हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “वैलेंटाइन दिवस” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –“वैलेंटाइन दिवस“.)

☆ लघुकथा – ❤️ वैलेंटाइन दिवस ❤️☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

अपने अपने घरों से तीन सड़क छाप  मजनूं बाहर निकले और सड़क पर आ गए। चलकर वे शहर के मुख्य पार्क के सामने आ खड़े हुए।

पार्क के भीतर गहमागहमी  देखकर वे भी अंदर चले गए। पुष्प कुंजों के भीतर ताका झांकी करने लगे।

एकाएक  तीन लड़कियां कुंजों से बाहर निकलीं और मजनुओं को राखी बांधकर बोलीं-राखी बंधवा लो वीर जी हम तुम्हारी ही रास्ता देख रहे थे।

यह तो ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़े’ वाली कहावत हो गई थी। मजनू सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए।

लड़कियां चिल्ला रही थी-रुको तो, राखी बंधाई का नेग तो देते जाओ वीर जी।

मजनूं सियार के पांव हो गए थे।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस एक इल्म का साया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बस एक इल्म का साया है“)

✍ बस एक इल्म का साया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

रहे -हयात में इस पर भी ध्यान है मेरा

न हम सफ़र न कोई हम ज़बान है मेरा

 *

तमाम अपने बड़े बदगुमान है मुझसे

ये बात सच है न समझो गुमान है मेरा

 *

लज़ीज़ खाने मुझे अपनी सम्त खींचते क्या

कि सादग़ी से भरा खान पान है मेरा

 *

बड़ों के सामने चुपचाप क्यों न रहता मैं

बड़ों के सामने कितना सा ज्ञान है मेरा

 *

करूँ मैं और कि तनक़ीद तो करूँ कैसे

कि दोस्त लिहजा गुलों  के समान है मेरा

 *

फ़रेबो -मक्र का साया भी पड़ न पाता है

हक़ीक़तों से भरा हर बयान है मेरा

 *

बस एक इल्म का साया है ज़ीस्त पर मेरी

बस इक शऊर ही अब मिहरबान है मेरा

 *

जो कर रहा है जमाने देखभाल अरुण

वही तुम्हारा वही पासवान है मेरा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हग हग हगीज़।)

?अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चौंकिए मत, यह एक विशुद्ध अंग्रेजी शीर्षक है। हम भी ऐसे ही चौंके थे, जब हमने मनोहर श्याम जोशी का हरिया हरक्युलिस की हैरानी जैसा शीर्षक वाला उपन्यास, देखा था। एक बहुत पुराना बच्चों का गीत है, गोरी जरा हंस दे तू, हंस दे तू, हंस दे जरा। और गीत के आखिर में एक बच्ची के हंसने की आवाज आती है।

कोई बच्चा हंसे, और उसे गले से लगाने की इच्छा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बाल लीला बड़ी मनोहर होती है। आपने सुना होगा,

“सूरदास तब विहंसि यशीदा, ले उर कंठ लगायो”।।

बच्चा तो खैर बच्चा ही होता है, और हर बच्चा सुंदर होता है। हम भी जब छोटे थे, तो आजकल की भाषा में बड़े क्यूट थे। बेचारे क्यूट बच्चे के गोरे गोरे गाल नोंचने से लोगों को क्या मिल जाता है। कभी तो उनका चेहरा और लाल हो जाता है, तो कभी कभी तो वे बेचारे दर्द के मारे रो देते हैं। हद होती है, चुम्मा चाटी की भी। बस, इसी को आजकल की भाषा में hug कहते हैं।

समझदार माताएं हमारे जमाने में छोटे बच्चों को नैपीज पहनाती थी, जिसे हम हमारी भाषा में लंगोट कहते थे। घर में इतने भाई बहन थे, कि सबको बच्चे को लंगोट पहनाना आ जाता था। बच्चा लाड़ प्यार का भूखा होता है, और हंसते बच्चे को तो कोई भी गोद में उठा लेता है। क्या भरोसा कब बच्चा गीला कर दे। गीला करते ही बच्चा थोड़ी झेंप के साथ वापस माता को सुपुर्द कर दिया जाता था, लगता है इसने गीला कर दिया है।।

वही बच्चे की लंगोट, नैप्पीज से कब डायपर हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। हमें भी आटे दाल के भाव पते चल गए, जब अपने नवासी के लिए डायपर खरीदने निकले।

उस जमाने में दस रुपए का एक था। हम ध्यान डायपर के भाव पर रहता, और बच्चा डायपर की राह देखता। शंका लघु हो अथवा दीर्घ, डायपर लगाते ही, दूर हो जाती थी।

