(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब“।)
अभी अभी # 62 ⇒ माड़ साब… श्री प्रदीप शर्मा
जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।
माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है।।
हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी ….( रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए ) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।
इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है।।
वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।
मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया।।
एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, Are you married? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, No Sir, I am still a bachelor! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I don’t understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।
वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है।।
संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।
अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।
माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना।।
रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख –व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 216 ☆
आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं…
व्यंग्य का प्रहार दोषी व्यक्ति को आत्म चिंतन के लिये मजबूर करता है. जिस पर व्यंग्य किया जाता है, उससे न रोते बनता है, न ही हंसते बनता है. मन ही मन व्यंग्य को समझकर स्वयं में सुधार करना ही एक मात्र सभ्य विकल्प होता है. पर यह भी सत्य है कि कबीर कटाक्ष करते ही रह गये, जिन्हें नहीं सुधरना वे वैसे ही बेशर्मी की चादर ओढ़े मुखौटे लगाये तब भी बने रहे आज भी बने हुये हैं. किन्तु इस व्यवहारिक जटिलता के कारण व्यंग्य विधा को नकारात्मक लेखन कतई नही कहा जा सकता.
व्यंग्य बिल्कुल भी नकारात्मक लेखन नहीं है. बल्कि इसे यूं कहें तो उपयुक्त होगा कि जिस तरह कांटे को कांटा ही निकालता है, व्यंग्य ठीक उसी तरह का कार्य करता है. आशय यह है कि व्यंग्य लेखन का उद्देश्य हमेशा सकारात्मक होता है. जब सीधे सीधे अमिधा में कहना कठिन होता है, तब इशारों इशारों में कमियां उजागर करने के लिये व्यंग्य का सहारा लिया जाता है. ये नितांत अलग बात है कि आज समाज इतना ढ़ीठ हो चला है कि राजनेता या अन्य विसंगतियो के धारक वे लोग जिन पर व्यंग्यकार व्यंग्य करता है वे व्यंग्य को समझकर प्रवृत्ति में सुधार करने की अपेक्षा उसे अनदेखा कर रहे हैं. व्यंग्य को परिहास में उड़ाकर वे सोचते हैं कि वे ही सही हैं. चोर की ढ़ाढ़ी के तिनके को देखकर व्यंग्यकार इस तरह कटाक्ष करता है कि यदि चाहे तो चोर समय रहते स्वयं में सुधार कर ले तो वह एक्सपोज होने से बच सकता है. किन्तु आज निर्लज्ज चोर, चोरी करके भी सीना जोरी करते दिखते हें. व्यंग्य के प्रहार उन्हें आहत नही करते. वे क्लीन शेव करके फिर फिर से नये रूप में आ जाते हैं. लकड़ी की काठी भी अब बारंबार चढ़ाई जा रही है. बिना पोलिस और कोर्ट के डंडे के आज लोगों में सुधार होते नहीं दिखता. इसलिये पानीदार लोगों को इशारों में शर्मसार करने की विधा व्यंग्य को ही नकारात्मक लेखन कहने की कुचेष्टा की जा रही है. यदि सभी के द्वारा सामाजिक मर्यादाओ के स्वअनुशासन का पालन किया जाये तो व्यंग्य से अधिक सकारात्मक लेखन कुछ हो ही नहीं सकता.
(सुप्रसिद्ध लेखक श्री संजय सरोज जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में असिस्टेंट कमिश्नर, (स्टेट-जी एस टी ) के पद पर कार्यरत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता – “तन्हा लैंप पोस्ट और बेंच”)
इस भाग में मैं ‘साइक्लोफन-२०२३’ के हमारे अनुभवों और ३० अप्रैल २०२३ को आयोजित समापन समारोह का वृत्तांत प्रस्तुत कर रही हूँ| श्रीमती आरती बॅनर्जी ने डॉ शीतल पाटील के साथ आयोजित किया हुआ ‘सायक्लोफन-२०२२’ बेहद सफल रहा था। इसलिए दोनों ने इस साल भी ऐसा ही आयोजन किया। पिछले साल की तरह ही इसे भी निवासियों से अच्छी प्रतिक्रिया मिली। इसमें ६५ सदस्यों ने भाग लिया। खुशी की बात यह थी कि, इस आयोजन को बच्चों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। जैसा कि पिछले भाग में उल्लेख किया है, ‘विश्व वसुंधरा दिवस’ (२२ अप्रैल २०२३) से प्रत्येक सदस्य अपनी उम्र और क्षमता के अनुसार पैदल चल रहा था या साइकिल चला रहा था।
