हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (36 – 40) ॥ ☆

सर्ग-19

एकान्त में स्त्रियों पै दिखा तीनों आंगिक व वाचिक व सात्विक विधायें।

अभिनय की, मित्रों के सम्मुख प्रतिष्ठिक की नाटक की अपनी कुशल योग्यतायें।।36।।

 

पहन कुटज-अर्जुन की मालायें वर्षा में, अँगराग करके कदम का परागण।

मयूरों से परिपूर्ण कृत्रिम वनों में बिताता था उन्मत्त हो वह सुखद क्षण।।37।।

 

कर मान मुँह फेर लेटी हुई माननियों को न वर्षा में वह था मनाता।

वरन धनगरज से विडर-चिपटने की, छाती में उनकी थी आशा लगाता।।38।।

 

कार्तिक की रातें खुली छत्त पै महलां की, सुमुखियों के संग वह था रति में बिताता।

जब श्रम मिटाने खुले नीलनभ से सुखद चाँदनी का था आनंद पाता।।39।।

 

वह अपने महलों से सुन्दर गवाक्षों से शोभा निरखता था सरयू शुभा की।

जिसके खुले रेणु तट पै बलाकायें दिखती थी रमणी जघन मेखला सी।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 95 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 95 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 95) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 95 ?

☆☆☆☆☆

कर लिया करता हूँ बर्दाश्त

हर दर्द इसी आस के साथ,

कि खुदा भी  नूर बरसाता है

तमाम आज़माइशों के बाद…

Now  I  keep  tolerating

every pain with the hope,

That even God showers grace

after the harshest of trials…

☆☆☆☆☆ 

 डर लगता है इजहार करने से

इतने क़रीब हो तुम…

ज़िंदगी बदल देगी मेरी

तुम्हारा इंकार भी, इकरार भी…

I’m scared to express muyself

B’coz you’re so intimately close

It’ll change my life forever, be it

Your refusal or acceptance…!

☆☆☆☆☆ 

कब, कहाँ, कौन और कैसे बदला

इसका भी हिसाब रखता है ये

बहुत समझदार है ये दिल, जनाब,

खुद का दिमाग भी रखता है ये…

Who changed, where, when & how

It maintains all the records…

This heart is very wise, Sire,

It keeps its own mind, too…!

  ☆☆☆☆☆

वैसे तो बेशुमार लोग मिला करते हैं,

ज़िंदगी के सफर में

मगर नसीब वाले ही काबिज होते हैं,

किसी के दिल-ए-आशियाने में…!

Though we keep meeting countless

people in the journey of life

But only the lucky ones occupy

someone’s mansion of heart…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ मुक्तिका…मीर मानो या न मानो… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…मीर मानो या न मानो…. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 95 ☆ 

☆ मुक्तिकामीर मानो या न मानो… ☆

जब हुए जंजीर हम

तब हुए गंभीर हम

 

फूल मन भाते कभी हैं

कभी चुभते तीर हम

 

मीर मानो या न मानो

मन बसी हैं पीर हम

 

संकटों से बचाएँगे

घेरकर प्राचीर हम

 

भय करो किंचित न हमसे

नहीं आलमगीर हम

 

जब करे मन तब परख लो

संकटों में धीर हम

 

पर्वतों के शिखर हैं हम

हैं नदी के तीर हम

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (31 – 35) ॥ ☆

सर्ग-19

 

जब ऊबकर पास बैठे किसी के वह अन्यत्र जाने का करता बहाना।

‘‘अभी आया मैं कार्यवश जा रहा हूँ’-तो रमणी पकड़ रुद्ध करती थी जाना।।31।।

 

सघन रति थकित कामनियां वक्ष अपने बना कंठ-सूत्री मिलन का बहाना।

रगड़ उसकी छाती पै हर अगरू चंदन स्व अनुराग से चाहती लेट जाना।।32।।

 

मिलन कामना से चले उसके संचार की सूचना चेरियों से सब पाकर।

आ सामने अंधेरे में उसे रोक, ताने दे घर खुद ले जाती छुपाकर।।33।।

 

पा चंद्र किरणों सी रमणियों का स्पर्शसुख वह कुमद सम रात भर जागता था।

औ’ दिन में सो कुमुदिनी सा सही में वह दूसरा कुमुदाकर हो गया था।।34।।

 

थे दतक्षत से अधर दर्द देते औ’ नखक्षतों सै दुखी जंघिकायें।

पर वेणु-वीणा सजा गायिकायें, रिझाने सुरतहित थी करती अदायें।।35।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 84 ☆ गजल – ’’आदमी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 84 ☆ गजल – आदमी…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी से बड़ा दुश्मन आदमी का कौन है ?

गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।

हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते

काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।

बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता

जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।

कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की

पर किसी को, मॉगने पर प्यार दे सकता नहीं।।

चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन

हँस तो सकता है, मगर खुल कर हँसा सकता नहीं।।

रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग

साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।

नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिनके दगा

बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।

सारी दुनियाँ में यही तो कबड्डी का खेल है

पसर जो पाया जहां पर, फिर सिमट सकता नहीं।।

कैसे हो विश्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर

जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।           

लगाना चाहता हूँ पर कहीं भी मन नहीं लगता

जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।

न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको

उदासी का कुहासा है सघन, मन से नही हटता

वही घर है, वही परिवार, दुनियाँ भी वही जो थी

मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नही पगता।।

तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके

घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।

तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको

उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।

अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से

अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।

हमेशा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है

तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।

सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी

तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।

न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों

नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोहरे के आँचल से # पूस की सुबह… ☆ सौ. सुजाता काळे ☆

