हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आमरण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – आमरण ??

दो समूहों के बीच

वाद-विवाद,

मार-पीट,

दंगा-फसाद,

फिर सुना-

बीच बचाव करनेवाला

निर्दोष मारा गया

दोनों तरफ के

सामूहिक हमले में..,

सोचता हूँ

यों कब तक

रोज़ मरता रहूँगा मैं..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 – गुब्बारे की कीमत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 143 ☆

🌺लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈

एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे,  वे गुब्बारा ले लेते।

अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।

आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।

आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।

गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।

बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।

सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।

यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।

बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।

थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।

फिर कभी बगीचे में उसने गुब्बारे नहीं बेचे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – परदेश की अगली कड़ी  “झीलें।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मुम्बई निवास के समय “बल्लार्ड पियर” के नाम का क्षेत्र सुना/देखा था। अमेरिका के शिकागो शहर में भी एक स्थान है, “नेवी पियर” गूगल से जब पियर का अनुवाद ढूंढा तो उसने पहले तो नाशपाती नामक फल बता दिया, हमें लगा जुलाई माह (सावन) के आस पास ही इस फल का मौसम रहता है। गूगल भी हमारे समान मौसम को मानता होगा, हम तो जीवन में मौसम को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं।

नेवी पियर क्षेत्र यहां की सबसे बड़ी “मिशेगन झील” के एक तट को बांध कर बनाए गया था। झील इतनी बड़ी है, तो नेवी (नौसेना) भी इसका उपयोग करती रही होगी। अब ये एक दर्शनीय भ्रमण स्थल है, जहां हमेशा भीड़ रहती है। आसपास के क्षेत्र में उत्तर भारत के मेरठ शहर में प्रतिवर्ष भरने वाले “नौचंदी मेले” जैसा नज़ारा रहता हैं। खाने पीने की सैकड़ों दुकानें, बच्चे और बड़ो के विद्युत संचालित झूले, सार्वजनिक संगीत के माहौल में झूमते हुए युवा, मनोरंजन के नाम पर सब कुछ है।

मिशीगन झील एक “शिकागो नदी” से भी जुड़ी हुई है। झील में एकल नाव से दो सौ लोगों के बैठने वाले जहाज तक घूमने के लिए उपलब्ध हैं। पैसा फेक और तमाशा देख वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है।

यहां के युवा “पानी के खेल” (वाटर स्पर्ट्स) को भी बहुत शौक से खेलते हुए प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधन का सही उपयोग करते हैं।

यहां के अमीर अपनी बड़ी वाली कार को नाव की छत पर रखकर आनंद लेने आते हैं। बड़े अमीर बड़ी नाव (Y वाला याट) को कार के साथ खींच कर लाते हैं। पुरानी कहावत है “जितना गुड डालेंगे उतना ही मीठा हलवा होगा। सावन आरंभ हो चुका है, तो कुछ मीठा हलवा हो जाए

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ व्यंग्यम् की व्यंग्य रचना पाठ गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 व्यंग्यम् की व्यंग्य रचना पाठ गोष्ठी संपन्न 🌹

व्यंग्यम् जबलपुर की मासिक रचना पाठ गोष्टी की 63वीं (तिरेसठवीं) कड़ी सोमवार दिनांक 12 दिसम्बर 2022 को पर्ल सुकून होटल यादव कालोनी में आयोजित हुई.

व्यंग्यम गोष्ठी के विशिष्ट अतिथि श्री अशोक व्यास जी, (भोपाल) और अध्यक्षता डाँ.कुंदन सिंह परिहार जी ने की. व्यंग्यम् मासिक व्यंग्य रचना पाठ गोष्ठी में सर्वश्री यशोवर्धन पाठक जी ने “जाके पैर न पड़े बिवाई’, दिनेश अवस्थी जी ने ‘अमर बाबू उठ खड़े हुए’, डाँ.विजय तिवारी किसलय ने “नुकसान’, ओ पी सैनी जी  ने ‘रियलिटी शो’, जयप्रकाश पाण्डेय जी ने “खंभों पर सवार लोकतंत्र”, प्रतुल श्रीवास्तव जी  ने “धक्का-मुक्की”, रमाकांत ताम्रकार जी ने “महामहिम और हरिशंकर परसाई”, अभिमन्यु जैन जी ने ” सिंगल प्वाइंट कनेक्शन”, सुरेश मिश्र ‘विचित्र’ जी ने “मैं कुछ सोच रहा हूंँ”, रमेश सैनी जी ने “फेसबुक नामुरीद”, अशोक व्यास जी,  (भोपाल ) ने “प्रमाण पत्र बांटने वाला” तथा डाँ. कुंदन सिंह परिहार जी ने “स्वर्ग में कुपात्र” रचनाओं का पाठ किया.

