हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #3 – जीवन भी क्रिकेट ही है ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  साप्ताहिक  स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन भी क्रिकेट ही है”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ सकारात्मक सपने  #-3 ☆

 

☆ जीवन भी क्रिकेट ही है ☆

 

२० .. २०  क्रिकेट की तेजी ही उसकी रोचक रोमांचकता है, जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. आज के व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २० ..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी से जल्दी आउट करना होता है.  जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं, विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं, ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है. प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २०  .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन के रन सिंगल्स हो सकते हैं, यश अर्जन के चौके, समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है, रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है. सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है. जो खिलाड़ी इस जीवन क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है. जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है, जिस दिशा में हम उसे मारते हैं. जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रियता ही हमें स्थापित करती है, जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं.

© अनुभा श्रीवास्तव

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 वृत्त  वियदगंगा ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।   सुश्री रंजना  जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश  देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है  भावप्रवण गीत   – वृत्त  वियदगंगा )

 

? रंजना जी यांचे साहित्य #-3 ? 

 

☆ वृत्त  वियदगंगा   ☆

 

*लगागागा लगागागा लगागागा लगागागा*

 

मानवा

जरा परमार्थ जीवाचा ,

रुचेना  मानवा तुजला।

कसा बाजार मोहाचा,

कळेना मानवा तुजला।

 

कसा धुंदीत पैशाच्या ,

विसरला माय बापाला।

निरागस भाव का त्यांचा

दिसेना मानवा तुजला।

 

नको धावू  सुखामागे

जरी भुलवी दिखावा हा।

कसा रे बोध सत्याचा,

घडेना मानवा तुजाला।

 

जरी खडतर खरा आहे

कितीही मार्ग सौख्याचा।

इथे कष्टाविना काही

मिळेना मानवा तुजला।

 

असे सत्ता किती लोभस,

मनाला ओढ ती लावी ।

कसे हे पाश मोहाचे,

तुटेना मानवा तुजला।

 

पुरे कर खेळ स्वार्थाचा

जरा ये भूवरी थोडा ।

कुठे का बंध नात्यांचे

जुळेना मानवा तुजला।

 

अभ्यासक ✍

©  रंजना मधुकर लसणे✍

मार्गदर्शक सुश्री अर्चनाजी

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

 

image_print

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ I Teach Happiness ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ I Teach Happiness

my quest for happiness has been fun..

i read Confucius, Buddha, and Aristotle..

savoured chocolate, wine and good company..

was a laughter professor for some time..

dug deep into behavioural science to discover myself..

had a long lasting affair with Positive Psychology, Seligman, Csikszentmihalyi and Lyubomirsky..

tried learning a few trade secrets from the happy monks Matthieu Ricard and Dalai Lama..

did research on yoga nidra and discovered the wonder world of Swami Satyananda Saraswati..

all these streams continue to trickle in the background..

i continue to learn, but it’s high time now to give back..

i, therefore, teach happiness..

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।

तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ।।29।।

 

प्रकृति गुण जो नहीं समझते वही लिप्ति वश होते है

मंद बुद्धि अज्ञानी जन को,समझदार सह ढोते है।।29।।

      

भावार्थ :  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।।29।।

 

Those deluded by the qualities of Nature are attached to the functions of the qualities. A man of perfect knowledge should not unsettle the foolish one of imperfect knowledge. ।।29।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)
image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ मुखौटा ☆ – सुश्री रक्षा गीता

सुश्री रक्षा गीता 

 

(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।  आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज  प्रस्तुत है उनकी कविता  “मुखौटा”।)

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय 

  • एम फिल हिंदी- ‘कमलेश्वर के लघु उपन्यासों का शिल्प विधान
  • पीएचडी-‘धर्मवीर भारती के साहित्य में परिवेश बोध
  • धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित

 

☆ मुखौटा 

 

मेरे चेहरे पर

स्वयं

मुखौटा चढ़

जाता है,

मन घबरा जाता है,

पूरी आत्मीयता से

जब मुस्कुराता है,

उसे देख कर ,

नफरत तो नहीं जिससे,

मगर प्रेम भी तो नहीं ।

मुखौटा हंसता है !

मन कहीं रोता है ,

ऐसा कहीं होता है!

