हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 123 ☆ इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय  एवं ज्ञानवर्धक आलेख  ‘इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 123 ☆

? इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल से क्षिप्रा में सिहस्थ स्नान ?

२००९ में उज्जैन में अभूतपूर्व सूखा पड़ा और पानी की आपूर्ति के लिये शासन को  ट्रेन की व्यवस्था तक करनी पड़ी, शायद तभी क्षिप्रा में सिंहस्थ के लिये वैकल्पिक जल स्त्रोत की व्यवस्था करने की जरूरत को समझा जाने लगा था. ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की स्वीकृति दी गई. इस परियोजना की कामयाबी से महाकाल की नगरी में पहुंची मां नर्मदा. इससे  क्षिप्रा नदी को नया जीवन मिलने के साथ मालवा अंचल को गंभीर जल संकट से स्थायी निजात हासिल होने की उम्मीद है। नर्मदा के जल को बिजली के ताकतवर पम्पों की मदद से कोई 50 किलोमीटर की दूरी तक बहाकर और 350 मीटर की उंचाई तक लिफ्ट करके क्षिप्रा के प्राचीन उद्गम स्थल तक  इंदौर से करीब 30 किलोमीटर दूर उज्जैनी गांव की पहाड़ियों पर जहां क्षिप्रा  लुप्त प्राय है, लाने की व्यवस्था की गई है. नर्मदा नदी की ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के खरगोन जिले स्थित सिसलिया तालाब से पानी लाकर इसे क्षिप्रा के उद्गम स्थल पर छोड़ने की परियोजना से नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवाहित होगा और तकरीबन 115 किलोमीटर की दूरी तय करता हुआ प्रदेश की प्रमुख धार्मिक नगरी उज्जैन तक पहुंचेगा. ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना’ की बुनियाद 29 नवंबर 2012 को रखी गयी थी। इस परियोजना के तहत चार स्थानों पर पम्पिंग स्टेशन बनाये गये हैं। इनमें से एक पम्पिंग स्टेशन 1,000 किलोवॉट क्षमता का है, जबकि तीन अन्य पम्पिंग स्टेशन 9,000 किलोवाट क्षमता के हैं। परियोजना के तीनों चरण पूरे होने के बाद मालवा अंचल के लगभग 3,000 गांवों और 70 कस्बों को प्रचुर मात्रा में पीने का पानी भी मुहैया कराया जा सकेगा। इसके साथ ही, अंचल के लगभग 16 लाख एकड़ क्षेत्र में सिंचाई की अतिरिक्त सुविधा विकसित की जा सकेगी।

नर्मदा तो सतत वाहिनी जीवन दायिनी नदी है, उसने क्षिप्रा सहित साबरमती नदी को भी नवजीवन दिया है.गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में  डाला जाता है, लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया जाता है  बिजली के पम्प से नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थिति तदनुरूप है.

नर्मदा का धार्मिक महत्व अविवादित है, विश्व में केवल यही एक नदी है जिसकी परिक्रमा का धार्मिक महत्व है. नर्मदा के हर कंकर को शंकर की मान्यता प्राप्त है, मान्यता है कि स्वयं गंगा जी वर्ष में एक बार नर्मदा में स्नान हेतु आती हैं, जहां अन्य प्रत्येक नदी या तीर्थ में दुबकी लगाकर स्नान का महत्व है वही नर्मदा के विषय में मान्यता है कि सच्चे मन से पूरी श्रद्धा से नर्मदा के दर्शन मात्र से सारे पाप कट जाते हैं तो इस बार जब सिंहस्थ में क्षिप्रा में डुबकी लगायें तो नर्मदा का ध्यान करके श्रद्धा से दर्शन कर सारे अभिराम दृश्य को मन में अवश्य उतार कर दोहरा पुण्य प्राप्त करने से न चूकें, क्योकि इस बार क्षिप्रा के जिस जल में आप नहा रहे होंगे वह इंजीनियरिंग का करिश्मा नर्मदा जल होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 104 – लघुकथा – आलौकिक आभा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “आलौकिक आभा। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 104 ☆

? लघुकथा – आलौकिक आभा ?