व्यंग्यम् गोष्ठी का संचालन रमेश सैनी जी ,आभार प्रदर्शन यशोवर्धन पाठक जी और जयप्रकाश पाण्डेय जी ने सराहनीय सहयोग प्रदान किया.

साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ स्व उषा ढगे – श्रद्धांजलि ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

🙏🏻 स्व उषा ढगे 🙏🏻

🙏🏻 निवेदन 🙏🏻

कळविण्यास दुःख होते की ई-अभिव्यक्ती मराठी या समुहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री श्रीमती उषा ढगे यांचे 12 डिसेम्बर सकाळी दुःखद निधन झाले.

आपल्या समुहासाठी त्यांनी काव्य,चित्रकाव्य लेखन केले होते. ईश्वर मृतात्म्यास सद्गति देवो ही प्रार्थना.

ढगे कुटुंबियांच्या दुःखात अभिव्यक्ती परिवार सहभागी आहे.

🙏भावपूर्ण श्रद्धांजली🙏

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ देऊन तर बघा… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ देऊन तर बघा… ☆  प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆ 

नकोत आम्हाला

डोळे दिपवून टाकणा-या

झगमगत्या अनिर्बंध जहागि-या.

 

गडद दाटलेल्या मिट्ट काळोखाच्या

अगदी मध्यवर

एक प्रकाश पणती

सतत तेवत ठेवण्यासाठी

लागणारी टिचभराची सुरक्षित

जागा द्या

 

भयाण काळोखाला चिरत

जाणा-या

मंद मिणमिणत्या प्रकाश किरणांचा

मागोवा घेत तिथे जमतील

समविचारी माणसांचे थवे

शोधतील ,खोदतील, बांधतील

प्रगतीचे नवे मार्ग

माणसाला माणुसकी दाखवण्याचे

 

मग धरतीचे

तारांगण व्हायला कितीसा वेळ लागेल?

 

हळू हळू उगवतील

चंद्र सूर्य तारे

चमचमत्या प्रकाशात

 नवग्रह ही येतील

आपले सगेसोयरे सोबत घेऊन

या धरतीचा स्वर्ग बनवायला

 

तेवढीच एक अनियंत्रित टिचभर जागा

देऊन तर बघा

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #166 ☆ ना चूक पाखरांची… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 166 ?

ना चूक पाखरांची … ☆

झालीत यंत्र साऱ्या मुडदाड माणसांची

किंमत कुठे कुणाला डोळ्यांतल्या झऱ्यांची

 

बैलास काम आता उरलेच फार नाही

बैला विनाच चाके पळतात ह्या रथाची

 

देहास अर्थ नाही काहीच हा कसा तो

जळतो तरी दिसेना का राख कापराची ?

 

मातीस खोल खड्डे लोखंड पेरलेले

उगवून छान आली स्वप्ने इथे घरांची

 

सोडून सर्व गेले सरणावरी मला ते

जळतेय सोबतीला मोळीच लाकडांची

 

सारेच उच्च शिक्षित शेती कुणी करावी

शेते उपेक्षतेने बघतात वाट त्यांची

 

आकाश झेप घ्यावी माझीच तीव्र ईच्छा

गेले उडून पक्षी ना चूक पाखरांची

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पंढरपूर — एक शाश्वत धाम… ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

? विविधा ? 

