हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆ स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का अगला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 04 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 3 ?

(2015 अक्टोबर – इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया। पिछले भाग में आपने पुर्तगाल यात्रा वृत्तांत पढ़ा। )

यात्रा वृत्तांत (स्पेन से जिबरॉल्टर) – भाग तीन 

मलागा में चार दिन बिताने के बाद हम तीन दिन के लिए मोरक्को जानेवाले थे परंतु वहाँ उन दिनों राजनैतिक उथल-पुथल प्रारंभ हो गई थी। कुछ बम विस्फोट की भी खबरें मिली, इसलिए हमने वहाँ जाने का कार्यक्रम स्थगित किया। हमारी सारी बुकिंग कैंसल की गई,आर्थिक नुकसान हुआ पर कहते हैं न जान बची लाखों पाए -हमारे लिए उस समय यह निर्णय आवश्यक था। यह मुस्लिम बाहुल्य देश है। यहाँ ईसाई भी हैं पर माइनॉरिटी में और दो धर्मों के बीच कुछ विवाद छिड़े हुए थे।अतः इस उथल -पुथल में हमने मोरक्को न जाने का फैसला लिया। हमने रिसोर्ट में तीन दिन अधिक रहने के लिए व्यवस्था की। सौभाग्य से हमें जगह मिल गई ।अब हमारे पास तीन दिन हाथ में अधिक आ गए थे। हमने मलागा में रहकर कुछ और जगहें देखने का मन बना लिया।

कनाडा की शिक्षिकाओं ने दूसरे दिन जिबरॉल्टर जाने का कार्यक्रम बनाया था। इस स्थान की जानकारी मुझे उन दिनों हुई थी जब मैं अपने नाती को  इतिहास पढ़ाते समय  द्वितीय विश्वयुद्ध की जानकारी दे  रही थी। इससे पूर्व मुझे इस स्थान की कोई जानकारी न थी। हमारा नाती तो जिबरॉल्टर जाने की बात सुनकर उछल पड़ा। हमने अपने रिसोर्ट के ग्रंथालय से जिबरॉल्टर की और अधिक ऐतिहासिक जानकारी हासिल की और ट्रैवेल डेस्क पर बैठे एजेंट से जाने की व्यवस्था भी की।

हमारे पास शैंगेन वीज़ा थी। जिबरॉल्टर यू.के. के अधीन आता है। वहाँ शैंगेन वीज़ा नहीं चलता। पर हमारी तकदीर अच्छी थी कि ट्रैवेल एजेंट ने बताया कि हमारी यात्रा के छह दिन पूर्व ही यह घोषणा की गई थी कि भारतीय जिबरॉल्टर पहुँचकर वीज़ा प्राप्त कर सकते हैं।

अठारह लोगों की बस में तीन सीटें मिल ही गईं और दूसरे दिन सुबह हम सात बजे जिबरॉल्टर के लिए रवाना हुए।

गाड़ी में हम तीन ही एशियाई और वह भी भारतीय थे। इससे पूर्व सभी एशियाई देशों को पहले से वीज़ा लेने की आवश्यकता होती रही है। अब यह बाध्यता का समाप्त होना अर्थात भारत के साथ स्पेन के सुदृढ़ आपसी संबंधों पर प्रकाश डालता है।

मलागा से जिबरॉल्टर की दूरी 135 किलोमीटर है। जिबरॉल्टर समुद्री तट पर बसा छोटा सा शहर है। जिबरॉल्टर छोटा सा शहर तो  है पर साथ ही, यह ब्रिटेन के सशस्त्र सैनिकों और नौसेना का एक सशक्त आधार भी है। यह चट्टानी प्रायद्वीप से घिरा इलाका है साथ ही यहाँ कई गुफाएँ भी हैं।

यह पृथ्वी का एक ऐसा एयरप्लेन रनवे है जहाँ गाड़ियाँ और विमान दोनों  ही चलते हुए दिखाई देते हैं। यात्रा के दौरान अचानक हमारी बस रुक गई और सामने ही विमान चलता दिखाई दिया। कुछ समय बाद विमान हमारे सिर के ऊपर से उड़ता दिखाई दिया। हमारे लिए यह एक अद्भुत अनुभव था!

हम अपनी छोटी-सी बस से जिबरॉल्टर पहुँचे। फिर वहाँ से आगे गुफाओं में जाने के लिए वहाँ की निर्धारित बसों में बैठकर हम ऊपरी गुफाओं में पहुँचे। ये संकरी और घुमावदार पहाड़ी रास्तों से गुजरती सड़कों पर की गई  अद्भुत यात्रा थी। बस में लगी काँच की खिड़कियाँ बहुत बड़े आकार थीं जिस कारण मार्ग के आगे, पीछे, ऊपर ,नीचे की सड़कें स्पष्ट नज़र आ रही थी।

