“जीजी” या पुस्तकाचा प्रकाशन सोहळा नुकताच दि.२६ मार्च २०२३ रोजी गुणवंतांच्या उपस्थितीत सुरेख पद्धतीने संपन्न झाला.
अवघ्या ८८ पृष्ठांचे हे पुस्तक जसजशी वाचत गेले तसतशी त्यांत मनाने पार डुंबून गेले,शेवटचे पान वाचेपर्यंत एका जागेवर या पुस्तकाने खिळवून ठेवले.एका आजीची ही कहाणी अत्यंत ह्रदयद्रावक आणि कुठेतरी भेदून जाणारी…!जीजीचे संपूर्ण चरित्र यात रेखाटले असले तरी ते आत्मचरित्र नाही,किंवा चरित्र या साहित्यप्रकारातही मोडणारे नाही असे मला वाटते.
हे पुस्तक म्हणजे जीजीने स्वतः लिहीलेली तिची कहाणी वाचताना लेखिकेच्या भावनांचा
झालेला हा कल्लोळ आहे.त्यामुळे पुस्तकातील एकेक शब्द,एकेक ओळ वाचकाच्या ह्रदयाला जाऊन भिडते.
अत्यंत सुस्थितीत वाढलेली,सधन कुटुंबात विवाह होऊन आलेल्या जीजीला तिच्या पुढील आयुष्यात नशीबाने अल्पवयात वैधव्य आल्याने,तिने समाजाशी धीराने आणि आत्मविश्वासाने कसा लढा दिला,तिच्या एकमेव पुत्राला उत्तम प्रकारे कसे घडविले हे वाचताना डोळ्यातील आसवे थांबत नाहीत.
अतिशय प्रभावी शब्दांकन…..!अगदी तिर्हाईत,अपरिचित वाचकाच्या
नजरेसमोरही ही जीजी उभी रहाते.
सुरवातीलाच राधिकाताई लिहितात,”एक व्यक्ती म्हणून तिला वाचायचं होतं,तिचा शोध घ्यायचा होता.तिच्यातलं स्त्रीत्व जाणायचं होतं.तिच्यातली शक्ती जाणायची होती.आमच्या व्यतिरिक्त तिच्या शब्दातून बघायचं होतं.”
“खरंच बोराच्या झाडासारखंच होतं ना तिचं आयुष्य! काटेरी रक्तबंबाळ करणारं!पण तिने मात्र रुतलेल्या काट्याचा विचार न करता गोड बोरांचाच आनंद उपभोगला.”
ह्या अशाप्रकारच्या लेखनाने जीजी वाचायची वाचकांची उत्सुकता ताणते.त्यामुळे पुस्तक खाली ठेवावेसे वाटत नाही.
जीजीची कहाणी सांगत असताना राधिकाताईंचा जीजीसोबतचा वास आणि घेतलेले अनुभव ह्यामुळे वर्तमान काळात वावरल्यासारखे वाटते.आजही जीजी सोबत आहे असा विचार मनात येऊन काहीतरी आत्मीक बळ आल्यासारखे वाटते.
जीजीचे तिच्या पाचही नातींवरचे नितांत प्रेम हे लेखिकेने स्वानुभवावरून फार समर्थ शब्दात प्रदर्शीत केले आहे.प्रत्येकच वाचकाला जीजी वाचत असताना स्वतःची आजी कोणत्या ना कोणत्या रूपात दिसल्याशिवाय रहाणार नाही हे निश्चित!त्यामुळे ह्या पुस्तकाविषयी कुठेतरी आत्मीयता वाटते.
१०० वर्षापूर्वीच्या काळातील जीजी आणि तिने दिलेले आधुनिक संस्कार या विषयी राधिकाताई सांगतात,”मुलीच्या जातीला हे शोभत नाही बरे?असा पळपुटा,मळकट,कडू संस्कार मात्र तिने आमच्यावर कधीही केला नाही.आयुष्यात अनेक चढउतार आले,रस्ते काही नेहमीच गुळगुळीत नव्हते,दगड,खडे,काटे सारे टोचले.अपरंपार अश्रू गाळले पण कणा नाही मोडला,”जीजीने तिच्या कुटुंबाला(मुलगा/सून आणि पाच नाती) समर्थ बनविले.
राधिकाताईंच्या प्रभावी लेखनशैलीमुळे जीजी प्रत्येकाला आपली वाटते हेच या व्यक्तीचित्रणाचे यश आहे.
सर्वांनी वाचावे आणि जीवनात सकारात्मकतेचा बोध घ्यावा असे हे पुस्तक जीजी.
पुस्तकाच्या मुखपृष्ठासंबंधी थोडेसे~ मुखपृष्ठावर ज्या काही ओळी छापलेल्या दिसतात ते जीजीचे हस्ताक्षर आहे आणि तिच्या फोटोचे स्केच तिची सगळ्यात
धाकटी नात,जिचे तीन महिन्यापूर्वीच निधन झाले ती उषा ढगे हिने केले आहे.