☆ पंढरपूर — एक शाश्वत धाम… ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆ 

पंढरपूर तीर्थक्षेत्र सर्वांना ज्ञात आहे. ते एक पवित्र धाम तर आहेच.पण ते शाश्वत धाम आहे. प्रलय कालात सुद्धा धाम नष्ट होत नाहीत. त्यापैकी पंढरपूर एक आहे.चंद्रभागा नदीला पूर्ण पंढरपूर बुडून जाईल इतके पूर अनेक वेळा आले.तरीही पंढरपूर होते तसेच आहे. आता उजनी धरणामुळे जास्तीचे पाणी रोखले जाते पण धरणात पाणी जास्त प्रमाणात असेल तर नदीपात्रात सोडले जाते.तेव्हा पंढरपूरला अजूनही वेढा पडतोच.

पंढरपूरचे एक वैशिष्ट्य म्हणजे इथे आपण देवाचे चरणस्पर्श करू शकतो. ते अन्यत्र कुठेही नाही. कित्येक संतांना देवाने आलिंगन दिले होते यांचेही पुरावे अभंगात व इतर संतसाहित्यात आहेत. म्हणजे उराउरी भेट, आणि चरणस्पर्श फक्त श्री विठ्ठल रखुमाईलाच भक्त करू शकतात. मुख्य गाभाऱ्याच्या समोर गरूडखांब आहे. त्याला आलिंगन देण्याची प्रथा आजही आहे.

पंढरपूर जवळ पूर्वी दिंडीर नावाचा राक्षस मातला होता. देवाने त्याला ठार केलं. पण देवाच्या हातून मरण आले म्हणून  स्वतःला धन्य समजून त्याने देवाला वरदान मागितले की या क्षेत्राला माझ्या नावाने ओळखले जावे. म्हणून पंढरपूर परिसर दिंडीरवन या नावाने प्रसिद्ध होता. देवावर रूसून रूक्मिणी माता याच दिंडीरवनात येऊन राहिली.अशा आख्यायिका प्रसिद्ध आहेत.

रूक्मिणीच्या पाठोपाठ देव दिंडीरवनात आले. ( विठ्ठल हे श्रीकृष्णाचेच रूप मानले जाते.) इतर ठिकाणी भक्त भगवंताच्या भेटीला जातात. पण पंढरपूरला भगवंत भक्तांची वाट पहात विटेवर उभा राहिला आहे.कटीवरती हात आणि समचरण हे इथे देवाचे वैशिष्ट्य आहे. प्रत्यक्ष संत नामदेव महाराजांना देवाने दृष्टांत दिला होता की मी इथे तुमच्यास्तव उभा आहे. आषाढी , कार्तिकी एकादशीला तरी  मला भक्त भेटावेत.

इतर सर्वत्र देव अलंकारविभूषित व शस्त्रे धारण केलेले दिसतात.पण देवशयनी एकादशीला देव गोपवेषात असतात. विनाअलंकृत आणि तुळशीमाळा धारण केलेले देवाचे स्वरूप असते.

पंढरपुरातली ही विठ्ठल मूर्ती स्वयंभू मूर्ती आहे. तुकाराम महाराज म्हणतात की, जो ही मूर्ती घडविलेली आहे असे म्हणेल त्याला पाप लागेल. संत कधीच कुणाला दूषणे देत नाहीत. तरीही तुकाराम महाराज असे म्हणतात कारण ही मूर्ती खरोखरच स्वयंभू आहे.

त्या काळात लोक इतके गरीब होते की त्यांनाच खायला अन्न नसायचे. मग ते देवाला नैवेद्य कशाचा दाखविणार ? पंढरपुरात लोक ताकात पीठ कालवून तो नैवेद्य देवाला दाखवीत असत.अशी आख्यायिका आहे. पश्चिम द्वारा जवळ एका गल्लीत हे ताकपिठे विठोबा मंदिर आजही अस्तित्वात आहे. दहा वर्षापूर्वी सरकारी निकालानुसार बडवे आणि उत्पात यांचे देवाच्या पूजेचे व उत्पन्नाचे अधिकार काढून घेतले गेले. त्यानंतर पंढरपूरला बडवे मंडळींनी विठोबाचे एक मंदिर दुसऱ्या ठिकाणी बांधले आहे. तसेच उत्पात मंडळींनी रूक्मिणी मातेचे मंदिर बांधले आहे.

