हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 73 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 73 –  दोहे ✍

नीर नयन का छलकता, छूमंतर  विश्वास ।

सोच रहा हूं हाथ में, पारस मणि हो काश!।।

 

दर्द दबा था हृदय में, मिली नयन की राह ।

आँसू मेरी आंख के, बनते गए गवाह ।।

 

आँसू  रहते आंख में, मिले मान-सम्मान ।

वरना होगी हैसियत, ढहता हुआ मकान ।।

 

मिले सुदामा कृष्ण से, हुआ खूब सत्कार ।

जल से पग धोए नहीं, धोये  आँसू  धार ।।

 

शरसैया पर भीष्म थे, ध्यान मग्न तल्लीन।

रोए थे इतना अधिक, आँसू  हुए विलीन ।।

 

आँसू  पुल मानिंद है, जोड़ सकें संबंध ।

अंतर्गत संभावना, जैसे सुमन सुगंध।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 73 – उसका अंतर्कथ्य रहा है…  ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “उसका अंतर्कथ्य रहा है… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || उसका अंतर्कथ्य रहा है… || ☆

बेटी के बारे में घर में

चिंतन यही बचा ।

यह समाज से लड़ने वाली

पुण्य श्लोक ऋचा ।।

 

दोंनों हाथों से उलीचती

जो नित आशायें ।

हेम- गर्भ में जो सहेज

रखती है गरिमायें ।

 

वह तो मन्दाकिनी ,लक्ष्मी

है घर  गाँवों  की ।

पुरा-मोहल्ला कहता रहता

आँखें नचा-नचा ।।

 

उसका अंतर्कथ्य रहा है

अमृत में डूबा ।

उसका चाल-चलन है

सारे घर का मंसूबा ।

 

उसका यह व्यक्तित्व

कई प्रश्नों का उत्तर है ।

इसी हाट के दिन कहते थे

साहब  दीन चचा ।।

 

अब तो घर,बाजार,गिरस्ती

उसके हाथों में ।

उसे पता कब , कैसे चलना

है फुटपाथों में ।

 

संयम का त्योहार

आत्म-मंथन का सम्मोहन ।

खुद्दारी का महामन्त्र

उसको बस यही जँचा ।।

 

(“जहाँ दरक कर गिरा समय भी” से )

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 121 ☆ भूख…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…!’ )  

☆ लघुकथा # 121 ☆ भूख…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सास बहू की जमकर लड़ाई हुई।

सास ने बहू के मायके वालों को गरियाया, बहू ने सास के बेटे और आदमी को कुछ कुछ कहा। (समझदार को इशारा काफी)

दोनों थक गई थी, मुंह फुलाए बैठीं थी।दोपहर को दोनों को खूब भूख लगी।

सास ने गरमागरम दाल बनाईं। बहू ने स्वादिष्ट सब्जी बनाईं।

दोनों खाने बैठीं, तो सास ने सब्जी की तारीफ कर दी, तुरंत बहू ने मुस्कुराते हुए खूब सारी गरमागरम दाल सास के कटोरे में भर दी। जब सास की जीभ जल गई तो बहू ने दाल की तारीफ कर दई।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #63 ☆ # मकर संक्रांति # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मकर संक्रांति #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 63 ☆

☆ # मकर संक्रांति # ☆ 

 

उत्तरायण की हुई शुरुआत

लंबा दिन और छोटी रात

ठंड घटने लगेगी अब

आई, आई मकर संक्रांत

 

सुर्य को अर्ध्य देना है

उसका ताप लेना है

नमन कर उसके प्रताप को

उसका कृतज्ञ होना है

 

भिन्न भिन्न फलों को छांटेंगे  

तिल, गुड़, फल बांटेंगे

पतंग उड़ायेंगे आकाश में

दूसरी पतंगों को मांझें से काटेंगे

 

यह है एक प्राचीन परंपरा

खुश है आज यह धरा

चहुं और है आनंद ही आनंद

घर घर है खुशियों से भरा

 

आओ कटुता को भुलाएं 

दान बांटकर खुशियां पायें

पतंग की तरह उड़े आकाश में

मकर संक्रांति का यह पर्व मनायें

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 65 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 65 ? 