जीजीच्या बाकीच्या चार नातींनीही त्यांच्या व जीजीच्या एकत्रीत सहवासाचे विविध अनुभव लिहीले आहेत.
राधिकाताईंची ही वाटचाल अशीच सतत चालत राहो आणि त्यांची विविध विषयावरील पुस्तके झपाट्याने प्रकाशित होवोत ह्या माझ्या त्यांना शुभेच्छा!
पुस्तक परिचय – सुश्री अरुणा मुल्हेरकर
डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 179 ☆
☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद☆
‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।
हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है, उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।
‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।
हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?
वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।
सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।
‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।
इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।
‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।
हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।
सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे … कर्म”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा ७ ते १५ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ (अप्सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व
देवता : ७-९ इंद्रमरुत्; १०-१२ विश्वेदेव; १३-१५ पूषन्;
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तेविसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेली असली तरी हे मुख्यतः जलदेवतेला उद्देशून असल्याने हे अप् सूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील सात आणि नऊ या ऋचा इंद्राचे आणि मरुताचे, दहा ते बारा ऋचा विश्वेदेवाचे आणि तेरा ते पंधरा या ऋचा पूषन् देवतेचे आवाहन करतात. या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी इंद्र, मरुत् विश्वेदेव आणि पूषन् या देवतांना उद्देशून रचलेल्या सात ते पंधरा या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
“..हाच आपला मार्ग बरोबर असेल ना ? ही शंका का आली बरं तुला?”
“..इतका मजल दरमजल करीत प्रवास करून मध्य गाठलास आणि आता या वाटेवरून पुढची वाटचाल करण्यास घुटमळतोस का ?.”
“…निर्णय तर त्यावेळी तूझा तूच घेतला होतास! याच वाटेवरून जाण्याचा आपलं इप्सित साध्य इथेच मिळणार असा आत्मविश्वासही त्यावेळी तुझ्या मनात होता की!”
“..ते तुझं साध्य गाठायला किती अंतर चालावे लागेल, त्यासाठी किती काळ ही यातायात करावी लागेल याचं काळ काम नि वेगाचं गणित तूच मनाशी सोडवलं होतसं की! उत्तर तर तुला त्यावेळीच कळलं होतं .”
.”. वाटचाल करत करत का रे दमलास!, थकलास! इथवर येईपर्यंत चालून चालून पाय दमले..आता पुढे चालत जाण्याचं त्राण नाही उरले..”
“..घे मग घटकाभर विश्रांती.. होशील पुन्हा ताजातवाना, निघशील परत नव्या दमाने. काही घाई नाही बराच आहे अवधी .”
“.ही काय कासव सश्याची स्पर्धा थोडीच आहे? अरे इथं कुणी हारत नाही किंवा कुणी जिंकत नाही. कारण हा आहे जीवन प्रवास आदी कडून अंता कडे निघालेला.. “
“..पण पण कुणालाही न चुकलेला. जो जो इथे आला त्याला त्याला याच वाटेवरून जावं लागलंच.. हा प्रवास मात्र ज्याला त्याला एकटयालाच करावा लागतो.. “
.”.साथ सोबत मिळते ना घडीची पण निश्चित नसते तडीची. “
“..तू पाहिलेस की कितीतरी जणांचे चालत गेलेल्यांचे पावलांचे ते ठसे , त्यांच्याच पावलावर पाऊल ठेवूनच तू ही चालत निघालास .काही पावलंं तुझ्या बरोबरीने चालली त्यात काही भरभर पुढे निघून गेली तर काही मागे मागेच रेंगाळली.. “
“..पण तू ठरवलं होतसं की आपण चालायचं अथक नि अविरत त्या टप्यापर्यंत..आणि हे ही तू जाणून होतास या वाटेने जाताना चालणे हाच एकमेव पर्याय आहे इथं दुसरं वाहन नाही मुळी. “
.”.आशा निराशेच्या दिवस रात्री दाखवत असतात मैलाचा टप्पा
..सुखाच्या सावलीचे मृगजळ दुःखाच्या उन्हात कायम चमचमते दिसते.. “