विठ्ठल हे श्रीकृष्णाचेच रूप मानले जाते कारण पंढरपूरला त्याच मंदिरात रूक्मिणी मातेचे मंदिर आहे. त्याच्या जवळच देवाच्या पत्नी राही, सत्यभामा यांच्या मूर्ती असलेले गाभारे देखील आहेत. श्रीविष्णूंनी वेंकटेश अवतार  घेतला,ते वेंकटेश मंदिर ही मुख्य मंदिराच्या आवारात आहे.इतरही अनेक देव देवतांचे दर्शन तिथे घडते.

गोपाळपूर येथे दोन्ही वाऱ्या झाल्यानंतर गोपाळकाला होतो. तिथे श्रीकृष्ण मंदिर आहे. जवळच विष्णुपद मंदिर आहे. देव प्रथम पंढरपूरला आले, ते विष्णुपद मंदिर परिसरात आले. त्यांचे पाऊल इथे एका दगडावर उमटले आहे. चंद्रभागा नदीच्या पात्रात हे मंदिर आहे. दर मार्गशीर्ष महिन्यात देव इथेच येऊन राहतात,असे मानतात. त्यामुळे मार्गशीर्ष महिन्यात लोक होडीतून किंवा चालत इकडे दर्शनासाठी आणि सहलीसाठी येतात.मार्गशीर्ष अमावस्येला पालखीतून मिरवणूकीने ,वाजत गाजत देवांच्या पादुका पुन्हा मुख्य मंदिरात आणल्या जातात.

चंद्रभागा नदी हीच गंगा नदी आहे .असे म्हटले जाते. विष्णुपदाजवळ चंद्रभागेला पुष्पावती नावाची नदी येऊन मिळते. तीच यमुना आहे असेही मानतात.

संत नामदेवांनी सांगितलेच आहे की

जेव्हा नव्हते चराचर। तेव्हा होते पंढरपूर ||

असे आहे हे शाश्वत धाम.

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … श्रीधर जुळवे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … श्रीधर जुळवे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं …

साधा सर्दी खोकला झाला की आलं, तुळस काढा घ्यायचो,

पोट दुखलं की ओवा चावत जायचो – ताप आला की डोक्यावर पाण्याची पट्टी ठेवायचो

ना टेस्ट, ना स्पेशालिस्टच झंझट, ना हॉस्पिटलच्या एडमिशनमध्ये अडकत होतो…

निरोगी आयुष्य जगत होतो..

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

राम राम ला  राम राम, सलाम वालेकुम ला, वाले कुम अस सलाम 

आणि जय भीम ला जय भीम नेच प्रेमाने उत्तर देत होतो

ना धर्म कळत होता, ना जात कळत होती, माणूस म्हणून जगत होतो…

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

सकाळी न्याहारीला दूध भाकरी, दुपारी जेवणात कांदा भाकरी 

आणि रात्रीच्या जेवणाला कोरड्यास भाकरी पोटभर खात होतो, 

हेल्दी ब्रेकफास्टचा मेनू, लंचचा चोचलेपणा आणि 

डिनरच्या सोफेस्टिकेटेड उपासमारीपेक्षा दिवसभर भरपेट चरत होतो…

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

शक्तिमान सोबत गिरकी घेत होतो, रामायणात रंगून जात होतो,

चित्रहार सोबत आयुष्याची चित्र रंगवत होतो, ना वेबसिरीजची आतुरता, ना सासबहूचा लफडा , 

ना बातम्यांचा फालतू ताण सहन करत होतो… खऱ्या मनोरंजनाचा आस्वाद घेत होतो…

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

सण असो की जत्रा, सुट्टी मिळेल तेव्हा वेळ मस्त कुटुंबासोबत घालवत होतो, 

चार मित्रांमध्ये मिसळत होतो, लोकांमध्ये उठत बसत होतो…

ना टार्गेटची चिंता होती, ना प्रमोशनचं टेन्शन होतं, ना पगार वाढीची हाव होती,

तणावमुक्त जीवन जगत होतो…

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

गावातले वाद गावात मिटवत होते, झाली भांडण तरी रात्री मंदिरात एकत्र येत होतो, 

सकाळी पुन्हा एकत्र फिरत कामाला लागत होतो..

ना पोलीस केसची भीती, ना मानहानीचा दावा, ना कोर्टाच्या चकरा मारत होतो.

खरोखर सलोखा जपत होतो.

