हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 161 ☆ कविता – हथियार बना गर्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – हथियार बना गर्व… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 161 ☆

? कविता – हथियार बना गर्व… ?

हर तरफ

गर्व बिखरा पड़ा है

लाल नीला पीला हरा गर्व

लाउड गर्व ,

ताजा गर्व ,  

पुरखों वाला पुराना गर्व

बेदाग गर्व

धब्बेदार गर्व

असरदार गर्व

फरमे बरदार गर्व

किताबों में बंद ,

उजागर गर्व

इमारतों में कैद

झाड़ फानूसो पर लटका गर्व

फांसी के तख्ते पर झूलता गर्व,

वो याद करता

वो भूलता गर्व

हथियार बना गर्व

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 112 ☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 112 ☆

☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

1.
रामायण के कौन रचियता, बच्चो बोलो नाम।
अद्भुत रचना की है उनने, दशरथनंदन राम।।

2.
कृष्ण, अर्जुन संवाद हुआ है, वह ग्रंथ है कौन।
शिक्षा, ज्ञान, कर्म बतलाती, बिल्कुल रहकर मौन।।

3.
तुलसीदास ने ग्रंथ लिखा है, उसका नाम बताओ।
राम की जिसमें कथा निराली, सच की विजय सुनाओ।।

4.
वेद हैं कितने प्यारे बच्चो, संख्या तो बतलाओ।
सदा सत्य का ज्ञान कराएँ, अलग-अलग बतलाओ।।

5.
सबसे पहला वेद कौन है, जल्दी बोलो नाम।
जीवन का सदमार्ग बताए, आए जनहित काम।।

6.
वेदों के कुल मंत्र हैं कितने, जिसमें अदभुत ज्ञान।
अथक अर्थ हैं उसमें बच्चो, सुख पाते हैं कान।।

7.
वेदों में श्लोक हैं कितने, संख्या जल्दी बतलाओ।
वेदव्यास ने किया संपादन, कुछ तो ज्ञान कराओ।।

8.
महाभारत है ग्रंथ पुराना, उसके लेखक कौन।
शिक्षा, नीति , ज्ञान सिखाए, अब हैं बिल्कुल मौन।।

9.
सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ लिखा है, उनका बोलो नाम।
वेदों का सब सार बताए, किए देश हित काम।।

10.
धर्मशास्त्र इतिहास लिख गए, भारत रत्न मिला है।
नाम बताओ उनका बच्चो, देश का किया भला है।।

11.
कितने हैं पुराण लिखे गए, संख्या जल्दी बतलाओ।
देवों की सब कथा कहानी, कुछ तो आज हमें सुनाओ।।

 

उत्तर – 1.महर्षि बाल्मीकि जी, 2.श्रीमद्भागवत गीता,3. रामचरित मानस, 4.चार वेद( ऋग्वेद, अर्थववेद, यजुर्वेद, सामवेद), 5. ऋग्वेद, 6. तेईस हजार चार सौ उनासी, 7. चार लाख, 8.महर्षि वेदव्यास जी, 9.महर्षि दयानंद , 10.डॉ पी. वी. काणे जी , 11. अट्ठारह

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (16 – 20) ॥ ☆

सर्ग-19

तज एक को मिलने हित दूसरी से अजब उसका प्रिय खेल सा बन गया था।

इसी से ही अक्सर अधूरे मिलन का रमणियों का भी उससे मन बन गया था।।16।।

 

कभी छोड़ जाते उसे कामनियाँ अपने कामेल कत से पकड़ के डराती।

कभी कुटिल भ्रूभंग से दृष्टि से या कभी करधनी से उसे बाँध लाती।।17।।

 

सुरत रात्रियां विदित दूती से जिनको छिपे बैठे अग्निवर्ण ने उनके पीछे।

सुनी उनकी शंका भरी वेदनायें- ‘‘न आये तो क्या होगा सखि! बिना पिय के।।18।।

 

