हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #228 – लघुकथा – ☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वातानुकूलित संवेदना” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #228 ☆

☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक उनकी नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर साहित्यजीवी बुद्धिप्रकाश जी उसके पास पहुँच कर देखते हैं –

वह व्यक्ति खर्राटे भरते हुए इत्मीनान से गहरी नींद सोया है।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच सर्व सुविधाभोगी,अनिद्रा रोग से ग्रस्त बुद्धिप्रकाश जी को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने गहरे से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे  पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वे वापस अपनी कार में सवार हो गए और घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में जुट गए।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए बुद्धिप्रकाश जी आत्ममुग्ध हो एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास से भर गए।

रिक्शाचालक पर सृजित अपनी इस दयनीय सशक्त कहानी को दो-तीन बार पढ़ने के बाद उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हो रहा है कि, खुशी में अनायास ही इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी जोरों से मन में हिलोरें लेने लगी।

तो ताजे-ताजे मिले इस संवेदना परक विषय पर कविता लिखना बुद्धिप्रकाश जी ने इसलिए भी जरूरी समझा कि, हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से पात्र रिक्शेवाले के ज़रिए उन्हें किसी सम्मानित मुकाम तक पहुँचा कर कल को प्रतिष्ठित कर दे।

यश-पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के सम्मोहन में बुद्धिप्रकाश जी अपने शीत-कक्ष में अब कविता की उलझन में व्यस्त हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

रात छोटी हो गई है

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बिटविन द लाइन्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  बिटविन द लाइन्स ? ?

वे सोचते थे

मेरी माँ

समझ नहीं पाती होगी

मेरी कविता में प्रयुक्त

शब्दों के अर्थ,

उस रोज़

मेरे काव्य पाठ में

शब्दों के चयन पर

वाह-वाह करती

भीड़ में

माँ की आँखों से

प्रवाहित आह ने

उन्हें झूठा साबित कर दिया,

मेरी पोएट्री लाइन्स पर

भीड़ तालियाँ कूटती रही,

केवल मेरी माँ

‘बिटविन द लाइन्स’

पढ़ती रही!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ – My Abode… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Ministser of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem My AbodeWe extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ My Abode…?

Oh, No! I can never think of leaving this house ever

But, I don’t either want to live in a dwelling this old

*

Though our dignity is intact in this abode; but then,

I can never think of trading my self-esteem either

*

With borrowed feet, hands and head of someone,

No! Never can I even think of increasing my height

*

I’d rather starve than accepting alms from anyone

No! I don’t need any beguiled benevolence from you

*

O’ Lord! If you gave eyes, then give me sights to behold,

How long can I remain staring at the same walls..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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Poetry,
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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ आँखें ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ आँखें 👁️ ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

दिल जो चाहे  वो  बोलो

हां बोलो  या ना बोलो ।।

*

मसिजीवी कहलाते  हो

थोड़ा सा तो मुंह खोलो ।।

*

तलुए  चाटो  कुर्सी   के

या फिर मिट्टी के हो लो ।।

*

अपनी  जिम्मेदारी   को

कुछ सिक्कों से मत तोलो।।

*

वक्त की सौ सौ आँखें  हैं

बच पाओगे, सच  बोलो ।।

*

खामोशी  आकंठ    हुई

विप्लव की राहें खोलो ।।

🌳🦚🐥

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो“)

✍ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जब ग़ज़ल अपना सर उठाती है

शाहों के तख़्त तक गिराती है

ज़िन्दगीं साथ कब निभाती है

मौत से कितना ख़ौफ़ खाती है

 *

उससे इतना तो रब्त है मेरा

वो ग़ज़ल मेरी गुनगुनाती है

 *

मेरा जब भी उदास मन होता

माँ ख़यालों में मुस्कराती है

 *

नेवले साँप दोस्त बन जाते

जब सियासत हुनर दिखाती है

 *

हार से लेके जो सबक लड़ता

ज़िन्दगीं उसको ही जिताती है

 *

ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो

ज़िन्दगीं हर कदम बताती है

 *

मदरसों में जो हम न पढ़ पाए

ज़िन्दगीं वो हमें सिखाती है

 *

इस जहाँ की हवस है ऐसी हवस

खून का रिश्ता भूल जाती है

 *

लगता बच्चे किसान को झूमें

फ़स्ल जब उसकी लहलहाती है

 *

ये अदालत है न्याय कब करती

अपना बस फैसला सुनाती है

 *

दस्त पर जिसको है यक़ीन अरुण

मुफ़लिसी उसको कब सताती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जितने दूर, उतने पास।)

?अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 जीवन में दूरियां भी हैं, और नजदीकियां भी, जो जितना पास है, उसकी कद्र नहीं, जो दूर है उसे पाए बिना सब्र नहीं। आधी छोड़ पूरी को पाना, क्या एक बच्चे द्वारा दोनों हाथों में लड्डू का थाल समेट लेने जैसा अनथक प्रयास नहीं। बच्चा तो अबोध, नासमझ है, लेकिन साधारण मनुष्य भी कहां, जो पास उपलब्ध है, करीब है, उससे संतुष्ट है।

