हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 185 ☆ कहन कहन कहने लगे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहन कहन कहने लगे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 185 ☆ कहन कहन कहने लगे

अच्छी शुरुआत अर्थात आधा कार्य पूर्ण,  पर देखने में आता है कि अधिकांश लोग देखा देखी प्रारंभ तो जोर – शोर से करते हैं किंतु बाद में उन्हें समझ आता है कि अमुक कार्य  उनकी रुचि का  नहीं है, और यहीं से गति धीमी हो जाती है। विचारों की उदासीनता से व्यक्ति बड़बोलेपन का शिकार हो जाता है। नया करने में  डर लगने लगता है। जैसे जोरशोर से कार्य आरंभ करते हैं उससे कहीं अधिक हमें उसे पूर्ण करने की ओर ध्यान देना चाहिए। सही प्रक्रिया अपनाते हुई  गुणवत्ता पूर्ण कार्यों की ओर अग्रसर होना सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है।

जब हम पूरे मन से कार्य को करेंगे तो अवश्य ही सकारात्मक विचारों के साथ उसे पूर्णता तक पहुँचायेंगे। योग्य मार्गदर्शक के निर्देशन में  शुभ परिणाम मिलते हैं। इस संदर्भ में एक बात और विचारणीय है कि यात्रा के बहाने लोगों से जुड़ने का अच्छा माध्यम मिलता है किंतु विचारहीन व्यक्ति सही संप्रेषण नहीं कर पाता। भाषा पर पकड़ यदि मजबूत नहीं होगी तो लोगों के बीच अपने मनोभावों को व्यक्त करना कठिन होगा। शब्दों को अटक – अटक कर बोलने से चेहरे की भाव – भंगिमा भंग होती है जिससे जो कहना है उसे बीच में रोक कर कुछ अनचाहा बोलना पड़ता है।

जो भी हो होते रहना चाहिए ताकि लोगों को  ये तो पता लगे कि आप मैदान में हैं। धूप – छाया, दिन – रात, धरती – आकाश, जल- थल, मीठा-कड़वा सभी जरूरी हैं। सो स्वयं को उपयोगी बनाने की दिशा में जुटे रहें। जनमानस के साथ संवाद हो विवाद नहीं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 264 ☆ आलेख – भगत सिंह का लाहौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – भगत सिंह का लाहौर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 264 ☆

? आलेख – भगत सिंह का लाहौर ?

 भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी  लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ?  विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का.  सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने.  कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है.  यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी.  शाह अब्दुल अज़ीज़  ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था,  उन्होंने कहा था  अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट,  अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां  जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी,  वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है.  भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं.  हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा.  आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और  सच्चे अर्थो में  यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं.  लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.

रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की  तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है,  जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.

भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी  लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ?  विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का.  सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने.  कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है.  यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी.  शाह अब्दुल अज़ीज़  ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था,  उन्होंने कहा था  अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट,  अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां  जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी,  वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है.  भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं.  हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा.  आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और  सच्चे अर्थो में  यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.

माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं.  लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.

रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की  तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है,  जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #37 ☆ कविता – “इश्क़…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 37 ☆

☆ कविता ☆ “इश्क़…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इश्क़ को कब समझोगे

अपने आप से कितना उलझोगे

असीमित को और कितना सीमित करोगे

जिंदगी का और कितना इंतज़ार करोगे

 

ये न कोई करार

न ये कोई व्यवहार

ये न सिर्फ़ इजहार

न ये होना फरार

 

ये वो शरार-ए-इंसानियत

ये वो अरार-ए-शब

ये वो जुबां-ए-कायनात

ये वो दास्तां-ए-हयात

 

ये वो ज़ुल्फों की छांव

या हो दिल की नाव

ये वो खयालों की हवा

या हो लफ्जों की दुआ 

 

ये कभी हाथ में आता है

कभी आंखों में सिमटता है

ये कभी गालों पे खिलता है

कभी बस मन में ही बसता है

 

इससे अनदेखा न करना

कभी इससे दूर न जाना

ये वो अमृत है

जिससे कभी होंठ न चुराना…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 196 ☆ बाल गीत – चंदा और सूरज ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 196 ☆

बाल गीत – चंदा और सूरज ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

एक सीध में चंदा , सूरज

हमको लगे दुलारे।

एक चमकते स्वर्णिम – से हैं

एक दूधिया न्यारे।।

 

पश्चिम सूरज , प्राची चंदा

कैसा जोड़ा है प्यारा।

माँ के दोनों बेटे अनुपम

गगन घूमते हैं सारा।।

 

दोनों मिलकर पूरे जग में

करते हैं उजियारे।।

 

एक तपस्वी सबको देता

कर प्रकाश जीवन धारा।

दूजा शीतल किरण बिखेरे

सबका ही अतिशय प्यारा।।

 

दोनों कितने हैं उपकारी

हरते कष्ट हमारे।।

 

होते नहीं सृष्टि में दोनों

जग में तम ही गहराता।

सब्जी , दालें , फल ना होते

कभी न जीवन चल पाता।।

 

करें सार्थक हम भी जीवन

बनें आँख के तारे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #220 – कविता – ☆ दो मुक्तक -चाह शहद की है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  दो मुक्तक -चाह शहद की है तो…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #219 ☆