जब पत्नियों साथ होता न तब होती वे नृर्तकियाँ जिनकी छवि वह बनाता।

पसीने से गीली अंगुलियों से प्रायः फिसलती कुची, उसमें ही समय जाता।।19।।

               

प्रिय प्रेम पाने से गर्वित सपत्नी से कर द्वेष, पर भावना को छुपाकर।

तज मान उसको बुलाती बहाने से, कराती थी मन का महोत्सव मनाकर।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#134 ☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “किसे पता था….…”)

☆  तन्मय साहित्य # 134 ☆

☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वाँस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे सँवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पँखेरू उड़ जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,साँझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में 

ऐसे भटकाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 28 ☆ ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “प्रीत के हिंडोले में…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… — डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में ,

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले ,

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां,

रूढ़ियों की जंज़ीरों से ।

मैं बहती हुई नदिया हूं ,

भावना तूफ़ानी है ।।

 

झर – झर , झरते – झरने ,

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही ,

सफ़ल ज़िन्दगानी है ।।

 

चांदी की हों रातें ,

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती पर ,

हमने लाने की ठानी है ।।

 

सपनों के पंख पसारे ,

क्षितिज के पार हम चलें । ‌

रात भीगी – भीगी है ,

भोर धानी – धानी है ।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है ,

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में ‘ सलमा ‘ को ,

वफ़ा ही निभानी है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

कमलिनी का पा गंध जैसे कि गजराज उन्तत्त हो आप आ जाता सर में।

वैसे हि मधुगंध पा अग्निवर्ण भी रमणियों के संग आ घुसा मझधर में।।11।।

 

वहां अकेले में, नशे में खो सुध-सुध पिया उससे जूठी सुरा सुन्दिरियों ने।

बकुल वृक्ष सा उसने भी अनेक मुख की सुरा पी बिकल हो विवश इन्द्रियों से।।12।।

 

सदा मोह में मोद देती थी उसको कभी या तो वीणा कभी कामिनी या।

मधुर भाषिणी सुखद है दोनों निश्चित, हृदय में समाती जो संगीत स्वर गा।।13।।

 

जब अग्निवर्ण खुद बजाता था तबला, तो हिलता वलय था औ’ थी कण्ठमाला।

हर लेता था मन, वो यों नर्तकियों को कि शरमा के रह जाती थी रम्यबाला।।14।।

 

करते हुये नृत्य श्रम से पसीने से पुँछ गये तिलक वाली नृत्यांगना को।

मुँह की हवा दे, पसीना सुखा चूम लज्जित किया उसने तो वासना को।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे

(ग्रीष्म, चिरैया, गौरैया, लू, तपन)

ग्रीष्म-तप रहा मार्च से, कमर कसे है जून।

जब आएँगे नव तपा, तपन बढ़ेगी दून।।

दूँगा सबको भून।।

 

पतझर में तरु झर गए, ग्रीष्म मचाए शोर ।

उड़ीं चिरैया देखकर, कल को यहाँ न भोर।।

 

गौरैया दिखती नहीं, ममता देखे राह।

दाना रोज बिखेरती, रही अधूरी चाह।।

 

भरी दुपहरी में लगे, लू की गरम थपेड़।

कर्मवीर अब कृषक भी, लगते सभी अधेड़।।

 

सूरज की अब तपन का, दिखा रौद्र अवतार।

सूख रहे सरवर कुआँ, सबको चढ़ा बुखार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

राजा था रसरंग में लीन ऐसा प्रजा दर्शनों को तरसने लगी थी।

रहा नृप का अंतः पुरों में ही डेरा, खुशी तरूणियों की बरसने लगी थी।।6।।

 

कभी मंत्रियों की विनय पर प्रजा पर अनुग्रह किया तो चरण भर दिखाये।

जो लटकाये गये खिड़की से सिर्फ दो क्षण, कोई कभी मुख छवि नहीं देख पाये।।7।।

 

