(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखव्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 216 ☆  

? आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं?

व्यंग्य का प्रहार दोषी व्यक्ति को आत्म चिंतन के लिये मजबूर करता है. जिस पर व्यंग्य किया जाता है, उससे न रोते बनता है, न ही हंसते बनता है. मन ही मन व्यंग्य को समझकर स्वयं में सुधार करना ही एक मात्र सभ्य विकल्प होता है. पर यह भी सत्य है कि कबीर कटाक्ष करते ही रह गये, जिन्हें नहीं सुधरना वे वैसे ही बेशर्मी की चादर ओढ़े मुखौटे लगाये तब भी बने रहे आज भी बने हुये हैं. किन्तु इस व्यवहारिक जटिलता के कारण व्यंग्य विधा को नकारात्मक लेखन कतई नही कहा जा सकता.

व्यंग्य बिल्कुल भी नकारात्मक लेखन नहीं है. बल्कि इसे यूं कहें तो उपयुक्त होगा कि जिस तरह कांटे को कांटा ही निकालता है, व्यंग्य ठीक उसी तरह का कार्य करता है. आशय यह है कि व्यंग्य लेखन का उद्देश्य हमेशा सकारात्मक होता है. जब सीधे सीधे अमिधा में कहना कठिन होता है, तब इशारों इशारों में कमियां उजागर करने के लिये व्यंग्य का सहारा लिया जाता है. ये नितांत अलग बात है कि आज समाज इतना ढ़ीठ हो चला है कि राजनेता या अन्य विसंगतियो के धारक वे लोग जिन पर व्यंग्यकार व्यंग्य करता है वे व्यंग्य को समझकर प्रवृत्ति में सुधार करने की अपेक्षा उसे अनदेखा कर रहे हैं. व्यंग्य को परिहास में उड़ाकर वे सोचते हैं कि वे ही सही हैं. चोर की ढ़ाढ़ी के तिनके को देखकर व्यंग्यकार इस तरह कटाक्ष करता है कि यदि चाहे तो चोर समय रहते स्वयं में सुधार कर ले तो वह एक्सपोज होने से बच सकता है. किन्तु आज निर्लज्ज चोर, चोरी करके भी सीना जोरी करते दिखते हें. व्यंग्य के प्रहार उन्हें आहत नही करते. वे क्लीन शेव करके फिर फिर से नये रूप में आ जाते हैं. लकड़ी की काठी भी अब बारंबार चढ़ाई जा रही है. बिना पोलिस और कोर्ट के डंडे के आज लोगों में सुधार होते नहीं दिखता. इसलिये पानीदार लोगों को इशारों में शर्मसार करने की विधा व्यंग्य को ही नकारात्मक लेखन कहने की कुचेष्टा की जा रही है. यदि सभी के द्वारा सामाजिक मर्यादाओ के स्वअनुशासन का पालन किया जाये तो व्यंग्य से अधिक सकारात्मक लेखन कुछ हो ही नहीं सकता.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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