हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – रिश्ता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  रिश्ता)

☆ लघुकथा – रिश्ता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक परिवार के मुखिया का नाम गुरदित्त सिंह था, दूसरे परिवार के मुखिया का नाम हरदित्त सिंह था। दोनों परिवारों के मुखिया एक ही दादा की संतान थे। दोनों परिवारों में अनबन हुई, अनबन मनमुटाव में बदली और मनमुटाव एक तरह की दुश्मनी में। इस दुश्मनी में एक-दूसरे के ख़ून की प्यास नहीं थी, बहिष्कार था। दोनों परिवारों के बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा था। गुरदित्त सिंह अपने परिवार के साथ ‘अ’ ज़िले के अपने पैतृक गाँव अलीपुर में रह रहा था, जबकि हरदित्त सिंह अपने परिवार के साथ ‘ब’ ज़िले के एक गाँव दरियापुर में जा बसा था। हरदित्त सिंह के पोते संदीप सिंह का चयन बतौर गणित अध्यापक हो गया और उसकी पहली नियुक्ति अलीपुर के निकटवर्ती गाँव शेखूपुर के स्कूल में हुई। अब संदीप सिंह ‘अ’ ज़िले के शेखूपुर के निकटवर्ती एक क़स्बे में रह रहा था। यहाँ से उस समेत चार अध्यापक एक कार में एक साथ शेखूपुर जाते थे। शेखूपुर वाली सड़क अलीपुर के खेतों से होकर गुज़रती थी। सड़क के साथ लगते अपने खेत में गुरदित्त सिंह अक्सर काम करते दिखाई देता। संदीप सिंह वहाँ गाड़ी रुकवाता और झुककर रिश्ते के दादा के पाँव छुते हुए ‘पैरी पोना’ कहता। दादा भी उसे आशीर्वाद दे देता।

एक दिन जब उसने हमेशा की तरह पाँव छूकर ‘पैरी पोना’ किया तो गुरदित्त सिंह ने कहा, “सुन भई संदीपे, इस महीने की चौबीस तारीख़ को मेरे पोते सुरजीत सिंह का ब्याह है। न तो मैं तेरे घर कोई कार्ड भेजूँगा, न तेरे परिवार को बुलाऊँगा, पर तू शादी में आ जाणा।” यह बात उसने इतने सहज और सरल तरीक़े से कही कि संदीप के साथी अध्यापक हैरान रह गए। रास्ते में एक साथी अध्यापक ने छेड़ा, “यह कैसा रिश्ता है संदीप कि मैं बुलाऊँगा नहीं, पर तू आ जाणा?”

दूसरे अध्यापक ने कहा, “यह इसके पैरी पोना का इनाम है।”

“वैसे बात अगले ने मुँह पर दे मारी। कमाल है, कोई ऐसे भी कर सकता है कि ख़ुद जिसको शादी में बुला रहा है, उसी के सामने उसके परिवार का अपमान कर रहा है।” तीसरे ने कहा।

“आज मौक़ा है, बनाओ मज़ाक मेरा, पर एक बात कहूँ, ज़माना बेशक बहुत बदल गया है, लेकिन मेरे यह दादा अब भी पुराने ज़माने के खरे किसान ही हैं। बातें गढ़ना नहीं सीखा। इसलिए न उनकी दुश्मनी में कोई खोट है और न प्यार में।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चीरहरण☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – चीरहरण ? ?

औरत की लाज-सी

खींचकर धरती की हरी चुनर

उतार दिया जाता है

उसकी कोख में पिघलता लोहा,

सरियों के दम पर खड़ी कर दी जाती हैं

विशाल अट्टालिकाएँ,

धरती के सीने पर बिछा दिया जाता है

काँक्रीट, सीमेंट, रेत ऐसे

किसी नराधम ने

मासूमों को चुनवा दिया हो जैसे,

विवश धरती अपनी कोख में

पथरीली आशंका के साथ

छिपा लेती है हरी संभावनाएं भी,

काल बीतता है

इमारत साल दर साल

थोड़ी-थोड़ी खंडहर होती है,

धरती की चुनर

शनैः-शनैः हरी होती है,

इमारत की बुनियाद झर जाती है

धरती की कोख भर आती है,

खंडहर ढक जाता है, उन्हीं

पेड़-पौधों, घास-फूल-पत्तियों से

जिनके बीज कभी पेट में छिपा लिये थे धरती ने!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीरामनवमी  साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #233 – 120 – “वही क्यों न हुआ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल वही क्यों न हुआ…” ।)