पास और करीबी का अहसास किसे नहीं होता। एक मां तक अपने नवजात शिशु को एक पल के लिए भी अपनी आंखों से दूर नहीं जाने देती। क्या कलेजे के टुकड़े से अधिक करीबी कोई रिश्ता आपने देखा है। ।

लेकिन जब जो पास है, वह पर्याप्त प्रतीत नहीं होता, तब निगाहें दूर तक कुछ खोजा करती हैं। केवल वस्तुओं तक ही यह सीमित हो ऐसा जरूरी नहीं, जब पास के रिश्तों में खटास का अनुभव होने लगे, स्वार्थ, मतलब और खुदगर्जी अपने पांव पसारने लगे, तब रिश्तों में दूरियां पनपनी शुरू हो जाती हैं। अपने कब पराये हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता।

जहां प्रेम की गांठ मजबूत होती है, हमेशा करीबी का अहसास बना रहता है। दूरी और नजदीकी यहां कोई मायने नहीं रखती। एक बंधन ऐसा भी होता है, जब कोई दूर का अनजान मुसाफिर अचानक हमारे जीवन में आता है, और हमारा जीवन साथी बन जाता है ;

कभी रात दिन हम दूर थे

दिन रात का अब साथ है।

वो भी इत्तिफाक की बात थी

ये भी इत्तिफाक की बात है। ।

बस फिर तो, “जनम जनम का साथ है, निभाने को, सौ सौ बार मैने जनम लिए” यानी जितने दूर उतने पास अनंत काल तक। ।

क्या दूर और क्या प्यास, क्या धरती और आकाश, सबको प्यार की प्यास। यह प्यास अगर पास नहीं बुझती तो एक प्यासा मृगतृष्णा की तरह भटकता ही रहता है, बस्ती बस्ती परबत परबत। जहां दो बूंद पानी मिला, बस वहीं विश्राम।

हमारी प्यास जन्मों की है, यह इतनी आसानी से तृप्त नहीं हो सकती। हम दूर के रिश्तों में, यारों में, दोस्तों में कुछ ऐसा तलाश करते हैं, जो हमें और करीब, और पास लाए, जहां रिश्ते दिलों के हों, आत्मीय हों, जिससे चित्त शुद्ध हो, मन शांत हो। यह तलाश कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, क्योंकि हम जिसे दूर दूर तक तलाश रहे हैं, वह तो कहीं नजर ही नहीं आ रहा। थक हारकर व्यथित मन यही कह उठता है ;

ओ दूर के मुसाफिर

हमको भी साथ ले ले।

हम रह गए अकेले।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मत बोल बच्चन :1

☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये शहर छोटी छोटी बातों पर होने वाले झगड़ों के नाम पर पहचाना जाता है. कभी कभी तो झगड़ालू दल बाद में सोचता रहता कि किस बात पर या फिर बिना किसी बात के ही झगड़ गये।ये द्वंद्व सिर्फ मौखिक ही हुआ करता, जिन्हें भीड़ में घुसकर तमाशा देखने के शौकीन “जुबानी जमाखर्च” कहते और आगे बढ़ जाते।इस शहर ने कई स्टंट फिल्मों के डॉयलाग राइटर भी पैदा किये थे जो फाईट मास्टर तो नहीं थे पर “दुश्मन के खून से घर क्या गली रंगने” जैसे धांसू डॉयलॉग लिखकर लाईमलाईट में आये थे।प्राय: ऐसे जन्मजात और खानदानी प्रतिभा साथ संपन्न कलाकारों के घर पर, गली के नुक्कड़ पर और दिमाग में भी भूसे की जगह “श्याम से कहना कि छेनू आया था, अगली बार मेरे किसी लड़के को हाथ भी लगाया तो पूरा मोहल्ला राख कर दूंगा” ये सुपरहिट डॉयलॉग हमेशा घूमता रहता था। ऐसे मोहल्लों का हर प्रतिभाशाली युवा, जवान होने के दौरान ऐसे बहुत से डॉयलॉग बोलने का रियाज कर कर के कर कर के ऐसे जवां होता रहता। इनके अग्रज याने अर्सा पहले इसी  जालिम जवानी के दौर से गुजर चुके सूरमाओं के दो ही शौक हुआ करते थे पहला तमाशबीन बनकर हर ऐसे झगडों का बिना कोई जोखिम उठाए मजे लेना और फिर अपने दौर के और खुद की बहादुरी के मिर्च मसाले से भरे अतिशयोक्ति पूर्ण किस्से सुनाना। इसके अलावा इन्हें खुद को “भाई” के नाम से पुकारा जाना बेहद पसंद होता। ये “भाई” फेंकने में उस्ताद तो होते ही थे पर मौके की नज़ाकत को पहचान कर समझदार बनना भी बखूबी जानते थे।