आपको शायद विचित्र लगे, बच्चों को सू सू कराने का भी तरीका होता है। अनुभवी माताएं आज की तरह हगीज के भरोसे नहीं रहती थी। बच्चे को खड़ा करके संगीत के साथ सू सू कराती थी। जब सा सा एक संगीत प्रेमी को मुग्ध कर सकता है, तो क्या सिर्फ मुंह से निकाली गई सू सू जैसी ध्वनि बच्चे की छोटी सी समस्या का निवारण नहीं कर सकती।।

लेकिन आज के व्यस्त जीवन में परिवारों में कहां इतने फुरसती जीव। हमने बच्चे को हगीज पहना दी है, जिसको जितना hug करना है, बच्चे को, प्रेम से करें। झेंपने और शरमाने जैसी कोई स्थिति ही नहीं। बच्चा भी खुश, आप भी खुश।

Hug Hug Huggies ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry – ☆ The market of life! ☆ Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

☆ The market of life! ☆ Hemant Bawankar ☆

The world

is a market of life!

 

New lives

born to sell.

Old lives

destroyed and thrown

away

from the throne.

 

None knows

the mentality of ones.

 

Some say

old is gold

some say

new to sold.

 

Requirement of new

was too much

so they purchased me

fully

when I was new.

 

Now, 

I am feeling

I have nothing of mine.

Body and soul;

thoughts and mind;

pulse and heart;

each and everything

is of customer

My Master!

My Lord!

My God!

and… his highness!

 

I’m sold

thus

I’m soldier

… of LIFE!

26th August 1977

(This poem has been cited from my book The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

© Hemant Bawankar

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 9 – बदलाव की बयार ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बदलाव की बयार।)

☆ लघुकथा – बदलाव की बयार ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दुकान में एक गरीब औरत अपने बच्चे को गोदी में लेकर एक मैली सी साड़ी पहनी हुई सेठ जी के सामने खड़ी हो गई।

उसे देखकर दुकान के मालिक ने कहा – बहन जी आगे जाओ मैं दान देकर थक गया हूं सुबह से अभी तक दुकान में किसी ग्राहक ने कोई सामान की खरीदी नहीं की है?

– कोई बात नहीं सेठ जी आप अपने नौकर से कहिए, मुझे एक अच्छी सी साड़ी दिखाये। मेरे भाई की शादी है मुन्ना के लिए भी कपड़ा लेना है?

तभी सामने से दो नौकर (दुकान के कर्मचारी) आए और उन्होंने कहा – आप यहां पर आ जाइए और इनमें से जो भी आपको अच्छा लगे वह पसंद कर लीजिए। पहले आप यह बताइए कि आपको साड़ी कितने दाम की चाहिए?

– जो सामने गुलाबी वाली रखी है वह कितने की है?

– ये 800 की है क्या इतनी महंगी साड़ी ले पाओगी?

– हां ठीक है पैक कर दो।

– अपने बेटे का कपड़ा लेकर तुरंत काउंटर के पास गई और बोली कपड़े का कितना पैसा हुआ?

सेठ जी ने कहा – बहन जी आपके कपड़े देखकर मुझे लगा कि आप क्या खरीदोगी, जिनके कपड़े देखकर हम लोग दुकान का सारा सामान अच्छा दिखा रहे हैं उनके मुंह देखिए? इन्हें समय की कीमत भी नहीं पता है? इन सब मैडम लोगों को तो दोपहर का टाइम पास करना है।

 – अभी मुझे काम पर भी जाना है।

– ठीक बात है बहन आप जब भी कपड़े लेने आओगी मैं आपको डिस्काउंट दूंगा और आप बच्चे का कपड़ा मेरी ओर से उपहार समझ के ले जाइए। आपसे सिर्फ ₹800 ही लेंगे।

– एक काम करने वाला ही दूसरे काम करने वाले की कीमत और समय की कीमत को समझ सकता है।

तभी दुकान में कुछ महिला जो बैठी थी वह एक दूसरे से कहती हैं- चलो! बहना हम चलते अपनी बेइज्जती करने के लिए थोड़ा ना बैठे हैं?

