जोडून दिल्या. इंडस्ट्रीतील सर्वोत्तम सर्व कलाकार, उत्कृष्ट रेकॉर्डिंग स्टुडिओत रेकॉर्ड करून तासन्‌तास बाबा त्यात रस घेऊन संगीताचा, रेकॉर्डिंगचा अभ्यास करायचे, तेही न थकता अत्यंत उत्साहाने! संगीत हे त्यांच्यासाठी कायम ‘S’ Vitamin चं ठरलं. 

माझा मुलगा आदित्यशी, त्याच्याच वयाचा होऊन क्रिकेट खेळणारे, त्याला आईच्या तक्रारी बिनदिक्कत सांगायला हक्काचं स्थान असलेले आजोबा दातारबाबा! सुनीलला, माझा भाऊ विनायकला, महत्त्वाच्या प्रसंगी योग्य मार्गदर्शन करणारे, उषाताईला, अटलजींचे पोर्ट्रेट करताना प्रोत्साहन देणारे बाबा, नाईक, खरे, धारप, सुभेदार इत्यादी सर्व मित्रांशी गप्पा मारताना सात मजली गडगडाटी हास्य करणारे, ‘गीत नया…’ कॅसेटचा सोहळा दहा दिवसांत करा, असा, पी.एम. हाऊसमधून फोन आला असताना, कधीही न घाबरणारे, पण दहा दिवसांत थाटात सर्व काही झालं पाहिजे, या विचाराने थरकापणारे, पण निश्चयाचा महामेरू असणारे, नात स्नेहाचे नृत्य डोळ्यातून प्रेम ओसंडून पहातानाचे बाबा, दगड, विटा, माती, धोंडे यांनी घेरलेले बिल्डर बाबा, त्यातून मला कवितेचे विविध रंग समजावणारे बाबा, लेक राजनच्या अफाट बुद्धिमत्तेविषयी, प्रगतीविषयी ऊर भरून कौतुक करणारे, सून शोभनाचेही कौतुक करणारे, पत्नी निर्मलाने त्यांना कसे विविध विषयांत घडवले, हे अभिमानाने सांगणारे बाबा, तसंच आमच्या  सर्वांचा ‘उंच उंच माझा झोका’ पाहताना उचंबळून येणारे, सर्वांवर प्रेमाचा अतिवर्षाव करणारे बाबा, अशी ही बाबांची अनेक वेगवेगळी रूपं मला वेळोवेळी दिसतात म्हणून म्हणावंसं वाटतं,

‘आई, बाबा, मित्र, गुरू, अन् तुम्ही संगीतसारथी;

तुम्हापुढे फिकेच पडतील, अतिरथी महारथी…!’

©  सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चिमणी वाचवा … ☆ श्री प्रसाद जोग ☆

श्री प्रसाद जोग

🌈 इंद्रधनुष्य 🌈

☆ चिमणी वाचवा … ☆ श्री प्रसाद जोग

जगभरात २० मार्च हा दिवस ‘ चिमणी वाचवा दिवस ‘ म्हणून साजरा केला जातो.

चिमणी आपल्या जीवनाचा अविभाज्य अंग. अगदी जन्माला आल्यावर आई आपल्याला भरवते तेंव्हा सुद्धा ती एक घास चिऊचा म्हणून देते आणि त्या चिमणीची आठवण काढत आपण जेवतो. जरा मोठं झालं की झोपण्यापूर्वी एक गोष्ट सांग हा लहान मुलांचा लकडा असतो ,तेंव्हा सुद्धा चिऊताई हजर असायची आणि मग कावळेदादा येऊन म्हणायचा “चिऊताई चिऊताई दार उघड” , पुढची गोष्ट आपण साऱ्यांनी लहानपणापासून ऐकली आहेच.

जंगले निर्माण करण्यामध्ये चिमण्यांचे मोठे योगदान आहे.त्यांनी खाल्लेल्या वेगवेगळ्या बिया त्याच्या विष्ठेमधून पुन्हा जमिनीत रुजतात आणि त्यातून वृक्ष निर्माण होत असतात.मानवाने शहरीकरण झपाट्याने वाढवले त्या मुळे जंगले नष्ट होऊ लागली आणि आहे त्या शेतीत जादा पीक घेण्याच्या हव्यासापायी कीटक नाशकांचा वापर अवाच्या सव्वा वाढला आणि तोच या चिमण्यांच्या जीवावर देखील उठला. कीटक नाशके फवारल्यावर ते धान्य खाऊन चिमण्या मरून जाऊ लागल्या.रोज अंगणात बागडणाऱ्या चिमण्या हळू हळू दिसेनाशा होऊ लागल्या आहेत. चिमण्यांची प्रजाती नष्ट होण्याच्या मार्गावर आहे,याच चिमण्या पिकावरील कीड/ आळ्या खाऊन टाकतात व शेतातले पीक वाचवतात.

दिवसेंदिवस पर्यावरणाचा तोल देखील ढासळायला लागला आहे,उष्णता वाढायला लागली आहे ,ही उष्णता ही गर्मी चिमण्यांना असह्य होते, त्यावर इलाज म्हणजे पसरट मातीच्या भांडयांमधे थोडे पाणी भरून ठेवा मग पहा भर दुपारी चिमण्या त्या मध्ये डुंबतील, पाणी पितील,जवळ ठेवलेले अन्नाचे कण खाऊन तृप्त होतील, तेंव्हा आपल्याला मिळणारे समाधान लाखमोलाचे असेल. अशी हजारो वर्षे मानवाला सोबत करणाऱ्या या चिमण्यांना वाचवायची जबाबदारी आपलीच आहे .त्या साठी फार काही करायची सुद्धा गरज नाही.

अशी ही चिमणी सकाळ झाली की किलबिलाट करून आपल्याला जागे करत असते.तिच्यासाठी जर शक्य असेल तर बागेमध्ये पुठ्ठयाचे किंवा लाकडी घरटे टांगून ठेवा. मोठ्या शहरामध्ये रहात असाल तर फ्लॅटच्या गॅलरीमध्ये रोजच्यारोज थाळीमध्ये पाणी ठेवा अगदी चार दाणे जरी तिला खाऊ घातले तरी मला खात्री आहे सगळ्यांना मोठा आनंद होईल.

चिमणीचा आवाज

© श्री प्रसाद जोग

सांगली

मो ९४२२०४११५०   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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