मगर सोच कर

जरा भी-

हैरान नहीं होता है।

जबकि सब ओर चढ़े हैं

मुखौटे !!

पल-पल बदलते हैं

सामने  मुख़ौटे के हिसाब से रंग रूप रंग लेते हैं

मुखौटा

पर ये मुखौटा ?

सच्चा है ?

रंग रूप में कच्चा है।

चेहरों को देख ,

डर से घबरा जाता है

बदल लेता है राह

कभी रंग रूप पककर

सख्त हो जाएंगें

इस चेहरे पर भी कई मुखौटे

चढ़ जाएंगे

फिर

ना डरेगा

ना घबराएगा

ना

बदलेगा राह।

 

© रक्षा गीता ’✍️

दिल्ली

 

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #7 – देऊळ.…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सातवीं कड़ी देऊळ…. । आज के इस आध्यात्मिक विषय पर कदाचित गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे प्रभु की मूरत वैसी ही दिखाई देती है। किन्तु ,उस मूरत से अपने आप को कैसे जोड़ना है वह आपको तय करना है।सुश्री आरूशी जी का यह आलेख ईश्वर के सम्मुख अपनी भावनाओं को परत दर परत खोलता जाता है। इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #7  ? 

☆ देऊळ….   ☆

 

पवित्रता, श्रद्धा, भक्ती ह्यांचा निवास… परमेश्वरापुढे नतमस्तक होऊन, मीपणा दूर ठेवून, आपल्या मनातील भावना त्याला सांगण्याचे ठिकाण… आपले दुःख दूर व्हावे म्हणून त्याला साकडे घालायचे असेल तर इथेच येतो आपण…

प्रत्येकाच्या आयुष्यात एखादे तरी देऊळ असते जिथे त्या व्यक्तीला खूप शांत, आनंदी, समाधानी वाटते… त्या जागी पोचताच क्षणी एकदम हलकं वाटतं…

काही जण रोज देवळात जातात, काही जण मनात आलं की जातात, तर काही जण देवळात जायचं म्हटलं की नाक मुरडतात… काही जण नेम म्हणून जातात, तर काही जण नवस फेडायला जातात… प्रत्येकाचा देव वेगळा, तसं प्रत्येकाचं देऊळ वेगळं… पण सरते शेवटी देवळात गेल्यावर शरणागती हाच एक भाव उरतो… त्याचा दिखावा करायची गरज नसते, तिथे फक्त तो आणि आपण असतो… एका दैवी पातळीवर संवाद घडतो, त्यात कोणाची ढवळा ढवळ नसते…

घरी दररोज पूजा केली तरी देवळात गेल्यावर जे हाती लागतं, ते शब्द बद्ध करणं मुश्किल आहे… ज्याला त्याला आयुष्य सुखकर करतांना आधार देण्याचं, धीर देण्याचं काम बऱ्याचवेळा देऊळ करतं… हे झालं बाह्य रुपी मंदिराबद्दल.. पण कधी अंतस्थ मंदिराबद्दल विचार केला आहे?

मीपण हल्ली हल्लीच असा विचार करू लागले आहे… म्हणजे तशा भावना जागृत व्हायला लागल्या आहेत… म्हणजे नेमकं काय हे सांगू शकत नाही, पण बऱ्याच वेळा बसल्या जागी त्याला शरण जाते आणि त्याच्याशी गप्पा मारते, मन मोकळेपणाने… शरीर रुपी मंदिरात तो कधी मित्र म्हणून असतो, कधी पिता म्हणून, कधी आई, कधी मोठा भाऊ, कधी जोडीदार बनून समोर येतो… सर्व भाव भावनांना त्याच्या पर्यंत पोचवताना, आपला भार आपण त्याच्यावर टाकून मोकळे होतो… सहजच अगदी…

तो हृदयस्थ असतो, फक्त त्याला ओळखायची गरज असते… जन्म, मृत्यू ह्याच्या पलीकडे जाताना तोच तर नेहमी बरोबर असतो, हो ना !