? ग़ज़ल # 119 – “वही क्यों न हुआ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मेरी जो चाहत थी वही क्यों न हुआ,

कुछ राहत मिलती वही क्यों न हुआ।

****

जिनके  लिये  दोस्तों  से लड़ता रहा,

वो दुश्मनों से ख़फ़ा यूँही क्यों न हुआ।

****

जिसको  पत्थर  उठाने में तकलीफ़  थी,

पूछता अर्श में सुराख़ अभी क्यों न हुआ।

****

वह  बताती  तो  यशोदा  तरह चाहा,

उसका बर्ताव फिर अम्मी क्यों न हुआ।

****

नाटक  बहुत  करता  है  लोकप्रिय नेता,

फिर उसका किरदार फ़िल्मी क्यों न हुआ।

****

जो मुफ़लिस ग़म की आग में जलता रहा,

ज़िंदगी उसकी सुलगती अर्थी क्यों न हुआ।

****

नाम पर बुत के झुका लिया सारा जहाँ,

आतिश तेरा  नाम ज़िम्मी क्यों न हुआ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 345 ⇒ साहित्यिक आदमी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 345 ⇒ साहित्यिक आदमी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्यिक आदमी (man of letters)

जिस तरह आवाज की दुनिया होती है, अक्षरों की भी एक दुनिया होती है। आवाज की दुनिया के कई दोस्तों को हम जानते हैं, क्योंकि उनकी आवाज ही पहचान है। उनकी आवाज हमारे कानों में जरूर मिश्री घोलती होगी। क्या अक्षरों की दुनिया के भी आदमी होते हैं ?

जो कला से जुड़ा आदमी होता है, वह कलाकार कहलाता है फिल्मों से जुड़ा इंसान फिल्मी कलाकार गीतकार, संगीतकार, गायक कलाकार और नाटककार तो होते ही हैं, कवि, लेखक, साहित्यकार और पत्रकार भी होते हैं। लेकिन किसी व्यक्ति की पहचान केवल इतनी हो कि He is a man of letters ! तो यह अपने आप में एक बहुत बड़ी विशेषता मानी जाती है। गागर में सागर शब्द है यह man of letters.

कितना अर्थ छुपा हुआ होता है इस ढाई शब्द के man of letters में विद्वान, साहित्यानुरागी, सरस्वती पुत्र, जिस पर मां शारदे विशेष रूप से प्रसन्न हों। आपको तारीफ के पुल बांधने की कोई आवश्यकता नहीं। किसी व्यक्ति का इससे अधिक सम्मानजनक परिचय नहीं दिया जा सकता। सभी सारस्वत सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार पर man of letters का विशेषण भारी पड़ते नजर आते हैं।

तारीफ और परिचय के लिए अभिनंदन ग्रंथ और सम्मान समारोह आयोजित किए जाते हैं। एक एक कृति की विवेचना, समालोचना होती है, बौद्धिक परिसंवाद होते हैं, तब जाकर किसी सृजनशील व्यक्ति के सृजनपीठ के क्षेत्र में पांव मजबूत होते हैं।।

Man of letters एक अंग्रेजी मुहावरा है जिसका दोहन हिंदी में नहीं हो पाया। हां एक इंटेलेक्चुअल जरूर बुद्धिजीवी बनकर मुफ्त में बदनाम हो गया। हमारे हिंदी के कई प्रख्यात कवि, और लेखक अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। वे अंग्रेजी में पढ़ाते हैं और हिंदी में लिखते हैं। वाकई वे men of letters हैं। अक्षर विश्व उनका ऋणी है।