और वे अपनी कार में बैठकर चली जाती है ।

सेठ जी ने बड़ी कृतज्ञता से उस गरीब औरत से कहते हैं – बहन चाय पी लो ।

वह कहती है – नहीं भाई अगले बार आकर पियेंगे अब तो हमारा रिश्ता बन गया है । पेट के लिए भाई बहुत कुछ करना पड़ता है घायल की गति घायल ही जाने…. ।

हमारा शहर अब स्मार्ट सिटी बन गया है इसलिए यह सब मैडम जी लोग के लिए नदी के किनारे नगर पालिका द्वारा एक कैमरा लगा दिया गया है।

माननीय विधायक जी ने ऐलान किया है की जो बहन सबसे सुंदर दिखेगी उसे इनाम दिया जाएगा ।

उसी दौड़ में सब शामिल हैं। सौंदर्यीकरण शहर का हो रहा है लोग भी बदलाव की बयार में बह रहे हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

प्रिय मित्रों, पिछली बार हमने शिलॉन्गका सफर शुरू किया| अब हम शिलॉन्ग में स्थित कुछ और नयनाभिराम स्थल देखेंगे| तो फिर चलिए, बहुत देर तक चलने की तैयारी करें!

एलिफेंट जलप्रपात (Elephant falls)

शिलॉन्ग के उत्तर भाग में एक अन्य सर्वांगसुंदर ऐसा स्थान है, जो कि पर्यटकों ने देखना ही चाहिए, ऐसा एलिफेंट फॉल! इस जलप्रपात के निकट हाथी के आकार की एक विशाल चट्टान थी, इसलिए ब्रिटिशों ने इसका नाम रखा एलिफेंट फॉल| परन्तु अब इस निर्झर के पास वह कुंजर सम महाकाय चट्टान नहीं रहा क्योंकि, १८९७ के भूकंप में वह नष्ट हो गया| लेकिन उसका नामकरण जिस नाम से हुआ, वहीं नाम आज भी प्रचलित है! शहर के मध्य से ११ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह त्रिस्तरीय जलप्रपात (यह जलप्रपात तीन चरणों में गिरता है) देखने हेतु वर्षा ऋतू में जाना बेहतर है, श्वेत दुग्ध जैसी सैकड़ों फेनिल धाराओं की लयबद्ध सप्तसुरों से पूरे क्षेत्र को निनादित कर देने वाले इस जलप्रपात का प्राकृतिक रमणीय दर्शन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। एक बार देखने पर दृष्टि हटती ही नहीं| अगर वर्षा ऋतू में जा रहे हैं, तो सीढ़ियों की उतरन ध्यानपूर्वक सम्हालते हुए एक स्तर देखिये, आँखों में समा जाये तो, नीचे उतरिये, दूसरा स्तर देखिये, फिर एक बार नीचे सीढ़ियों की उतरन, और सबसे गहरा तीसरा स्तर, जल का प्रवाह नीचे की ढलान में प्रवाहित होते हुए देखिए। सबसे नीचे इस मनोहरी तथा रमणीय नीलजलप्रपात का एकत्रित जल एक छोटेसे तालाब में समाहित होता है| तालाब के चारों ओर सदाहरित वनसम्पदा सदैव साथ में ही होती है! मित्रों, अब अगला कार्य कठिन ही समझिये, क्योंकि अब सीढ़ियां जो चढ़नी हैं! केवल निर्झर का ही नहीं बल्कि, उसे अनायास बाहुपाश में लेनेवाली नित्यहरित हरियाली का भी मनभावन दर्शन करते चलिए! खिलखिलाता हुआ यह झरना और उससे सटी, साथ देती हुई गहन हरीभरी पर्वतश्रृंखला! यह नेत्रदीपक और ‘पिक्चर परफेक्ट’ दृश्य नेत्रों और कैमरा में कैद कर लीजिये! ऐसा अभूतपूर्व दृश्य देखने के लिए शिलॉन्ग में पर्यटकों की भीड़ बड़ी संख्या में इकठ्ठी हो जाती है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है!

डॉन बॉस्को संग्रहालय (Don Bosco Museum)

यह संग्रहालय शिलॉन्ग शहर के मध्यबिंदू से ५ किलोमीटर अंतर पर सेक्रेड हार्ट चर्च के विस्तृत परिसर में स्थित है| कलासक्त, इतिहास प्रेमी, नावीन्य की नयी मार्गिका खोजने वाले, मेघालय की संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक, इन सभी प्रकार के युवा और वृद्ध पर्यटकों का इस भवन में प्रेम से स्वागत किया जाता है। प्रारम्भ में ही एक पथदर्शक हमें इस संग्रहालय में ७ मंजिलों में स्थित विविध बड़े कमरों (दर्शक दीर्घाओं) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देता हैं| परन्तु बाहर खड़े होकर इस भव्य-दिव्य संग्रहालय की रत्ती भर भी कल्पना नहीं की जा सकती| इस विशाल ७ मंजली इमारत में सत्रह अलग-अलग सुरम्य दर्शक दीर्घाएँ हैं! इसमें क्या नहीं है यह पूछिए! कला भवन (आर्ट गॅलरी), हस्तकला, कलावस्तू, पोशाक, गहने और ईशान्य भारत के विविध जनजातियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का एक विस्तृत संग्रह यहां भर भर कर रखा गया है। संपूर्ण ईशान्य भारत के विहंगम दृश्यों की एकत्रित रम्य दर्शिका एक ही स्थान पर साध कर रखी है इस दर्शनीय संग्रहालय में!