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

कुटुंबाला प्रेमाने पत्र लिहीत होतो, पत्राची वाट बघत होतो, 

पत्राच्या प्रत्येक ओळीत प्रेमाचा ओलावा अनुभवत होतो…

ना मोबाईलवर कोरडी बोलणी, ना फॉरवर्ड मेसेज,

ना ऑनलाइनची निरर्थक चॅटिंग, उगाचच फक्त दिखावा करत नव्हतो

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

मातीच्या घरात रहात होतो, सारवलेल्या अंगणात बागडत होतो, 

ऐसपैस अर्धा एकरभर जागेत सुखात सगळे नांदत होतो…

ना एक बी एच के मध्ये कोंबलो होतो, ना बाल्कनी साठी भांडत होतो , 

ना मास्टर बेडरूममध्ये स्वतःला कोंडून घेत होतो…

मस्त मोकळ्या हवेत ढगाखाली मोकळा श्वास घेत होतो…

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं … 

 

अडाणी असताना सुशिक्षितात जाऊन त्यांचे आयुष्य जगावे अशी स्वप्न पाहत होतो , 

त्या साठी मेहनत करत होतो,

आणि जेव्हा सुशिक्षित झालो,– त्या भपकेबाजीत घुसू लागलो, ढोंगी ते जग बघू लागलो, 

आणि मग परत वाटू लागलं……. 

साला मी अडाणी होतो तेच बरं होतं ……. 

 

— श्रीधर जुळवे ( वॉलवरून )

प्रस्तुती : अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रिसायकल- बिनमध्ये मल्लिका… भाग ३ (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ रिसायकल- बिनमध्ये मल्लिका… भाग ३ (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पहिले – तिचं बोलणं ऐकून मनात अनेक रंगांचे पक्षी फडफडले. मग मनात आलं, कशात काय अन् फटक्यात पाय…. आता इथून पुढे )

अमरावतीला परतलो आणि मल्लिकाचं पत्र मिळालं. त्यात प्रामुख्याने आईला साडी पसंत पडली का, असं लिहिलं होतं. तिला जे मी जे उत्तर पाठवलं, त्यात प्रामुख्याने आईला साडी आणि विथीला फ्रॉक पसंत पडल्याचं लिहिलं, पण एवढंच लिहिण्याने, पत्र काही पत्र होत नाही. त्यामुळे आमच्या दोघांच्या पत्रात आणखीही किती तरी गोष्टी होत्या. पत्रातील मोकळ्या जागाही खूप काही सांगत होत्या. स्त्री-पुरुषांमधील अनपेक्षित परस्पर स्पर्श, त्यांच्या श्वासाचा गंध, संवादामधून उमलणारं मौन, किंवा मग नजरेचा लपंडाव, मनात उपजलेल्या भावनांना कधी कधी शब्दांमध्ये सोडलेल्या मोकळ्या जागाच अधीक चांगल्या रीतीने अभिव्यक्त करतात. मग आणखी काही पत्रांची देवाण-घेवाण, मग टेलिफोनवरून बोलणं, एसएमएस. असं सगळं सुरू झालं.

मल्लिकाकडून कळलं, तिच्या आईचं निधन झालय आणि निधीला होस्टेलमध्ये ठेवलय. मल्लिकाची बडोद्याला बदली झालीय. तिची बहीण रहाते, त्याच अपार्टमेंटमधे तिने एक फ्लॅट खरेदी केलाय. घटस्फोटाच्या अर्जाची सुनावणी चालू आहे. एक दिवस असंही कळलं, मार्केटिंग साईड सोडून तिने अॅाडमिनिस्ट्रेशन साईडला बदली करून घेतलीय. तिचं पोस्टिंग बडोद्याच्या विभागीय कार्यालयात प्रशासन अधिकार्याशच्या पदावर झालय. आणखी एक अद्ययावत माहिती कळली होती, जी मनाच्या सुखद स्मृतींवर धुळीचे थर पसरवत होती.

