हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनभिव्यक्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनभिव्यक्त ? ?

अंतहीन विवाद,

भीषण कलह,

एक-दूसरे के लिए आज से

मर चुका होने की घोषणा,

फिर भी जाने क्या था कि

खिड़की के कोने पर खड़ा वह,

भाई को तब तक देखता रहा

जब तक सुरक्षित रूप से

पार नहीं कर ली उसने सड़क

और ओझल नहीं हो गया आँखों से..,

 

आपसी सहमति से हुए

उनके संबंध विच्छेद पर

अब तो अदालती मोहर भी लग चुकी,

फिर भी जाने क्या है कि

हर रोज़ वह बनाती है अपने साथ

उसके भी नाम की रोटियाँ

और सुबह आँसुओं के नमक से

लगा-लगा कर खाती है

रो़ज़ाना उसे कोसते हुए..,

 

संपत्ति बीच में क्या आई

शत्रु हो गई अपनी ही जायी,

एक खुद का, दो बेटों का

और एक बेटी का हिस्सा करके भी

गुज़रने से पहले

माँ अपना हिस्सा भी कर गई

अबोला किए नाराज़ बेटी के नाम..,

 

‘लव यू मॉम’…

‘फॉर ईच अदर, फॉरएवर’…

‘ग्रेटेस्ट ब्रो!’…

सेलेब्रेशन, विशिष्ट संबोधन

और फिर पढ़ता हूँ सुर्खियाँ-

भाई का भाई द्वारा खून,

पति निकला पत्नी का हत्यारा,

बूढ़ी माँ को बेटी

ने दिया घर निकाला..,

सोचता हूँ

जो अभिव्यक्त नहीं होता था,

संभवत: अधिक परिपक्व

अधिक सशक्त होता था!

© संजय भारद्वाज  

(प्रात: 6:30 बजे, 2 जुलाई 2016)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 266 ☆ कविता – लंदन से 2 – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता लंदन से 2 – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 266 ☆

? कविता लंदन से 2 – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर ?

मोबाईल इस कदर समा गया है जिंदगी में

कैलेंडर कागज के

बदलते कहां हैं अब

 

साल , दिन ,महीने , तारीखें,  समय सब कैद हैं टच स्क्रीन में

वैसे भी

अंतर क्या होता है

आखिरी तारीख में बीतते साल की 

और पहले दिन में नए साल के ,

जिंदगी तो वैसी ही दुश्वार बनी रहती है ।

 

 हां दुनियां भर में

जश्न , रोशनी , आतिशबाजी

जरूर होती है

रस्म अदायगी की साल के स्वागत में

 

टूटने को नए संकल्प लिए जाते हैं

गिफ्ट का आदान प्रदान होता है ,

ली दी जाती है डायरी बेवजह

 लिखता भला कौन है अब डायरी

सब कुछ तो मोबाइल के नोटपैड में सिमट गया है ।

 

जब हम मोबाइल हो ही गए हैं, तो आओ टच करें

हौले से मन

अपने बिसर रहे कांटेक्ट्स

और अपडेट करें एक हंसती सेल्फी अपने स्टेटस पर

हर

सूर्योदय के साथ

जहां जागें,

सोएं वहां से कुछ आगे बढ़कर

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #38 ☆ कविता – “महामाया…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 38 ☆

☆ कविता ☆ “महामाया…☆ श्री आशिष मुळे ☆

क्या हो कैसी हो

कौन हो कहां हो

दिल से करीब

मगर हातों से

इतनी क्यों दूर हो

तुम बस एक सपना हो

 

जीत हो

शिकस्त हो

दिल का सुकून

या दिल जलाता

दर्द-ए-इश्क हो

तुम बस एक सपना हो

 

छोटीसी परी हो

परियों का नूर हो

हज़ार लफ्ज़ फेंकती

किसी मेहबूबा की

एक हसीन मुस्कान हो

तुम बस एक सपना हो

 

पानी में बसे आंसू हो

आंखों में बसा दर्या हो

दिल खौलता लावा

या उसी लावा से बनती

एक ऊंचीसी हस्ती हो

तुम बस एक सपना हो

 