☆ दो मुक्तक -चाह शहद की है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चाह शहद की है तो,

मधुमक्खियाँ पालना होगा

मधुर रहे संबंध

व्यर्थ संवाद टालना होगा

शीत घाम बरसात

निभाना होगा हर मौसम को,

है गुलाब की चाह

कंटकों को संभालना होगा।

*

चाह शहद की है तो,

मधुमक्खीयाँ जरूरी है

बिना कष्ट अनुभूति

सुखों की चाह अधूरी है

बीच कंटकों के

गुलाब आभा बिखराता है,

पाना है निष्कर्ष

बात चीत बहुत जरुरी है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 44 ☆ एक गीत वसंत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “एक गीत वसंत…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆  एक गीत वसंत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पीत वसन हुई धरा

और मौसम हल्दिया

किसने आकर गाल पर

रँग वसंती मल दिया।

 

आम बौराया फिरे

गंध महुए से चुए

वन के कारोबार सारे

टेसू-सेमल के हुए

 

बैठ कोयल डाल पर

गा रही पिया-पिया।

 

स्नेह हरियाली लिए

खेत आँचल पसारे

पहन स्वर्णिम बालियाँ

रूप धरती सँवारे

 

बाँध सपने आँख से

प्रीति ने मन छू लिया।

 

तान बैठा चँदोबा

मस्तियों की ले गुलाल

आ गया मनचला फागुन

बाँटते सुख के रुमाल

 

बहकी-बहकी हवा ने

गंध से मुँह धो लिया ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से“)

✍ ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बेरुखी आप क्यों दिखाते हैं

खुद न  आते न ही बुलाते हैं

 *

एक वादा नहीं किया पूरा

आप मिस खूब पर बनाते हैं

 *

ग़मज़दा बोलिये हैं किस ग़म से

बेवज़ह इतना मुस्कराते हैं

 *

हाथ अपना भी दोसती को बढ़ा

सिलसिला हम ही हम चलाते हैं

 *

नाम उनका कभी नहीं मिटता

जो लहू देश को बहाते हैं

 *

रब्त जो प्यार का नहीं हमसे

रात भर रोज़ क्यों जगाते हैं

 *

रिज़्क़ दे ज़ीस्त में जो इंसा को

इल्म ऐसा नहीं सिखाते हैं

 *

अब चुनावों में जीत हो उनकी

दाम का जोर जो लगाते हैं

 *

ए अरुण इल्म बह्र का न हमें

शाइरी करते गुनगुनाते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 93 – बैंक: दंतकथा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “बैंक: दंतकथा : 2“

☆ कथा-कहानी # 93 –  बैंक: दंतकथा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.

यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी. धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.

शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि “हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुम लोगों को समझा रहे हैं.” इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे.

गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं  पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे.

जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा. शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं.

दंतकथा जारी रहेगी, अगर अच्छी लगे तो मुस्कुराइए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 13 – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोट।)

☆ लघुकथा – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित की मां शारदा को ऐसी नजरों से देखा रही थी जाने वह क्या करेगी ?

परंतु शारदा मां बेटे दोनों को इग्नोर करती हुई, गेट खोल कर ऑफिस चली गई। ‌

अमित की मां कमला सोफे के कवर ठीक करती हुई जोर से चिल्ला उठी “कैसी चंड़ी है? पता नहीं स्कूल में लड़कियों को क्या पढ़ाती होगी ? गालियां तो ऐसा देती है, इससे ठीक तो मोहल्ले के अनपढ़ हैं।

यह उच्च शिक्षा प्राप्त है और स्वयं को शिक्षिका कहती है।”

“अमित तुझको  सारे जमाने में बस यही लड़की मिली थी? इसी से शादी करने के लिए तू  मरा जा रहा था।” क्रोध में कमला ने अपनी बेटे को एक असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी। चश्मा उतार अपने बेटे को गले से लगा लिया ।

उसने कहा “बेटा तुझ में कोई खोट नहीं है, कोसने का प्रश्न ही कहां उठाता है पर तूने यह किस मिट्टी को चुन लिया?”

“कोई बात नहीं अपने मन को स्थिर रखो मां स्वयं में ही खोट निकालकर ही रंग रोगन करना पड़ेगा।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 220 ☆ वैशाख वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 220 ?

वैशाख वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

केदार अश्रु  आज तिथे ढाळतो कसा?

माझाच देव आज मला टाळतो कसा?..

*

मीही झुगारलेत अता बंध कालचे

इतिहास काळजातच गंधाळतो कसा?..

*

देवास काय सांग सखे मागणार मी

माझेच दु:ख देव शिरी माळतो कसा?..

*

अग्नीस सोसतात उमा आणि जानकी

बाईस स्वाभिमान इथे जाळतो कसा?.

*

राखेत गवसतात खुणा नित्य-नेहमी

स्त्रीजन्म अग्निपंखच कुरवाळतो कसा?..

*

मदिरेस लाखदा विष संबोधतात ते

सोमरस नीलकंठ स्वतः गाळतो कसा ?

*

वैशाख लागताच झळा पोचती ‘प्रभा’

सूर्यास सूर्यवंशिय सांभाळतो कसा?..’

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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