हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 29 ☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – वृक्ष की पुकार…… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता वृक्ष की पुकार… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 29 ✒️

🌿 विश्व पर्यावरण दिवस विशेष 🦚 वृक्ष की पुकार… — डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई ,

सांसो के मध्य ,

कल सुना था मैंने ,

कि तुमने कर दी ,

फिर एक वृक्ष की ,

” हत्या “

इस कटु सत्य का ,

हृदय नहीं ,

कर पाता विश्वास ,

” राजन्य “

तुम कब हुए ,नर पिशाच ।।

 

अंकित किया ,एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो ,

तो बताओ ?क्यों त्यागा ,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा ,

रम्य वन को ?क्यों किया ,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम ,जगती में

क्या ? कहीं भी ना ,

मिल सकी ,तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम ,अपनी

आवश्यकताएं ,

तो बताते ,

शून्य ,- शुष्क ,

प्रदूषित वन जीवन ,

की व्यथा देख ,

रोती है प्रकृति ,

जो तुमने किया ,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें ,

छाती पर बिठाए ,

यह धरती ,

तुम्हारे चरण चूमती ,

रही बार-बार ,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष ,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे ,

सुकुमार ,

अपनी अनन्त-असीम ,

तृष्णाओं के लिए ,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे ,

निर्विकार ,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार ,

तभी वृद्ध ,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार ,

आयु से पूर्व ,

उन्हें छोड़ा मझधार ,

रिक्त जीवन दे ,

चल पड़े

अज्ञात की ओर ,

बनाने नूतन ,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया ,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है ,

किसी को काट डालना ,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते ,

प्रकृति के संजोए ,

पर्यावरण को बुनते ,

प्रमाद में  विस्मृत कर ,

अपना इतिहास ,

केवल बनकर रह

लगए ,उपहास ।।

 

काश !तुमने सुना होता ,

धरती का ,करुण क्रंदन ,

कटे वृक्षों का ,

टूट कर बिखरना ,

गिरते तरु की चीत्कार ,

पक्षियों की आंखोंका ,सूनापन ,

आर्तनाद करता , आकाश ,

तब संभव था ,कि तुम फिर ,

व्याकुल हो उठते ,

पुनः उसे ,रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास ,

बनाने का करते प्रयास ,

तब तुम ,वृक्ष हत्या ,

ना कर पाते अनायास ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46 – 50) ॥ ☆

सर्ग-19

 

किया पान था अग्निवर्ण ने सुरा का पाटल कुसुम आम्रपल्लव से मिश्रित।

अतः बसंत ऋतु बाद कृश काम उसका पुनः हो गया नया उन्नत श्री समुचित।।46।।

 

प्रजा कार्य से हो निरंतर विमुख वह इंद्रिय-सुखों से हुआ लीन कामी।

था उसका श्रृंगार ही ऋतु का परिचय, हर ऋतु का श्रृ्रंगार था उसका नामी।।47।।

 

व्यसनों में आसक्त रहने पै भी अग्निवर्ण पै न आक्रमण हुआ कोई कभी भी।

 

पर दक्ष-शापित हुये चंद्रमा सा, रतिराग वश क्षीण होता गया ही।।48।।

सुरापान औं रति के कारण था अस्वस्थ पर उसने छोड़ा न वैद्यों की मानी।

 

हो व्यसन के वश अगर इंद्रियाँ तो, उन्हें मोड़ सकता नहीं कोई ज्ञानी।।49।।

हो पीत मुख हो गया क्षीण इतना कि चल पाता था ले किसी का सहारा।

 

हुई मंद आवाज छूटे आभूषण हो राजयक्ष्मावश हुआ थका-हारा।।50।।

हुआ रोग से ग्रस्त वह किन्तु रघुकुल हुआ जैसे कांटा हुआ चन्द्रमा हो।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 36 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 36 – मनोज के दोहे

(पनघट, कुआँ, जेठ, ताल, पंछी)

पनघट बिछुड़े गाँव से, टूटा घर संवाद।

सुख-दुख की टूटी कड़ी, घर-घर में अवसाद।।

 

कुआँ नहीं अब शहर में, ट्यूबबैल हैं गाँव।

पीने को पानी नहीं, दिखती कहीं न छाँव।।

 

जेठ दुपहरी की तपन, दिन हो चाहे रात।

उमस बढ़ाती जा रही, पहुँचाती आघात।।

 

ताल सभी बेहाल अब, नदी गई है सूख।

तरुवर झरकर ठूँठ से, नहीं रहे वे रूख।।

 

प्रकृति हुई अब बावली, बदला है परिवेश।

पंछी का कलरव नहीं, चले गए परदेश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष –  आगे से… ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय रचना ‘आगे से…’।)

☆ कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष –  आगे से… ☆ श्री श्याम संकत ☆ 

कुछ पेड़ लगवा कर

रिटायर हो गए

कुछ पेड़ कटवा कर

रिटायर हो जाएंगे

 

धरती के गहने

उतरते जाएंगे धीरे धीरे

 

अब तक लकड़ी से जला करते थे मुक्तिधाम में

आगे से बिजली वाले में

सरका दी जाएगी ठठरी

 

साहब की भी

चपरासी की भी।

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श-3 – प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श-3 – प्रश्न ??

