हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पाखंड ??

आदमी के मन में

पाखंड कब जगा,

जानने का यूँ ही

विचार मन में उठा,

देखता हूँ तबसे

समय का काँटा

शून्य पर है

जस का तस

ठहरा हुआ..!

© संजय भारद्वाज 

(10:10 बजे, सुबह, 27.11.21)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 58 ☆।।घर में प्रेम और रौनक का रंग भरती है बेटियाँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। घर में प्रेम और रौनक का रंग भरती है बेटियाँ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 58 ☆

🌹 अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 🌹

☆ मुक्तक  ☆ ।। घर में प्रेम और रौनक का रंग भरती है बेटियाँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

पढ़ेंगी बेटियाँ   और आगे बढ़ेंगी    बेटियाँ।

बराबर हक़ के    लिए भी लड़ेंगी   बेटियाँ।।

बेटों से कमतर  कहीं नहीं हैं बेटियाँ  हमारी।

हर ऊँची   सीढ़ी    पर भी चढ़ेंगी    बेटियाँ।।

[2]

विश्व पटल पर आज बेटियों का खूब नाम है।

आज कर रही     दुनिया में वह हर  काम हैं।।

बेटी को जो देते  बेटों जैसा प्यारऔर सम्मान।

अब  माता  पिता   कहलाते वही महान    हैं।।

[3]

हर दुःख सुख   साथ     में   संजोतीं  हैं बेटियाँ।

हर घर में प्रेम और   रौनक बोती  हैं   बेटियाँ।।

बड़ी होकर करती सृष्टि की रचना भी   नारी।

प्रभुकृपा बरसती वहीं जहाँ होती हैं   बेटियाँ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 122 ☆ कविता – “देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #122 ☆  गजल – “देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हंसी खुशियों से सजी हुई जिन्दगानी चाहिये

सबको जो अच्छी लगे ऐसी रवानी चाहिये।

 

 

समय के संग बदल जाता सभी कुछ संसार में

जो न बदले, याद को ऐसी निशानी चाहिये।

 

आत्मनिर्भर हो न जो, वह भी भला क्या जिंदगी

न किसी का सहारा, न मेहरबानी चाहिये।

 

हो भले काँटों तथा उलझन भरी पगडंडियां

जो न भटकायें वही राहें सुहानी चाहिये

 

नजरे हो आकाश  पर पैर धरती पर रहें

हमेशा हर सोच में यह सावधानी चाहिये।

 

हर नए दिन नई प्रगति की मन करे कामना

निगाहों में किन्तु मर्यादा का पानी चाहिये।

 

जहां मिलते है उड़ानों को नये-नये रास्ते

सद्विचारों की सुखद वह निगहबानी चाहिये।

 

बांटती हो जहां सबको खुशबू ममता प्यार की

भावना को वह महकती रातरानी चाहिये।

 

हर अंधेरी रात में जो चमक पथ की खोज ले

बुद्धि की वह कौंध बिजली आसमानी चाहियें।

 

मन ’विदग्ध’ विशाल  हो औ’ हो समन्वित भावना  

देश को जो नई दिशा दे वह जवानी चाहिये।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #171 ☆ कविता – आराधना… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “आराधना…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 171 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – आराधना… ☆

करते हैं सदा ध्यान

मिलता है हमें ज्ञान

तुम्हारे ही प्रभु नाम का

करती हूँ।

गुणगान

हूँ मैं याचक

तेरी आराधना करती हूँ।

मैं राधा भी हूँ, मीरा भी हूँ

प्रणय का भाव रखती हूँ।

न रहे कभी भाव का आभाव

यही प्रभु आपसे आराधना करती हूँ।

जो दीन है हीन है।

जो भटके हुये है

जो तेरे दर पर नहीं रख पाते सर अपना।

रास्ता उनको दिखाओ सही अपना।

यही प्रभु आराधना करती हूँ।

जीवन एक संघर्ष है।

चहुँ ओर झंझावात है

कहीं घात प्रतिघात है।

रहे सदा सदभावना

मन में

रहे सिर्फ हर्ष ही हर्ष

यही प्रभु आपसे आराधना करती हूँ

करती हूँ यही कामना।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – युद्ध  ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध ??

