प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 84 ☆ गजल – आदमी…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी से बड़ा दुश्मन आदमी का कौन है ?

गम बढ़ा सकता जो लेकिन गम घटा सकता नहीं।।

हड़प सकता हक जो औरों का भी अपने वास्ते

काट सकता सर कई, पर खुद कटा सकता नहीं।।

बे वजह, बिन बात समझे, बिना जाने वास्ता

जान ले सकता किसी की, जान दे सकता नहीं।।

कर जो सकता वारदातें, हर जगह, हर किस्म की

पर किसी को, मॉगने पर प्यार दे सकता नहीं।।

चाह कर भी मन के जिसकी थाह पाना है कठिन

हँस तो सकता है, मगर खुल कर हँसा सकता नहीं।।

रहके भी बस्ती में अपना घर बनाता है अलग

साथ रहता सबके फिर भी साथ पा सकता नहीं।।

नियत गंदी, नजर पैनी, चलन में जिनके दगा

बातें ऐसी घाव जिनका सहज जा सकता नहीं।।

सारी दुनियाँ में यही तो कबड्डी का खेल है

पसर जो पाया जहां पर, फिर सिमट सकता नहीं।।

कैसे हो विश्वास ऐसे नासमझ इन्सान पर

जो पटाने में है सबको खुद पै पट सकता नहीं।।           

लगाना चाहता हूँ पर कहीं भी मन नहीं लगता

जगाना चाहता उत्साह पर मन में नहीं जगता।।

न जाने क्या हुआ है छोड़ जब से तुम गई हमको

उदासी का कुहासा है सघन, मन से नही हटता

वही घर है, वही परिवार, दुनियाँ भी वही जो थी

मगर मन चाहने पर भी किसी रस में नही पगता।।

तुम्हें खोकर के सब सुख चैन घर के उठ गये सबके

घुली है मन में पीड़ा किसी का भी मन नहीं लगता।।

तुम्हारे साथ सुख-संतोष-सबल जो मिले सबको

उन्हीं की याद में उलझा किसी का मन नहीं लगता।।

अजब सी खीझ होती है मुझे तो जगमगाहट से

अचानक आई आहट का वनज अच्छा नहीं लगता।।

हमेशा भीड़-भड़भड़ से अकेलापन सुहाता है

तुम्हारी याद में चिंतन-मनन में मन नहीं लगता।।

सदा बेटा-बहू का प्यार-आदर मिल रहा फिर भी

तुम्हारी कमी का अहसास हरदम, हरजगह खलता।।

न जाने जिंदगी के आगे के दिन किस तरह के हों

नया दिन अच्छा हो फिर भी गये दिन सा नहीं लगता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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