किस्मत से “असहमत” की भी एक ऐसे ही भाई से दोस्ताना संबंध थे यद्यपि “भाई” उसे अपना नालायक शागिर्द मानते थे।

तो जिस दिन की यह घटना है,उस दिन गर्मी अपने शबाब पर थी,सूरज कहर ढा रहा था और शहर का तापमान 45 डिग्री के पार जा रहा था, असहमत के कूलर, एयर कंडीशनर विहीन घर के हुक्मरान बनाया सीलिंग फेन याने पंखों ने भी बगावत की घोषणा करते हुये अपनी समझ से ‘चकाजाम’ कर दिया याने अपनी सहचरी ब्लेड्स (पंखुड़ियों) को थम जाने का फरमान जारी कर दिया। घर की प्रजा के लिये यह मामला नाजुक और सहनशक्ति से बाहर हो गया तो असहमत को बड़ी निर्ममतापूर्वक संबोधित करते हुये तुरंत इलेक्ट्रीशियन के पास दौड़ाया गया ताकि वो आकर इस बेचैनी से निज़ात दिलाये और घर को हवादार बनाए।

क्रमशः… याने झगड़े का समापन अगले अंक में 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 22 – मुक्ति मार्ग ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मुक्ति मार्ग।)

☆ लघुकथा – मुक्ति मार्ग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

भूखे पेट भजन न होय गोपाला। भूख तो सबको लगती है भगवान के दर्शन हो जाएं तो मन तृप्त होता है लेकिन शरीर के लिए तो भोजन आवश्यक है ।

देखो बहू मैं साड़ी देख रही थी तो तुम्हें और जीतू को ऐतराज हो रहा था मैं तुम्हारे लिए ही साड़ी बनाना चाह रही थी।  डिजाइन को अपने दिमाग में बिठा रही थी देखो चूड़ी बिंदी तो सब जगह मिलती है, लेकिन तुम्हारा मन ललचाया ।

कोई बात नहीं तुम देखो?

तब तक मैं सभी के खाने की व्यवस्था करती हूं। उस सामने वाले रेस्टोरेंट में आ जाना।

तभी मां एवं जीतू के पास एक बुजुर्ग आती है और कहती है बहन जी काशी में आई है कुछ दान पुण्य तो कर लीजिए, मुक्ति मार्ग दान के सहारे ही मिलेगा।

हां अब बस तुम ही तो बाकी रह गई हो उपदेश देने को उधर मंदिर में पुजारी, टीवी खोल कर बैठो तो साधु से लेकर युवा पीढ़ी सभी लोग फेसबुक, व्हाट्सएप जाने कहां से इतना सभी के पास ज्ञान आता है ?

बेटा हम तुम भोजन करें वही हमारे लिए मुक्ति मार्ग है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 229 ☆ मृदगंध ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 229 ?

☆ मृदगंध ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

 पुढच्याच महिन्यात पाऊस येईल,

मृगाचा!

जून मधला पाऊस मला खरा वाटतो,

तुझ्यासारखा!

दरवर्षी नवा !

— कोऱ्या पाठ्यपुस्तकांसारखा!!

त्या कोऱ्या पुस्तकांचा वास

आणि मृदगंध!

कुठल्याही सुवासिक फुलाला किंवा

महागड्या अत्तरालाही,

नाहीच त्याची सर !

 

नेमेचि येतो…..म्हणण्या सारखा,

नाही राहिला पाऊस!

तो ही आता बेभरवशाचा!

 

पण आठवणी नेहमीच

असतात भरोश्याच्या…शाश्वत!

मला जून मधला पाऊस,

जुन्या आठवणींच्या गावात घेऊन जातो !

ती शाळा..भिजलेली वाट…

वर्ग…खिडकी ..पाऊसधारा!

 

आपलं गाव दुष्काळी,

पण पाऊस नेहमीच असतो,

सुजलाम सुफलाम!

  वैशाख वणव्यात तापलेल्या

धरणीला तृप्त करताना,

दरवळणारा मृदगंध—

थेट प्राणात जाऊन पोहचलेला,

 

आणि सखे तू ही तशीच !

 

 म्हणायचीस,

“जिवंतपणी तर मी तुला विसरूच शकत नाही पण,

मेल्यानंतरही तुझी आठवण,

माझ्या आत्म्याबरोबर असेल”

आणि

तू  अकालीच निघून गेलीस….

पण थेट प्राणात रुतून बसली

आहेस—-

 

पाऊस कसाही मोसमी- बेमोसमी,

 

तू मात्र शाळेत असल्यापासून,

श्वासात भरून घेतलेल्या,

मृदगंधासारखी !!!

© प्रभा सोनवणे

४  मे २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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