अभंग… ☆

वात कफ पित्त, त्रय दोष युक्त

नच कधी मुक्त, जीव पहा…!!

 

रोगाचे आगार, मानवाचा देह

सुटतो का मोह, कधी याला…!!

 

संपूर्ण आयुष्य, हावरट बुद्धी

नाहीच सुबुद्धी, याच्याकडे…!!

 

शेवट पर्यंत, पाहिजे म्हणतो

स्वतःचे करतो, अहंकारी…!!

 

वाईट आचार, सदैव साधतो

देवास भजतो, स्वार्थ हेतू…!!

 

कवी राज म्हणे, स्वभाव जीवाचा

उपाय कुणाचा, चाले ना हो…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #123 ☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 123 ☆

☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क 

प्रोफेसर बृहस्पति, एम.ए.,डी.लिट.,की चरन धूल फिर शहर में पड़ने वाली है। प्रोफेसर गुनीराम,एम. ए.,पीएच.डी. ने फिर उन्हें बुलाया है। यह खेल ऐसे ही चलता रहता है। प्रोफेसर बृहस्पति प्रोफेसर गुनीराम को अपनी यूनिवर्सिटी में बुलाते रहते हैं और प्रोफेसर गुनीराम प्रोफेसर बृहस्पति को। अवसरों की कमी नहीं है। कभी रिसर्च कमिटी की मीटिंग में, कभी ‘वाइवा’ के लिए। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होता है। एक बार क्लर्क ने दो उम्मीदवारों का ‘वाइवा’ एक साथ रख दिया तो प्रोफेसर बृहस्पति कुपित हो गये थे। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होना चाहिए, अन्यथा टी.ए.,डी.ए. का नुकसान होता है।

‘वाइवा’ का सबसे ज़रूरी हिस्सा यह होता है कि उम्मीदवार जल्दी से जल्दी टी.ए. बिल पास कराके मुद्रा गुरूजी के चरणों में समर्पित करे। इसमें विलम्ब होने पर छात्र की प्रतिभा और उसके शोध की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। विश्वविद्यालय तो नियमानुसार फूल-पत्र भेंट करता है, बाकी रुकना-टिकना, स्वागत-सत्कार, पीना-खाना, घूमना-फिरना और वातानुकूलित दर्जे का आने-जाने का नकद किराया उम्मीदवार को विनम्रतापूर्वक वहन और सहन करना पड़ता है। गुरूजी अक्सर सपत्नीक आते हैं। ऐसी स्थिति में स्वभावतः ए.सी. का किराया दुगना हो जाता है। यह भी ज़रूरी है कि विदा होते वक्त उम्मीदवार गुरू-गुरुआइन के चरन-स्पर्श कर प्रसन्न भाव से विदा करे। व्यय का भार कितना भी पड़े, मुख पर सन्ताप न लावे।

हस्बमामूल ‘वाइवा’ के बाद शाम को उम्मीदवार की सफलता की खुशी में पार्टी होती है जिसमें बाहर वाले गुरूजी और उनके मित्र-परिचित, स्थानीय गुरूजी और उनके मित्र-परिचित और चार-छः ऐसे ठलुए शामिल होते हैं जो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं। स्थानीय गुरूजी को उन्हें शामिल करने में एतराज़ नहीं होता क्योंकि द्रव्य उम्मीदवार की जेब से जाता है। जो लोग भोजन से पूर्व क्षुधावर्धक पेय में रुचि रखते हैं वे पार्टी से एकाध घंटा पूर्व एकत्रित होकर उम्मीदवार की सेहत का जाम उठाते हैं।
इस बार बलि का बकरा शोषित कुमार है जो पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त कर प्रोफेसर गुनीराम की अनुकंपा से विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने की उम्मीद रखता है। उसने अपने शिक्षण काल में किताब की जगह गुरूजी को ही पढ़ा है और उनके श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित किया है। पूरे विश्वविद्यालय में वह प्रोफेसर गुनीराम के चमचे के रूप में विख्यात है और वह इस उपाधि पर पर्याप्त गर्व का अनुभव करता है। शोषित कुमार के बाप एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर हैं, लेकिन उन्होंने प्रोफेसर बृहस्पति के स्वागत-सत्कार के लिए बीस हजार रुपये का जुगाड़ कर लिया है।