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मी बडोद्याला पोचलो, तेव्हा रात्र झाली होती. उतरण्यासाठी मी हॉटेल ग्रीन-व्हॅलीचीच निवड केली होती. खोलीदेखील तीच. ३०४ नंबर. मॅनेजरने दुसरी कुठली तरी खोली दिली होती, पण मी ३०४ नंबरचीच खोली मागितली. योगायोगाने मिळाली. मी खोलीत सामान ठेवलं. दरवाजा बंद केला आणि सगळ्या खोलीत चक्कर मारली. खोली होती, तशीच होती, पण मला का कुणास ठाऊक, वाटत राहिलं, ती खोली नाही, शवागार आहे. खोलीतील सार्याऊ वस्तू निर्जीव वाटत होत्या. त्यातून काही सुगंध येत नव्हता.

सारी रात्रभर मी एका बागेतून चाललो होतो. नि:संशय. एकटाच नव्हे, तर मल्लिका बरोबर. आम्ही दोघे तर्हे्तर्हेेची वाद्य वाजवत होतो. हवी ती गाणी गात होतो. मोर बनून नाचत होतो. हरणं बनून उड्या मारीत होतो. सागर लहरींबरोबर खेळत होतो. पावसात भिजत होतो. आभाळात रंग भरत होतो. आपापला देहगंध आपापसात वाटत होतो.

दुसर्या  दिवशी काम आटपून दुपारी मी मल्लिकाच्या विभागात गेलो. तिथे, थोड्या वेळासाठी ती बाहेर गेल्याचं कळलं. मी तिच्या टेबलासमोरची खुर्ची ओढून त्यावर तिची वाट पहात बसलो. टेबलावर नेम-प्लेट होती. त्यावर लिहिलं होतं, ‘श्रीमती मल्लिका.’ मल्लिकाच्या पुढे काही लिहिलं होतं, पण त्यावर कागद चिटकावला होता. मी कुणाला काही विचारणार, त्यापूर्वीच तिच्या शेजारच्या टेबलाजवळ बसलेली तिची सहकारी गुजराथीत म्हणाली, ‘मॅडम पैला मल्लिका ठक्कर हती. बीजी नेम-प्लेट बनीने आव्यासुधी एमणे जूनी नेज सुधारिने राखी लिजी छे.’ खुर्चीवर बसल्या बसल्या मी रात्री पाहिलेल्या स्वप्नाच्या अल्बमची एक-दोन पाने उलटतो, न उलटतो, तोच मल्लिका येऊन ठेपली. ‘ ओह व्हॉट अ प्लेझंट सरप्राईज… मी स्वप्न तर बघत नाही ना?’

‘नाही. मी साक्षात बलदेवच आहे.’

‘वेलकम- वेलकम’ आणि तिने आपला उजवा हात पुढे केला. माझ्या स्मृतीपटलावर तिची पहिली भेट ताजी झाली. तिच्या अभिवादनाचा स्वीकार करून मी समोरच्या खुर्चीवर बसलो. पण मन एकदम बेचैन झालं. मल्लिकाने पूर्ण बाहयांचा कुडता घातला होता. हातात हँड ग्लोव्हज होते. मी काळजीपूर्वक पाहयलं. आपल्या चेहर्या भोवती चुंबंकीय क्षेत्र निर्माण करणारं ते तेज, जे तिच्या पहिल्या भेटीत मी अनुभवलं होतं, ते आता तिच्या चेहर्याावर नव्हतं. याच वेळी माझं लक्ष तिच्या ओठांकडे आणि मानेकडे गेलं आणि मला समजायला वेळ लागला नाही. मला जसा काही विंचू डसला. अधिकाधिक वेळ मल्लिकाबरोबर घालवता यावा, या दृष्टीने मी कार्यालयीन कामकाज लवकर संपवलं होतं. आजची सध्याकाळ मल्लिकाबरोबर घालवायची असाच विचार केला होता. बोलता बोलता मल्लिका घरी चालण्याविषयी म्हणाली, पण मी सफाईने ती गोष्ट टाळली. या दरम्यान तिने चहा मागवला होता. मी कसा-बसा चहा संपवला आणि ऑफिसची कामे बाकी असल्याचा बहाणा करत तिचा निरोप घेतला. ग्रीन-व्हॅली हॉटेलमधली ती रात्र सरता सरेना. रात्रभर मी माझ्या स्वनांचे तुकडे गोळा करत राहिलो.

क्रमश:…

मूळ हिंदी  कथा – ‘रिसायकल-बिन में मल्लिका’  मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’

अनुवाद –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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