साइकिल सवारों में से बारह लोग सामूहिक साइकिल की सवारी का आनंद उठाने हेतु २९ अप्रैल को सुबह-सुबह ठाणे के निकट एक खाड़ी पर पहुँच गए| ग्रुप राइड की समन्वयक आरती ने कहा, ‘यह अनुभव अविस्मरणीय था क्योंकि, वहाँ प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय मॅरेथॉन धावक गीतांजलि लेंका से मिलने का अवसर मिला| वे वहाँ एक मॅरेथॉन कार्यक्रम में भाग ले रही थीं। हमने उनके साथ बातचीत की और तस्वीरें भी लीं।’
देखते देखते ३० अप्रैल का आखिरी दिन आ पहुँचा| २२ से ३० अप्रैल, २०२३ तक रुणवाल गार्डन सिटी में साइकिलिंग और वॉकिंग के उपक्रम ‘सायक्लोफन-२०२३’ का ३० अप्रैल, २०२३ को हमारे बगीचे के हरे-भरे वातावरण में खूबसूरती से समापन हुआ। समापन एवं अभिनंदन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. केतना अतुल मतकर उपस्थित रहीं। पर्यावरणविद् और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ डॉ. केतना, ठाणे स्थित पर्यावरणीय परामर्श कंपनी, ‘सायफर एन्व्हायर्नमेंटल सोल्युशन्स’ की संस्थापक और प्रबंध निदेशक हैं। डॉ. केतना माइक्रोबायोलॉजी में पीएचडी हैं और उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में २७ साल का विविध और व्यापक अनुभव है। डॉ. केतना मटकर ने कहा, ‘बचपन में साइकिल चलाना और पैदल चलना ही हमारे परिवहन के पसंदीदा साधन थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और हम बडे होते गए, हम इस अनायास होने वाले व्यायाम से दूर होते गए। किसी न किसी प्रकार हम बदलती परिस्थिति, समय की कमी, आरामदायक जीवन शैली तथा अपनी सुविधा का हवाला देकर आधुनिक मोटर वाहनों को प्रधानता देते हैं|’ डॉ. केतना ने जलवायु परिवर्तन के कारण, ग्लोबल वार्मिंग, बढ़ते प्रदूषण, इन सबके कारण और इन कठिन समस्याओं के समाधान करने के उपायों के बारे में बताया। उनके अनुसार, चलने और साइकिल चलाने जैसे शाश्वत गतिशीलता में सबसे महत्वपूर्ण विकल्पों को हम आसानी से अपना सकते हैं।
डॉ. केतना के सरल, सीधे और विनम्र व्यक्तित्व ने हम सबको बहुत प्रभावित किया| इतनी जानकार होने के बावजूद उन्होंने हमारे साथ बहुत ही सरल भाषा में बातचीत की| बच्चे और बडे, हर सदस्य से उन्होंने मौसम, प्रदूषण, साइकिल चलाने और पैदल चलने के लाभ जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर प्रश्न पूछे, उन्हें बोलने पर प्रवृत्त किया और फिर विशेषज्ञ के नाते इन सभी सवालों के जवाब विस्तार से दिए। वे इस विषय पर हमारे ज्ञान का परीक्षण करना नहीं भूलीं। हमने उनके द्वारा ऑनलाइन साझा किए गए गूगल फॉर्म के प्रश्नों के उत्तर देकर उन्हें भेज दिये|
इस अवसर पर प्रतिभागियों को मेडल और प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया। हमारे एक छोटे जोशीले सदस्य इशान मोहिते ने दिए गए ९ दिनों में १८९ किमी तक साइकिल चलाकर प्रथम पुरस्कार जीता! इस आयोजन में उत्साहपूर्वक भाग लेने वाले सभी सदस्यों को हार्दिक बधाई तथा हमारे प्रिय आयोजकों आरती और शीतल को इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद| साथ ही गर्मजोशी से उनकी सहायता करनेवाले उत्साही स्वयंसेवी बच्चों को भी बहुत-बहुत धन्यवाद।
प्रिय पाठकों, जो लोग अपनी और दूसरों की हैसियत को एक महंगी कार की कीमत से मापते हैं, वे वास्तव में अपने जीवन के साथ भारी कीमत चुका रहे हैं। अब इस मानसिकता को 360 डिग्री से उल्टा घुमाने का समय आ गया है। समय की मांग है कि इस दुष्चक्र से जल्द से जल्द बाहर निकला जाए।
चलते चलते-चलता है जी!
मित्रों, यह ऐसा सवेरे सवेरे इतनी जल्दी उठना है और फिर चलना है, भले ही यह अपनी भलाई के लिए ही क्यों न हो, यह मुझे जानलेवा सज़ा लगती है| परन्तु अब ओखली में सर डाल दिया, तो चलना ही पड़ेगा! ऐसा करते-करते मैंने इस चुनौती को पूरा करने के लिए एक बार चलना शुरू किया और अगले दिन मुझे खुद ब खुद चलने की प्रेरणा मिली। आखिरकार मैंने इसे निर्धारित समय सीमा में पूरा भी कर लिया| उसके लिए रोज मिलने वाले kudos और अन्तिम दिन मिला मैडल मेरे लिए बेशकीमती है!