प्रोफेसर बृहस्पति पधारे। साथ में पत्नी भी आयीं। उन्होंने बहुत दिनों से भेड़ाघाट नहीं देखा था। बेटा शोषित कुमार दिखा देगा। अच्छे होटल में ठहरने का इंतज़ाम है। आदेश दे दिया गया है कि गुरूजी जब जो माँगें, प्रस्तुत किया जाए। गेट के पास टैक्सी तैनात है, गुरूजी जहाँ जाना चाहें ले जाए।

गुरूजी टैक्सी में विश्वविद्यालय पहुँचे। शोषित कुमार ड्राइवर की बगल में डटा है। प्रोफेसर गुनीराम विश्वविद्यालय में इन्तज़ार कर रहे हैं। पहुँचते ही प्रोफेसर बृहस्पति टी.ए. बिल भरकर शोषित कुमार को थमाते हैं—- ‘लो बेटा, इसे पास कराओ और सफलता की ओर कदम बढ़ाओ।’

शोषित कुमार बिल लेकर उड़ता है।  ‘च्यूइंग गम’ चबाते हुए उसे निश्चिंतता से संबंधित क्लर्क के सामने धर देता है। क्लर्क उसे उठाकर पढ़ता है, फिर वापस शोषित की तरफ धकेल देता है। कहता है, ‘टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार आसमान से धम से ज़मीन पर गिरता है। बेसुरी आवाज़ में पूछता है, ‘क्या?’

क्लर्क दुहराता है, ‘सेकंड ए.सी. का क्लेम है। टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार पाँव घसीटता लौटता है। प्रोफेसर गुनीराम के कान के पास मिनमिनाता है, ‘सर, क्लर्क टिकट नंबर माँगता है।’

प्रोफेसर गुनीराम की भवें चढ़ जाती हैं। यह कौन गुस्ताख़ लिपिक है? रोब से उठकर लेखा विभाग की ओर अग्रसर होते हैं। क्रोधित स्वर में क्लर्क से पूछते हैं, ‘यह टिकट नंबर की क्या बात है भई?’

क्लर्क निर्विकार भाव से कहता है, ‘रजिस्ट्रार साहब का आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘अभी तक तो कभी टिकट नंबर नहीं माँगा गया।’

क्लर्क फाइल का पन्ना पलटते हुए जवाब देता है, ‘नया आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम रोब मारते हैं, ‘तो रजिस्ट्रार साहब से पास करा लायें?’

क्लर्क मुँह फाड़कर जम्हाई लेता है, कहता है, ‘करा लाइए।’

प्रोफेसर गुनीराम ढीले पड़ जाते हैं। रजिस्ट्रार कायदे कानून वाले आदमी हैं। वहाँ जाना बेकार है।

वे तरकश से खुशामद-अस्त्र निकालते हैं। ताम्बूल-रचित दन्त-पंक्ति दिखा कर कहते हैं, ‘क्या बात है, पटेल जी, घर से झगड़ा करके आये हो क्या?’

क्लर्क किंचित मुस्कराता है, ‘नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है।’

उसकी मुस्कान से प्रोत्साहित होकर प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘निपटा दो,भैया। बाहर के प्रोफेसर हैं। बिल पास नहीं होगा तो बाहर से ‘वाइवा’ लेने कौन आएगा?’