जैसे बस ऊपर चढ़ती सड़क संकरी महसूस होने लगती। एक भय भी मन में घर करता रहा। हम सबकी हालत देख गाइड ने तुरंत कहा कि सड़क घुमावदार,संकरी और चढ़ाईवाली  होने के कारण ही विशेष प्रशिक्षित चालकों के साथ यात्रियों को वहाँ ले जाया जाता है। वहाँ गाड़ी या बस चलाना सबके बस की बात नहीं। एकबार में एक ही बस ऊपर जाती है। दो घंटे गाइड के साथ गुफाएँ देखकर बस नीचे उतरती है और तब दूसरी बस रवाना होती है।बस चालक ही गाइड के रूप में काम करता है। इस कारण प्रत्येक ट्रिप में अलग चालक होते हैं। चालक का गाइड होना अर्थात  उस स्थान के प्रति लगाव, समर्पण की भावना भी जुड़ी रहती है।

बसें ऑटोमोटिक होती हैं और समय का पूरा ध्यान रखा जाता है। दूसरी बस प्रस्थान के लिए नीचे यात्रियों के साथ तैयार रहती है। इतना परफेक्ट समय की पाबंदी और अनुशासन देखकर यात्री होने के नाते हमारा मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा।

ऊपर गुफाओं में हमें घुमाया गया।यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध के समय तकरीबन बीस हज़ार लोग रहते थे।बच्चों के लिए छोटा सा स्कूल बनाया गया था ताकि उन्हें युद्ध के भय से दूर रखा जाए तथा वे व्यस्त रहें। बेकरी थी। सैनिकों के सोने के लिए लोहे के बेड रखे गए थे। दिन में कुछ युद्ध करते तो कुछ सोते और रात को कुछ तैनात रहते तो दिन में ड्यूटी करनेवाली सेना आराम करती। गुफाएँ काफी गहरी थीं। कुछ  गुफाओं में आज भी सैनिक रहते हैं।

गाइड ने हमें यह भी बताया कि जिबरॉल्टर में बड़ी संख्या में सिंधी भाषी रहते हैं।ये लोग आज के पाकिस्तान के सिंध इलाका से व्यापार करने के लिए गए थे तब भारत का विभाजन नहीं हुआ था। और आज भी वे वहीं बसे हैं।वहाँ हिंदू मंदिर भी है।

कई अच्छी जानकारी और ऐतिहासिक स्थान देखकर हम मलागा लौट आए।

आज स्पेन के विभिन्न शहरों  में भी बड़ी संख्या में सिंधी व्यापारी वर्ग रहता है।

सभी स्थानों पर भारतीयों का बोलबाला और सम्मान देखकर मन गदगद हो उठा।

हमारी यह यात्रा सुखद, जानकारी पूर्ण और आनंददायी रही। ढेर सारे अनुभवों के साथ हम अपने नाती के साथ स्वदेश लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆

सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆

पुस्तक- गहरे पानी पैठ

लेखिका – डॉ मुक्ता

प्रकाशक – SGSH Publications

समीक्षक – सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ समीक्षा – स्वस्थ समाज के निर्माण की आधारशिला “गहरे पानी पैठ” ☆

जीवन मेले की इस आपाधापी ,भागदौड़ और उपभोक्तावादी आत्मकेंद्रित जीवन शैली में साहित्य जगत् की सशक्त हस्ताक्षर ,शिक्षाविद्, माननीय राष्ट्रपति से पुरस्कृत , हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्वनिदेशक डॉ• मुक्ता द्वारा आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में “गहरे पानी पैठ” के रूप में 75 चिंतन व सुचिंतनपरक आलेखों का एक अनमोल वैचारिक संग्रह साहित्य जगत् और समाज को देना ऐसी महती उपलब्धि है, जो समाज की विचारधारा, मिज़ाज़, सोच, चिंतन शैली और घटते जीवन मूल्यों पर मात्र विचार ही नहीं व्यक्त करता, बल्कि हमें झिंझोड़कर “स्व” से बाहर निकल समाज के गर्त में झाँक कर जागने को बाध्य भी करता है। यह जीवन के अनुभवों का गहरा मंथन कर निकाले समाज हित के बहुमूल्य मोती हैं।

🌹 अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण 🌹

गहरे पानी पैठ लेखिका के जीवनानुभवों की गहराई, विश्लेषक क्षमता, जीवन-दर्शन, वैचारिकता और समाज के सभी घटकों की चिंता को दर्शाता वह संजीवन अमृत-तत्व है, जिसे समझकर, ग्रहण कर, आत्मसात् कर समाज की जीवन पद्धति सुधर सकती है। उक्त आलेख-संग्रह दो भागों में विभक्त है। आरंभ के 37 आलेख चिंतनपरक आलेख हैं और 38 से 75 तक सुचिंतनपरक आलेख हैं। लेखिका का जीवन फलक बहुआयामी रहा है। उनके विभिन्न क्षेत्रों के अनुभव, समाज में घटित घटनाएँ, समाचार पत्र की सुर्खियों में छपे पीड़ित, शोषित, प्रताड़ित क़िरदार, पात्र, उनके दु:ख, पीड़ा, व्यथा ने लेखिका को समाज से प्रश्न करने के लिए बाध्य किया और डॉ• मुक्ता ने धारदार कलम से समाज के घटते जीवन-मूल्यों, अनास्था, अविश्वास, स्वार्थ से रिसते- पिसते रिश्तों, युवा पीढ़ी की संस्कारहीनता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और समाधान के रूप में भारतीय संस्कृति को अपनाने का आग्रह किया है।

सुचिन्तनपरक आलेख समाज के हर वर्ग की विक्षिप्त मानसिकता, संकीर्ण सोच व स्वार्थपरता का निदान ही नहीं करते ; संत्रस्त अंधेरे में प्रकाश की किरण बन प्रेरणा देते हैं, सहारा देते हैं और समाज की गतिशीलता को विकास की ओर अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

“दिशाहीन समाज और घटते जीवन मूल्य” आलेख में लेखिका की कलम धन-संग्रह को एकमात्र लक्ष्य बना किसी के प्राण तक हर लेने में संकोच ना करने वाले समाज से अतीत में लौट चलने का आग्रह करते हुए कहती है, “आओ! लौट चलें अतीत की ओर, जब समाज में बहन-बेटी ही नहीं, हर महिला सुरक्षित थी। आधुनिक युग में युवा पीढ़ी के लिए सर्वाधिक कारग़र उपाय है–अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाना, अपनी संस्कृति से जुड़ाव और स्वीकार्यता भाव से मानव मात्र में यथोचित बहन, बेटी, माँ के प्रतिरूप का दर्शन करने की भावना।”

अक्सर तो नारी को संधि पत्र लिखने तक का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िंदगी भर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है और वह झोंक दी जाती है देह-व्यापार के धंधे में……नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िमी हैं.”…..ये पंक्तियाँ हैं डॉ• मुक्ता के चिंतनपरक आलेख “जिंदगी की शर्त-संधि पत्र से।”

नारी को मानसिक यंत्रणा देने वाले समाज पर कटाक्ष करने, सोचने पर विवश करने के साथ ही लेखिका “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों” आलेख के माध्यम से नारी को मर्यादित जीवन जीने का परामर्श देते हुए पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण, लिव-इन को मान्यता देने, विवाहेतर संबंधों की स्वीकार्यता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहती हैं, “विदेशी हमारे रीति रिवाज, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट आस्था-विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं, परंतु हम उन द्वारा परोसी गई “लिव-इन” और “ओल्ड होम” की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं । “

सभी आलेखों के शीर्षक भी जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। “ट्यूशन और तलाक़” आलेख में मायके के लोगों द्वारा मोहग्रस्त होकर ग़लत सीख देने को ट्यूशन नाम दिया है, जो उन्हें उच्छृंखलता की ओर अग्रसर कर तलाक़ की ओर ले जाती है। ‘बाल यौन-उत्पीड़न समस्या व समाधान’ और ‘मज़दूरी इनकी मज़बूरी’ में देश के भविष्य बच्चों की दयनीय स्थिति से हमें परिचित कराते हैं । लेखिका की विहंगम दृष्टि समाज में सिर उठाती हर नवीन जीवन-पद्धति पर है और यदि उसका कोई भी बिंदु लेखिका को जीवन में उज्ज्वल रंग भरता दिखाई देता है, तो वह अपनी संस्कृति से उसका तालमेल बिठाता पक्ष रख उसकी वकालत भी करती दिखाई देती हैं।

‘सेलोगैमी’ अथवा ‘सैल्फ मैरिज’ आलेख की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- “देखिए, ऊंट किस करवट बैठता है? यदि हम अतीत की ओर दृष्टिपात करें तो यह एक स्वस्थ परंपरा है । हमारे ऋषि-मुनि भी वर्षों तक अपनी संगति में अर्थात् एकांत में सहर्ष तप किया करते थे। उन्हें आत्मावलोकन का अवसर प्राप्त होता था, जो उन्हें मुक्ति की राह की ओर अग्रसर करता था।” सलोगैमी का ऋषि-मुनियों की एकांत अवस्था से साम्य स्थापित कर उसका विवेचन लेखिका की अद्भुत वैचारिक क्षमता को व्यक्त करता है। “चलते फिरते पुतले” रिश्तों में पनपते अजनबीपन के एहसास, संवादहीनता, संवेदनशून्यता और संयुक्त परिवार के टूटने की कसक को अभिव्यक्ति देता है। “कानून शिक्षा और संस्कार” आलेख में लेखिका अंधे कानून और संस्कारविहीन पुस्तकीय शिक्षा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए संस्कारों को सर्वाधिक महत्व देते हुए संस्कारहीन व्यवस्था को पंगु, मूल्यहीन व निष्फल बता युवा पीढ़ी को सुसंस्कारित करने पर बल देती है।

डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

लेखिका समाज की हर घटना, विसंगतियों व हादसों पर दृष्टि टिकाए है। “मातृहंता युवा” आलेख में अभिभावकों द्वारा की जाने वाली रोक-टोक पर युवा द्वारा माता-पिता की हत्या पर लेखिका का हृदय चीत्कार कर उठता है और वह समाज को झिंझोड़ कर, बच्चों को सुसंस्कृत कर दायित्व निर्वहन करने का आग्रह करती है। “यह कैसा राम राज्य” में सड़क पर लहूलुहान व्यक्ति को अनदेखा कर समाज में स्त्री को उपभोग की वस्तु बनती देख, कूड़े के ढेर पर बच्चों का झूठन खाने के लिए मारपीट व सड़क किनारे श्रम करती औरत की दयनीय दशा देख लेखिका का हृदय उद्वेलित हो उठता है।