जो लोग अपनी प्रतिभा का परिस्थितिवश दोहन नहीं कर पाते, वे बेचारे केवल men of love letters बनकर रह जाते हैं। उर्दू के man of letters को शायर कहते हैं। शायर जब कोई खत लिखता है तो कलम को स्याही में नहीं डुबोता, खुद को शराब में डुबोकर अमर हो जाता है। और हर ऐसे शायर का सिर्फ एक ही नाम होता है। मैं शायर बदनाम। क्या आप किसी ऐसे man of letters को जानते हैं।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 111 ☆ गीत – ।। छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 111 ☆

☆ गीत – ।। छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।

काला निशान धारण कर करो आराम से जलपान।।

****

इस अधिकार कर्तव्य का   निर्वहन सबसे जरूरी है।

इससे ही तो मिटेगी लोकतंत्र की हर इक मजबूरी है।।

हर भारत वासी को पहले पूर्ण करना है यह अरमान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

****

यह एक पर्व एक उत्सव नहीं केवल चुनाव का रेला है।

यूं मान कर चलिए कि लोकतंत्र   का पावन मेला है।।

मतदाता हो शक्ति पहचानो चलो उठो जागो हनुमान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

****

राष्ट्र सर्वप्रथम सर्वोपरि यह  मतदाता की पहचान हो।

सारे कार्य गौणऔर पहले देश हित का ही काम हो।।

सरकार बने अच्छी बस   यह तुम पहले करो ध्यान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 173 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जन्म लिया दुनिया में तो कुछ लक्ष्य बनाओ जीवन का

क्रमशः उन्नति होती जग में है विधान परिवर्तन का।

बना योजना आगे बढ़ने का मन में विश्वास रखो

कदम-कदम आगे चलने का क्रमशः सतत प्रयास करो।

♦ 

आँखों में आदर्श कोई रख उससे उचित प्रेरणा लो

कभी आत्मविश्वास न खोओ मन में अपने धैर्य धरो।

बिना किसी शंका को लाये प्रतिदिन निश्चित कर्म करो

करे निरुत्साहित यदि कोई तो भी उससे तुम न डरो।

पुरुषार्थी की राह में काँटे और अड़ंगे आते हैं

यदि तुम सीना तान खड़े तो वे खुद ही हट जाते हैं।

नियमित धीरे-धीरे बढ़ने वाला सब कुछ पाता है

जो आलसी कभी भी केवल सोच नहीं पा पाता है।

श्रम से ईश्वर कृपा प्राप्त होती है शुभ दिन आता है।

जब कितना भी कठिन लक्ष्य हो वह पूरा हो जाता है।

पाकर के परिणाम परिश्रम का मन खुश हो जाता है

अँधियारी रातें कट जातीं नया सवेरा आता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “वळीव —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

 

☆ “वळीव —” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

घन घनदाट की दाटे मळभची

धरित्रीच्या जे आर्त मनातील

वणवा वैशाखी जाळतसे

जाळे किंवा ग्रीष्म मनातील….

*

काहूर माजे मनात त्याला

एकलीच मी कशी शांतवू

तहानले मन पावसास त्या

त्याला परि कैसे बोलावू ?….

*

आले जणू पाडाला ढग हे

सुचवून जाई रेघ विजेची

घेऊन या हो कुणी आता ती

मस्त धुंद सय मृद् गंधाची….

*

सोसेना मुळी ताण आता हा

घन हे तांडव नाचू लागले

बघता बघता बेबंदपणे

आर्तताच नी बरसू लागले….

*

वाहून गेले मळभही सारे

झंकारे अन् तार तृप्तीची

मनमोरांना नवे पिसारे

टपटपतांना सर वळवाची……

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “गजलेची गजल…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “गजलेची गजल” ☆ श्री सुनील देशपांडे

 उला नि सानी मिसरा यांना घेऊन आली होती, मज गजल चावली होती‌.

रदिफ, काफिया यांना बिलगुन सुंदर हसली होती, मज गजल चावली होती.

*

सुंदर सुंदर शब्दांचा तो मतला माथ्यावरती घेऊन चालली होती,

शेर पांघरून अंगावर सामोरी आली होती, मज गजल चावली होती.

*

शब्दरूप ती फुले सुगंधित उधळित आली होती मन मोहुन टाकत होती,

तालावरती मनमोहक ती ठुमकत आली होती, मज गजल चावली होती.