यहाँ इतना कुछ देखने लायक है, कि पर्यटकों का संपूर्ण संतुष्ट होना काफी मुश्किल है! यह सब देखने के लिए एक पूरा दिन भी कम ही होगा! कितना कुछ नजरों में समाहित करें और फोटो भी कितने खींचें! “कुछ तो बाकी रह गया”, हमारी ऐसी अवस्था प्रत्येक मंजिल पर हो जाती है| इसीलिये अगर समय की कमी है तो, आप ब्रोशर को ध्यान से देखकर अपनी पसंद की मंजिलों का चयन कीजिये और जब तक संतुष्ट न हों तब तक उन्हें शांति से देखें। मैंने अपनी पसन्दानुरूप ‘आर्ट गॅलरी’ में मनमाफिक आनंदपूर्वक समय बिताया! इस इमारत का सबसे रोमांचक बिंदु निश्चित रूप से ७ वीं (शीर्ष/ऊपर वाली) मंजिल है “स्काय वॉक”| हम जब वहां पहुँचे तब थोड़े समय पहले बारिश आ चुकी थी, इसलिए मार्ग थोडासा फिसलन भरा था, यहाँ गोल गुम्बद के चारों ओर घूमकर शिलॉन्ग का मनमोहक नज़ारा देखना एक चरम मनोज्ञ अनुभव है। क्या देखना है, उस खास बिंदु पर लिखा है ही, अलावा इसके फोटो खींचना तो अनिवार्य है ही, परन्तु प्रिय मित्रों, सेल्फी लेते वक्त सावधानी बरतें! चौथी मंज़िल पर एक बढ़िया कॅफे है! उसीके बगल में ईशान्य भारत का ख़ूबसूरत दर्शन कराने वाली फिल्म एक छोटेसे सिनेमाघर में अवश्य ही देखना चाहिए। संक्षेप में बताऊँ तो यह भव्य दिव्य संग्रहालय ईशान्य भारत की सांस्कृतिक सम्पन्नता को दर्शाने वाली एक रेखात्मक चित्र-गैलरी ही समझ लीजिये!

कॅथेड्रल ऑफ मेरी हेल्प ऑफ ख्रिश्चनस

शिलॉन्ग में स्थित यह चर्च कॅथोलिक आर्कडिओसीस का कॅथेड्रल और शिलाँग के मेट्रोपॉलिटन आर्चबिशप के आसन के रूप में प्रसिद्ध है| शहर के मध्य बिंदु से केवल २ किलोमीटर दूर यह चर्च पर्यटकों की बहुत ही पसंदीदा जगह है| लगभग ५० वर्ष पूर्व निर्मित यह कॅथेड्रल शिलॉन्ग आर्कडिओसेस के साढे तीन लाख से भी अधिक कॅथलिक लोगों का मुख्य प्रार्थनास्थल है| उसमें पूर्व खासी हिल्स और री-भोई जिलों का भी समावेश है (कुल ३५ चर्च)| यह चर्च Laitumkhrah इस भाग में है| इस चर्च का नाम येशू के Mary the mother के नाम के पर दिया गया है| मदर मेरी के पुतले सहित यह शुभ्र धवल  संगमरमर की इमारत अति भव्य और शोभायमान दिखती है| इस चर्च की खासियत है ऊँची कमानें (मेहराब) और बेहतरीन रंगों से सुशोभित कांच की खिड़कियां! कॅथेड्रल के अंदर क्रॉस की कुछ सुंदर टेराकोटा स्टेशन्स हैं, जो येशू के जीवन की घटनाएं दर्शाती हैं| इस भाग में प्रमुख रूप से येशू ख्रिस्त की यातनाएं और मृत्यूविषयक चित्रों के दर्शन होते हैं| ये चित्र जर्मनी की एक कला संस्था ने तैयार किये हैं| साथ ही यहाँ पवित्र शास्त्र और संतों के जीवन के दृश्य चित्रित किये गए हैं| फ्रान्स में १९४७ साल में तैयार किये गए शीशे के अप्रतिम रंगीन दरवाजे इस चर्च की एक और विशेषता है! मुख्य वेदी के सामने बाँयी ओर शिलॉन्ग के पहले मुख्य बिशप ह्युबर्ट डी’रोसारियो की कब्र है| कब्र के आगे और मेरी तथा बाल येशू के पुतले के सामने एक और वेदी है| यहाँ के पवित्र वातावरण में कुछ समय शांति से बैठने का मन जरूर करता है! यहाँ हर महीने में नौ दिन विशेष भक्ति की जाती है| ऊँची पहाड़ी पर स्थित और वहीं उकेरा गया है ग्रोटो चर्च, जो कॅथेड्रल के ठीक नीचे स्थित है, हम इस ग्रोटो चर्च को भी भेंट दे सकते हैं|

वॉर्ड्’स लेक (Ward’s Lake)

यह सुंदर मानवनिर्मित तालाब शहर के मध्यभाग में राजभवन के निकट स्थित है| आसपास रम्य उपवन होने के कारण इस तालाब का परिसर सदैव छोटे बड़े लोगों से भरपूर भरा होता है| यहाँ का एक आकर्षण है, स्वचलित विभिन्न आकारों की नौकायन नौकाएँ। पैरों की मदद लेकर आराम से नियंत्रित की जाने वाली इन नौकाओं में सुख चैन से विहार कीजिये, साथ ही हरीभरी वृक्षलताओं का दर्शन करते करते नौकायन करते रहिये| तालाब के ऊपर इस पार्क तथा बोटॅनिकल गार्डन को जोड़ने वाला पुल है, इसके नीचे से नौका आगे ले जाएँ| इस तालाब में बगुलों की श्वेत पंक्तियाँ तैरती रहती हैं| नौका के निकट आते ही वें बिखर जाती हैं| सूरज के ढ़लते ही नौकायन बंद होता है, उसके बाद ही उनका संपूर्ण तालाब में स्वच्छंद विहार आरम्भ होता है! कुल मिलाकर यहीं सच है कि, कोई भी जानवर या पक्षी इंसानों पर भरोसा नहीं करता! नौकायन का आनंद उपभोगने के बाद इस तालाब के चारों ओर फैले उपवन की पगडंडियों पर बढ़िया चहलकदमी या सिर्फ रिलैक्स करने का भी मज़ा उठाइये। प्राकृतिक परिवेश और अत्यधिक साफ-सफाई इस पार्क को अवश्य ही देखने लायक बनाती है!

थंगराज गार्डन

यह विशाल उपवन भी बहुत सुरम्य है| विविध प्रकार के पेड़पौधों और फूलों की क्यारियों से फूला, प्राकृतिक सौंदर्य से अभीभूत या स्थान सचमुच ही देखने लायक है| अंदर प्रवेश करते ही क्या देखना चाहिए, इसका मार्गदर्शक बोर्ड नजर आता है| गार्डन में टहलते हुए आप देखेंगे कि, विशिष्ट स्थान पर स्थित वृक्षलताओं की जानकारी देने वाले बोर्ड हर जगह दिखाई देते हैं। उपवन को घेरा डालने वाली पगडंडियां और उनका बाड़(compound), नीचे नजर डालेंगे तो शिलॉन्ग का विहंगम नजारा देखते ही बनता है| सीढ़ियां चढ़नेपर विविध रंगों की वृक्षराजी दृष्टिगत होती है| यहाँ फोटो खींचने लायक बहुतसी सिनेमास्कोप जगहें हैं, साथ ही अंदर शीशे के घर में एक सुंदर नर्सरी (ग्रीनहाऊस) है!

प्रिय मित्रों, हमने आराम से चहलकदमी करते हुए शिलाँग का अद्भुत सफर किया| अभी भी ‘मुझे कुछ कहना है’| वह हम अगले अर्थात अन्तिम भाग में जानेंगे| फ़िलहाल कलम को विराम देती हूँ!

खुबलेई! (khublei) (यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

टिप्पणी – 

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

Shillong city |Capital of Meghalaya | Informative Video

 

PYNNEH LA RITI || by kheinkor composed by apkyrmenskhem

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 217 ☆ बाई ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 217 ?

बाई ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

बाईला वागावंच लागतं बाई सारखं ,

खूप छळ झाला, सहन केली मारझोड,

तरी ती म्हणायची पूर्वी,

“पावसानं झोडलं आणि

नवऱ्यानं मारलं

दाद कुणाकडे मागायची?”