पुराने दियों को समेटते समेटते आभा का मन  एक बार फिर पुरानी बातों को सोचने पर विवश हो उठा। वृद्धावस्था में मां पिताजी का साथ छोड़ कर, अपने परिवार को लेकर प्रकाश उसी शहर में अलग रहने लगा था।

दोनों बच्चे पढ़ाई कर रहे थे और पतिदेव पेपर पर नजर गड़ाए समाचारों पर लिखे राजनीति की चर्चा फोन पर कर रहे थे। सुनिए… आज मां पिताजी से मिलने चलते हैं। आभा ने पास आकर कहा। तिलमिला उठा प्रकाश… तुमने सोचा भी कैसे कि मैं वहां जाऊंगा? मेरे परिवार से कोई रिश्ता नहीं है उन दोनों का और हां तुम भी वहां नहीं जाना। कोई जरूरत नहीं है दया दिखाने की।

आभा के चेहरे पर दीपावली की सारी खुशियां जाती रही। दीये का प्रकाश क्या? सिर्फ एक काली अमावस के लिए होता है? नहीं, मन में निर्णय कर वह काम पर लग गई।

शाम को पति देव घर आए टेबिल पर सजा खाना देख बहुत ही खुश होकर पास आकर कहा… कोई मेहमान आने वाले हैं क्या? आभा ने कहा.. नहीं, बस यूं ही आज जल्दी खाना  बना लिया।

हाथ मुंह धोकर वह बच्चों के साथ बैठा और खाने का स्वाद जाना पहचाना आ जाने के बाद उसकी आंखें भर आई।

आभा की तरफ कुछ कहने ही जा रहा था कि दूसरे कमरे से मां लगभग हंसते रोते हुए निकलकर आई और कहने लगी… सच ही कहा बहू तूने, प्रकाश अपने मां पिताजी को कभी भुला नहीं सकता। बस थोड़ा लापरवाह और जिद्दी हो गया है।

सिर पर हाथ सहलाती मां अपने प्रकाश को मानों बाहों में समेटना चाह रही थी। तभी पिताजी बाहर आकर कहने लगे… अरी भाग्यवान आज तो प्रकाश को समेटों नहीं उसका अलौकिक प्यार फैलने दो ताकि हम सब उस का आनंद ले सकें।

यह कहकर उन्होने भी प्रकाश को मां के साथ सीने से लगा लिए। प्रकाश कुछ समझता या कहता। आभा ने सभी को कहा… विश यू वेरी हैप्पी दिवाली। आप सभी को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ और बधाइयाँ।

आज सच मानिए दीये की अलौकिक आभा चमक रही थी। मन ही मन अपने परिवार को समेट कर।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 111 ☆ देहाचा बंगला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 111 ?

☆ देहाचा बंगला ☆

तुझ्या देहाचा बंगला, केला ओळंब्यात उभा

हवे तसे झुकण्याची, तरी आहे तुला मुभा

 

तुझ्या कानांचे पडदे, त्यांना भेटतात वारे

वाजवती कडी हळू, पोचवती शब्द सारे

खोट्या शब्दांची संगत, नको धरूस रे बाबा

तुझ्या देहाचा बंगला, केला ओळंब्यात उभा…

 

मुखःद्वार अन्नासाठी, नको उघडे कायम

जठर हे माणसाचे, आहे पावन रे धाम

ज्याचे सपाट उदर, तेच पोट देते शोभा

तुझ्या देहाचा बंगला, केला ओळंब्यात उभा…

 

काळजाचे हे घड्याळ, त्याची टिक टिक भारी

नको चावी नको सेल, चालते ते श्वासावरी

नाही तुझ्या हाती काही, आहे ईश्वराचा ताबा

तुझ्या देहाचा बंगला, केला ओळंब्यात उभा…

 

अचानक बंगल्याला, आज गेला आहे तडा

काल भरलेला होता, आज रिकामा हा घडा

प्रियजनांच्या हातात, फक्त घेणे शोकसभा

तुझ्या देहाचा बंगला, केला ओळंब्यात उभा…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 63 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 63 –  दोहे 

शकुंतला की वेदना,पीड़ा पृष्ठ अनंत।

एक अश्रु की नसीहत, परिवर्तित दुष्यंत।।

 

अश्रु,अश्क, आँसू कहे, याकि नयन का नीर।।

हतभागों के पास है, सिर्फ यही जागीर।।

 

अश्रु नहीं कुछ और ये, दर्दों की संतान।

कवि ने उसको दे दिया, शब्दों का परिधान।।

 

आँसू दुख में निकलते, याकि रहे अनुराग ।

अश्रु बर्फ मानिंद हों, शीतलता में आग।।

 