नखकांति कोमल, जो रवि की किरण से खिले कमल की सी थी ऐसे चरण को।

विनत नमन करके ही सब राजदरबारी जाते थे नित अपनी सेवा-शरण हो।।8।।

 

यौवन से कामिनि के उन्नत उरोजों के संघात से क्षुबध जल-चल-कमल युक्त।

जल से ढकी सीढ़ियों के भवन मे रसिक उसने की काम क्रीड़ा हो उन्मुक्त।।9।।

 

वहां रमणियों के जलाभिषेक से धुले प्राकृत नयन, अधरों ने उसके मन को।

मोहित किया अधिक क्योंकि नहीं था कोई आवरण ढंके सुन्दर वदन को।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 90 – गीत – ओ, मेरे हमराज… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ, मेरे हमराज।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 90 –  गीत – ओ, मेरे हमराज…✍

जरा जोर से बोल दिया तो

हो बैठे नाराज

ओ, मेरे हमराज।

 

माना मन की बहुत पास हो, लेकिन योजन दूरी है

दुविधाओं के व्यस्त मार्ग पर, चलना भी मजबूरी है कोलाहल के बीच खड़े हम चारों ओर समाज।

ओ मेरे हमराज..

 

यादों के आंगन में बिखरी, छवियों की रांगोली है

शायद तुमने केश सुखाकर, गंध हवा में घोली है

चुप्पी की चादर के नीचे, सोई हैआवाज।

ओ मेरे हमराज ओ मेरे…

 

कितना तुम्हें मनाऊं मानिनि पैसे क्या मैं समझाऊं

जिसने मुझको गीत बनाया, उसको मैं कैसे गाऊं

सब कुछ तो कह डाला तुमसे,

कैसा लाज लिहाज।

जरा जोर से बोल दिया तो हो बैठे नाराज।

ओ मेरे हमराज।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “इंतजार करते-करते हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “इंतजार करते-करते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इंतजार करते-करते हैं”|| ☆

इस घर के इतिहास कथन में, निम्न बिन्दु उभरे

भूखे रहे पिता कुछ दिन, तब जा कर कहीं मरे

 

पता चला है बडे

पुत्र के मरने में दारू-

की थी उच्च भूमिका

ऐसा कहती मेहरारू

 

कोई औरत थी जो चुपके उस से मिलती थी

आती थी वह पहिन-पहिन कर बेला के गजरे

 

वह जो है अड़तीस बरस की इस घर की बेटी

मिला नहीं उसको सुयोग्य वर जब कि वही जेठी

 

सूख गई है माँ अनगिन

उपवास – बिरत रखते

इंतजार करते-करते हैं

कई बरस गुजरे

 

एक और भाई जो क़द में

कुछ लगता छोटा

मगर वही है इन सब में

बेशक थोडा खोटा

 

वही शहर में अपनी तिकड़म को जारी रखने

काम किया करता है सारे पीले-लाल-हरे

 

बड़ी बहू विधवा होकर भी

बनी-ठनी रहती

चलती है जब झूम-झूम के

हिलती है धरती

 

कहती मेरा करम फूटना था आकर इस घर

कोट-कंगूरे, मेहराबें तक

यहाँ सभी अखरे

 

नौकरानियाँ जिद्दी जिसको जो करना करतीं

इन्हें देख कर उम्मीदें तक

आहें हैं भरतीं

 

सासू के घटिया मिट्टी के

जीर्ण -शीर्ण  भान्डों

को खंगाल देती हैं सन्ध्या

दिखा- दिखा नखरे

 

जो मुनीम था यहाँ गृहस्थी के हिसाब खातिर

वही एक है कर्मचारियों में सबसे शातिर

 

घर का कोई बन्दा उससे जो हिसाब मांगे

काले नाग सरीखा वह

उन  सब पर है  विफरे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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