किसीका अहंकार

युद्ध का कारण बना,

अहंकार तोड़ने किसीने

युद्ध का चक्रव्यूह रचा,

 

हथियारों की मंडी

कोई खोल रहा,

विनाश की विभीषिका

कोई बेच रहा,

 

मानवता के समर्थन में,

या मानवता के विरुद्ध,

अपराध से अधिक, अब

व्यापार हो चला है युद्ध..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘मतलबी’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Selfish…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ~ मतलबी ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – मतलबी  ??

शहर के शहर,

लिख देगा मेरे नाम;

जानता हूँ…..,

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम;

जानता हूँ….!

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Selfish ~ ??

Cities after cities,

He will write in my name;

I know that…..,

Selfish he is,

Will keep all the villages with him;

I know that..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #158 ☆एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 158 ☆

एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

याद आपकी आती रही रात भर

दिल मेरा गुदगुदाती रही रात भर

सपनों में  तेरे इस कदर खो  गए

चाँदनी  मुस्कराती  रही  रात भर

इश्क  में  तेरे बदनाम हम हो गए

दूरियां  हमें  डरातीं  रहीं  रात भर

यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे

आँख मेरी डबडबाती रही रात भर

हवा भी अब  प्रेम  गीत  गाने लगी

छूकर  हमें  लुभाती  रही  रात भर

खुद की बेबसी पर चुप हम हो गये

दुनिया  हमें  हँसाती  रही  रात भर

उनके कदमों की आहट जब भी सुनी

नींद “संतोष” न आती रही रात भर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे – “कन्या भ्रूण हत्या-एक अभिशाप” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहे – “कन्या भ्रूण हत्या-एक अभिशाप” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

भ्रूण हत्या अब नहीं,बंद करो यह पाप। 

वक़्त दे रहा है हमें,तीखा-सा अभिशाप।। 

 

कन्या का है जन्म शुभ,सोचो-समझो आज। 

क्यों सोता है नींद में,दानव बना समाज।। 

 

कन्याएँ मिटती रहीं,तो सब कुछ हो नाश। 

जागे अब तो सभ्यता,लेकर चिंतन,काश।।

 

भ्रूण हत्या मूर्खता,बहुत बड़ा अविवेक। 

अब जागे इंसानियत,ले विचार सत्,नेक।।

 

नारी यूँ घटती रही,तो बिगड़े अनुपात। 

तब आना तय,साँच यह,गहन तिमिर की रात।। 

 

पुत्र और बेटी सदा, होते एक समान।। 

किस मूरख ने कह दिया,बेटा ही कुल-शान।। 

 

कन्याएँ जब जन्म लें, पढ़कर हो उत्थान। 

दोनों कुल की शान बन,पूर्ण करे अरमान।। 

 

कन्या को यूं मारना,हैवानों का काम।। 

होगी भाई इस तरह,असमय काली शाम।। 

 

अब सँभलो,जागो अभी,गाओ मंगलगीत। 

तभी उजाले को सभी,लेंगे हँसकर जीत।। 

 

यही कह रहा आज तो,’शरद’ कँटीली बात। 

जागो वरना,आ रही,बहुत भयावह रात।। 

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नज़्म – अनसुनी दास्ताँ – ☆ डॉ रेनू सिंह ☆

(ई-अभिव्यक्ति में प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. रेनू सिंह जी का हार्दिक स्वागत है। आपने हिन्दी साहित्य में पी एच डी की डिग्री हासिल की है। आपका हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी और उर्दू में भी समान अधिकार है। एक प्रभावशाली रचनाकार के अतिरिक्त आप  कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी सक्रिय हैं और अनेक कंपनियों की डायरेक्टर भी हैं। आपके पति एक सेवानिवृत्त आई एफ एस अधिकारी हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद आप  साहित्य सेवा में निरंतर लगी रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी नज़्म – “अनसुनी दास्ताँ”।)

? नज़्म – अनसुनी दास्ताँ डॉ. रेनू सिंह ?

