श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “चूल्हा गया चूल्हे में…..” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 23 ☆

☆ व्यंग्य – चूल्हा गया चूल्हे में ☆ 

सन् 2053 ई.!

‘लेडीज एंड जेंटलमेन, म्यूजियम के इस सेगमेंट को ध्यान से देखिये. आर्यावर्त के मकानों में कभी किचन हुआ करते थे.’ – गाईड रसोईघर की प्रतिकृति दिखाते हुवे पर्यटकों को बता रहा था – ‘लोग अपने मकानों में भोजन बनाने लिए अलग से जगह निकालते जिसे रसोईघर कहा जाता था. छोटे से छोटे मकान में भी किचन के लिए जगह निकाली जाती थी. सभ्यता विकसित हुई, मोबाइल फोन आये, फूडपांडा, ज़ोमेटो, स्वीग्गी जैसे फूड एग्रीगेटर आये, क्लाउड किचन परिवारों के किचन को निगल गये. जनरेशन अल्फा को दस बाय दस का किचन भी वेस्ट ऑफ स्पेस लगने लगा. लेन्डर, फ्रीज़, ओवन, मिक्सर-ग्राईन्डर, चिमनी, टपर-वेयर के दो सौ से ज्यादा डिब्बे-डिब्बियों में नोन-तेल-मिर्ची. फूड-ऐप्स आने के बाद उन्होने न बांस रखे न बांसुरी बजाने के सरदर्द. आटा पिसवाने से लेकर बर्तन माँजने तक की बेजा कवायदों से उन्हे मुक्ति मिली. आर्यिकाओं को जित्ती देर आटा उसनने में लगती उससे कम देर में – पिज्जा डिलीवर हो जाता.’

‘सनी डार्लिंग – व्हाट इज दैट ?’ – टूरिस्ट ग्रुप में एक लेडी ने अपने हस्बेंड से पूछा.

‘दैट इज ए चूल्हा. ओल्ड टाईम में इन पर फूड कुक किया जाता था.’

‘एंड बिलिव मी – ये लकड़ी-कंडो से जलता था’ – गाईड ने अपनी ओर से जोड़ा.

‘कंडो!! व्हाट कंडो !!!’

‘वो ना काऊडंग को ड्राय करके फायर करके उस पर कुक करने का मटेरियल को बोलते थे.’

‘स्टूपिड पीपुल. काऊडंग पे कुकिंग!!’ – सोच से ही बदबूभर गई. उन्होने भौं के साथ नाक भी सिकोड़ी और झट से उस पर रुमाल रखा.

‘यस मैम बट फिर गैस से जलने वाले चूल्हे आये, फिर बिजली से चलने वाले. झोमेटो, स्वीग्गी, डोमिनो के आने के बाद चूल्हे चूल्हे में चले गये. दरअसल, आर्यजन रसोईघर को परिवार के स्नेह और मिलन का स्थान मानते थे.’

‘बैकवर्ड पीपुल.’

‘यस मैम, वे मानते थे कि किचन में एक साथ बैठकर भोजन करने से दुख-सुख की शेयरिंग हो जाती है, गिले शिकवे दूर जाते हैं, सदस्यों में समभाव और प्रेम बढ़ता है. किचन घर में धुरी की तरह होता. एक दकियानूस सी अवधारणा थी जिसे माँ के हाथ का खाना कहा जाता था. माँ घर में हर एक से पूछती खाने में क्या बनाऊँ..क्या बनाऊँ..फिर बनाती वही जो उसका मन करता. मगर जो भी बनाती उसमें स्वाद तो मसालों से आता ‘श्री’ माँ के हाथ की होती. किचन के विलुप्त होने की शुरूआत आउटिंग के चलन से हुई, फिर आउटिंग घर में घुस आया. लोग घर में बाहर का खाना बुलवाने लगे. डब्बाबंद खाने ने घर जैसे खाने का दम भरा और ‘घर में खाना खाने की जगह’ डिब्बे में समा गई. फिर यंग मदर्स में सिंगल पेरेंटिंग का चस्का लगा, खाना बनाना झंझट का काम लगने लगा. मदरें रसोई से फारिग होकर फेसबुक वाट्सअप, इंस्टाग्राम में समा गईं, और किचन म्यूजियम में.”

‘गुड, बट टुमारा चूला से फिंगर बर्न होता होयंगा.’ – अबकी बार उसने गाईड को कहा.

‘यस, बर्न तो होता था बट जैसा मैंने बताया ना आपको अजीब टाईप की लेडीजें हुआ करती थी, हाथ जले तो जले रोटी फूली फूली परोसने में सुख पाती थीं. माना जाता था घर में रसोईघर न हो तो घर घर नहीं होता, मकान होता है. जनरेशन अल्फा ने मकान को मकान ही रहने दिया. चलिये, अगले सेगमेंट में चलते हैं जहाँ आप आर्यावर्त से विलुप्त हो चुकी साड़ी देख पायेंगे.’    

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments