(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ Unleashing of Potential… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य – “तौलिया सम्मान”।)
☆ व्यंग्य – “तौलिया सम्मान” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
वे सम्मान के भूखे थे, पेट भर सम्मान होता तब भी पेट भूख लगी …भूख लगी चिल्लाता रहता। शाल श्रीफल से घर भर जाता तो घरवाली सम्मान करने वालों को गाली बकती कहती – कैसे हैं ये सम्मान करने वाली संस्थाएं…. इनको शाल और श्रीफल के अलावा कुछ नहीं मिलता। एक दिन पति पत्नी में शाल के लगे ढेर पर झगड़ा हो गया, पत्नी गुस्से से लाल होकर बोली – सम्मान में शाल श्रीफल के साथ लिफाफा भी मिलता होगा, तो लिफाफा जाता कहां है? ध्यान रखना अगली बार से लिफाफा नहीं दिया तो सबके सामने ऐसा अपमान करूंगी कि सब सम्मान भूल जाओगे। पत्नी की डांट खाकर जब वो अगला सम्मान लेने पहुंचे तो डरे डरे से थे डर लग रहा था कि सम्मान मिलते समय पत्नी सार्वजनिक अपमान न कर दे, ले देकर जल्दबाजी में उन्होंने सम्मान कराया और जब माइक से बोलने की बारी आई तो कहने लगे दुनिया बहुत बदल गई है इसलिए अब सम्मान के तौर-तरीकों में भी बदलाव किया जाना चाहिए, हर बार शाल श्रीफल के सम्मान से अब जी भर गया है शाल श्रीफल के ढेर से घर भर गया है। अधिकतर पत्नियां चिड़चिड़ाने लगीं हैं, डांटती हैं, दुकान वाले दो सौ रुपए की शाल पचास रुपए में वापस लेते हैं, श्रीफल खरीदने वाले एक श्रीफल का अठन्नी देते हैं वैसे भी शाल का कोई व्यवहारिक उपयोग नहीं है, जिस शाल से सम्मान होता है उसी शाल को दुकान वाले को बेचने जाओ तो वे अपमान भी करते हैं और दो सौ रुपए की शाल के सिर्फ पचास रुपए देते हैं, इसलिए जरूरी है कि अब शाल बेचने वालों का धंधा मंदा किया जाना चाहिए और हर साहित्यकार का सम्मान कंधे में तौलिया डालकर किया जाना चाहिए, तौलिया हर किसी के काम की चीज है, अच्छी नरम तौलिया पत्नियां भी पसंद करतीं हैं, तौलिया बहुउपयोगी होता है, हमाम में जब सब नंगे हो जाते हैं तो तौलिया ही एक सहारा होती है, गुसलखाने में नहाने के बाद नरम तौलिया से शरीर पोंछने का अलग सुख होता है, जब आप घर में पट्टे की चड्डी पहने हों और अचानक दूध वाला घंटी बजा दे तो इज्जत बचाने के लिए आपको तौलिया लपेट कर ही बाहर से दूध लेना पड़ता है। तौलिया में गुण बहुत हैं सदा राखिए संग…
नई नई शादी में तो तौलिया बहुत काम आता है, कई लोग तौलिया लेकर सोते हैं। यदि तौलिए से सम्मान होने लगे तो संस्थाओं को भी सुविधा होने लगेगी, तौलिया आसानी से कहीं भी मिल जाता है, आपकी पत्नी ने कितना भी लड़ाई झगड़ा किया हो और बाथरूम में आप बिना तौलिया के चले गए हों तो आपके चिल्लाने पर पत्नी ही तौलिया लाकर देती है भले तौलिया लेते समय अधखुले दरवाजे से आपका खुला शरीर उसे दिख जाए तो उसे भी वह सहन कर लेती है। खास बात ये भी है कि तौलिया हर दिन हर वक्त काम आता है जबकि शाल तो सिर्फ ठंड के समय काम आती है और यदि ठंड नहीं पड़ी तो सम्मान वाली शाल कोई काम की नहीं, इसीलिए किसी ने कहा है….
दिल के आंगन में
कहीं धूप नहीं,
फ्रिक्र आईना ही सही
लेकिन आईने पे है
याद की गर्द …
अब क्या करिएगा, आईने की गर्द को तो तौलिया ही साफ करेगा न….शाल से तो आप गर्द साफ नहीं कर पाएंगे, और जब…
‘रोएंगे हम हजार बार,
कोई हमें रुलाए क्यों….’
तब भी आंसू पोंछने के लिए तौलिया ही साथ देगा, उस समय शाल से थोड़ी न आंसू पोंछ पाएंगे….तो सम्मान करने वालो शाल का मोह अब छोड़ो, अब तौलिया ओढ़ा कर सम्मान करने की आदत डालो, तौलिया सस्ता भी पड़ेगा और बाथरूम में तौलिया से पोंछने वाला रोज आपको याद करके एहसान भी मानेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं ई -रिक्शा वाला…“।)
अभी अभी # 267 ⇒ मैं ई -रिक्शा वाला… श्री प्रदीप शर्मा
रिक्शे से ई – रिक्शे तक के सफर में,आज अनायास ही फिल्म छोटी बहन (१९५९) का यह गीत मेरे होठों पर आ गया ;
मैं रिक्शा वाला,
मैं रिक्शावाला
है चार के बराबर
ये दो टांग वाला।
कहां चलोगे बाबू
कहां चलोगे लाला।।
यानी इन पैंसठ वर्षों के सफर में मेरे जैसा एक आम आदमी केवल रिक्शे से ई -रिक्शे तक का सफर ही तो तय कर पाया है।
इस गीत के जरिए गीतकार ने कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए थे, जिनके उत्तर हम आज भी तलाश रहे हैं। रोटियां कम हैं क्यों, क्यों है अकाल। क्यों दुनिया में ये कमी है, ये चोरी किसने की है, कहां है सारा माल ? और ;
मैं रिश्ते जोडूं दिल के,
मुझे ही मंजिल पे, कोई ना पहुंचाए, कोई ना पहुंचाए।।
रिक्शे के बहाने, शैलेंद्र ऐसे एक नहीं, कई प्रश्न छोड़ गए। फिल्म छोटी बहन में महमूद हाथ रिक्शा चलाते नजर आते हैं। आदमी की तरह रिक्शे ने भी बहुत लंबा सफर तय किया है। बीच में तीन पहिए का साइकिल रिक्शा भी आकर चला गया। उसमें वही रिक्शेवाला दो दो सवारियों को बैठाकर साइकिल चलाता था।
तपती दुपहरी हो अथवा सर्दी या बरसात, भीड़ भरे बाजार में, एक अथवा दो सवारियों के लिए कहीं हाथ गाड़ी तो कहीं साइकिल रिक्शा उपलब्ध हो ही जाता था। कहीं उतार तो कहीं चढ़ाव, आखिर सांस तो फूलती ही होगी रिक्शे वाले की। फिल्म सुबह का तारा में तो भाभी तांगे से आती है, और बीच में तांगे का पहिया भी टूट जाता है।।
महमूद की ही एक और फिल्म कुंवारा बाप (१९७४) में एक और गीत है ;
मैं हूं घोड़ा, ये है गाड़ी
मेरी रिक्शा सबसे निराली।
न गोरी है, न ये काली
घर तक पहुंचा देने वाली।।
तब गीत के ही अनुसार सन् १९७४ में एक रुपया भाड़ा यानी किराया था। रिक्शे और तांगे का यह सफर समय के साथ साथ चलते चलते पहले ऑटो रिक्शा तक आया। तीन पहिए का पहले पेट्रोल से और अब सीएनजी से चलने वाला ऑटो रिक्शा आज भी मुसाफिर और राहगीर, जिनमें वृद्ध पुरुष, स्त्री बच्चे सभी शामिल हैं, का रोजाना का साथी है।
महंगा पेट्रोल कहें, अथवा प्रदूषण की मार, बदलते समय के साथ आम आदमी भी आखिर रिक्शे से ई -रिक्शे तक पहुंच ही गया। एक एक सवारी के लिए गाड़ी रोकना, आवाज लगाना, फिर चाहे वह ई – रिक्शा ही क्यों न हो। आज शैलेंद्र और मजरूह हमारे बीच सवाल करने को मौजूद नहीं हैं, लेकिन अगर होते, तो क्या उनको अपने सवालों का जवाब मिल जाता।।
हमने तो आजकल सवाल करना ही बंद कर दिया है। किसी के लिए जिंदगी अगर आज मेला है तो किसी के लिए उत्सव। ऐसे में भूख, रोटी और रोजगार जैसे प्रश्न करना औचित्यहीन और असंगत है। क्यों न ई -रिक्शे के इस युग में, कभी मुंबई की सड़कों पर, पेट्रोल से चलने वाली एक टैक्सी का सफर किया जाए, जिसका नाम लैला है। रफी साहब का बड़ा प्यारा सा, फिल्म साधु और शैतान का, कम सुना हुआ गीत है ;
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘वर्दी…’।)
☆ लघुकथा – वर्दी… ☆
थाने के सामने, मेन रोड पर स्टॉपर लगाकर, वाहनों की चेकिंग की जा रही थी, सब इंस्पेक्टर नितिन दास, सब इंस्पेक्टर निधि तिवारी और अन्य स्टाफ वहां मौजूद था. सभी लोग वाहनों को रोककर, हेलमेट की चेकिंग कर रहे थे. जो हेलमेट नहीं पहने थे, उनका चालान भी किया जा रहा था. बार-बार उच्च न्यायालय के आदेश पर लगातार चेकिंग की जा रही थी. तभी बुलेट पर एक युवक, बिना हेलमेट के वहां से निकला, उसको पुलिस स्टाफ ने रोक लिया.
सब इंस्पेक्टर नितिन दास ने उससे कहा कि – आप हेलमेट नहीं पहने हो, आपका चालान होगा. उसने कहा, मैं कभी नहीं चालान देता, और ना ही मेरा कभी चालान हुआ है, क्या तुम मुझे नहीं जानते?
सब इंस्पेक्टर ने कहा इसमें जानने न जानने की कोई बात नहीं है, लगातार चेकिंग चल रही है,और वाहन चालक की सुरक्षा के लिए हेलमेट आवश्यक है.
अगर आप हेलमेट नहीं पहने हो तो आपका चालान होगा.
वह युवक एकदम उग्र हो गया उसने कहा – तुम मुझे नहीं जानते हो क्या? तुम्हें अपनी वर्दी अच्छी नहीं लग रही है, मैं तुम्हारी वर्दी उतरवा दूंगा.
नितिन दास ने उसको रोका आप अपशब्द मत कहो, चालान होगा, और कहा कि – बुलेट साइड में खड़ी कर दो.
मैं टी आई साहब को बताता हूं,सब इंस्पेक्टर ने टी आई को सब कुछ बताया,वो थाने से बाहर निकल कर आए, और युवक से कहा,क्या कहा इनकी वर्दी उतरवा दोगे? भाई इन्होंने ये वर्दी अपनी मेहनत से हासिल की है, अपना पसीना बहाया है, किसी की मेहरबानी से वर्दी नहीं मिली है.हम तो नौकरी के बाद नेता बन सकते हैं, पर इस जन्म में अब आप पुलिस वाले नहीं बन सकते, इतनी मेहनत आप से नहीं हो पाएगी.
नितिन, इनको गिफ्ट दो. नितिन एक पेपर लाकर मोटर साईकिल पर चिपका देता है.
पेपर पर हेलमेट बना है.
टी आई ,ये चेकिंग हम आप लोगों की सुरक्षा के लिए कर रहे हैं, आपका परिवार आपकी प्रतीक्षा करता है, आप सुरक्षित रहें, हमारी यही कोशिश है.
नितिन,भाई का चालान काट दो.
युवक चालान के पैसे देता है,और कहता है – सर मुझे माफ कर दीजिए.
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# ठंड और कोहरा #”)
☆ देण्याचा व घेण्याचा दिवस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
देण्याचा व घेण्याचा दिवस (Day of GIVING & RECEIVING)
निसर्गा कडे सगळ्या गोष्टी भरपूर आहेत. निसर्ग आपल्याला द्यायला पण तयार असतो.पण निसर्गाचा एक नियम असतो.जो पर्यंत तुम्ही काही देत नाही तो पर्यंत निसर्ग पण काही देत नाही. निसर्गाची मागणी खूप कमी असते.तुम्ही एक धान्याचा दाणा द्या.निसर्ग हजारो दाणे देतो.एक बी लावा.निसर्ग जंगल देतो.हाच नियम सगळीकडे असतो.थोडक्यात आपल्याला जे हवे असते त्याचे दान करावे.उदाहरण म्हणजे पूर्वीची दानाची पद्धत आठवून बघू.पूर्वी कोणकोणत्या वस्तू दान दिल्या जात असत ?
समजा एखाद्याला डोळ्यांचा प्रॉब्लेम असेल तर त्याने चष्मे द्यावेत.डोळ्यांच्या हॉस्पिटल साठी दान द्यावे.ज्यांना पायाचा त्रास असेल त्यांनी काठी किंवा पायाचे बेल्ट दान करावेत.
दाना साठी हेतू महत्वाचा असतो.
सवय लागे पर्यंत ती गोष्ट लक्ष पूर्वक करावे लागते. पोहणे शिकताना जसे सुरुवातीला प्रत्येक कृतिकडे लक्ष द्यावे लागते नंतर ती कृती आपोआप होते.तसेच दानाचे पण आहे.एकदा दानाची सवय लागली की ते निर्व्याज होते.
दान हे फक्त पैशाचेच नसते. दान कशाचे करता येईल ते बघू.
▪️फुल,चॉकलेट,पेन, पेन्सिल,रुमाल कोणतीही छोटी वस्तू
▪️ आनंद,कौतुक, सहानुभूती,सदिच्छा.
▪️ जमेल तशी मदत करणे
▪️ सोबत करणे.
▪️ शिकवणे
▪️ रस्त्यात मदत करणे
काही जण एक नियम पाळतात.आपल्या कमाईचा एक दशांश भाग गरजू व गरिबांना दान करतात.त्यातून जी सकारात्मक ऊर्जा व आशीर्वाद मिळतात त्यामुळे पैशाचा ओघ वाढतो.
दानाचे प्रकार पुढील प्रमाणे आहेत.
हे प्रकार कनिष्ठ दाना पासून उच्च दाना पर्यंत आहेत.
१) मनात नसताना ( नाईलाजाने ) दान करणे. – सर्वात कनिष्ठ.
२) आनंदाने दान करु शकतो त्या पेक्षा अगदी कमी दान करणे.
३) मागितल्यावर दान करणे.
४) याचना करण्या पूर्वी किंवा मागण्या पूर्वी देणे
५) कोणाला देत आहोत त्याचे नाव माहिती नसणे.
६) घेणाऱ्याला कोण देतो हे माहिती नसणे.
७) देणारा व घेणारा दोघांचेही नाव एकमेकांना माहिती नसणे.
८) असे दान की ज्या मुळे एखादी व्यक्ती स्वावलंबी होणे. हे सर्वोत्तम दान आहे.
एक उदाहरण बघू.आठवड्यातून एक दिवस असे करु शकतो.५०/१०० रुपयाचे ५ किंवा १० रुपयात रूपांतर करायचे.व एकेक नोट कुठेही ठेवायची.थोडक्यात आपण पैसे ठेवले आहेत हे विसरुन जायचे.आणि नोटा ठेवताना मनात एकच भावना ठेवायची ती म्हणजे ही नोट ज्याला मिळणार आहे, त्याचे कल्याण व्हावे व त्याला आनंद मिळावा.
यात देणारा व घेणारा दोघेही एकमेकांना ओळखत नसतात.यातून काय साध्य होईल?तर आनंद आपल्याकडे येईल.कारण त्या प्रत्येक नोटे बरोबर आपण आनंदाचे दान केले आहे. आणि निसर्ग नियमा नुसार एकाचे अनेक पण आपल्याकडे येतात.त्यामुळे अनेक पटीने आनंद आपल्याकडे येणार आहे.अनुभव घेऊन तर बघू या.