क्लर्क फिर लक्ष्मण-रेखा में लौट जाता है, कहता है, ‘हम क्या करें? रजिस्ट्रार साहब से कहिए।’

प्रोफेसर गुनीराम समझ जाते हैं कि इन तिलों से तेल नहीं निकलेगा। लेकिन अब प्रोफेसर बृहस्पति को क्या मुँह दिखायें?इस पिद्दी से क्लर्क ने इज्जत का फलूदा बना दिया।
लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति के सामने हाज़िर होते हैं। पस्त आवाज़ में कहते हैं, ‘डाक साब, यहाँ के क्लर्क बड़े बदतमीज़ हो गये हैं। कहते हैं ए.सी. का नंबर लेकर आइए।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मुख-कमल क्रोध से लाल हो जाता है।  ऐसी अनुशासनहीनता!प्रोफेसर गुनीराम के हाथ से बिल लेकर उस पर लिख देते हैं, ‘टिकट सरेंडर्ड एट द गेट’, यानी टिकट रेलवे स्टेशन के गेट पर सौंप दिया।

प्रोफेसर गुनीराम फिर क्लर्क के पास उपस्थित होते हैं। क्लर्क प्रोफेसर बृहस्पति के कर कमलों से लिखी बहुमूल्य टीप को पढ़ता है और पुनः बिल प्रोफेसर गुनीराम की तरफ सरका देता है। कहता है, ‘हमें नंबर चाहिए। टिकट सौंपने से पहले नंबर क्यों नोट नहीं किया?अब तो मोबाइल पर टिकट आता है।’

प्रोफेसर गुनीराम को रोना आता है। इस दो कौड़ी के आदमी ने उनकी इज़्ज़त के भव्य भवन को कचरे का ढेर बना दिया।

लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति से कहते हैं, ‘आप फिक्र न करें, डाक साब। मैं चेक बनवा कर भेज दूँगा।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मूड बिगड़ जाता है। चेक बनने और मिलने में पता नहीं कितना समय लगेगा। इसके अलावा चेक का पैसा आयकर की पकड़ में आने का भय होता है।

‘वाइवा’ के कार्यक्रम का सारा मज़ा किरकिरा हो गया।

शाम को प्रोफेसर बृहस्पति सपत्नीक शोषित कुमार के द्वारा प्रस्तुत टैक्सी में बैठकर भेड़ाघाट की सैर के लिए रवाना होते हैं। प्रोफेसर बृहस्पति बेमन से जाते हैं। उनका सारा सौन्दर्यबोध और उत्साह लेखा विभाग के उस क्लर्क ने हर लिया है। उन्हें अब कहीं कोई सुन्दरता नज़र नहीं आती। पूरा शहर मनहूस लगता है।

भेड़ाघाट में पति-पत्नी नाव में बैठकर संगमरमरी चट्टानों को देखने जाते हैं। श्रीमती बृहस्पति मुग्धभाव से श्वेत धवल चट्टानों को निहारती हैं। एकाएक कहती हैं—‘कितनी खबसूरत चट्टानें हैं।’

प्रोफेसर बृहस्पति के भीतर खदबदाता गुस्सा फूट पड़ता है। मुँह बिगाड़ कर कहते हैं—‘खबसूरत नहीं, खूबसूरत। कितनी बार कहा कि शब्दों का सत्यानाश मत किया करो।’

श्रीमती बृहस्पति गुस्से में मुँह फेरकर बैठ जाती हैं और प्रोफेसर बृहस्पति लौटने पर होने वाली कलह की संभावना से भयभीत होकर बिल की बात भूलकर कातर नेत्रों से पत्नी का मुखमंडल निहारने लगते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 75 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 75 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 75) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 75☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गोयाकि दुश्वार है तय करना

उम्र का सफर तनहा,

मगर लौट कर ना देखूंगा

चल पड़ा अगर तनहा ….