“संवेदनहीन समाज” में लेखिका क्षणिक शारीरिक सुख भोग के लिए दुष्कर्म में प्रवृत्त युवा को अपना भविष्य अंधकार में झोंकने के मूल में उस पारिवारिक वातावरण को कारण मानती है, जहांँ बच्चों को एकांत की त्रासदी का दंश झेलना पड़ता है। वहांँ बच्चे टीवी और मोबाइल की वेबसाइटों को खंगाल जुर्म की दलदल में कदम रख अपना अनमोल जीवन नष्ट कर लेते हैं। “अपने-अपने खेमे” साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ती राजनीति, दूषित वातावरण और सम्मानों की खरीद-फरोख्त को उजागर करते हुए राष्ट्रीय सम्मान को इनसे अछूता देख संतोष भी व्यक्त करती है।

आज समाज का हर व्यक्ति चिंतन के स्थान पर चिंता में लीन है, जो केवल मनुष्य के जीवन को निराशा के गर्त में ले जाती है। अनेक उदाहरणों, काव्य सूक्तियों, कबीर की पंक्तियों से लेखिका ‘मोहे चिंता न होय’ आलेख में संदेश देते हुए कहती हैं,” चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस सृष्टि- नियंता पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हक़ में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।”

शब्दों को तोलकर व सोच-विचार कर बोलने की आवश्यकता पर बल देते हुए लेखिका “शब्द-शब्द साधना” आलेख में शब्द को ब्रह्म की संज्ञा देती है। परशुराम द्वारा क्रोध में आकर माता का वध करना, ऋषि गौतम का अहिल्या को शाप देना उदाहरणों से लेखिका सोचकर बोलने का महत्व दर्शाती है। सीधी, सरल, स्पष्ट और उदाहरण शैली आलेख को प्रभावशाली बना उसके महत्व को द्विगुणित करती है।

‘खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें’ अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दें ।…..जो मिला है, उसे प्रभु कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें और ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है, कभी आएगा नहीं। सो! उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें ….. यही ज़िंदगी है और यही है लम्हों की सौग़ात” यह पंक्तियां “ज़िंदगी लम्हों की किताब” आलेख से उद्धृत है, जो हमें चिंता, त्याग व संतोष का भाव भरने की प्रेरणा देती है।
इसी तरह के अनेक विचारात्मक और प्रेरणास्पद आलेख हैं, जो अपनी सरलता, स्पष्टता और उदाहरण शैली के कारण बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं।

संस्कृति और संस्कारों से जुड़े ये आलेख केवल मात्र उपदेश नहीं देते; मनोमस्तिष्क दोनों को अपनी कथन शैली से सोचने व चिंतन-मनन करने को बाध्य करते हैं। भाषायी गरिमा और गहराई इन आलेखों की विशेषता है। इनके शीर्षक यथा “अंतर्मन की शांति”, “अपेक्षा व उपेक्षा”, ‘ख़ामोशियों की ज़ुबाँ’ “अहम बनाम अहमियत”, “आईना झूठ नहीं बोलता” मानव में जिज्ञासा भाव ही उत्पन्न नहीं करते; पढ़ने की ललक से हृदय को आप्लावित कर देते हैं।

डॉ• मुक्ता के जीवन का सफ़र प्राध्यापिका व प्राचार्य के रूप में जिन अनुभवों को अर्जित करते हुए परिपक्व और उदात्त बना है और पाँच वर्ष तक अकादमी निदेशक के रूप में दायित्व-वहन करते हुए वे जिस दौर से गुज़री हैं; उसकी झलक हमें इन आलेखों में मिलती है। डॉ• मुक्ता युवा पीढ़ी के मन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर, उन्हें निराशा के गह्वर में गिर कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने से बचाने के अपने दायित्व-बोध से भलीभांति परिचित हैं और उन्हें तनाव, संत्रास, छटपटाहट, झूठे अहं, पाश्चात्य चकाचौंध से बचाने को आतुर दिखाई देती हैं, वही आकुलता, विकलता और कर्तव्यनिष्ठा इन आलेखों की पृष्ठभूमि का आधार भी है और केंद्र भी। मेरे मतानुसार प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय और सामाजिक संस्थानों के पुस्तकालय में अत्युत्तम आलेखों की इस संग्रह को अवश्य स्थान प्राप्त होना चाहिए, ताकि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही दिशा और दशा प्रदान कर सकें।

यह संकलन व्यापक सामाजिक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों की विविधता को अनेक स्तरों पर समेटे जिस पूरे परिदृश्य का एहसास कराता है, वह युवाओं में जीवन-मूल्यों के विकास और सामाजिक दायित्व -बोध को उत्पन्न करने का सूचक है। लेखिका ने परम्परा से हटकर एक नये मार्ग का अनुसरण करके सभी लेखों को एक नया आयाम देने का प्रयास किया है। सर्वथा नवीन प्रासंगिकता के साथ यह आलेख-संग्रह एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो विचारों की धरोहर होने के कारण संग्रहणीय भी है। कुल मिलाकर प्रतिपाद्य, भाषा, शैली, कथ्य और उद्देश्य –सभी दृष्टियों से ये निबन्ध श्लाघनीय व प्रशंसनीय हैं। इनकी प्रस्तुति सर्वथा अभिनंदनीय है।

ऐसी अनुपम स्तुत्य कृति के लिए मैं डॉ• मुक्ता को हृदय की गहराइयों से बधाई एवं अशेष शुभकामनाएंँ देती हूंँ। आप यथावत् स्वस्थ समाज को गढ़ने व निर्मित करने के लिए निरंतर साहित्य साधना-रत रहें। आपके “गहरे पानी पैठ” आलेख-संग्रह को जो भी पढ़ेगा, वह अपने बच्चों के जीवन में सही दिशा-निर्देशन व क्रांतिकारी परिवर्तन हेतू चिंतन- मनन अवश्य करेगा।

©  सुश्री शकुंतला मित्तल

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार, गुरुग्राम

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका  एक विचारणीय लघुकथा  ‘‘संपादक का घर।)

☆ लघुकथा – एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

गांव से शहर पढ़ने चले गये लड़के को जल्दी ही अपने गांव की याद सताने लगी। वर्ष बीतते न बीतते वह गांव की यादों से महरूम होने लगा। एक दिन गांव से शादी के मिले निमंत्रण पत्र ने उसका गांव जाने का रास्ता आसान कर दिया। वह खुशी-खुशी अपने गांव पहुंच गया।

गांव पहुंचते ही उसे उदासी ने घेर लिया। बचपन में ढेरों ढेर पक्षी आंगन नदी तालाब में उड़ान भरते थे। पूरा बचपन पक्षियों की सोहबत में बीता था।

उसे वे तीतर, बटेर, गौरैया, फडकुल-गल गल देखने नहीं मिल रहे थे। चकवी चकवा का वह जोड़ा जो शाम होते ही नदी के इस पार उस पार चले जाते थे। उसने अपने अभिन्न मित्र के साथ पूरी कोशिश की थी की उस जोड़े को पकड़ कर क्यों ना एक साथ रखा जाए पर सदियों से बना प्रकृति का वह नियम कैसे टूटता भला?

खेत खलिहान, नदी तालाब सब खाली पड़े थे। पक्षी राज्य का नामोनिशान तक नहीं था। ‌ मित्र बोला-खेतों में कीटनाशक दवा के छिड़काव ने और शहर से आकर शिकारियों ने चोरी छुपे पक्षी मारना शुरू कर दिया तो बेचारे पक्षी कहां रहते भला?

‘यह गांव तो मुरदा हो गया है।’ मुश्किल से बोल पाया मित्र।

‘किस बात का गांव जहां पक्षियों का बसेरा ना हो—उनका कलरव ना हो–उनकी आकाश छूती उड़ान ना हो–‘ मित्र भावुक हुआ जा रहा था।

दूसरे दिन वह उदास-उदास गांव से शहर लौट गया। ऐसे मुर्दा गांव में अब एक पल भी ठहरना उसे मुश्किल हो रहा था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 207 ☆ लघुकथा – मरते मरते… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा मरते मरते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 207 ☆  

? लघुकथा – मरते मरते ?

किसी गांव के एक मुखिया थे। गांव में हर किसी को किसी न किसी तरह उन्होंने बहुत परेशान कर रखा था। लोग उनसे बेहद दुखी थे। एक दफे मुखिया बहुत बीमार पड़ गए। उन्हे समझ आ गया कि- वे अब बच नहीं सकेंगे।

मुखिया को देखने जब गांव के लोग पहुंचे तो वे बोले मैंने जीवन भर आप सब को बेहद परेशान किया है, मैं आप से विनती करता हूं की मुझे आप सब मेरे हाथ पैर बांधकर खूब पिटाई कीजिए जिससे मैं मर जाऊं, और मेरी आत्मा से आप लोगों को दुख पहुंचाने का बोझ उतर सके। पहले तो लोग इस बात पर तैयार नहीं हुए किंतु मुखिया के बारंबार अनुनय विनय करने पर भोले भाले गांव वाले मुखिया को बांधकर मारने के लिए राजी हो गए। मुखिया को खटिया से बांधकर पीटा गया। मुखिया मर गए। थानेदार तक घटना की खबर पहुंची। अब सारा गांव थाने में पकड़ लाया गया, सब मुखिया को मारने की सजा भोग रहे हैं । मरते मरते भी सारे गांव को परेशान करने में मुखिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

इस कहानी का किसी की कहानी से कोई रिश्ता नहीं है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 30 – देश-परदेश – ट्विन टावर (नोएडा) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 30 ☆ देश-परदेश – ट्विन टावर (नोएडा) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पूरी दुनिया में रविवार को फुरसतवार भी कहा जाता हैं। अट्ठाईस तारीख, हम बैंक पेंशनर के लिए भी भी बड़ा महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि हर सत्ताईस तारीख़ को पेंशन की राशि खातों में जमा होती है, इसलिए अगला दिन बाजार से आने वाले माह के लिए सामान खरीदने से लेकर सुविधाओं के बिलों का भुगतान और ना जाने कितने काम रहते है, पेंशन मिलने के बाद।