*

धुंद धुंद बेभान होऊनी शुद्ध हरपली होती, तिज ‘बहर’ली पाहिली होती,

शुद्धीवरती आलो तेव्हा मनात भरली होती, मज गजल चावली होती.

*

हळुच सारुनी बुरखा मी तिज नीट पाहिली होती, जी कोण चावली होती,

सुंदर बुरखा ल्यालेली अति सुंदर कविता होती, मज गजल चावली होती.

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆  वृद्धावस्था…. एक जबाबदारी — लेखक – श्री अरुण पुराणिक ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

🔅 विविधा 🔅

☆ वृद्धावस्था…. एक जबाबदारी — लेखक – श्री अरुण पुराणिक ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

(आजी आजोबा दिना निमित्त)

मानव जेव्हा जन्माला येतो ती त्याच्या जीवनातली पहिली अवस्था आणि किनाऱ्याला आणते ती वृद्धावस्था. ही अवस्था सर्व अवस्था पार करून आलेली असते, त्यामुळे ती परिपक्व असते, असू शकते, असलीच पाहिजे.

एकेक क्षण मोलाचा

विचार करीत मी निघालो ।

आयुष्य सार्थकी होण्या

घडवीत मी निघालो ।।

माणसाचे कळतेपण वाढीस लागते तेव्हा आपण काय करावयास पाहिजे याचा प्रामाणिक विचार करू शकतो, आणि आणि मग जसजसं वय वाढत जाईल, तसा अनुभव संपन्न होऊन मार्गदर्शन करण्याइतपत येतो आणि तसंच ते झालं ही पाहिजे.

जीवनाचा उत्तरकाळ

मार्ग दाखविला अनुभवांचा ।

त्यातून घडला जीव

सार्थकी तो त्या क्षणांचा ।।

आपल्याकडून अनुभव संपन्न आयुष्याने एखादा उभरता जीव हा योग्य मार्गी होऊन यशोदायी जीवन जगला पाहिजे.

आपल्या अनुभव संपन्नेतून उभरदायी आयुष्य घडतांना, योग्य मार्ग दाखविणं हे वृद्धावस्थेतील महत्त्वाचे कार्य आहे. आपण किनारा गाठलेला असतो आणि त्यांना गाठावयाचा असतो. त्यामुळे त्यांना योग्य मार्ग दाखविणं ही त्यांची गरज असते. ती गरज भागविणं हे वृद्धांचे कार्य आहे.

कोणतेही काम म्हणजे पूजा असते, म्हणून ती विश्वासानेच झाली पाहिजे. जीवनावश्यक वस्तू आपणास लागतात, त्या विकत घ्याव्या लागतात म्हणून आधी खर्च करण्यापूर्वी मिळवायला शिकविले पाहीजे.

आपले विचार दुसऱ्या पर्यंत पोहोचविण्यासाठी लिहावं लागत, म्हणून लिहिण्यापूर्वी आपले विचार हे सुविचार कसे असतील ह्याचं मार्गदर्शन झालं पाहिजे.

आपण काय बोलावं, ते योग्य की अयोग्य? यासाठी अगोदर दुसऱ्याचे बोलणे ऐकावयास शिकले पाहिजे.

“प्रयत्ने वाळूचे कण रगडीता तेल ही गळे. ” ही म्हण आपणांस माहित आहे. त्यामुळे कोणत्याही गोष्टीत हार न स्विकारता प्रयत्नशील राहता आलं पाहिजे.

आपण जगतो ते कसं असलं पाहिजे, यासाठी मी एक गोष्ट सांगेन…

… समजा, मला कोणी २ रुपये दिले तर मी १ रुपयाचे काही खायला आणेन. ‘जगायचं म्हणून’ आणि दुसऱ्या रुपयाचं फुल आणेन ‘कसं जगावं?’ हे शिकवण्यासाठी.

आपण मनुष्य म्हणून जन्माला आल्यावर सर्वात बुद्धिमान म्हणून विचार करत असतो. तिचा उपयोग करता आला पाहिजे, हे सांगता आलं पाहिजे की, मरण्या अगोदर जगावयास शिका.