विरह मिलन आँसू झरें, करें नयन उत्पाद।

बिना कहे ही समझ लें, ह्रदय हृदय की बात।।

 

ईश्वर रोया एक दिन, आँसू गिरा अमोल ।

इसीलिए दुनिया दिखे, आँसू जैसी गोल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 63 – भर रही हो रोशनी …..☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “भर रही हो रोशनी ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 63 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || भर रही हो रोशनी ….. || ☆

वस्तुतः जैसे

प्रवाली बन गई हो

श्यामली तुम फिर

दिवाली बन गई हो

 

फटे आँचल को

पकड़ कर प्यारमें

भर रही हो रोशनी

अँकवार में

 

किसी भूखे की

प्रतिष्ठा साधने को

भोग- छप्पन सजी

थाली बन गई हो

 

थप-थपाती उजाले

के बछेरू को

और सहलाती समय

के पखेरू को

 

आँख में भर उमीदों

के समंदर को

ज्योति की खुशनुमा

डाली बन गई हो

 

अनवरत श्रम से

लगा जैसे थकी हो

झरोखे में थम गई

सी टकटकी हो

 

रही खाली पेट

पर,आपूर्ति की

सुनहली कोई

प्रणाली बन गई हो

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-11-2021

दीपावली – 2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 23 ☆ व्यंग्य ☆ चूल्हा गया चूल्हे में ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “चूल्हा गया चूल्हे में…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 23 ☆

☆ व्यंग्य – चूल्हा गया चूल्हे में ☆ 

सन् 2053 ई.!

‘लेडीज एंड जेंटलमेन, म्यूजियम के इस सेगमेंट को ध्यान से देखिये. आर्यावर्त के मकानों में कभी किचन हुआ करते थे.’ – गाईड रसोईघर की प्रतिकृति दिखाते हुवे पर्यटकों को बता रहा था – ‘लोग अपने मकानों में भोजन बनाने लिए अलग से जगह निकालते जिसे रसोईघर कहा जाता था. छोटे से छोटे मकान में भी किचन के लिए जगह निकाली जाती थी. सभ्यता विकसित हुई, मोबाइल फोन आये, फूडपांडा, ज़ोमेटो, स्वीग्गी जैसे फूड एग्रीगेटर आये, क्लाउड किचन परिवारों के किचन को निगल गये. जनरेशन अल्फा को दस बाय दस का किचन भी वेस्ट ऑफ स्पेस लगने लगा. लेन्डर, फ्रीज़, ओवन, मिक्सर-ग्राईन्डर, चिमनी, टपर-वेयर के दो सौ से ज्यादा डिब्बे-डिब्बियों में नोन-तेल-मिर्ची. फूड-ऐप्स आने के बाद उन्होने न बांस रखे न बांसुरी बजाने के सरदर्द. आटा पिसवाने से लेकर बर्तन माँजने तक की बेजा कवायदों से उन्हे मुक्ति मिली. आर्यिकाओं को जित्ती देर आटा उसनने में लगती उससे कम देर में – पिज्जा डिलीवर हो जाता.’

‘सनी डार्लिंग – व्हाट इज दैट ?’ – टूरिस्ट ग्रुप में एक लेडी ने अपने हस्बेंड से पूछा.

‘दैट इज ए चूल्हा. ओल्ड टाईम में इन पर फूड कुक किया जाता था.’

‘एंड बिलिव मी – ये लकड़ी-कंडो से जलता था’ – गाईड ने अपनी ओर से जोड़ा.

‘कंडो!! व्हाट कंडो !!!’

‘वो ना काऊडंग को ड्राय करके फायर करके उस पर कुक करने का मटेरियल को बोलते थे.’

‘स्टूपिड पीपुल. काऊडंग पे कुकिंग!!’ – सोच से ही बदबूभर गई. उन्होने भौं के साथ नाक भी सिकोड़ी और झट से उस पर रुमाल रखा.

‘यस मैम बट फिर गैस से जलने वाले चूल्हे आये, फिर बिजली से चलने वाले. झोमेटो, स्वीग्गी, डोमिनो के आने के बाद चूल्हे चूल्हे में चले गये. दरअसल, आर्यजन रसोईघर को परिवार के स्नेह और मिलन का स्थान मानते थे.’

‘बैकवर्ड पीपुल.’