 

Though it’s arduous to

go on life’s journey alone

But I will never look back,

if ever, I went alone….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कितना मुश्किल है, इस अंदाज़

में जिंदगी बसर करना

तुम्हीं से फ़ासला रखना

और तुम्हीं से इश्क़ करना…

 

How difficult it is to

live in this manner

To keep distance from

you and love you too…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तेरे  वजूद  में  मैं

काश यूँ उतर जाऊँ

तू  देखे आईना और

मैं  तुझे  नज़र  आऊँ…

 

Wish if I could merge in

your existence so much

That you see the mirror

and I should  appear..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये कैसा नशा है, मैं भी

किस अजब खुमार में हूँ

तू आ के जा भी चुका है,

मैं अभी भी तेरे इंतज़ार में हूँ….

 

What kind of inebriation is this,

Strange hangover I am in

You’ve come and gone too

But I’m still waiting for you….

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 122 ☆ अहम् और अहंकार – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 122 ☆ अहम् और अहंकार..(2) ?

अहम् और अहंकार की अपनी विवेचना को आज आगे जारी रखेंगे। संसार नश्वर है। यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं। अपने समय पर विभिन्न कारणों से अहंकार करनेवाले भी काल के गाल में समा गये।

एक गृहस्थ ने कहा- ‘घर में मैं अकेला कर्ता हूँ, मैं हूँ तो घरवाले पेट भर रहे हैं। मुझे कुछ हो गया तो जाने क्या होगा?’ पीछे एक दुर्घटना में वह चल बसा। सूतक के दौरान रिश्तेदार और पास-पड़ोसी भोजन भेजते रहे, फिर बच्चों ने छोटी-मोटी नौकरी पकड़ ली। कथित कर्ता के न रहने पर भी उसके परिवार का पेट भरता रहा। कथित कर्ता को जिस श्मशान में फूँका गया, उसी की दीवार पर लिखा था-

मुरदे को प्रभु देत हैं कपड़ा, लकड़ा, आग

ज़िंदा नर चिंता करै, ताँ के बड़े अभाग। 

दुनिया में अकूत धन के लिए किसीको नहीं याद किया जाता, अनेक युगों में अनेक रूपवान स्त्रियाँ आईं-गईं, रूप भी आया-गया। प्रसिद्धि के अति भूखे अपने समय में जोड़तोड़ कर अखबारों में, मीडिया में आकर  दुनिया की आँखों में बने रहे, बाद में उन्हीं अखबारी कतरनों को निहारते उनका जीवन बीता। अपने अंतिम समय में दुनिया की आँखों के इन कथित तारों को न दीन मिला, न दुनिया। जिन्होंने अपने समय में पैंतरेबाजियों से दूसरोंं को विस्थापन का दंश दिया, बदला समय अपने साथ उनके लिए निर्वासन का शाप लाया।

अनेकदा ऐसा भास होता है कि ज्ञान भी समय की चक्की में पिसकर समाप्त होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे हम ज्ञान मान रहे हैं,वह मोटे तौर पर जानकारी का संग्रह मात्र है। वस्तुत: ज्ञान शाश्वत होता है। हर स्थिति में अचल और अडिग रहता है। ज्ञान अक्षय है। अतः सच्चा ज्ञानी अहम् अर्थात अस्तित्व बोध संपन्न तो होता है पर अहंकारी नहीं होता। पृथ्वी के सारे धनों में ज्ञान धन ही ऐसा है जो बाँटने से बढ़ता है। अन्य धन प्राप्त होने से आसक्ति  बढ़ती जाती है, ज्ञान विरक्ति के साधन से मन का सारा मैल धो डालता है। हरि को पाकर हरि से भी विरक्ति, ऐसी विरक्ति कि हरि आसक्त हो जाए। उत्कर्ष ऐसा कि जिसे साध्य मानकर यात्रा आरंभ की थी, उसे पाकर उससे भी आगे चल पड़े। साधन, साध्य हो गया और साध्य, साधन रह गया।