चुका करणे हा माणसाचा स्थायीभाव आहे. पण तीच चुक परत करू नका. चुक करतो तो माणूस, चुक सुधारतो तो देव माणूस, याचं ज्ञान दिलं पाहिजे.

“तारूण्य म्हणजे चुका,

प्रौढत्व म्हणजे लढा,

वृद्धत्व म्हणजे पश्चाताप. “

पण वृद्धत्व हा पश्चाताप व्हावा असं नको असेल तर…

… वृद्धावस्थेत मार्गदर्शक व्हा. जीवन आणि जीव घडवा आणि घडवित असतांना आपले शरीर स्वास्थ्य जर सांभाळले व पुरेसा आर्थिक स्तर स्वतःचा ठेवला तर वृद्धत्वाच्या समस्या येणार नाहीत आणि आल्या तरी त्या निवारता येतील.

आपल्या वर्तनानं ज्या गोष्टी शिकविल्या पाहिजेत, त्या म्हणजे “मान, दान आणि ज्ञान. “

मान देता आला पाहिजे, दान निरंतर केले पाहिजे आणि ज्ञान आपल्याकडे आहे ते दुसऱ्यास दिले पाहिजे.

हे सांभाळले तर वृद्धावस्था ही समस्या राहणार नाही आणि त्यामुळे तुम्ही किती जगलात? यापेक्षा कसे जगलात? याला जास्त महत्त्व असेल.

आयुष्यात अशा गोष्टी करू नका की, जेणेकरून झोपेचं कर्ज होईल आपल्यावर कारण त्यामुळे रक्तदाब, मधुमेह यासारखे भयानक त्रास आयुष्य उध्वस्त करतील.

म्हणून वृद्धावस्था ही स्वतःला जपण्याची व जपत असताना दुसऱ्यास अनुभव देणारी एक अवस्था आहे यावर विश्वास असला पाहिजे.

घरातील ज्येष्ठ व्यक्ती या नात्याने वावरत असतांना, ज्ञानाचा सूर्य, प्रेमाचा महासागर आणि शांतीचा हिमाचल असं आपलं स्थान असलं पाहिजे आणि ते आपण निर्माण करून आदराच्या स्थानी दिसलचं पाहिजे.

 House is built by bricks, but Home is built Hearts.

 हे वचन सिद्ध करणे ही ज्येष्ठ व वृद्ध म्हणून कर्तव्य आहे आणि ही वृद्धावस्थेतील सर्वात मोठी जबाबदारी आहे, हे लक्षात असलं पाहिजे. 🙏

लेखक : श्री अरुण पुराणिक

संग्राहक : अनंत केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नणंद माझी लाडाची… ☆ सौ. राधिका माजगावकर पंडित ☆

सौ राधिका माजगावकर पंडित

? जीवनरंग ?

☆ नणंद माझी लाडाची ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित

वऱ्हाड कार्यालयात आलं.. शारदा इकडून तिकडे नुसती धावत होती. कितीतरी कामांची, मोठी सून म्हणून तिच्यावर जबाबदारी होती. कारण तिच्या लाडक्या नणंदेचं समीराचं लग्न होत नां! सहज समीराच्या खोलीमध्ये ती डोकावली, तर हे काय! ती हमसून हमसून रडत होती. तिला जवळ घेत शारदा म्हणाली. “समीरा नको ग रडूस. सासरी परक्या घरी जातांना अशीचं स्थिती होते, प्रत्येक मुलीला वाईट हे वाटतंच. आणि साहजिकच आहे गं तें!एका जागेवरून उपटलेल रोपंट दुसऱ्या जागी लावतांना त्रास हा होणारच. मी नाहीं का माझ माहेर सोडून तुमच्याघरी आले. आणि आतां सासर हेच माहेर असं समजून तुमच्या घरात रुळले पण. सासरच्या अनोळखी माणसांच्या प्रेमाची ओळख मला पटली. आणि तुझ्यासारखी जिवलग, नणंदेच्या रूपांतली मैत्रिणी पण मला मिळाली. हे बघ,. आई आण्णा व ह्या घराची काळजी अजिबात करायची नाही. अग मी आहे नां !. तुझ्या सारखीच काळजी घेईन हॊ मी त्यांची. समीराचे डोळे आपल्या पदरानें पुसत शारदा पूढे म्हणाली “ए समीरा हास ना गं!आतां फक्त एकच गाणं गुणगुणायचं. ‘ ” “साजणी बाई येणार साजण माझा “. आणि हो ! घोड्यावरून येणाऱ्या सागरच रुप आठवतंच मस्त स्वप्ननगरीत जायच. काय?