ठाणे की सुंदरता को वृद्धिंगत करने वाले भित्ति चित्र
प्रभात बेला में की गई इस सैर का अनुभव असाधारण था। मैं पहले भी इन्हीं सड़कों पर चली हूँ, लेकिन शायद खयालोंमें खोई हुई या हो सकता है कि, इन भित्तिचित्रों को अनदेखा कर ऑटो या कार से गुजर रही थी। लेकिन इसी ‘सायक्लोफन-२०२३’ के खातिर चलते हुए इन तस्वीरों की खूबसूरती और मायने को आँखों से देखा, फोटो में कैद किया और दिलोदिमाग में बसा लिया। इन चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही होनी चाहिए। लेकिन संबंधित राजनेता और अधिकारियों में भी ठाणे की सुंदरता को वास्तविक रूप में बढ़ावा देने की तमन्ना पनप उठी, यह देखकर बड़ा आनंद आया| यहाँ वहाँ पान की पिचकारियों से दीवारें रंगीन बनाने वाले जो भी तमाकू (१२० और बहुत कुछ!), बीड़े के पान और जर्दा के शौक रखने वाले महान महानुभावों को इस उपक्रम के कारण बड़ी दिक्कतें झेलनी पडी होंगी यह बिलकुल तय है! परन्तु मैं इन लोगों के सौंदर्य बोध के लिए शुक्रगुजार हूं, क्योंकि, मैंने जो भी तस्वीरें देखीं, उनको किसीने भी विकृत करने की कोशिश करते हुए मैंने नहीं पाया| खास बात तो यह है कि, यहां ‘थूकिये मत’ जैसे बोर्ड भी नहीं लगे थे।
मित्रों, इन चित्रों के विभिन्न विषयों को देखकर मैंने यह अनुभव किया कि, इन कलाकारों की कला में एक विचारधारा भी है| मैं भी कैनवास पर पेंटिंग करती हूँ| लेकिन उसका आकार सीमित होता है, इसलिए मेरी पहुँच उसके दायरे में है। परन्तु भित्ति चित्र बनाने के लिए एक अलग ही आयाम की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, यदि समाज को इससे आलोकित करना है, तो उस परिणाम को साध्य करने के लिए प्रभावी रंग, व्यक्तित्व और आकर्षक रचना बिलकुल आवश्यक है! इन चित्रों में आवागमन करते हुए राहगीरों का ध्यान आकर्षित करने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा, ये पेंटिंग तूफान, तेज हवा, बारिश आदि के आक्रमण को झेलकर दीर्घ समयसीमा तक टिकाऊ होनी चाहिए। साथ साथ आपको टिन शेड पर भी पेंटिंग की तैयारी रखनी होगी। दोस्तों, मैं इस लेख के साथ कुछ सीमित तस्वीरें साझा कर रही हूँ। ये सभी हमारे परिसर और आसपास के क्षेत्र की दीवारों पर चित्रित हैं। इन चित्रों के विषय बड़े ही प्यारे हैं| चित्र चित्रित करती किशोरी, साइकिल पर सवार युवक और युवति, झूले पर मुक्त भाव से झूलती बालिका, सुंदर फूल, पशु, पक्षी, जलीय जीव और हरित वसुन्धरा आदि।
ये तमाम कलाकृतियाँ मनमोहक तो हैं ही, इसके अलावा, मोबाइल फोन के घेरे से बाहर की दुनिया का रसीला लुफ्त उठाते हुए ये प्रकृति-प्रेमी व्यक्तिचित्र पर्यावरण को संरक्षित करने और पृथ्वी की हरियाली को वृद्धिंगत करने का सुन्दर सन्देश चौबीसों घंटे देते रहते हैं। एक खास दिन ‘विश्व वसुंधरा दिवस’ (Earth day) मनाने वालों का उत्साह महत्वपूर्ण है (यह साइक्लोफन उसका ही एक हिस्सा है)। वह अपने स्थान पर बना रहे, परन्तु इन भित्ति चित्रों का स्थायी संदेश कितना महत्वपूर्ण है उसे समझना और उसपर गहरा सोचविचार करना जरुरी है, क्योंकि अगर हम इस हरी-भरी धरती को बचाना चाहते हैं और इसकी हरियाली को वृद्धिंगत करना चाहते हैं तो कितना अच्छा होगा अगर ऐसे मानों शिलालेख जैसे चित्र हों। हमारे परिसर की सडक के दोनों ओर हरी झाड़ियाँ और वृक्ष हैं। सुबह-सुबह उनकी मेहराबों (कमान) से गुजरती हूँ तो कितनी प्रसन्नता होती है, लिखने के लिए विचारों की घनघोर घटा उमडती है, उत्साह आ जाता है और नवनवोन्मेषी कल्पनाएं मन में हिलोरें लेने लगती हैं। गहन छाया प्रदान करने वाली इस हरीतिमा का कृपाछत्र हम मनुष्यों के लिए अनंत वरदान ही है।
दोस्तों, कहा जाता है कि ‘शरीर भगवान का मंदिर है’! बेशक, एक स्वस्थ शरीर का होना स्वस्थ दिमाग की पहली सीढी है। उसके लिए साइकिल या दो पाँवों के दोपहिया वाहन की सवारी चलाते रहना अनिवार्य ही समझें| जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम!
धन्यवाद!