पत्थरों में बसते लफ्ज़ हो

लफ़्ज़ों में छुपे पत्थर हो

अंधेरे मे रोशन

लफ़्ज़ों का अर्थ

या अर्थहीनता एक अर्थ हो

तुम बस एक सपना हो

 

भाव से खेलते नक्श हो

दिल से खेलता भाव हो

भाव का अभाव भी

अभाव का भाव भी

और भाव का भाव भी हो

तुम बस एक सपना हो

 

रंगो में भीगती होली हो

रंगों ने जलाई होली हो

हर एक रंग का भी

बेरंग का भी

एक रंगीन नजारा हो

तुम बस एक सपना हो

 

दिल में बसी ‘वोह‘ हो

जानवर मुझे बनाती हो

कभी बस एक स्त्री

कभी बस एक मां हो

इंसान जो मुझे बनाती हो

तुम एक महामाया हो

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 196 ☆ बाल गीत – सुखद चाँदनी चंदा जी की ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 196 ☆

बाल गीत – सुखद चाँदनी चंदा जी की ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सुखद चाँदनी चंदा जी ने नभ , थल में फैलाई।

वासंती ऋतु ने भी आकर अपनी प्रीति बढ़ाई।।

 *

भोर हुई मौन तारों की टिमटिम – टिमटिम।

ऐसा लगता रहा पूर्णिमा रिमझिम – रिमझिम।।

 *

योग कर रहे साथ – साथ हम समय लगा सुखदाई।

सुखद चाँदनी चंदा जी ने नभ , थल में फैलाई।।

 *

सम्मोहित कर चंदा जी को खूब निहारा।

चंदा मुस्काए प्रीतम प्रेम लुटाया सारा।।

 *

हुए उमंगित , आनंदित हम नई चेतना आई।

सुखद चाँदनी चंदा जी ने नभ , थल में फैलाई।।

 *

समय , परिस्थिति देख बढ़ें हम जीवन पथ पर।

आएँ सूरज देव बैठ घोड़ों के  रथ पर।।

 *

जागो सोने वालो शीतल हवा बुलाए हमको भाई।

सुखद चाँदनी चंदा जी ने नभ , थल में फैलाई।।

 *

बच्चो जागो और न सोओ मौसम अतिशय प्यारा।

मौन शांति में हमको मिलता जीवन का रस सारा।।

 *

जो जगता है भोर प्रभा में सेहत बने मलाई।

सुखद चाँदनी चंदा जी ने नभ , थल में फैलाई।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #221 – कविता – ☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय रचना  “आज के संदर्भ में – षड्यंत्रों का दौर…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #221 ☆

☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

शब्द अटपटे ये, समझो।

*

साँसों का विज्ञान अलग

टिका हुआ साँसों पर जग

प्रश्न  जिंदगी के बूझो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

पाना हैं मीठे फल तो

स्वच्छ रखें हम जल-थल को

आम-जाम आँगन में बो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

मन भारी जब हो जाए

पीड़ा सहन न हो पाए

बच्चों जैसा जी भर रो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

कितना खोटा और खरा

अपने भीतर झाँक जरा

क्यों देखे इसको-उसको

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

संसद के गलियारों में

अपने राजदुलारों में

खेल चल रहा है खो-खो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

गर अधिकार विशेष मिले

भूलें शिकवे और गिले

दूजों को उनका हक दो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

*

बहुत जटिल जीवन अभिनय

मन में रखें न संशय-भय

अभिनव कला-मर्म सीखो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 45 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 45 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

एक मिट्टी का

घड़ा है आदमी

छलकते अहसास से रीता।

 

मुँह कसी है

डोर साँसों की

ज़िंदगी अंधे कुँए का जल,

खींचती है

उम्र पनहारिन

आँख में भ्रम का लगा काजल

 

झूठ रिश्तों पर

खड़ा है आदमी

व्यर्थ ही विश्वास को जीता।

 

दर्द से

अनवरत समझौता

मन कोई

उजड़ा हुआ नगर

धर्म केवल

ध्वजा के अवशेष

डालते बस

कफ़न लाशों पर

 

बड़प्पन ढोता

है अदना आदमी

बाँचता है कर्म की गीता।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अवसान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अवसान ? ?