समीरा गालात हसली आणि खुदकन् लाजली, सागरच्या आठवणीने. तशी शारदा पुढच्या कामासाठी चटकन् उठायला लागली. तर.. तिचा पदर ओढत समीरा म्हणाली. जरा- थांब ना वहिनी. मला तुला काही सांगायचय. “हसतंच शारदेने चिडवलं ” पूरे हं समीरा. आतां मला नाही,. जे काय सांगायच तें सागर रावानाच. सांगायच. चल बाई उठू दे मला “.. “प्लिज थांब ना वहिनी, “ काकुळतीला येऊन समीरा परत मुसमुसायला लागली. थरथर कांपतच होती ती.. शारदाने तिला जवळ घेतल्यावर ती घडाघडा बोलायला लागली.

” वहिनी सागर मला मनापासून आवडलेत. पण. – पण हे लग्न सुखरूपपणे पार पडेल की नाहीं ? ह्या भितीने जीव घाबरा होतोय ग माझा !”

तिला प्रेमानें गोंजारून शारदा म्हणाली “समीरा काही झालय का ? अगदी मोकळे पणी सांग any Problem? ” 

थरथर कापतच समीरा पूढे सांगु लागली. : “ कसं सांगु वहिनी तुला? एक गोष्ट लपवलीय मी तुमच्यापासून.. प्रकरण. तसं गंभीरच आहे “. हे ऐकल्यावर. आता मात्र थरकांपच उडाला शारदाचा. काय सांगणार आहे ही? काही भानगड, प्रेम प्रकरण? की बलात्कार ? असा कांही अत्याचार झालाय का हिच्यावर ?

‘ नाहीं नाहीं माझ्या सासरच्या अब्रुचा प्रश्न आहे हा!’. असंख्य प्रश्नाच्या विचाराने घशाला कोरड पडली कसबसं स्वतःला सावरून ती म्हणाली ”समीरा बोलना ! सांग लौकर. काय झालयं ?सांग गं! पटकन सांग.

“ऐक नां वहिनी. गेले कित्येक दिवस एक मवाली, गुंड मुलगा माझ्या मागे लागलाय. सुरुवातीला, लाडीगोडीनें अघळ पघळ बोलून त्याने मला खूप विनवलं, आमिषे दाखवली. पण मी बधले नाही. कारण माझं त्याच्यावर प्रेमच नव्हतं. तसं सांगूनही त्यानी माझा पिच्छा सोडला नाही. उलट त्याचा मवाली पणा जास्तच वाढला. खूप त्रास व्हायचा मला त्याचा. कधीकधी भिती वाटायची. हां हात टाकेल की काय माझ्यावर? अतिप्रसंग करेल कां ?या विचाराने घराबाहेर पण पडायची नाही मी. आणि शेवटी त्यानी मला धमकी दिली. ” माझ्याशी लग्न केल नाहीस तर मी दुसऱ्या कुणाशीही तुझ लग्न होऊ देणार नाही. मग सुखाचा संसार तर दूरच राहिला. गुंड आणून पळवीन मी तुला “. मला खूप भिती वाटतेय ग वहिनी. तो लग्नात काही विघ्न तर नाहीं ना आणणार ? तसं झाल तर… तर सगळाच डाव उधळेल. माझ्या स्वप्नांचा, आणि माझ्या आयुष्याचा… आई अण्णांच काय होईल गं ? आणि माझा दादा? केवढया मोठया आजारातून उठलाय तो नुकताच. तुझ्यामूळे तो लौकर बरा झालाय त्याच B. P. वाढून त्याला काही त्रास झाला तर. ?वहिनी रात्र रात्र जागून काढतेय गं मी, हया सगळ्या विचारांनी झोपच उडालीय माझी० आणि काय सांगू वहिनी. काल तो आपल्या घराभोवती घिरट्या घालत होता. आणि कहर म्हणजे खिडकीतून त्याने ही चिठ्ठी फेकलीय. हे बघ यांत त्यांनी लिहीलय –” उद्या बघच तू. गुंड आणून तुझं लग्न मी मोडणारच. लग्न कसं होतयं बघतोच मी. ” 

शारदा क्षणभर गांगरली. पण दुसऱ्या क्षणी स्वतःला सावरत तिनें समीराचें घळघळ वहाणारे अश्रु पुसले.