डॉक्टर मीना श्रीवास्तव
ठाणे
दिनांक-४ जून २०२३
फोन नंबर: ९९२०१६७२११
टिप्पणी:
इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग किया गया है|
इस लेख के साथ शामिल की गई दीवार पेंटिंग की तथा अन्य तस्वीरें और विडिओ निजी हैं। ये खूबसूरत भित्ति चित्र हमारे परिसर के आसपास के क्षेत्र के हैं।
यह लेख मेरे नाम और फोन नंबर के साथ ही अग्रेषित कीजिए।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 37 ☆ देश-परदेश – उल्टा समय ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ दिनों से प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है, जो उधार लेकर बिना आवश्यकता के सामान खरीदने के लिए आकर्षित ही नहीं बाध्य कर रहे हैं।
हमारी संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था में उधार लेना बुरी बात मानी जाती हैं।
बाजारू ताकतें हमारी अदातें बदल कर हमें मजबूर कर रही हैं। बैंक और अन्य वाणिज्यिक संस्थाएं भी खजाने खोल कर बैठी हैं, लोन देने के लिए। आप बस कोरे कागज़ात पर हस्ताक्षर करने के लिए हामी भर देवें।
उपरोक्त विज्ञापन कह रहा है “आज उधार :कल नगद” जबकि हमारे यहां तो व्यापारिक संस्थानों में इसका उल्टा “आज नगद: कल उधार” की सूचना लिखी रहती थी। विज्ञापन में ये भी लिखा था “नगद देकर शर्मिंदा ना करें” जबकि ये मूलतः उधार मांग कर शर्मिंदा ना करें था। “नौ नगद ना तेरह उधार” के सिद्धांत पर ही सदियों से हमारी अर्थव्यवस्था चल रही थी। तो अब ये क्या बातें हो रही है, कि खपत बढ़ानी चाहिए तभी हमारी अर्थव्यवस्था चल सकती है।
हम तो बचत कर क्रय करने की परंपरा वाले समाज से आते हैं, उल्टी गंगा बहाई जा रही हैं। अनावश्यक सामान या पूरे वर्ष में खपत होने वाली जिंसो को लेकर घर भर लो, ताकि खपत भी बढ़ जाए और बड़े उद्योगपतियों की पौ बारह हो जाए।
उधार प्रेम की कैंची है, जैसे शब्द प्राय सभी फुटकर विक्रतों के यहां लिखे हुए देखे जाते थे, जो अब नादरत हो चुके हैं। पहले हमारी फिल्मों में गांव के महाजन/ सेठ हीरो की मां कंगन रख कर कठिन समय में पैसे उधार लेती थी, और फिर उनके अत्याचार सहती थी। अब ये बड़े बड़े कॉर्पोरेट/ निर्माता उधार पर सामान देकर बाद में वसूली करते हैं।
☆ मन आणि सकारात्मक विचारांचा प्रभाव … ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆
आपले मन काय विचार करते याचा आपल्या दैनंदिन जीवनावर परिणाम होत असतो. तसे पाहता मन हा आपल्या जीवनाचा अविभाज्य भाग आहे. जे दिसत नाही पण अस्तित्वात आहे ते आपले मन. आपल्या मनात सतत विचारांचा कल्लोळ चालूच असतो. मग हे विचार कधी सकारात्मक तर कधी नकारात्मक असतात. आपल्यात तयार होणारी सकारात्मक किंवा नकारात्मक ऊर्जा ही मनातूनच उगम पावत असते. कोणत्याही कार्याचा शुभारंभ करण्यापूर्वी आपणास प्रथम आपल्या मनाची तयारी ठेवावी लागते. कोणतेही कार्य सिद्धीस नेण्यास प्रयत्नासोबत आपल्या मनाची भक्कम साथ हवी असते. लोक नकळतपणे बोलतात.. बघा .. ” मनात आले तर करेन, नाहीतर नाही करणार ”
आपले मन काय विचार करते याच्यावर आपले वागणे अवलंबून असते. मनात येणाऱ्या बऱ्या-वाईट विचारांवर आपली वर्तणुक ठरत असते. पण आपल्या मनास वाईट कृत्यांपासून परावृत्त करणे हे आपल्याच हातात असते. मन जर वाईट मार्गाने धावत असेल तर त्याला लगाम घालण्याचेही आपल्याच हाती असते. अर्थात अस्तित्वात नाही पण आपणासी संलग्न आहे अशा मनाचे दोर हे आपल्याच हाती असतात. आपणास जर स्वतःचे व्यक्तिमत्व सुसंस्कृत असे प्रभावी घडवायचे असेल तर मनाला ज्ञानाच्या मार्गाने वळवावे लागेल. आपले मन हे ज्ञानाने परिपूर्ण असले पाहिजे. ज्ञान हे चांगल्या विचारांचे उगम स्थान आहे.
आपण आपल्या विचारात सकारात्मकता ठेवली पाहिजे. त्याकरिता रोज सकाळी योग, प्रार्थना, अनेक चांगले विचार यांची मनाशी सांगड घातली पाहिजे. आपण सकाळी सकाळी जितका चांगला विचार करू तितक्या आनंदात आपले दिवस जातात. आपण पौष्टिक आहार घेऊन जसे शरीर तंदुरुस्त ठेवतो तसे चांगल्या विचारांचा नाश्ता रोज मनास भरवलाच पाहिजे. तेव्हाच आपले जीवन अतिसुंदर आणि निरोगी असेल. आपले मन हे सकारात्मक विचारांनी प्रफुल्लीत असावे. जसे सकारात्मक विचार हे आपणास आशावादी बनवतात, तसे नकारात्मक विचार आपल्याला नैराश्याकडे वाहून नेतात. आपल्या मनावर जर नकारात्मक विचारांचा प्रभाव जास्त असेल तर आपण कोणत्याच कार्यात यशस्वी होऊ शकणार नाही. इतकेच काय आपण जर मनाने दुबळे असू तर आजारी असताना कितीही चांगल्या प्रतीची औषध घेतली तरी बरे होणार नाही. आपण जेव्हा दवाखान्यात जातो तेव्हा डाॅक्टर म्हणत असतात, ‘ घाबरू नका. तुम्हाला या औषधामुळे बरे वाटेल.’ अर्थात डाॅक्टरसुध्दा प्रथम आपले मनोबल वाढवितात. निर्भय होऊन कोणत्याही संकटाचा सामना केला तर अर्धी लढाई आपण आपल्या मनाच्या तयारीवरच जिंकू शकतो.