“..आल़ं हातात म्हणत म्हणत उर किती धपापून किती घेतेय याचं भान नसतयं.. “
“..दुतर्फा घनदाट वृक्षलता लांबवर पसरत गेलेल्या त्या लपवून ठेवतात संकटानां दबा धरुन बसवतात.. “
“..खाच खळगे प्रतिकुलतेचे नि समस्यांचे दगडधोंडे वाटेवर जागोजागी पसरलेले असतात तुझ्याशी सामना करण्यासाठी डोकं उंचावून..,”
“..कुठे उंच तर कुठे सखल, कुठे वळण तर कुठे सरळ, कुठे चढण तर कुठे उतार.. यावर चालूनच व्हायचं तुला पैलपार.. ही आहे तुझी जीवन वाट .. ”
आणि आणि माझी…
“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा माझा मलाच ठावठिकाणा नाही.. “
.”. कशा कशाचंच मला सोयरसुतक नाही… आणि कशाला ठेवू म्हणतो ते तरी.. “
“किती एक आले नि गेले किती एक अजूनही चालत राहिलेत.. आणि उद्याही कितीतरी येणार असणार आहेत… हीच ती एकमेव वाट आहे ना सगळ्यांची.. “
“.. आणि आणि माझा जन्मच त्यासाठी आहे तो सगळयांचा भार पेलून धरण्यासाठी.. “
“कोवळया उन्हाचे किरणाचे कवडसे गुदगुल्या करतात माझ्या अंगावर… दवबिंदूचे तुषार नाचतात देहावर.. ओले ओले अंग होते नव्हाळीचे न्हाणे जसे..चिडलेला भास्कर चिमटे काढतो तापलेल्या उन्हाने… दंगेखोर वारा फुफाटयाची माती उधळून लावतो भंडाऱ्यासारखी.. मग रवी हळूहळू शांत होत केशर गुलाबाच्या म्लान वदनाने मला निरोप देतो.. अंधाराचा जाजम रात्र टाकत येते… चांदण्याच्या खड्यांना चमकवित चंदेरी रूपेरी शितल अस्तर पसरवते..अंधारात बागुलबुवा झाडाझुडपांच्या आडोशाला दडतो… मी मी असाच पहुडलेला असतो.. दिवस असो वा रात्र मला काहीच फरक पडलेला नसतो… कारण मला तर कुठेच जायचं वा यायचं नसतं..”
“..माझं कामं प्रवाश्यांच्या पदपथाचं असतं. .”
“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा अक्षय वाटेचा…”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘ मक्खी – सा’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 115 ☆
☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जीवन परिक्रमा पथ…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 145 ☆
☆ जीवन परिक्रमा पथ… ☆
बला या बलाएँ जो टाले नहीं टल रहीं हैं। बिना दिमाग के जब कोई कार्य किए जाते हैं तो उनके परिणाम न केवल करने वाले को वरन उनसे जुड़े लोगों को भी परेशान कर देते हैं। हैरानी की बात तो तब होती है जब बातचीत के मुद्दे ढूंढने के चक्कर में हम गलतियों पर गलती करते जाते हैं। कहते हैं समय का पहिया गतिमान रहता है, जो इसके साथ कदमताल मिलाते हुए स्वयं को विकसित करता जाता है वो अपना दबदबा बना लेता है। जो भी कार्य करें उसमें आपकी पहचान सबसे अलग तभी होगी जब उसमें शतप्रतिशत परिश्रम लगाया जाएगा। जैसी करनी वैसी भरनी के अनेकों उदाहरण जगत में मिलते हैं किंतु हम सब इन बातों से बेखबर अपने पूर्वाग्रह को ही प्राथमिकता देते हैं। सही गलत को एक ही तराजू में रखने की गलती करने वालों को भगवान कभी माफ नहीं करते। सच के साथ स्वयं की शक्ति अपने आप जुड़ने लगती है जिससे राह और राही उसके साथ खड़े नजर आते हैं।
जीवन पथ पर चलते हुए हमें केंद्र बिंदु की ओर निहारने के साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि जिस बिन्दु से हमने चलना प्रारंभ किया है, एक निर्धारित समय बाद पुनः यहीं आना होगा। बस हम कुछ कर सकते हैं तो वो यही होगा कि स्वयं को पहले की तुलना में श्रेष्ठ बना लें। हर दिन जब नया सीखते चलेंगे तो आने वाले पलों को सुखद होने से कोई नहीं रोक पायेगा।
दिमागी उथल- पुथल से कुछ नहीं होगा, कार्यों को शुरू कीजिए और तब तक करते रहें जब तक मंजिल आपके कदमों में न आ जाए। लक्ष्य को साधना कोई साधारण कार्य नहीं होता है। जो तय करें उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही सच्चे साधक का कार्य होता है।
पटाखे की लड़ी को फूटते हुए देखकर एक बात समझ में आती है कि एक साथ जुड़े हुए लोग एक जैसे परिणाम भोगते है। इसीलिए तो कहा गया है कि संगत सोच समझ के करें, आप जिनके संपर्क में रहेंगे वैसे बनते चले जायेंगे।
आइए सकारात्मक विचारों के पोषक बनें, सर्वे भवन्तु सुखिनः की ओर अग्रसर होकर अच्छे लोगों का सानिध्य प्राप्त करें।