तिला खूप किंव आली तिची. किती तरी दिवस मानसिक ताणाचं भलं मोठ्ठ ओझं उरावर बाळगून, आनंदाचे दिवस किती ताण तणावात गेले बिचारीचे. आपल्या आई वडिलांना दादाला त्रास होऊ नये म्हणून केविलवाणी धडपड चालली होती इतके दिवस समीराची. तिला आधार देत शारदा म्हणाली,

“घाबरू नकोस समीरा मी आहे तूझ्या पाठीशी. आपल्या घराची अब्रू अशी चव्हाट्यावर नाही येऊ देणार मी. तू निर्धास्त रहा. मी बघते काय करायच तें. “ तिचा आधार घेत समीरा म्हणाली “ पण — पण वहिनी दादा ! तो किती संतापी आहे रागाच्या भरात त्यांनी काही केले तर? आणि पण मग त्याला किती त्रास होईल माझ्यामुळे. मला काही काहीचं सुचत नाहीये, काय करू मी?” तिला शांत करुन ठामपणे शारदा म्हणाली, ” नाही समीरा ह्यातलं ह्यांना आई अण्णाना काहीच कळता कामा नये. नाहीतर परिस्थितीला वेगळंच वळण लागेल. तू शान्त रहा.. “

आणि मग खरोखरचं शारदाने आपल्या भावाला मदतीला घेऊन परिस्थितीशी लढा दिला. आणि तिचा पाठीराखा भाऊ अविनाश तिच्या पाठीशी उभा राह्यला.. पोलीसांच्या मदतीने बंदोबस्त करून रंगे हात त्या मवाल्याला पकडून त्याला शिक्षा झाली. आणि नंतर मग ‘.. झाले मोकळे आकाश. ‘….. कार्य निर्वीघ्नपणे पार पडलं होतं. अशी ही बाहेरची व घरांतली आघाडी सौ. शारदानें अविनाशच्या मदतीने खंबीरपणे सांभाळली होती.

 कु. समीरा, चि. सागरची अर्धांगिनी,… सौभाग्यवती समीरा सागर साने झाली.

सासरी निघताना सौ. समीराच्या डोक्यावरून हात फिरवीत शारदा म्हणाली, ” सागर एक गुणी, सुशील, भाबडी मुलगी आम्ही दिलीय तुम्हाला. सांभाळून घ्या हं तिला. ” गम्भीर वातावरण हसरं साजरं करीत सागर म्हणाला ” मंडळी समीराचं नांव आम्ही सरिता ठेवणार आहोत आणि हीं सरिता आता सागराला मिळालीय. तिच्या सुख दुःखात मी तिच्या पाठीशी आहेच… तुम्ही दिलेलं हे खणखणीत नाणं आम्ही केव्हाच पारखून घेतल आहे हं. माझे आई बाबा खूप चांगले आणि सुशिक्षित व समंजस आहेत. त्यांच्या छत्राखाली समीरा आणि मी सुरक्षित राहू. एकमेकांच्या विश्वासावरच आमचा संसार सुखाचा होईल. तेव्हा आता कुठलीही काळजी करायची नाही. आणि हो! आईचे, अण्णांचे आणि दादांचे तुमचेही आशीर्वाद आहेतच कि आमच्या पाठीशी. ” असं म्हणून ती लक्ष्मीनारायणाची जोडी थोरांच्या पायाशी वाकली. सगळं निर्विघ्नपणे पार पडलं होतं. कोपर्‍यात उभ्या राहयलेल्या भाऊरायाचे, अविनाशचे शारदेने नजरेनेच आभार मानले.. अगदी कृतज्ञतेने प्रेमळ नजरेने..

© सौ राधिका माजगावकर पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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