आपण कोरोना काळाचा विचार केला तर हा काळ एखाद्या महायुद्धासारखाच होता. पण जे लोक मनाने निर्भय, सबल होते, त्यांनी न घाबरता कोरोनावर मात केली. आणि जे भयभीत झाले ते या रोगाचे बळी ठरले. ‘ मी उद्याचा सूर्य अत्यंत प्रसन्नतेने पहाणार आहे.’ असा विचार आपण रात्री झोपताना केला तर नक्कीच उद्याचा दिवस आपल्यासाठी प्रसन्नता घेऊन येतो. ‘ मी खरोखर सुखी आहे. माझे आयुष्य सुंदर आहे. मी निरोगी आहे. .माझे सर्व मित्र, नातेवाईक चांगले आहेत.’ .. अशी अनेक सकारात्मक वाक्ये आपण रोज आपल्या मनावर कोरली पाहिजेत. जणू आपणच आपल्या भविष्याला सकारात्मकतेचे आव्हान दिले पाहिजे. मी येणाऱ्या संकटावर मात करण्यास समर्थ आहे असा विचार करून स्वतःमध्ये सकारात्मक उर्जा तयार केली पाहिजे.
… अशा प्रकारे आपणाकडे सकारात्मक विचारांचे सुदृढ मन असेल तर आपण आयुष्य खूपच सोपेपणाने आणि सुंदर जगू शकू हे निश्चित.
(मागील भागात आपण पहिले – आता तुही २८ वर्षाचा असशील.मुली बघताबघता आणि लग्न ठरेपर्यंत एक वर्ष तर निघूनच जाईल.मी असं करतो,मुली बघायला सुरुवात करतो” – आता इथून पुढे)
“पण तू पाठवलेली स्थळं बाबांना चालणार नाहीत “
“तेही खरंच आहे.पण तुझ्या बाबांचे नातेवाईकही तुझ्यासाठी स्थळं पाहतील असं वाटत नाही “” बरोबर. बाबांचं त्यांच्याशीही पटत नाही. तूच मुली पहा पण मुलीकडच्यांना सांगून ठेव की ते बाबांना भेटल्यावर तुझ्या ओळखीचा उल्लेखही करणार नाहीत.”
“चालेल.तू काही काळजी करु नकोस. मी करतो सगळं व्यवस्थित.”
” मामा मुलगी अशी खमकी पहा की तिने बाबांना सुतासारखं सरळ केलं पाहिजे “
मामा हसला. ” बरोबर आहे तुझं.मनात आणलं तर तीच सरळ करु शकते त्यांना.बघतो तसं “त्याने फोन ठेवला.वैभवला हायसं वाटलं.बहिण गेली तरी मामाने भाच्याशी संबंध तोडले नव्हते.
एक दिवस वैभव संध्याकाळी घरी आला पण घरात शांतता पाहून त्याला आश्चर्य वाटलं.यावेळी त्याचे वडील टिव्हीवरच्या बातम्या बघत बसलेले असत.
“बाबा ss”त्याने हाक मारली.पण उत्तर आलं नाही. बुट काढून तो जयंतरावांच्या बेडरुमकडे गेला.पाहतो तर जयंतराव पलंगाखाली अस्ताव्यस्त अवस्थेत पडलेले होते.
“काय झालं?” त्याने विचारलं “पलंगावरुन पडलात का?”
त्यांनी ओठ हलवले.पण तोंडातून शब्दही बाहेर पडला नाही.
“बोला ना! काय झालं?”
त्यांनी परत ओठ हलवले.पण घशातून आवाज बाहेर आला नाही.
“बरं ठिक आहे. उठा पलंगावर झोपा “
त्यांनी डाव्या हाताने उजव्या पायाकडे इशारा केला.वैभवने उजव्या पायाला हात लावून पाहिला.त्यांचा पायजमा वर करुन पाहिला.तिथेही काही जखम नव्हती.
” काही तर झालेलं नाहिये.बरं ठिक आहे.मी तुम्हांला उचलतो “
त्यांच्या काखेतून दोन्ही हात घालून त्याने त्यांना उचललं पण जयंतराव पायच टेकवत नव्हते.मोठ्या मुश्कीलीने त्याने त्यांना पलंगावर बसवलं.
“झोपा आता “
जयंतरावांनी परत एकदा डाव्या हाताने उजवा पाय आणि हाताकडे इशारा केला.वैभवने त्यांच्या उजव्या पायाकडे पाहिलं.तो निर्जीवपणे लटकत होता.वैभव चमकला. एकदम त्याच्या लक्षात आलं आणि तो मुळापासून हादरला.त्यांना पँरँलिसीसचा अटँक आला होता.त्यात त्यांची वाचा तर गेली होतीच पण उजवा पाय आणि हात कामातून गेले होते.तो बराच वेळ सुन्नावस्थेत बसून राहिला. हजारो विचार त्याच्या डोक्यात दाटून आले.मग त्याच्या लक्षात आलं.असं बसून चालणार नव्हतं.त्यांना ताबडतोब हाँस्पिटलमध्ये अँडमीट करणं गरजेचं होतं.त्याने अँम्ब्युलन्सला फोन लावला.एका चांगल्या हाँस्पिटलमध्ये अँडमीट केलं.त्याचा संशय खरा ठरला होता.तो पँरँलिसीसचाच अटँक होता.
“डाँक्टर ते बरे होतील का यातून?”त्याने चिंतातूर आवाजात डाँक्टरांना विचारलं.
“आपण प्रयत्न करु.पण रिकव्हरीला किती वेळ लागेल आपण सांगू शकत नाही. तुम्हांला आता त्यांची खुप काळजी घ्यावी लागेल.त्यांचं सगळं बेडवरच करावं लागणार आहे.तेव्हा त्यांना स्वच्छ ठेवणं, रोज मालीश करणं,वेळच्या वेळी मेडिसीन देणं या गोष्टी तुम्हांलाच कराव्या लागणार आहेत. “
वैभवने मान डोलावली आणि तो विचारात गढून गेला.थोड्या वेळाने त्याने सगळ्या नातेवाईकांना कळवलं.नातेवाईक येतीलही.दोनचार सहानुभूतीचे शब्द बोलतील पण जयंतरावांच्या सेवेसाठी कुणीही थांबणार नाही हे त्याला माहित होतं.मामा आला तेव्हा तो त्याच्या गळ्यात पडून खुप रडला.