 

 गेले ते दिवस,

ती मागते दाद,मुक्त ही होते,

घेते काडीमोड,

“मी मोडक्या संसाराची बाई लाज टाकली” !

म्हणत पाट लावते,

एखादी चिंधी – नाग्यासंगती!

पण ती बाईच असते,

ओवाळून टाकते जीव,

एखाद्या नाग्या वरून!

“आम्ही ठाकर ठाकर” म्हणणारी,

आदीवासी स्त्री मुक्तच असते ,

तरीही ती वागते बाई सारखीच,

 

आदीवासी असो की,

पांढरपेशा समाजातील सुशिक्षित,

 

-ती असते परिपूर्ण स्त्री,

आणि सांभाळते आयुष्यभर,

आपल्या बाईपणाची  “चिंधी” !

बाई ला वागावंच लागतं,

बाईसारखं!

© प्रभा सोनवणे

१३  फेब्रुवारी २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रेमलता… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ प्रेमलता… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सहज ची भेटता तू अन् मी,

काही चमकले हृदयीच्या हृदयी!

बीज अचानक मनी पेरिले,

प्रीतीचे का काहीतरी !….१

*

तिसऱ्या दिवशी सूर्यप्रकाशी,

बीज अंकुरे मम हृदयी,

प्रेम पाण्याचे सिंचन करता,

अंकुर वाढे चौथ्या दिवशी!…२

*

पाचव्या दिवशी रोप वाढले,

मनी वाढली प्रेम अन् आशा!

प्रीत फुल उमलले त्यावरी,

‘प्रपोज डे’ च्या सहाव्या दिवसा!…३

*

‘व्हॅलेंटाईन डे’ च्या सातव्या दिवशी,

फूल प्रीतीचे मिळे मला ,

परिपक्व प्रेम उमटले हृदयी ,

समर्पित केले मी हृदयाला!…४

*

फुल बदलले फळात तेव्हा ,

प्रीत मिळाली मनासारखी!

प्रेमलतेच्या बहराने मज,

प्रेमाचा ठरलो रत्नपारखी!…५

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्हॅलेंटाईन डे ☆ सौ. अर्चना देशपांडे ☆

सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

? विविधा ?

☆ ❤️ “व्हॅलेंटाईन डे” ❤️☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे ☆

आता पाश्चात्य लोकांचे पाहून आपणही मदर डे फादर डे साजरे करू लागलो आहोत.

आता 14 फेब्रुवारीला व्हॅलेंटाईन डे साजरा केला जाईल पण प्रेम व्यक्त करण्यासाठी एखाद्या दिवसाची गरज काय? त्या दिवसासाठी वेगवेगळ्या कल्पना लढवल्या जातात, कार्यक्रम आखले जातात, प्रेम व्यक्त केले जाते, रोमान्स ताजा ठेवण्यासाठी आटापिटा केला जातो आणि सगळेजण करतात म्हणून आपणही करतो. सगळेजण लॉंग ड्राईव्ह जातात म्हणून आपणही जातो. कॅण्डल लाईट साजरा करतात त्याचेही अनुकरण करतो काहीतरी भेट द्यायची म्हणून खिशाला परवडत नाही तरी खरेदी केली जाते, उसनवारीने  पैसे घेतले जातात आणि पैसे परत करावे लागणार म्हणून दुःखी होतात.

पाच रुपयाचे गुलाबाचे फुल 25 रुपये देऊन खरेदी करतो पण या सगळ्याची परत गरज आहे का? कशासाठी पाश्चात्य लोकांचे अनुकरण करायचे?

ज्याच्यावर किंवा जिच्यावर प्रेम आहे ते व्यक्त करण्यासाठी  पैसे खर्च करूनच केले पाहिजे असं कोणी सांगितलंय?

“प्यार करने के लिए पैसा नही लगता… और प्यार मे कोई सही या गलत भी नही होता| … प्यार सिर्फ प्यार होता है।”  म्हणून त्याला किंवा तिला जे आवडते ते केले तर आनंद द्विगुणित होईल. एखादा मित्र अनेक दिवस भेटला नसेल तर त्याची घालून देता येईल, आवडीचा पदार्थ पोटभर खाऊ घालता येईल ,एखादे चांगले पुस्तक भेट देता येईल., आपल्या मनातील भावना कागदावर लिहून देतायेतील की ज्यामुळे त्याला किंवा तिला आनंद होईल. त्यासाठी व्हॅलेंटाईन ग्रीटिंग देण्याची गरज नाही. त्या ऐवजी भांडण झालेल्या मित्र-मैत्रिणींचा समेट घडवून आणता येईल. मागील चूकीची माफी मागता येईल, दिलगिरी व्यक्त करता येईल हीच खरी प्रेमाची कसोटी ठरेल.हेच गिफ्ट आयुष्यभर पुरेल असे मला वाटते.