 

© आरुशी दाते

 

image_print

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ State Bank of India Grooms Its Staff With A Dash of Laughter ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

☆ State Bank of India Grooms Its Staff With A Dash of Laughter

What would you say about a club that grooms a hundred youngsters every week to laugh for no reason? Chetana Laughter Club has the unique distinction of taking a few thousand young officers along the pathway of self-triggered joy during the past one year. State Bank Foundation Institute (Chetana) has been set-up at Indore to groom young bank officers. During their training, the officers have a brief tryst with laughter yoga. It is used as an ice-breaker at the beginning of programme and as an energizer in between the sessions. Besides, there is a full-fledged laughter session every Wednesday evening.

Debrati Dey, probationary officer came to the institute from Kolkata unaware of what was in store for her. She says, “The laughter session was one laugh riot. Every time a new exercise for laughter was introduced, it instantly generated excitement and contemplation of the possible outcome. One of the phrases which everyone chanted after every act was ‘very good, very good, yay!’ It is a simple phrase without any actual meaning .But when you clap your hands and say it loud, the phrase brings out its actual magic. It became an instant hit and a college anthem for us. In this era of ‘survival of the fittest’, Laughter club has the guts to say ‘ survival of the happiest ‘. I didn’t realize through the course of the session how it had a positive biochemical effect on my cardiovascular and nervous system. It’s only when I got back to my room that I could see myself happy, de-stressed and re-energized.”

Another probationer, Mohit Kumar says, “This laughter club is truly fascinating. It enthuses us in so simple a way. It has filled us with confidence and positivity. Hats off to chetana laughter club!”

The institute is fully laughter enabled. All faculty members are trained laughter leaders. “It has been observed that laughter yoga is conducive in creating a good environment for learning and community living. The experiment has been very valuable and fruitful for all at the institute,” feels Vijay Puri, faculty who loves to attend all laughter sessions. He tells us, “All the participants invariably imbibe the chants of ‘very good very good yay’ during their stay and it soon becomes their mantra. This is something they will never forget in life.

Gradually, they realize the virtues of unconditional laughter for their health and well-being.”

“I feel that laughter yoga is suited to the Indian psyche and the participants feel relaxed after laughter session. It is a voluntary activity available to our participants and there is no compulsion“, says K K Iyer, director, state bank foundation institute (Chetana), Indore.

Laughter yoga which initially started as a social club movement has now entered the business world. By introducing laughter yoga for staff, corporates have reported happier workplace, increased efficiency, better communication, team work and reduced stress levels.

A presentation on laughter yoga was made at the local head office of SBI at Bhopal by laughter yoga professionals Radhika Bisht and Jagat Singh Bisht. The audience included the staff, senior officials and their families. They appreciated it very much. Mr S K Mishra, then chief general manager, who is now a deputy managing director of the State Bank of India, the largest bank of this country, desired that an audio track be recorded containing instructions for a brief laughter session. The track is played every morning at 11 o’clock over the public address system at the local head office and more than five hundred employees spread on five floors of the building chant ‘very good very good yay” and laugh in unison every working day.

A brief energizing session of laughter yoga was conducted by laughter yoga professionals Radhika Bisht and Jagat Singh Bisht at the beginning of bipartite meeting between state bank of india management and staff federation representatives at hotel Sayaji, Indore earlier this year. It was attended by the DMD & CDO, CGM (HR), CGM (Bhopal Circle), several senior officials of the Bank and all the top leaders of state bank staff federation from all the circles. The energizing effect of the session was felt and appreciated by everyone.

Presentations on laughter yoga have been arranged twice at the state bank academy, Gurgaon before officers from all over the country. It has also been showcased at the state bank staff college and state bank institute of information and communication management located in Hyderabad. The staff of SME credit processing centre and stressed assets recovery branch at Indore have found the laughter yoga sessions very invigorating. A laughter yoga session for bank guards, assistants, probationary officers and faculty was conducted at the state bank learning centre, Goa. It was a unique experience as all of them laughed from their being level making it absolutely difficult to distinguish differences in their grades as they laughed like kids. The laughter virus has meanwhile spread to other centres – Kanpur, Lucknow, Goa, Nagda, Nagapattinam etc. – through some well meaning trainers and officers.

The journey of laughter for the State Bank of India (SBI) started on the 13th of September, 2010 when the laughter club of state bank learning centre, Indore was inaugurated with a bunch of newly promoted officers. Whoever came to the learning centre after that had a brush with laughter yoga. They laughed every morning with a small group of willing laughers from all the groups who poured in week after week.