‘यस मैम, वे मानते थे कि किचन में एक साथ बैठकर भोजन करने से दुख-सुख की शेयरिंग हो जाती है, गिले शिकवे दूर जाते हैं, सदस्यों में समभाव और प्रेम बढ़ता है. किचन घर में धुरी की तरह होता. एक दकियानूस सी अवधारणा थी जिसे माँ के हाथ का खाना कहा जाता था. माँ घर में हर एक से पूछती खाने में क्या बनाऊँ..क्या बनाऊँ..फिर बनाती वही जो उसका मन करता. मगर जो भी बनाती उसमें स्वाद तो मसालों से आता ‘श्री’ माँ के हाथ की होती. किचन के विलुप्त होने की शुरूआत आउटिंग के चलन से हुई, फिर आउटिंग घर में घुस आया. लोग घर में बाहर का खाना बुलवाने लगे. डब्बाबंद खाने ने घर जैसे खाने का दम भरा और ‘घर में खाना खाने की जगह’ डिब्बे में समा गई. फिर यंग मदर्स में सिंगल पेरेंटिंग का चस्का लगा, खाना बनाना झंझट का काम लगने लगा. मदरें रसोई से फारिग होकर फेसबुक वाट्सअप, इंस्टाग्राम में समा गईं, और किचन म्यूजियम में.”

‘गुड, बट टुमारा चूला से फिंगर बर्न होता होयंगा.’ – अबकी बार उसने गाईड को कहा.

‘यस, बर्न तो होता था बट जैसा मैंने बताया ना आपको अजीब टाईप की लेडीजें हुआ करती थी, हाथ जले तो जले रोटी फूली फूली परोसने में सुख पाती थीं. माना जाता था घर में रसोईघर न हो तो घर घर नहीं होता, मकान होता है. जनरेशन अल्फा ने मकान को मकान ही रहने दिया. चलिये, अगले सेगमेंट में चलते हैं जहाँ आप आर्यावर्त से विलुप्त हो चुकी साड़ी देख पायेंगे.’    

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अत्यंत रोचक संस्मरण  ‘बहुरूपिए से मुलाकात ….’  साथ ही आप  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की  उसी बहुरुपिए से मुलाकात के अविस्मरणीय वे क्षण इस लिंक पर क्लिक कर  >> बहुरुपिए से मुलाकात   

☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

विगत दिवस गांव जाना हुआ। आदिवासी इलाके में है हमारा पिछड़ा गांव। बाहर बैठे थे कि अचानक पुलिस वर्दी में आये एक व्यक्ति ने विसिल बजाकर डण्डा पटक दिया । हम डर से गए, पुलिस वाले ने छड़ी हमारे ऊपर घुमाई और जोर से विसिल बजा दी….. 

….. साब दस रुपए निकालो! सबको अंदर कर दूंगा, मंहगाई का जमाना है, बच्चादानी बंद कर दूंगा। सच्ची पुलिस और झूठी पुलिस से मतलब नहीं,हम बहुरूपिया पुलिस के बड़े अधिकारी हैं, 52 इंच का सीना लेकर घूमते हैं, चोरों से बोलते नहीं, शरीफों को छोड़ते नहीं। थाने चलोगे कि राजीनामा करोगे…. राजीनामा भी हो जाएगा, अभी अपनी सरकार है, और हमारी सरकार की खासियत है कि अपनी सरकार में खूब बहुरुपिए भरे पड़े हैं, मुखिया सबसे बड़ा बहुरूपिया माना जाता है। साब झूठ बोलते नहीं सच को समझते नहीं, राजीनामा हो जाएगा। आश्चर्य हुआ इतने मंहगाई के जमाने में पुलिस वर्दी सिर्फ दस रुपए की डिमांड कर रही है।