जेब (खाते) में आई हुई राशि को सुनियोजित ढंग से खर्चे को बिना चर्चा किए हुए अपनी महीने भर का गुज़ारा “आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया” से पूरा करना ही हमारे जैसे सेवानिवृत्त लोगों का जीवन रह गया हैं।   

यहां पूरे देश में कुछ अलग ही माहौल है, चर्चा तो सिर्फ ट्विन टॉवर की हो रही हैं। हमारा मीडिया कुछ दिन पूर्व से ही घटना स्थल पर डेरा डाल कर बैठा हुआ था।

प्रशासन, पुलिस, अग्निशमन, पॉल्यूशन विभाग, सड़क यातायात से लेकर वायु मार्ग पता नहीं कितने और विशेषज्ञ प्रकार के प्राणी इस कार्य को अंजाम करने में लगे होंगे।

दस किलोमीटर दायरे तक में रहने वाले निवासी दहशत में हैं। सी सी टी वी लोगों ने अपने घरों में लगाकर दूर से इस घटना को कैद किया। नजदीक के सुरक्षित एरिया में दृश्य का नज़ारा बड़ी बड़ी दूरबीन से देखा गया। खान पान में स्थानीय लोगों ने “गुड” का सेवन कर लिया था, ताकि वातावरण की धूल का उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर ना पड़े। आसपास की दवा की दुकानों ने एलर्जी से बचाव की दवाइयां मंगवा कर स्टॉक कर ली थी, ताकि वहां रहने वालों को अपातकाल में कोई कठिनाई ना हो।

दिल्ली और लखनऊ के कुछ बड़े टुअर ऑपरेटर ने इसको प्रोत्साहित करने के लिए पूरी बस जिसमें चारों तरफ कांच लगा हुआ है के द्वारा ट्रिप के माध्यम से इस नज़ारे को नजदीक से दिखाने के झूठे प्रचार भी कर रहे हैं।

टावर गिराने की कार्यवाही होते ही, “मीडिया दूत” और कैमरा चालक धूल और गुब्बार की परवाह किए बिना मलबे के बिलकुल पास तक घुस गए। वैसे इनको “मीडिया घुसक” की संज्ञा भी दी जाती है। ब्लास्ट का बटन किसने दबाया, उनके मन में उस समय क्या चल रहा था, पता नहीं कितनी बातें उगलवाने में इनका तजुर्बा रहता है।

ऐसा बताया जा रहा है, वहां आस पास मेले जैसा माहौल था, तो खाने पीने के स्टाल भी अवश्य लगे होंगें, बच्चों ने झूले झूल कर गिरते हुए टावर का मज़ा लिया होगा।

क्रिकेट खेल प्रेमियों का कहना है, एशिया कप में, भारत की जीत होनी निश्चित थी, इसलिए  ये तो अग्रिम जश्न के टशन थे। वैसे पड़ोसी देश पाकिस्तान में आज पुराने टीवी सेट की बड़ी मांग थी, इसी के मद्देनज़र दिल्ली के बड़े कबाड़ियों ने यहां से पुराने टीवी सेट वहां भेज कर चांदी काट ली थी।

नोएडा निवासी मित्र को फोन कर वहां का  हाल चाल पूछा था। बातचीत में उसने बताया की उसके बेटे की दिसंबर में शादी है, शादी का स्थान पूछने पर उसने बताया था कि जहां ट्विन टॉवर है, उसके धराशायी होने के बाद उसी खाली प्लॉट में ही शामियाना लगा कर वहीं करेगा। इतनी दूरदृष्टि हम भारतीयों में ही होती है। पुरानी कहावत है “शहर बसा नहीं और चोर पहले आ गए”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 22 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 22 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।  होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

अर्थ:- हनुमान चालीसा के पाठ करने वालों को निश्चित रूप से सिद्धि मिलती है। भगवान शिव इसके गवाह हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे प्रभु के भक्त हैं। अतः प्रभु उनके हृदय में निवास करें।

भावार्थ:- तुलसीदास जी भगवान शिव को साक्षी बनाकर कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको निश्चित रूप से सिद्धियां प्राप्त होगी। तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा की रचना भगवान शिव की प्रेरणा से की है। अतः वे उन्ही को साक्षी बता रहे हैं।

अंतिम मांग के रूप में तुलसीदास जी कह रहे हैं की वे हरि के भक्त। हरि शब्द का संबोधन भगवान विष्णु और उनके अवतारों के लिए किया जाता है। अतः यहां पर यह श्रीराम के लिए लिया गया है। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी पर दबाव डालकर मांग कर रहे हैं की वे हमेशा तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

संदेश:- सुख-शांति प्राप्त करने के लिए भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।

चौपाई को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।  होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शिव पार्वती की कृपा होती है

तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

इस चौपाई का पाठ निरंतर करने से प्रभु श्री राम और हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है।