A good number of probationers from State Bank of Patiala, State Bank of Mysore and State Bank of Hyderabad have also undergone basic sessions of laughter yoga at the institute in Indore.

I have had the privilege of introducing laughter yoga in the SBI and laughing with thousands of my colleagues. The bank has given me bread, butter and a respectable place in the society. Now, it is time that I give back something to this great institution. I am sure my humble contribution will bring cheer to some of the souls here.

I would like to be remembered as a messenger of love and laughter when I retire from the Bank.

Jagat Singh Bisht

Retd. AGM and Faculty, State Bank Foundation Institute (Chetana), Indore

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।28।।

गुण कर्मो के तत्व जानने वाले, न्यारे रहते है

निरासक्त रह, प्रकृति कार्य करती है ऐसा कहते हैं।।28।।

भावार्थ :  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम ‘गुण विभाग’ है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम ‘कर्म विभाग’ है।) के तत्व (उपर्युक्त ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ से आत्मा को पृथक अर्थात्‌निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ।।28।।

 

But he who knows the truth, O mighty-armed Arjuna, about the divisions of the qualities and their functions, knowing that the Gunas as senses move amidst the Gunas as the sense-objects,  is not attached. ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ सवाल ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

☆ सवाल

 

ये दिल मेरा कितना खाली है

पर इसमें सवाल बेहिसाब हैं

मैं जवाब की तलाश में

दर-दर भटक रही हूँ

पर मेरे दिल की तरह

मेरे जवाबों की झोली भी

खाली है।

ये दिल मेरा….

भरा है माता-पिता के प्रति

कृतज्ञता से

भाई-बहनों के प्रति

प्यार और दुलार से

माँ की दी हुई सीख से

पिता के दिए हुए ज्ञान से

दादा-दादी के दुलार से

सबने सिखाया तरह-तरह से

अलग-अलग ढंग से

बस एक ही सीख

औरों के लिए जीना

औरों की खुशी में खुश रहना

बहुत सा ज्ञान भरा है मेरे उर में

पर फिर भी

ये दिल मेरा..कितना खाली है

वो दिल…

जिसमे परिवार के लिए

प्यार भरा है

पत्नी का त्याग भरा है

माँ की ममता का सागर

हिलोरें लेता है

बहू के कर्तव्यों से भरा है

अहर्निश की अनवरत

खुशियाँ बाँटने का

प्रयास भरा है

फिर भी….

ये मेरा दिल.. कितना खाली है…

इस खाली दिल में

बच्चों के टिफिन की

खुशबू

उनकी पुस्तकों के हरफ

भरे हैं

पति की फाइलों को करीने से

रखने की फिक्र

ससुर जी की दवाइयों की

उड़ती गंध और

सासू माँ के घुटनों की मालिश

के तेल की चिकनाहट

भरी है

देवर ननद के

इस्त्री के लिए

दिए गए कपड़ों की

सिलवटें भरी हैं

जिम्मेदारियों को सिससिलेवार

पूरा करने की ख्वाहिशों में

कितनी सफल और

कितनी असफल हुई

ऐसे भी अनगिनत

सवालों का अंबार भरा है

फिर भी….

ये दिल.. कितना खाली है…

एक खाली टीन के डब्बे सा

जो रिश्तों की थाप से

भरे होने का भ्रम पैदा करता है

किन्तु भीतर शून्यता का

बोध कराता है

इस संसार में मैं क्या हूँ

कौन हूँ मैं

ये आज तक जाना ही नहीं

मेरी पहचान जो औरों से

परिचय कराती है मेरा

उसमें भी मेरा अपना क्या है?

पहले पिता

फिर पति का नाम

जुड़ा हुआ यूँ लगता है

मानों मैं परछाई हूँ

बिना किसी अस्तित्व के,

मेरा अस्तित्व तो मेरे पिता या पति हैं

वह परछाई जो

उजाले में प्रत्यक्ष होती है

अँधेरे में विलुप्त हो जाती है

रैन-दिवा मैं कर्मरत

पर मेरा कोई कर्म

स्वतंत्र रूप से मेरा नही

मेरा ये दिल….

कितना खाली है..

पर इसमें सवालों की

कभी न खत्म होने वाली

वो पूँजी है

जो कभी समाप्त ही नहीं होती।

ये दिल मेरा….कितना खाली है?????

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087
image_print

Please share your Post !

Shares
image_print