हमने भी चुपचाप जेब से दस रुपए निकाल कर बढ़ा दिए। 

अचानक उसकी विनम्रता पानी की तरह बह गई। हंसते हुए उसने बताया – साब बहुरुपिया प्रकाश नाथ हूं…. दमोह जिले का रहने वाला हूँ। मूलत: हम लोग नागनाथ जाति के हैं सपेरे कहलाते हैं सांप पकड़ कर उसकी पूजा करते और करवाते हैं पर सरकार ऐसा नहीं करने देती अब। हम लोग गरीबी रेखा के नीचे वाले जरूर हैं पर उसूलों वाले हैं। जीविका निर्वाह के लिए तरह-तरह के भेष धारण करना हमारा धर्म है। कभी नकली पुलिस वाला, कभी बंजारन, कभी रीछ, कभी भालू और न जाने कितने प्रकार के भेष बदलकर समाज के भेद जानने के लिए प्रयासरत रहते हैं और समाज में फैले अंधविश्वास, विसंगतियों को पकड़ कर उन्हें दूर कराने का प्रयास करते हैं। हम लोग पुलिस मित्र बनकर छुपे राज जानकर पुलिस के मार्फत समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं।बहुरुपिया समाज का अधिकृत पंजीकृत संगठन है जिसका हेड आफिस भोपाल में है वहां से हमें परिचय पत्र भी मिलता है। संघ की पत्रिका भी निकलती है। सियासत करने वाले बहुरुपिए नेता लोग बदमाश होते हैं पर हम लोग ईमानदार लोग हैं ,निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए बहुरुपिया बनकर लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। 

उसने बताया कि बड़े शहरों में यही काम बड़े व्यंग्यकार करते हैं जो समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करने के लिए लेख लिखकर छपवाते हैं और पढ़वाते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #53 ☆ # कब उजाला होगा ? # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता “# कब उजाला होगा ? #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 53 ☆

☆ # कब उजाला होगा ? # ☆ 

अमावस की रात बीत गई

घर घर में अब उजाला होगा

लाखों दीप जलें है मगर

इस झोपड़ी में कब उजाला होगा ?

 

व्यंजनों की धूम है

मिठाइयां बट रही है

मौज-मस्ती में

दिन-रात कट रही है

कहीं चूल्हा ना जला

फाका जहां किस्मत है

इन भूखें लोगों के

मुंह में कब निवाला होगा ?

 

रंग बिरंगे परिधानों से

महफिलें सज रही है

कीमती आभूषणों से

नारियां सज-धज रहीं है

दिन-रात मेहनत के बाद भी

वस्त्र जिन्हें नसीब नहीं

इन वंचितों के अंग पर

कब दुशाला होगा ?

 

जिंदगी के जुऐं में

बड़े बड़े दांव लग रहे हैं

किसी की हुई हार तो

किसी के भाग जग रहें हैं

कोई ऐश्वर्य के मदिरा में डूबा है

तो कोई जन्म से प्यासा है

इन प्यासों के होंठों पर

आखिर कब प्याला होगा ?

 

आज बाजार में बिकने को

मै भी खड़ा हूं

अपनी उसूलों की कीमत तय कर

उसपे अड़ा हूं

क्या कोई पारखी खरीदेगा मुझको ?

मेरी इस काबिलियत का

कब हवाला होगा ?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 55 ☆ सोहळा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 55 ? 

☆ सोहळा… ☆

सोहळा…
चांगल्या कर्माचा

सोहळा…
सगुण गुणांचा,सद् परंपरेचा.

सोहळा…
थोर मोठ्यांच्या विचारांचा,
जाणकारांचा विशिष्ठ विधिलेखाचा.

सोहळा…
अंतर्भूत त्या कलेचा,
योग्य सुयोग्य परिघाचा,
मर्म बंधनांचा.

सोहळा…
जीवन जन्माचा
अमृत वेळेचा,
संघर्षाचा त्यागाचा
बलिदानाचा सुप्त संगमांचा
परोपकरांचा.

सोहळा…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 20 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 20 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

[९७]

दीर्घ समुद्रप्रवास

तसं हे जीवन

भेटतो आपण

एखाद्या लहानशा गल्बतात

आणि

किनार्‍याला लागावं

तसा येतो मृत्यू…

आपआपल्या जगात

निघून जातो आपण

[९८]

मृत्यूचाही

जीवनावर

तितकाच अधिकार आहे

जितका जन्माचा.

चालणं जसं

पाऊल उचलण्यात असतं

तितकंच ते

पाऊल ठेवण्यातंही

असतंच.

[९९]

स्वप्न म्हणजे बायको

अखंड बडबडणारी

झोप म्हणजे नवरा

सदैव गप्प बसणारा    

[१००]

इवल्याशा गवतफुलाचे

थरथरते शब्द

फडफडत आले,

‘तुझी पूजा

करायची आहे मला

सहस्त्ररश्मी सूर्यदेवा

कोणत्या शब्दांनी

करू रे?’

‘नि:शब्दतेने कर.

तुझ्या सच्चेपणाच्या

साध्या- सरळ-

निरागस नि:शब्दतेने !’

आश्वासक शब्द

उजळत ….. उजळवत आले.

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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