“वैभव एखादा माणूस लावून घे त्यांचं सगळं करायला.म्हणजे तू मोकळा रहाशील. “
” अशी माणसं खुप पैसे मागतात मामा शिवाय मी घरात नसेन.त्याने घरात चोऱ्याबिऱ्या केल्या तर?”
” ती रिस्क तर आहेच पण पर्याय तरी काय आहे?तुला एकट्याला ते करणं कठीण आहे.आणि पैशांची काही काळजी करु नकोस.मी देत जाईन “
“ज्या बाबांनी तुला आयुष्यभर शिव्या दिल्या त्यांच्या सेवेसाठी तू पैसे देणार?”
” मी तुझ्यासाठी करतोय हे सर्व. तुझं आरोग्य आणि मनःस्वास्थ्य बिघडू नये म्हणून “
वैभव गहिवरला.त्याने परत मामाला मिठी मारली.
पंधरा दिवसांनी तब्येतीत काहीही सुधारणा होत नाही हे पाहून जयंतरावांना घरी पाठवण्यात आलं.वैभवने घरात आल्यावर त्यांना पलंगावर झोपवलं.त्यांच्या चेहऱ्याकडे त्याने पाहिलं.तिथे कोणत्याही भावना त्याला दिसल्या नाहीत. त्याच्या मनात विचार आला ‘या माणसाने आपलं संपूर्ण आयुष्य दुसऱ्यांवर हुकूमत गाजवण्यात घालवलं.आज हा असा लाचार होऊन पडलाय.बरी जिरली.आता कुणावर हुकूमत गाजवणार?ती घमेंड ,अहंकार यांना कसं कुरवाळणार?खरंच छान झालं.देवाने छान शिक्षा केली.आता तुम्ही सर्वस्वी माझ्यावर अवलंबून रहाणार.आता मीच कसा तुम्हांला नाचवतो बघा.’
त्याने आनंदाने जयंतरावांच्या चेहऱ्याकडे पाहिलं. ते त्याच्याचकडे पहात होते.मात्र आता त्यांच्या चेहऱ्यावर एक स्मित होतं.ते वैभवबद्दल वाटणाऱ्या प्रेमाचं स्मित होतं की वैभवची थट्टा करणारं होतं ते वैभवला कळलं नाही. थोड्या वेळाने त्याला कळलं आणि तो हादरुन गेला.त्या स्मितामागचा अर्थ त्याला कळला होता.ते विजयाचं हसू होतं.विकलांग होऊनही जयंतरावांची सरशी झाली होती. लोकलाजेस्तव का होईना वैभवला वडिलांची सेवा करावीच लागणार होती .त्यांची तब्येत अजून बिघडू नये म्हणून त्यांच्या आरोग्याची जास्तच काळजी त्याला घ्यावी लागणार होती.वडिल विकलांग आहेत म्हणून त्याच्याशी कुणी मुलगी लवकर लग्न करणार नव्हती.कदाचित ते जिवंत आहेत तोपर्यंत त्याचं लग्न होणं कठीण होतं किंवा मग रुप,शिक्षण,सामाजिक दर्जा विसरुन,अनेक तडजोडी स्विकारुन वैभवला मुलगी निवडावी लागली असती.म्हणजे बायकोबद्दल ज्या ज्या कल्पना त्याने केल्या होत्या,जी जी स्वप्नं रंगवली होती ती पुर्णत्वाला येणं अशक्यच दिसत होतं.
त्या विचारासरशी वैभवचं डोकं तापू लागलं.वडिलांकडे पहात तो संतापाने ओरडला,
“झालं समाधान?आयुष्यभर माझ्या आईचा छळ केलात,तिच्या माहेरच्यांचा छळ केलात.आता मीच उरलो होतो तर माझाही छळ सुरु केलात ना?मी आता कामंधामं सोडून फक्त तुमच्याकडेच बघत रहायचं का?माझीही काही स्वप्नं आहेत,काही महत्वाकांक्षा आहेत.त्या सगळ्यांवर मी तुमच्यासाठी पाणी सोडायचं का?…..……”
तो संतापाने ओरडत होता.त्यांच्या दुष्ट वागणुकीचा इतिहास उकरुन काढत होता.
जयंतराव बोलू तर शकत नव्हते पण मुलाच्या अशा ओरडण्याने ते घाबरुन गेल्याचे भाव त्यांच्या चेहऱ्यावर स्पष्टपणे दिसत होते.जोरजोराने बोलता बोलता एका क्षणी वैभवचा तोल गेला आणि तो किंचाळून म्हणाला,
“असा माझा मानसिक, शारीरिक छळ करण्यापेक्षा तुम्ही मरुन का नाही गेलात?”