न मंज़िल थी कोई, न था रास्ता,

दीन दुनिया से उसको, न था वास्ता,

उलझी – उलझी लटें, मैला सा पैरहन,

होंठ सूखे हुये मुरझाया सा तन,

चेहरा बेनूर सा, बिखरा बिखरा सा मन ,

सुबह के दीप से, टिमटिमाते नयन

कंपकंपाती हुई, बुदबुदाती हुई

लड़खड़ा के वो फिर-फिर संभलती हुई,

न जाने ,वो किस बाग़ का फूल थी,

वक़्त की आँधियों में हुई धूल थी,

वो तो टूटा हुआ ऐसा एक साज़ थी

न कोई गीत जिसमें, न आवाज़ थी,

ऐसा पंछी कि जिसकी न परवाज़ थी,

ऐसी नदिया न जिसमें कोई धार थी,

वो मुझे एक दिन राह में मिल गई

उसने देखा मुझे और ठिठक सी गई

उसकी नज़रें मेरे रूख़ पे जम सी गईं,

तीर की तरह दिल में उतर सी गईं,

उसकी नज़रों में ऐसे सवालात थे,

जवाब जिनके न कोई मेरे पास थे…

जो सुनी ना किसी ने, वो फ़रियाद थी,

जो भुला दी थी अपनों ने, वो ‘याद’ थी,

जी रही थी मगर ,घुल रही साँस थी,

उसको जीवन से फ़िर भी कोई आस थी,

पूछना था उसे, है कहाँ उसका रब?

जानना था उसे ज़िन्दगी का सबब,

वो उदासीन है उसकी हस्ती से क्यूँ?

तोलता है तराज़ू में इंसाँ को क्यूँ

एक इंसाँ को देता है महल-ओ-हरम,

दूजे को बाँट देता है सब रहने-ग़म?

भेजेगा वो मसीहा भी ऐसा कभी?

जो मिटा देगा दुनिया से दुखड़े सभी,

गीत खुशियों भरे, वो भी फिर गायेगी,

किसी मजबूर को न कभी ठुकरायेगी,

जो दिया है ज़माने ने उसको यहाँ,

किसी और के संग ना कभी दोहराएगी,

क्या वो भी कभी मुस्कुरा पाएगी?

या ब्याबाँ में यूँही दफ़्न हो जाएगी?

बैठ कर राहगुज़र में वो शाम-ओ- सहर,

पूछती थी यही बात सबसे मगर,

न पाया कभी उसने इसका जवाब,

एक हँसी बन गयी उसकी आँखों का ख़्वाब,

उन सवालों के आगे मैं भी थी ला-जवाब,

उसके आगे ठहरने की न थी मुझमें ताब,

उससे नज़रें चुरा आगे मैं बढ़ गई,

ग़ुबार उड़ता रहा वो खड़ी रह गयी,

फ़िर सवालातों में वो बुनी रह गई,

वो ठगी सी खड़ी की खड़ी रह गयी,

दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई

दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई..!

                  

© डा. रेनू सिंह 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 150 ☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 150 ☆

☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गुड़िया रानी समझदार हैं

     भोली- भाली पर हैं छोटी।

 

बहुत देर में भोजन करतीं

      थोड़ा खातीं फल औ’ रोटी।।

 

स्वयं कभी ना भोजन खाएँ।

      बाबा, दादी उन्हें खिलाएँ।

 

जॉब करें मम्मी औ’ पापा।

     लेकिन जल्दी खोएँ आपा।।

 

अक्सर होती है तकरार।

     गुड़िया का दोनों से प्यार।।

 

गुड़िया माँ- पापा से बोली।

     बातों में मिसरी – सी घोली।।

 

नहीं सुहाए मुझको झगड़ा।

   मैं डर जाती जब हो तगड़ा।।

 

कोमल मन है मेरा समझो।

     खुशियों को बाँटों ना गम दो।।

 

 समझ गए गुड़िया की बात।

      कटें प्रेम से दिन औ’ रात।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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