अवसान को जाते

सूरज का साक्षी हूँ मैं,

अनन्य रूप, अनन्य कांति,

उगने का नवागत बोध नहीं;

जी लेेने की लालिमा है,

अभिमानी प्रखरता नहीं;

कर्मपूर्ति की विनम्रता है,

चाँद को पदच्युत

करने का संघर्ष नहीं;

आलोक की फेरी

बाँटने का हर्ष है,

इस सदाशयता का प्रशंसक हूँ मैं,

डूबते सूरज का उपासक हूँ मैं..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये असर है मेरे प्यार का“)

✍ ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

प्यार मेरी ज़रूरत नहीं , आपकी भी जरूरत है ये

दिल लगाना नहीं खेल है, मेरे रब की इबादत है ये

 *

ये बढ़ावा सितमगर को है, ज़ुल्म पर  मौन बैठे रहो

ये शरीफ़ों को जायज़ नहीं, तेरी कैसे शराफत है ये

 *

ये असर है मेरे प्यार का, फल रही हर दुआ है मेरी

आइना तो ज़रा देखिये, क्या हसीं रुख पे रंगत है ये

 *

जिसकी मनमानियों से यहाँ, लोग अवसर की थे तांक में

हाथ मजबूत वो ही किये, यार कैसी बगावत है ये

 *

सिद्क़ दिल से दुआ तुम जो दो, सूखता पेड़ जाए सँवर

आदमी को अता उसने की, वो ही शफ़क़त की ताकत है ये

 *

ग़म कहें किससे परदेश में, दूसरे दर्ज़े के आदमी

हम मशीनें हैं इंसान से, अय वतन  करके हिज़रत है ये

 *

लत लगी जो खराबात की, दस तबाही करे सच कहा

टूटे नाते सभी घर मिटा, आज बस साथ ग़ुरबत है ये

 *

थूक लो सिर उठाकर मगर, दाग सूरज पे आता नहीं

पेश तुम क्यों सफाई करो, जानते लोग तुहमत है ये

 *

फेंक पश्चिम के चश्मे को जब, पांव माँ के दबाया हूँ मैं

ढूढिये आप जन्नत मगर , मिल गई मुझको जन्नत है ये

 *

ए अरुण हाथ को आग में, जानकर आप मत डालिये

आदमी को जला डालती, ऐसी कातिल मुहब्बत है ये

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 44 – कोई तो रास्ता होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कोई तो रास्ता होगा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 44 – कोई तो रास्ता होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

स्वर्ग में यह कहाँ मजा होगा 

जब न महबूब ही वहाँ होगा

*

कोई चाहत न आरजू कोई 

ऐसी दुनिया में क्या धरा होगा

*

दोस्ती खत्म यूँ नहीं होती 

कोई न कोई बेवफा होगा

*

आग नफरत की क्यों नहीं बुझती 

इसका कोई तो रास्ता होगा

*

दुश्मनी, बेवजह नहीं होती?

जख्म दिल पर, दिया गया होगा

*

झुक गई जो कमर जवानी में 

बोझ बेटी का भी, रहा होगा

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 120 – छल प्रपंच की आड़ ले… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  “छल प्रपंच की आड़ ले…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 120 – छल प्रपंच की आड़ ले…

करुणा जागृत कीजिये, निज मन में श्री मान ।

अहंकार की विरक्ति से, जग होता कल्यान ।।

 *

दूर छिटकने जब लगें, सारे अपने लोग ।

तब समझो है लग गया, अहंकार का रोग ।।

 *

मन ग्लानि से भर उठे, अपने छोड़ें साथ ।

काम न ऐसा कीजिये, झुक जायेे यह माथ।।

 *

मन अशांत हो जाय जब, मत घबरायें आप ।

विचलित कभी न होइयेे, करंे शांति का जाप ।।

 *

गिर कर उठते जो सदा, करते ना परवाह ।

पथ दुरूह फिर भी चलें, मिलती उनको राह ।।

 *

कष्टों में जीवन जिया, मानी कभी न हार ।

सफल वही होते सदा, जीत मिले उपहार ।।

 *

भूत सदा इतिहास है, वर्तमान ही सत्य ।

कौन भविष्यत जानता, काल चक्र का नृत्य ।।

 *

छल प्रपंच की आड़ ले, बना लिया जो गेह ।

पंछी यह उड़ जाएगा, पड़ी रहेगी देह ।।8

☆ 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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