जी गोष्ट देण्याची तिच गोष्ट घेण्याची.आपण शक्यतो काही घ्यायला नको म्हणतो.अगदी कोणी नमस्कार करु लागले तरी नाकारतो.तसे करु नये.छान नमस्कार घ्यावा व तोंड भरून सदिच्छांचा आशीर्वाद द्यावा.कोणी काहीही दिले तरी ते तितक्याच चांगल्या मनाने स्वीकारावे.व चांगल्या शुभेच्छा द्याव्यात,धन्यवाद द्यावेत.आपल्याला जर रस्त्यात बेवारस काही वस्तू,पैसे सापडले तर आपण आधी कोणाचे आहे याचा शोध घेतो.जर कोणी आसपास नसेल तर लगेच असा विचार करतो की हे कोणाला तरी देऊन टाकू,पैसे असतील तर दानपेटीत टाकण्याचा विचार येतो.त्या पेक्षा त्या वस्तू/पैसे जवळ ठेवावेत आणि ज्याचे असेल त्याला सुखी व आनंदी ठेवा असे म्हणावे.
हेच ते देण्याचे व घेण्याचे नियम!
हे अमलात कसे आणायचे याची कृती बघू.
▪️ आज भेटणाऱ्या प्रत्येक व्यक्तीला काहीतरी भेट देईन.
▪️ जे मिळेल त्याचा मनापासून व आनंदाने स्वीकार करेन.
▪️ आज कोणाच्या विषयी किंतू ठेवणार नाही.
▪️ आज भेटणाऱ्या प्रत्येका विषयी काळजी,सहानुभूती,सहृदयता बाळगेन व तसेच वर्तन करेन.
▪️ आज सगळ्यांशी हसून,मार्दवतेने वागेन.
▪️ आज सगळ्यांशी प्रेमाने वागेन.
असा आठवड्यातून एक दिवस ठेवायचा.आणि येणाऱ्या आनंदाला व भरभराटीला समोरे जाऊन स्वीकार करायचा.
☆ विश्रांतीचा पार जुना – कवी : सुहास रघुनाथ पंडित ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆
☆☆☆☆☆
☆ – विश्रांतीचा पार जुना– कवी : सुहास रघुनाथ पंडित ☆
☆☆☆☆☆
पाशही सगळे सोडू मोकळे चल जाऊया दूर तिथे
तुझे माझे, देणे घेणे, नसतील असले शब्द जिथे
नसेल खुरटे घरटे अपुले बंद ही नसतील कधी दारे
स्वच्छ मोकळ्या माळावरुनी वाहत येतील शीतल वारे
आशंकेला नसेल जागा नसेल कल्लोळ कुशंकांचे
परस्परांच्या विश्वासावर परस्परांना जिंकायाचे
चिऊकाऊच्या गोष्टी सांगत पिल्ले येतील चिऊ काऊची
मनात तेव्हा फडफड करतील सोनपाखरे आठवणींची
धकाधकीच्या जीवनातले कण शांतीचे वेचून घेऊ
तुडुंब भरले कुंभ सुखाचे हासत पुढच्या हाती देऊ
खूप जाहले खपणे आता जपणे आता परस्परांना
खूप जाहला प्रवास आता गाठू विश्रांतीचा पार जुना
– श्री सुहास रघुनाथ पंडित
(प्रेम रंगे, ऋतुसंगे या काव्यसंग्रहातून)
पती-पत्नीच्या नात्यात संध्या पर्व हे जीवनाच्या किनाऱ्यावरचे साक्षी पर्वच असते. आयुष्याकडे मागे वळून पाहताना खूप काही मिळवलं आणि खूप काही गमावलं असं वाटू लागतं. हरवलेल्या अनेक क्षणांना गवसण्याची हूरहुरही लागते. “पुरे आता, उरलेलं आयुष्य आपण आपल्या पद्धतीने जगूया की..” असे काहीसे भाव मनात उमटतात.
याच आशयाची सुप्रसिद्ध कवी श्री सुहास पंडित यांची ही कविता. शीर्षक आहे विश्रांतीचा पार जुना*
ही कविता म्हणजे आयुष्याच्या अखेरच्या टप्प्यावर पती-पत्नींचे एक मनोगत आहे. मनातलं काहीतरी मोकळेपणाने आता तरी परस्परांना सांगावं या भावनेतून आलेले हे विचार आहेत.
पाश ही सगळे सोडू मोकळे चल जाऊया दूर तिथे
तुझे माझे देणे घेणे नसतील असले शब्द जिथे
बंधनात, नियमांच्या चौकटीतल्या आयुष्याला आता वेगळ्या वाटेवर नेऊया. आता कसलेही माया— पाश नकोत, कसलीही गुंतवणूक नको. तुझं माझं दिल्या घेतल्याच्या अपेक्षांचं ओझंही नको, अशा मुक्त ठिकाणी आता दूर जाऊया.