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगणी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “पूस की सुबह…। )

☆ कोहरे के आँचल से # पूस की सुबह ☆ सौ. सुजाता काळे ☆

सूरज ठिठुर गया है, छिप गया है,

चाँद की रजाई ओढ कर।

हवा भी चल रही है पुरवाई से,

हिमनग गोद में लिए।

 

अभी अभी फिर से उतर आई है किरणें,

आँगन में पूस के प्रकोप के बाद भी।

थोडी सी तपिश मिल रही है,

ठिठुरती हुई धरती को।

 

रेशमी किरणों का जाल ओढकर,

अब लुप्त हो रही हैं ओस की बूंदे,

कोहरे के बादल का आँचल है पहने,

पूस की सुबह आज मेरे आँगन

उतर आई है।

© सुजाता काळे

पंचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (26 – 30) ॥ ☆

सर्ग-19

 

प्रिया चरणों में जब आलक्तक लगाता, वसन प्रियतमा का अगर उधड़ जाता।

जघन देखने में ही वह डूब जाता चरण में सही ढंग न रंग लगा पाता।।26।।

 

चुम्बन न दे अपना मुँह मोड़ लेती, हटाते अधोवस्त्र कर रोक लेती।

असहयोग भी अग्निवर्ण को मगर नित बढ़ावा ही देता था, बस नेति नेति।।27।।

 

जब नारियां दर्पणों से निरखती सुरत चिन्ह, वह पीछे छुप बैठ जाता।

दिखा अपना प्रतिबिम्ब दर्पण में उनकी, स्वतः ‘ही’-‘ही’ करके प्रिया को लजाता।।28।।

 

निशान्ते शयन छोड़ते अग्निवर्ण से रमणियाँ थी चुम्बन की करती प्रतीक्षा।

कि जिसमें गले के सुकोमल भुजाओं, चरणतल पै चरणों की होती अपेक्षा।।29।।

 

उसे शक्र से भव्य निज राजसी वेष भी कभी दर्पण में भाया न ऐसे।

वदन पै बने दन्तक्षत औ’ नखक्षत को भूषण सदृश देख होता था जैसे।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #134 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 134 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मन से मन तो मिल रहा, ओ प्यारे मनमीत।

मन ही मन में गूंजता, तेरा अपना गीत।।

 

मिलते ही मन मिल गए, ओ प्यारे मनमीत।

सांस सांस में बज उठा, प्रेम प्यार का गीत।।

 

पारिजात के वृक्ष का, होता ही उपयोग।

योगी सदा बता रहे, इसका योग प्रयोग।।

 

बारिश होती झूमकर, झरने लगे प्रपात।

मिलते ही आनंद में, खुश होती बरसात।।

 

गरमी कैसी बढ़ रही, उगल रही अंगार।

धरती व्याकुल हो रही, कर दो अब उद्धार।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #123 ☆मनाली यात्रा … संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  मनाली यात्रा में रचित  “संतोष के दोहे …  । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆

☆ मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पेड़ उचककर कह रहा, मुझसे कौन महान

गिरि के सीने में खड़ा, जाने सकल जहान।।

 

मुझसे ही मौसम चले, देता सर्द बयार

मैं तूफां को रोकता, मुझसे करिए प्यार।।

 

चीड़ समुन्नत नीलगिरि, शीशम  साल चिनार

पर्वत की शोभा यही, मौसम के हकदार।।

 

वृक्ष बिना सूना लगे, गिरि का विस्तृत भाल

जीवन औषधि दे यही, करता मालामाल।।

 

शैल ऊँचाई दे रहा, पर एकाकी ठाँव

पेड़ों की यह संपदा, देती शीतल छाँव।।

 

कार्बन अवशोषित करें, हमें हवा दें शुद्ध

वाहक वर्षा के यही, समझें सभी प्रबुद्ध।।

 

जीवों को देते शरण, करें खूब उपकार

पेड़ लगाकर नित नए, करें प्रकृति से प्यार।।

 

खूब मिले “संतोष” धन, चलो प्रकृति की ओर

पेड़ लगाकर ही मिले, हमें सुहानी भोर।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (21 – 25) ॥ ☆

सर्ग-19

 

बिता रात्रि अन्यत्र थक, प्रात आकर सुरति चिन्ह धारें सता खण्डिता को।

क्षमा मांग फिर शिथिल व्यापार करके व्यथित करता अतृप्ति दे खुद दुखी हो।।21।।

 

जब कभी वह स्वप्न में नाम लेता किसी और का, तो दुखी नायिकायें।

बदल करवटें रो तिरस्कार करती थी, उसको पलंग पै जता निज व्यथायें।।22।।

 

पा दूतियों से इशारा स्वगृह तज रची पुष्पा-शैय्या के कुंजों में जाता।

भयभीत, पत्नी कुपित होगी, फिर भी सदा दायिों संग भी मिलता-मिलाता।।23।।

 

सुन नाम प्यारी का तुमसे हमारा भी हो भाग्य ऐसा-ये होती है इच्छा।

यों नाम सुन उस विलासी से कोई उपालम्भ दे रमणी लेती परीक्षा।।24।।

 

झरे केश कुसुमों व विच्छिन्न हारों, टूटी करघनी पाके गुँझटे शयन में।

आलक्तक लगी चादरों से था दिखता वे रतिबंध भोगे जो थे उसने उनमें।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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