कबीरा मन ऐसा निर्मल भया जैसा गंगानीर

पाछै-पाछै हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।

हरि से प्राप्त सामर्थ्य को प्राणपण से निष्काम भाव सहित हरि को अर्पित करनेवाला निरंहकारी,  हरि को अपना भक्त कर सकने की असाधारण संभावना का धनी होता है।

.. इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 75 ☆ सॉनेट – थल सेना दिवस ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट – थल सेना दिवस।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 75 ☆ 

☆ सॉनेट – थल सेना दिवस ☆

वीर बहादुर पराक्रमी है, भारत की थल सेना। 

जान हथेली पर ले लड़ती, शत्रु देख थर्राता।

देश भक्ति है इनकी रग में, कुछ न चाहते लेना।।

एक एक सैनिक सौ सौ से, टकराकर जय पाता।।

 

फील्ड मार्शल करियप्पा थे, पहले सेनानायक।

जिनका जन्म हुआ भारत में, पहला युद्ध लड़ा था।

दुश्मन के छक्के छुड़वाए थे, वे सब विधि लायक।।

उनन्चास में प्रमुख बने थे, नव इतिहास लिखा था।।

 

त्रेपन में हो गए रिटायर, नव इतिहास बनाकर।

जिस दिन प्रमुख बने वह दिन ही, सेना दिवस कहाता।।

याद उन्हें करते हैं हम सब, सेना दिवस मनाकर।।

देश समूचा बलिदानी से, नित्य प्रेरणा पाता।।

 

युवा जुड़ें हँस सेनाओं से, बनें देश का गौरव।

वीर कथाओं से ही बढ़ता, सदा देश का वैभव।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-१-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #105 ☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 105 ☆

☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆

अनहद नाद क्या है? यह क्यों है? आखिर इसकी जरूरत क्या है? यह विषय चिंतन का है। इस विषय पर साधना पथ पर चलने वाले अनेक योगी यति लोगों ने बहुत कुछ लिखा है। आज मैं अपने पाठक वर्ग से इस बिंदु पर अपने विचार साझा करना चाहता हूँ। यह मेरे अपने निजी विचार तथा अनुभव है। इस आलेख को आप पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ  इस उम्मीद से कि साधना पथ पर चलने वाला कोई नवपथिक इस आलेख के आलोक में कुछ अनुभूति कर सकें,और अपने शाब्दिक प्रतिक्रिया से अभिसिंचित कर सकें।

अनहद नाद, मौन का गीत एवं संगीत है, जिसे मौन में रह कर ही सुना समझा जा सकता है, जो इस अदृश्य अंतरिक्ष में अनंत काल से गूंज रहा है गूंजता रहेगा। और अविराम बजता रहेगा। उसे सुनने के लिए कोलाहल युक्त वातावरण नहीं, बाह्यकर्णपटल की नहीं, उस शांत एकांत वातावरण तथा मौन की आवश्यकता है, जो ध्वनि प्रदूषण वायुप्रदूषण मुक्त हो। जहाँ आप शांत चित्त बैठकर मौन हों अपने अंतर्मन में उतर कर उस अनहद नाद की शांत स्वर लहरी में खोकर पूर्ण विश्राम पा सकें। जहां कोलाहल के गर्भ से उपजी अनिंद्रा तनाव व थकान न हो। बस चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य बोध हो, शांति ही शांति हो, जहां न कुछ पाना बाकी हो न कुछ खोना शेष हो। जहां आत्मसत्ता का साम्राज्य हो और वहीं आपकी मंजिल भी। आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार, शिव से जीव के मिलन, नदी से सागर के मिलन की आत्मतृप्ति की प्रक्रिया मात्र दृष्टि गोचर हो। आत्मचेतना परमात्मसत्ता में समाहित हो और सूक्ष्म विराट में समाहित हो, अपना अस्तित्व मिटा दे। फिर उन्हीं परिस्थितियों में मुखर हो अनहद नाद प्रतिध्वनित हो उठे। मौन का वह संगीत अंतरात्मा के आत्मसाक्षात्कार सुख के साथ उर अंतर में उतर जाय।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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