ते ऐकून आधीच भेदरुन गेलेले जयंतराव घशातून विचित्र आवाज काढत ढसाढसा रडू लागले.डोळ्यातून अश्रूंच्या धारा वाहू लागल्या.बापाला इतकं केविलवाणं रडतांना वैभव आज पहिल्यांदाच पहात होता.त्याच्यातल्या संतापाची जागा हळूहळू करुणेनं घ्यायला सुरुवात केली.ह्रदयाला पीळ पडू लागला.त्याला लहानपणापासूनचे वडील आठवायला लागले.एकुलता एक मुलगा म्हणून त्याचे लाड करणारे,त्याच्यावर जीवापाड प्रेम करणारे,त्याला थोडंही काही लागलं की कासावीस होणारे,सायकलवरुन त्याला शाळेत पोहचवणारे,त्याचा वाढदिवस दणक्यात साजरा करणारे,त्याचा प्रत्येक हट्ट पुरवणारे वडील त्याला आठवू लागले.एकदा त्याचा अपघात होऊन तो पंधरा दिवस हाँस्पिटलमध्ये अँडमीट होता तेव्हा दिवसरात्र ते त्याच्याजवळ बसून होते.बायको आणि मेव्हण्याशी ते वाईट वागत असले तरी वैभवशी ते नेहमीच प्रेमाने वागत आले होते.त्यांच्या तापट स्वभावामुळे वैभव मोठा झाल्यावर दोघा बापलेकांचे थोडेफार खटके उडायचे पण तेव्हा जयंतरावच बऱ्याचवेळा नमतं घ्यायचे.वैभव नागपूरला शिकण्यासाठी निघाला तेव्हा त्याला निरोप देतांना त्यांनी मारलेली मिठी आणि त्यांच्या डोळ्यातलं पाणी वैभवला आजही आठवत होतं.त्या आठवणींनी वैभव कासावीस झाला.’आज वडिलांची वाईट अवस्था झाली म्हणून आपण त्यांच्यावर संतापतोय,ओरडतोय.समजा त्यांच्याऐवजी आपलीच अशी अवस्था असती तर ते असेच आपल्याशी वाईट वागले असते?नाही.आपल्याला असंच मरुन जा म्हणाले असते? शक्यच नाही.दुसऱ्यांशी ते कसेही वागले तरी बाप म्हणून त्यांनी आपलं कर्तव्य चोख पार पाडलं आणि मुलगा म्हणून आपलं कर्तव्य निभावण्याची वेळ आली तर आपण अशी चिडचिड करतोय.त्यांना सरळ मरुन जा असं म्हणतोय ‘ या विचारासरशी वैभवला आपल्या वागण्याची लाज वाटली.त्याला एकदम गहिवरुन आलं आणि दुसऱ्याच क्षणाला त्याने वडिलांना घट्ट मिठी मारली.
“नका रडू बाबा.नका रडू.मी चुकलो.मी असं बोलायला नको होतं.तुम्हाला माझ्याशिवाय आणि मलाही तुमच्याशिवाय या जगात दुसरं कोण आहे?काही काळजी करु नका मी तुमचं सगळं व्यवस्थित करेन “
त्याने त्यांच्याकडे पाहिलं.ते अजूनही केविलवाणे रडत होते.वैभवला एकदम भडभडून आलं.तो रडू लागला तसं जयंतरावांनी डाव्या हाताने त्याला जवळ ओढलं आणि ते त्याच्या डोक्यावरुन,पाठिवरुन प्रेमाने हात फिरवू लागले.
☆ “स्व सुलोचना – एक सात्विक पर्व संपले ” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆
(३०जुलै १९२८—०४जुन २०२३)
सिनेसृष्टीतील एक सात्विक पर्व संपलं. एक वात्सल्यमूर्ती काळाच्या पडद्यामागे हरपली. एका महान कलावंताची प्रेमस्वरूप सफर संपली.
जिचं नाव घेताच कपाळी रेखीव चंद्रकोर, नाकात नथ, डोईवर काठाचा पदर, आणि डोळ्यात शीतल चंद्रप्रकाश असलेली एक अत्यंत तेजस्वी, कर्तव्यनिष्ठ, करारी, तितकीच प्रेमळ, आणि सात्विक स्त्रीची मुद्रा नकळत उभी राहते, ती म्हणजे चित्रपट सृष्टीचा एक मोठा कालखंड गाजविणाऱ्या श्रेष्ठ अभिनेत्री सुलोचना यांचीच.
चित्रपटसृष्टीत त्या सुलोचना दीदी म्हणून प्रसिद्ध होत्या. चार जून २०२३ रोजी वयाच्या ९४ व्या वर्षी त्यांची प्राणज्योत मालवली आणि अभिनयाचं एक दिव्य पर्व समाप्त झालं.
१९४३ साली हिंदी चित्रपट सृष्टीत पृथ्वीराज कपूर यांच्याबरोबर सहकलाकार म्हणून त्यांनी अभिननयाची सुरुवात केली. त्यानंतर राज कपूर, शम्मी कपूर, शशी कपूर या दुसऱ्या आणि तिसऱ्या पिढी बरोबरही त्यांनी भूमिका केल्या. त्यांनी जवळजवळ ३०० हून अधिक मराठी — हिंदी चित्रपटात भूमिका केल्या.
वहिनीच्या बांगड्या, मीठ भाकर, मराठा तितुका मेळवावा, साधी माणसं, कटी पतंग हे त्यांचे विशेष गाजलेले चित्रपट.
चित्रपटात त्या जेव्हा आल्या तेव्हा त्यांची भाषा इतकी शुद्ध नव्हती. त्यांच्या बोलण्याची थट्टा व्हायची. भालजी पेंढारकर हे त्यांचे गुरु. त्यांनी त्यांच्यासाठी एक संस्कृत मासिक लावलं. ते वाचणं अतिशय क्लिष्ट काम होतं मात्र त्याबद्दल अजिबात तक्रार न करता त्यांनी ती मासिकं वाचली आणि भाषा शिक्षण, उच्चार शिक्षणाची अक्षरश: तपस्या पार पाडली.