बड़ा प्रश्न है-

प्रकृति के केंद्र में

आदमी है या नहीं?

इससे भी बड़ा प्रश्न है-

आदमी के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं?

.

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (41 – 45) ॥ ☆

सर्ग-19

अगरु-गंध रांचे लहरते वसन झीने, झलकती थी जिससे सहज स्वर्णस्शना।

अग्निवर्ण को खेलता नीबि से जो, पहन मोहती सी थी कटिक्षीण अंगना।।41।।

 

वह महलों के बंद कमरों में एकान्त रचता था प्रिय-रुचि के व्यापार सारे।

साक्षी शिखिर रजनियां जिसकी केवल अचल दीप लो के नयन के सहारे।।42।।

 

मलय पवन पोषित नवल आम्रपल्लव औं, मधु मंजरी को खिला देख मानिनि।

ने तज मान उस विरही नृप को, मनाया जो था बिताता सब समय सपने गिन-गिन।।43।।

 

बिठा झूले में सुन्दरियों को ले गोदी वह सेवकों से था झूला झुलवाता।

भय वश भुजा डाल थी जो चिपकती वह उनके संश्लेष का सुख था पाता।।44।।

 

कर लेप चंदन का वक्षों पै अपने मुक्ताओं की पहन कर गले माला।

मणि रसना, कर ग्रीष्म की वेशभूषा, शीतोपचारों से युक्त थी सभी बाला।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 91 – गीत – एक लहर कह रही कूल से ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – एक लहर कह रही कूल से।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 91 – गीत – एक लहर कह रही कूल से✍

एक लहर कह रही कूल से बँधे हुए हैं क्यों दुकूल से।

एक किरन आ मन के द्वारे अभिलाषा की अलग सँवारे

संभव कहां अपरिचित रह ना बार-बार जब नाम पुकारे।

सोच रहा हूं केवल इतना, क्या मन मिलता कभी भूल से।

इसी तरह के वचन तुम्हारे अर्थ खोजते खोजन हारे

मौन मुग्ध सा अवश हुआ मैं शब्दवेध की शक्ति बिसारे।

सोच रहा हूं केवल इतना, प्रश्न किया क्या कभी फूल से

भ्रमर बँधे हैं क्यों दुकूल से।

एक लहर कह रही कूल से बने हुए हो क्यों दुकूल से ?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 93 – “आँखों के झरने सब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –आँखों के झरने सब…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 93 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “आँखों के झरने सब”|| ☆

उतरे तपेदिक जो

सूख गये हाड़ से

छोड़ूँ तब झाँकना

हिलगे  किबाड़  से

 

कितने क्या मास-बरस

गुजर गये-बीत गये

आँखों के झरने सब

सूख गये-रीत गये

 

पलकें मलते-मलते

मेंहदी व आलते

बहे सभी पानी में

आँसू की बाढ़ से

 

इधर तेज धूप कभी

तुमने न पहचानी

ग्रीष्म की शिराओं में

बहे पीर अनजानी

 

और धमनियों में भी

रक्त की हरारत का

नमक बहा जाता है

पहले आषाढ़ से

 

पूर्वज,पुराणों में

कहते यही आये

धीरज के फल सबने

मीठे यहाँ पाये

 

संयमित रहो और

चाल समय की देखो

निकलेंगे फूल सदृश

दिन ये पहाड़  से

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 140 ☆ मन की बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता “मन की बात”।)  

☆ कविता # 140 ☆ मन की बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मन तुम्हें इसलिए 

मिला है कि

मन भर के खाओ,

मन भर के मौज उड़ाओ, 

मन मन  भर के बन जाओ,

मन से मन भर बात करो,

मन के रंग हजार बनाओ,

मन भर का दर्द मन से हटाओ,

मन के हजार नैन से देखो, 

और मन ही मन में मुस्कराओ,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 84 ☆ # धूप-छांव # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# धूप-छांव #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 84 ☆

☆ # धूप-छांव # ☆ 

तुम्हारी मुस्कान के पीछे

कितने ग़म है

लबों पर हंसी

पर आंखें कितनी नम है

 

पलकों में छिपे समंदर को

मन कैसे रोक पाएगा

जरा सी ठेस पहुंचेगी

तो सैलाब आ जाएगा

 

तुम इन आंसुओं को

खुलकर बहने दो

सीने मे छिपे दर्द को

बहते बहते कहने दो

 

इस गुलशन में

फूल भी है, भंवरे भी है

महकते पराग के संग

कलियों के पहरे भी हैं

 

तुम्हारे आँसू पोछकर

तुम्हें सब हंसना सिखाएँगे

बालों में सजेंगे जब गजरे

सारे दुःख भूल जाएंगे

 

कलियों की तरह खिलखिलाएं

फूलों की तरह महकों

भंवरों के संग संग

प्रेम रस में बहकों

 

जीवन में दु:ख-सुख

धूप और छांव  है

जीवन के डोर से बंधे

हम सब कें पांव है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print