नसेल खुरटे घरटे अपुले बंदही नसतील कधी दारे
स्वच्छ मोकळ्या माळावरती वाहत येतील शीँँतल वारे
आज पर्यंत आपल्या भोवतीचं वातावरण खूप संकुचित होतं. कदाचित जबाबदार्यांच्या ओझ्यामुळे, मर्यादित आर्थिक परिस्थितीमुळे असेल आपल्याला काटकसरीने राहावं लागलं, आपल्याकडे कोण येणार कोण नाही याचे तारतम्यही ठेवावे लागले, आपल्याच मनाची दारे आपणच बंद ठेवली, मनाला खूप मारलं पण आता मात्र आपण आपल्या मनाची कवाडे मुक्तपणे उघडूया, आपल्या जगण्याचे वावर आता मोकळं आणि अधिक रुंद करूया जेणेकरून तेथे फक्त आनंदाचेच स्वच्छ आणि शीतल वारे वाहत राहतील. मनावरची सारी जळमटं, राग —रुसवे, मतभेद, अढ्या दूर करूया.
आशंकेला नसेल जागा नसेल कल्लोळ कुशंकाचे
परस्परांच्या विश्वासावर परस्परांना जिंकायाचे
एकमेकांविषयी आता कसल्या ही शंका कुशंकांचा गोंधळ नको. इथून पुढे विश्वासानेच परस्परांच्या नात्याला उजळवूया. झालं गेलं विसरून एकमेकांची मने पुन्हा जिंकूया,जुळवूया.सगळी भांडणे, मतभेद विसरुन जाऊया.
चिऊकाऊच्या गोष्टी सांगत पिल्ले येतील चिऊकाऊची
मनात तेव्हा फडफड करतील सोन पाखरे आठवणींची
काळ किती सरला! आपल्या घरट्यातली आपली चिमणी पाखरं आता मोठी झाली उडून गेली पण त्यांच्या पिल्लांनी आता आपल्या घराचं गोकुळ होईल.. पुन्हा,” एक होती चिमणी एक होता कावळा” या बालकथा आपल्या घरट्यात रंगतील आणि पुन्हा एकदा बालसंगोपनाचा आपण भोगलेला तो गोजिरवाणा काळ आपल्यासाठी मनात उतरेल. या दोन ओळीत उतार वयातील नातवंडांची ओढ कवीने अतिशय हळुवारपणे उलगडलेली आहे आणि आयुष्य कसं नकळत टप्प्याटप्प्याने पुढे सरकत जातं याची जाणीवही दिलेली आहे.
धकाधकीच्या जीवनातले कण शांतीचे वेचून घेऊ
तुडुंब भरले कुंभ सुखाचे हासत पुढच्या हाती देऊ
जीवनातले अत्यंत अवघड खाचखळगे पार केले, दगड धोंड्या च्या वाटेवर ठेचकाळलो पण त्याही धकाधकीत आनंदाचे क्षण होतेच की! आता या उतार वयात आपण फक्त तेच आनंदाचे, शांतीचे क्षण वेचूया आणि सुखानंदांनी भरलेले हे मधुघट पुढच्या पिढीच्या हातात सोपवूया.
कवीने या इतक्या सोप्या, सहज आणि अल्प शब्दांतून केवढा विशाल विचार मांडलाय! दुःख विसरू या आणि आनंद आठवूया. भूतकाळात कुढत बसण्यापेक्षा सुखाच्या आठवणींनी मन भरुया आणि हाच आनंदाचा, सुसंस्कारांचा वारसा पुढच्या पिढीला देताना हलकेच जीवनातून निवृत्तही होऊया. पुढच्या पिढीच्या आयुष्यात आपली कशाला हवी लुडबुड? त्यांचं त्यांना त्यांच्या पद्धतीने जगू दे. आपल्या विचारांचं, मतांचं दडपण आपण त्यांना कां बरं द्यावं ?