विवेचना:- जब कोई ग्रंथ आपके सामने आता है तो उसको पढ़ने के लिए आपके अंदर एक धनात्मक प्रोत्साहन होना चाहिए। यह प्रोत्साहन ग्रंथ के अंदर जो विषय है उस विषय के प्रति आपकी रूचि हो सकती है जैसे जंगल के ज्ञान की पुस्तकें। यह भी हो सकता है उसके ग्रंथ में कुछ ऐसा ज्ञान दिया हो जिससे आपको भौतिक लाभ हो सकता हो, जैसे ही योग की पुस्तकें। हो सकता है कि वह ग्रंथ आपको धन कमाने के रास्ते बताएं जैसे इकोनामिक टाइम्स आदि। अगर ग्रंथ में कोई ऐसी बात नहीं होगी जो आपको उस ग्रंथ को पढ़ने के लिए प्रेरित करें तो आप उस ग्रंथ को नहीं पढ़ेंगे।

पहली चौपाई “जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा।।” में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी प्रोत्साहन को देने की कोशिश की है। जिससे आप हनुमान चालीसा को पढ़ें और उसका पाठ कर लाभ प्राप्त कर सकें। इसके पहले की चौपाई में मैंने हनुमान चालीसा से डॉ तलवार को प्राप्त होने वाले लाभ के बारे में बताया था। अगर मैं किसी और लाभ के बारे में बताता तो संभवत हमारे बुद्धिमान लोगों को आलोचना करने का मौका मिल जाता। इसलिए मैंने एक ऐसे प्रकरण का उल्लेख किया है जो सब को ज्ञात है तथा दैनिक जागरण जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने प्रकाशित किया था। जेल के अधिकारियों ने दैनिक जागरण को बताया था डॉ तलवार स्वयं प्रतिदिन जब भी उनको समय मिलता था वे हनुमान चालीसा का पाठ करते थे। इसके अलावा जेल के अन्य लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। जब डा तलवार हाईकोर्ट से बरी हुए तब उन्होंने सबको बताया की यह हनुमान जी की कृपा से संभव हुआ है। प्रकरण कुछ यूं है :-

26 नवम्बर 2013 को विशेष सीबीआई अदालत ने आरुषि-हेमराज के दोहरे हत्याकाण्ड में राजेश एवं नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत उम्रक़ैद की सजा सुनाई। दोनों को धारा 201 के अन्तर्गत 5-5 साल और धारा 203 के अन्तर्गत केवल राजेश तलवार को एक साल की सजा सुनायी। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों पर जुर्माना भी लगाया। सारी सजायें एक साथ चलेंगी और उम्रक़ैद के लिये दोनों को ता उम्र जेल में रहना होगा। इस आदेश के विरोध में दोनों लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। 12 अक्टूबर 2017 को इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा आरुषि के माता-पिता को निर्दोष करार दे दिया गया और वे जेल से रिहा हो गये।

हनुमान चालीसा की और हनुमान जी की कृपा की का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण छतरपुर जिले के बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री और भिंड जिला के रावतपुरा सरकार सिद्ध क्षेत्र के श्री रविशंकर जी महाराज का प्रकरण है। दोनों के ऊपर उनके इष्ट की महान कृपा कभी भी देखी जा सकती है। इनके अलावा ईशान महेश जी जो कि एक लेखक है उन्होंने वृंदावन के श्री चिरंजीलाल चौधरी जी का नाम बताया है जिनके ऊपर भी पवन पुत्र की कृपा है। चौथा उदाहरण श्री एम डी दुबे साहब का है जो संजीवनी नगर जबलपुर में निवास करते हैं।

इस प्रकार हम ने चार उदाहरण बताएं हैं। ये सभी वर्तमान समय में जीवित हैं और जिनके ऊपर हनुमत कृपा है। मैंने वर्तमान के उदाहरण ही लिए हैं। इसका कारण यह है अगर कोई परीक्षण करना चाहे तो कर सकता है।

इस चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको सिद्धि प्राप्त हो जाएगी। यहां प्रमुख बात यह है की पाठ करने का अर्थ पढ़ना नहीं है। पाठ करने की अर्थ को हम पहले की चौपाइयों की विवेचना में विस्तृत रूप से बता चुके हैं। संक्षेप में मन क्रम वचन से एकाग्र होकर बार-बार बार-बार पढ़ने को पाठ करना कहते हैं। तुलसीदास जी ने इसी चौपाई में कहा है कि इसके साक्षी गौरीसा अर्थात गौरी के ईश भगवान शिव स्वयं हैं।

हम सभी जानते हैं कि तुलसीदास जी को गोस्वामी तुलसीदास भी कहा जाता है। गोस्वामी का अपभ्रंश गोसाई है। गोसाई समुदाय के गुरु भगवान शिव होते हैं। तुलसीदास जी ने इस पुस्तक को अपने गुरु को समक्ष मानते हुए लिखा है। अतः उन्होंने कहा है कि इस पुस्तक में लिखी गई हर बात के साक्षी उनके गुरु हैं। गोसाई के गुरु भगवान शिव होते हैं अतः भगवान शिव साक्षी हुए। हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है।

इस चौपाई से गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहना चाहते हैं श्री हनुमान जी का जो हनुमान चालीसा में चरित्र चित्रण किया गया है उसका बार-बार पाठ करना चाहिए। एकाग्रता से पाठ करने पर आपकी वाणी पवित्र होगी। इसके अलावा आपके जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा। जीवन का दृष्टिकोण बदलने से आपको सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी। जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी आप में संस्कार आएगा। हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से हम मुक्त हो सकते हैं।