©  सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

पुणे

मो. ९९६०२१९८३६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “मज नकोत अश्रू, घाम हवा……” ☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला ☆

?जीवनरंग ?

☆ “मज नकोत अश्रू, घाम हवा…” ☆ श्री कौस्तुभ केळकर नगरवाला

हो.. हो.. सगळे सरसोस्तीच म्हणायचे तिला. अगदी एकेरी. पोराटोरांपासून म्हाताऱ्यांपर्यंत. तिच्या नावावर जाऊ नका. वस्तीत तिचा जबरदस्त दरारा होता. बाई कर्तृत्ववान खरी.

लिहण्या वाचण्यापुरतं शिकलेली. तरीही नाव सार्थ करणारी. हजारोंचा हिशोब हाताच्या बोटांवर करायची. काॅम्प्युटरसे भी तेज दिमागवाली, या जगात फक्त दोनच माणसं. एक चाचा चौधरी आणि दुसरी सरसोस्ती. दिमाग आणि जुबान दोन्हीही तेज.

दारूडा नवरा आणि पदरात दोन पोरं. दारू पिवून रोज मारायचा तिला. एक दिवस सहनशक्ती संपली तिची. बांबूच्या फोकानं तुडवला तिनं त्याला. त्या संसाराला लाथ मारली अन् ईथं आली. नाल्याकाठी एकटा बंद जकातनाका. नाक्यापाशी झोपडी बांधून राहू लागली. ऊशाशी कोयता घेऊन झोपायची. काय बिशाद होती कुणाची…?

नाक्यापलीकडं नवीन बिल्डींगा ऊभ्या रहात होत्या. बाई हुशार खरी. भल्या पहाटे मार्केटला जायची. वेचून निवडून भाजी आणायची. सोसायटीवाल्यांना सोईचं झालं. हातगाडीवर लादून दिवसभर भाजी विकली.

मोठं पोर हातगाडीवर दमून तसंच झोपून जायचं. धाकटी पोर खाली झोळीत. प्रत्येक दिवस अंत बघायचा. रडवायचा. बाईनं हिंमत हारली नाही. चार पैसे गाठीशी आले. झोपडीपाशीच भाजीचं दुकान टाकलं. जरा वणवण कमी झाली.

बाई बारा बारा तास दुकानात राबायची. कुणासाठी ? पोरांसाठी. तिला खूप वाटायचं. पोरांनी चांगलं शिकावं. काटकसरीत रहायची. सगळी मौज मारून शाळेची फी भरायची.

पोरगी अभ्यासाला बरी. बारावी झाली अन् तिचं लग्न करून दिलं. पोराचा तेवढा वकूबच नव्हता. शाळेचा निकाल लागला की पोराचाही निक्काल लागायचा. गुरासारखी मारायची पोराला ती. अन् धाय मोकलून रडायची. शेवटी तिनं नाद सोडून दिला. तोही दुकानी राबू लागला. 

ते काहीही असो तिचा पोरगा तिच्यासारखाच. तिच्याच हाताखाली तयार झालेला. धंद्याला पक्का आणि व्यवहाराला चोख. बाईनं त्याला किराण्याचं दुकान थाटून दिलं. तेही जोरात चालायला लागलं. कष्टाला कुणीच कमी नव्हतं. पोराचं लग्न लावून दिलं. सूनबाईही कामाची. घरचं सांभाळून भाजीच्या दुकानात, तिला हातभार लावायची.

खरं तर तिची झोपडी , दुकान सगळंच अनधिकृत. सगळी पडीक, ओसाड, नाल्याशेजारची जागा. तरी ही बाईला शांत झोप लागेना. बाईनं रीतसर ती जागाच विकत घेतली. पक्क घर बांधलं. मागे दहा खोल्यांची बैठी चाळ बांधली. तिथलं भाडं सुरू झालं. टेम्पो घेतला. होलसेलनं भाजी घ्यायला सुरवात केली. मार्केट यार्डला पक्का गाळा घेतला. बाईला कष्टाची नशा चढू लागली. अन् पैशाचीही.

हळूहळू आजूबाजूला वस्ती वाढत गेली. बाईनं चांगली माया जमा केली. नेमकी कशी सुरवात झाली कुणास ठाऊक ?