पुरे जाहले खपणे आता जपणे आता परस्परांना
खूप जाहला प्रवास आता गाठू विश्रांतीचा फार जुना
किती सुंदर आणि आशय घन आहेत या काव्यपंक्ती! सगळ्यांचं सगळं निस्तरलं, सतत दुसऱ्यांचा विचार केला, त्यांच्यासाठीच राब राब राबलो, कित्येक वेळा याकरिता आपण आपल्या स्वतःच्या सुखालाही पारखे झालो पण आता पुरे झालं! आता फक्त तू मला आणि मी तुला. नको कसली धावाधाव. जरा थांबूया, निवांतपणे आपल्याच जीवनवृक्षाच्या पारावर विश्रांती घेऊया. विश्रांतीचा तो पार आपल्याला बोलावतो आहे.
विश्रांतीचा पार जुना या शब्दरचनेचा मी असा अर्थ लावते की आता निवांतपणे या पारावर बसून विश्रांती घेऊ आणि भूतकाळातल्या जुन्या, सुखद आठवणींना उजाळा देऊ.
संपूर्ण कवितेतील एक एक ओळ आणि शब्द वाचकाच्या मनावर कशी शीतल फुंकर घालते.. शिवाय वृद्धत्व कसं निभवावं, कसं ते हलकं, सुसह्य आणि आनंदाचा करावं हे अगदी सहजपणे साध्या सरळ शब्दात सांगते.
प्रतिभा, उत्पत्ती, अलंकार या काव्य कारणांना काव्यशास्त्रात महत्त्व आहेच. कवी सुहास पंडितांच्या काव्यात या काव्य कारणांची सहजता नेहमीच जाणवते. मनातील संवेदना स्पंदने ते जाता जाता लीलया मांडतात त्यामुळे वाचक, कवी मनाशी सहज जोडला जातो, कुठलाही अवजडपणा,बोजडपणा,क्लीष्टता, काठिण्य त्यांच्या काव्यात नसते.
विश्रांतीचा पार जुना या काव्यातही याचा अनुभव येतो. जिथे —तिथे, दारे —वारे,घेऊ —देऊ यासारखी स्वरयमके या कवितेला लय देतात.
खुरटे— घरटे, कल्लोळ कुशंकांचा, खपणे— जपणे या मधला अनुप्रासही फारच सुंदर रित्या साधलेला आहे.
कुंभ सुखाचे, सोनपाखरे आठवणींची, कण शांतीचे, विश्रांतीचा पार या सुरेख उपमा काव्यार्थाचा धागा पटकन जुळवतात.
मनात तेव्हा फडफड करतील सोन पाखरे आठवणींची या ओळीतील चेतनागुणोक्ती अलंकार खरोखरच बहारदार भासतो.
खुरटे घरटे ही शब्द रचनाही मला फार आवडली. यातला खुरटे हा शब्द अनेकार्थी आणि अतिशय बोलका आहे. चौकटीत जीवन जगणाऱ्या सामान्य माणसाची मानसिकताच या खुरटे शब्दात तंतोतंत साठवलेली आहे. आणि याच खुरटेपणातून, खुजेपणातून मुक्त होऊन मोकळ्या आभाळाखाली मोकळा श्वास घेण्याचं हे स्वप्न फक्त काव्यातील त्या दोघांचं न राहता ते सर्वांचं होऊन जातं.
या कवितेतला आणखी एक दडलेला भाव मला अतिशय आवडला. तो भाव कृतज्ञतेचा. पतीने पत्नीविषयी दाखवलेला कृतज्ञ भाव. “आयुष्यभर तू या संसारासाठी खूप खपलीस, खूप त्याग केलास, कामाच्या धबगड्यात मीही तुझ्या भावनांकडे दुर्लक्ष केले, तुला गृहीत धरले,पण आता एकमेकांची मने जपूया”संसारात ही कबुली म्हणजे एक पावतीच,श्रमांची सार्थकता,धन्यता!
खरोखरच आयुष्याच्या या सांजवेळी काय हवं असतं हो? हवा असतो एक निवांतपणा, शांती, विनापाश जगणं. दडपण नको ,भार नको हवा फक्त एक विश्रांतीचा पार आणि जुन्या सुखद आठवणींचा शीतल वारा. दोघां मधल्या विश्वासाच्या सुंदर नात्यांची जपणूक..