जशी भूमिका तसा अभिनय,तशीच संवादाची भाषेची भावपूर्ण नेमकी उलगड. सहज,अकृत्रीम हे त्यांचे खास वैशिष्ट्य.
वास्तविक त्यांचं मूळ नाव रंगु. जयप्रभा स्टुडिओत काम करण्यात आल्यानंतर त्यांचे विशाल, भावपूर्ण डोळे पाहून भालजी पेंढारकरांनीच त्यांचे सुलोचना असे नामकरण केले आणि चित्रपटसृष्टीत सुलोचना याच नावाने त्यांना प्रसिद्धी मिळाली.
भालजींना त्या बाबा म्हणायच्या. त्यांच्याविषयी आदरपूर्वक बोलताना त्या म्हणतात,” बाबांनी आम्हाला घोड्यावर बसणं, तलवार चालवणं इत्यादी ऐतिहासिक भूमिका करताना आवश्यक असणाऱ्या गोष्टी शिकवल्या. एडिटिंग सुद्धा त्यांनी आम्हाला शिकवलं.”
सुरुवातीला त्या नृत्य प्रधान सिनेमात काम करत. पण भाऊबीज या चित्रपटानंतर त्यांनी तशा प्रकारच्या भूमिका स्वीकारल्या नाहीत. कारण एक दोन ठिकाणी समारंभात त्यांना अशी विचारणा झाली होती की त्या सिनेमात नृत्य का करतात? तेव्हा त्यांनी सांगितले होते की त्या नृत्यकला शिकल्या आहेत. त्यावेळी त्यांना कोणीतरी म्हणालं की, “तुम्ही म्हणजे एक आदर्श स्त्री आहात. तुमचे नृत्य पाहून आमच्याही पोरीबाळी नाचायला लागतील ते आम्हाला कसे चालेल?”
त्यावेळेचा काळ इतका आधुनिकतेकडे झुकलेला नव्हता. विचार मागासलेले होते. पण त्यांच्याविषयी अशी भीती व्यक्त केल्यामुळे त्यांना फार वाईट वाटले आणि मग त्यानंतर त्यांनी चित्रपटात नृत्य करणे सोडून दिले.
सुलोचना दीदींनी मराठी आणि हिंदी चित्रपटसृष्टीत अभिनयाचा ठसा उमटवला. त्यांनी आपल्या व्यक्तिरेखांनी विशेषत: आईच्या भूमिकेने प्रेक्षकांच्या मनात स्थान निर्माण केले. हिंदी आणि मराठी दोन्ही चित्रपट सृष्टीशी त्यांचे नाते जिव्हाळ्याचे राहिले. त्या जशा पडद्यावर प्रेमळ सोशिक दिसत तशाच त्या लोकांतही एक सर्वांसाठी मायेचा आधार होत्या. त्यांच्याकडे पाहता क्षणीच एक स्वच्छ, निर्मळ, पावित्र्याचाच अनुभव येत असे. खरोखरच त्यांच्या जाण्याने एक आई गमावल्याचं दुःख होत आहे.
त्यांचा सिने प्रवास अनेक दशकांचा. त्यांनी अनेक नायिका अभिनीत केल्या.
एका मुलाखतीत बोलताना त्या म्हणाल्या होत्या,” एक खंत आहे. पेशवाईतल्या पार्वती बाई, अहिल्याबाई होळकर आणि झाशीची राणी या तीन भूमिका करायच्या राहून गेल्या,”
मराठी चित्रपट सृष्टीला त्यांनी मौलिक योगदान दिले. प्रपंच चित्रपटासाठी राज्य शासनाचा सर्वोत्कृष्ट अभिनेत्रीचा पुरस्कार त्यांना १९६३ साली मिळाला. महाराष्ट्र शासनाचा व्ही. शांताराम पुरस्कार, केंद्र शासनातर्फे पद्मश्री, मराठी चित्रपट महामंडळातर्फे चित्र भूषण आणि महाराष्ट्र शासनातर्फे महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार —असे अनेक मानाचे तुरे त्यांच्या माथी मिरवले. जीवनगौरव, लाईफ अचीवमेंट अॅवाॅर्ड ही त्यांना मिळाले.
असे हे चित्रपट सृष्टीतील एक निर्मळ, निखळ, विमल व्यक्तिमत्व. काळ कोणासाठी थांबतो? अशा अनेक कलारत्नांना आपण आजवर मुकलो आहोत. आज सुलोचना दीदींच्या रूपाने एक मायेची ज्योत विझली पण कलाकारांचा अंत होत नसतो. कलेच्या रूपात त्यांचं अस्तित्व अमर असतं. सुलोचना दीदींनी स्वातंत्र्यपूर्व आणि स्वातंत्र्यानंतरचाही दीर्घकाळ अभिनयाच्या माध्यमातून गाजवला. त्यांच्या विविध भूमिकांचा रसिकांनी आस्वाद घेतला. सत्वगुणाचा खरोखरच प्रत्यक्ष अनुभवच घेतला. रसिकांच्या मनावर त्यांनी आनंदाचं राज्य केलं. आज त्या नाहीत. एका महान, जाणत्या कलाकाराची जीवन यात्रा पूर्ण झाली. त्यांना कृतज्ञता भावनांनी निरोप देऊया! प्रेमपूर्वक, आदरपूर्वक श्रद्धांजली वाहूया!!🙏💐