वस्तीतल्या दिवाकरचा पोरगा.

बारावी झाला. आय.टी.आय. ला टाकायचा होता. फी वाचून अडलेलं सगळं. बाई म्हणाली, मी देते पैसे. शीक, मोठा हो. नोकरीला लाग. अट एकच. पहिल्या सहा महिन्याचा पगार माझा. माती खाल्लीस तर तुझी कातडी सोलून पैसा वसूल करीन. 

पोरगं हुशार, मेहनती. पास झाला. एम.आय. डी.सी.त नोकरीला लागला. बरोब्बर एक तारखेला बाई वसूलीला जायची. सहा महिने असंच चाललं. बाईनं एक पैसा सोडला नाही. काहीही असो, पोरगं लाईनीला लागलं.

हा सिलसिला पुढं चालू राहिला. वस्तीतली पोरं, त्यांचे नातेवाईक..

कित्येक पोरांच्या फीया बाईनं भरल्या. अगदी पोरींच्याही. बाईचा ऊसूल होता. शिकणाऱ्याचा वकूब किती, मेहनत कशी आहे ? शिकून नोकरी मिळेल की नाही ? सगळं बघून पैसा पुरवायची. बाईच्या भितीनं पोरं शिकली.

आय.टी.आय, डिप्लोमा, बी.एड, नर्सिंग. बाईचा एक पैसा कधी वाया गेला नाही. पोरंगं हुशार असलं तर, एम.पी.एस्सी.च्या कोचींगची फी सुद्धा बाई भरायची. अट एकच. पहिल्या सहा महिन्याचा पगार. बाईनं रग्गड पैसा मिळवला यातनं. 

पैसा, सोनं नाणं, जमीन जुमला सगळं स्वतःच्या नावावर. पोराला सांगायची. हे सगळं माझंय. रहायचं तर रहा, नाहीतर वेगळा हो. बाईला फारसं प्रेमानं बोलता यायचंच नाही. कुणावर ही फारसा विश्वास बसायचा नाही. तोंडात सहज शिव्या यायच्या.

चालायचंच.

सहज कानावर आलं. नाल्यापलीकडं बाईनं मोठ्ठी जमीन घेतलीय म्हणे. पैशाकडे पैसा जातो हेच खरं. 

बाई थकली आता. साठीच्या पुढचं वय. एक दिवस पोराला, सुनेला, लेकीला बोलावली. वकील बोलावला. पोराच्या नावावर घर, दुकान. चाळीचं उत्पन्न पोरीच्या नावे करून दिलं. “तुमच्या लायकीप्रमाणं दिलंय तुम्हाला. बाकी तुम्ही आणि तुमचं नशीब.” नवीन घेतलेली जमीन, सोनं नाणं, बँकेतली जमा. आकडा खूप मोठा. बाईनं सगळ्यावरचा हक्क सोडून दिला. चांगल्या माणसांना गळ घातली. ट्रस्ट केला.

दोन वर्षात मोठ्ठी बिल्डींग बांधून तयार. चार वर्ष झालीयेत. ‘सरस्वती विद्या मंदिर’ सुरू होऊन. परवडणारी फी, ऊत्तम शिक्षण. फुकट नको, फी हवीच. त्या शिवाय शिक्षणाची किंमत कळत नाही. बाई असंच म्हणायची. त्याशिवाय हा डोलारा चालणार कसा ?

बाई खरंच ग्रेटय. बाईला यात काहीच विशेष वाटत नाही. सरसोस्ती कळलीच नाही कुणाला. बाई आता थकलीये. तिकडच्या वाटेकडे डोळे लावून बसलीय.

कुणी तरी ट्रस्टीं पैकी म्हणालं. शाळेत बाईचं मोठ्ठं पोट्रेट लावू. चित्रकार बोलावला. बाई वसकन् ओरडली, “माजं न्हाई देवी सोरसोस्तीचं चित्तर लागलं पायजेल शाळंत. माज्या घरावर न्हाई किरपा केली तिनं, समद्या पोरांवर किरपा राहू दे तिची.”

बाईपुढे कुणाचं काय चालणार ?

भरल्या डोळ्यांनी, समाधानानं, बाई लांबच्या प्रवासाला निघून गेलीय. तिचं नाव, तिचा फोटो कुठेच काही नाही. हेच ते सरस्वतीचं चित्र. शाळेच्या पोर्च मधे लावलेलं. खरंय. सोरसोस्ती आम्हाला कधी कळलीच नाही.

© कौस्तुभ केळकर नगरवाला

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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