हनुमान चालीसा पढ़ने से आप सिद्ध हो जाएंगे इसकी गारंटी स्वयं भगवान शिव दे रहे हैं। आइए हम इस पर विचार करते हैं कि सिद्ध होना क्या है।

यह एक संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सिद्धि का शाब्दिक अर्थ है महान शारीरिक मानसिक या आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करने से है। जैन दर्शन में सिद्ध शब्द का प्रयोग उन आत्माओं के लिए किया जाता है जो संसार चक्र से मुक्त हो गयीं हों।

ज्योतीरीश्वर ठाकुर जो बिहार के एक विद्वान हुए हैं उनके द्वारा सन १५०६ में मैथिली में रचित वर्णरत्नाकर में ८४ सिद्धों के नामों का उल्लेख है। इसकी विशेष बात यह है कि इस सूची में सर्वाधिक पूज्य नाथों और बौद्ध सिद्धाचार्यों के नाम सम्मिलित किए गये हैं।

अतः इस चौपाई का आशय है कि आप मन क्रम वचन की एकाग्रता के साथ हनुमान चालीसा का पाठ करें। बार बार पाठ करें। आपको सिद्धि मिलेगी। इस बात की गवाही भगवान शिव भी स्वयं देते हैं।

हनुमान चालीसा की चौपाई श्रेणी की अंतिम पंक्ति है “तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।” इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने पुनः हनुमान जी से मांग की है। इस चौपाई के पहले खंड में तुलसीदास जी ने अपना परिचय दिया है उन्होंने बताया है कि मैं हमेशा हरि याने श्री राम चंद्र जी का सेवक हूं। अब यहां पर तीन बातें प्रमुखता से आती हैं। पहली बात है कि इस चौपाई में तुलसीदास जी ने अपना नाम क्यों दिया ? दूसरी बात उन्हों ने अपने आपको हरि का दास क्यों बताया ? तीसरी बात है की उन्होंने अपने आपको श्री हनुमान जी का दास क्यों नहीं बताया ? ये प्रश्न संभवत आपके दिमाग में भी आ रहे होंगे। आपने इनका उत्तर भी सोचा होगा। हो सकता है मेरा और आपका जवाब आपस में ना मिले। आपसे अनुरोध है कि आप मेरे ईमेल पर अपने विचार अवश्य भेजें। मेरे ईमेल का पता है :- [email protected]

बहुत पहले पुस्तके ताड़ पत्र पर लिखी जाती थी। लिखने में समय बहुत लगता था तथा ज्यादा प्रतियां लिखी नहीं जा पाती थी। अतः उस समय मौखिक साहित्य ज्यादा रहता था। इसे मौखिक परंपरा का काव्य कहते थे। साहित्य जब लिखित रूप में होता हैं तो उस पर लेखक या कवि का नाम भी होता है। मौखिक परंपरा में कवि का नाम बताना भी आवश्यक था। इस आवश्यकता की पूर्ति कवि कविता के अंत में अपने नाम को लिखकर, कर देता था। इसे कवि का हस्ताक्षर भी कहते हैं। संभवत तुलसीदास जी ने इसी कारणवश हनुमान चालीसा के अंत में अपने हस्ताक्षर किए हैं। मगर यहां पर एक दूसरा कारण और भी है। तुलसीदास जी ने इस पंक्ति के माध्यम से अपना मांग पत्र भी प्रस्तुत किया है।

हमारा दूसरा प्रश्न है तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री रामचंद्र जी का दास क्यों कहा है।

 भक्तों के कई प्रकार होते हैं। कुछ लोग अपने आपको अपने इष्ट का दास कहते हैं। जैसे तुलसीदास जी हनुमान जी आदि।

 कुछ लोग अपने को अपने इष्ट का मित्र बताते हैं। इसे सांख्य भाव भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको अपने इष्ट का मित्र बताते हैं और मित्रवत व्यवहार करने की मांग भी करते हैं। जैसे की गोपियां भगवान कृष्ण को अपना मित्र मानती थी।

 कुछ लोग अपने इष्ट को अपना पति मानते हैं। जैसे श्री राधा जी भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं।

 यह सभी सगुण भक्ति की धाराएं हैं। कोई भी भक्त एक या एक से अधिक प्रकार से ईश्वर से प्रेम कर सकता है। मीराबाई भगवान कृष्ण की भक्त थीं। वे कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और रक्षक मानती थीं। वे स्वयं को भगवान कृष्ण की दासी बताते हुए कहती हैं-.

 “दासी मीरा लाल गिरधर,  हरो म्हारी पीर.”

गीता में भगवान श्रीकृष्ण चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं:-

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। (७। १६)

 (श्रीमद्भगवत गीता/अध्याय 7/श्लोक 16)

अर्थात, हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है। इन भक्तों का विवरण निम्नानुसार है।

1-आर्त :- आर्त भक्त वह है जो कष्ट आ जाने पर या अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है। हर युग में इस तरह के भक्तों की अधिकता रही है।

2-अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

3-जिज्ञासु :- जिज्ञासु भक्त संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।

4-ज्ञानी :- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।

अब प्रश्न उठ रहा है की सर्वश्रेष्ठ भक्त कौन है? इसका उत्तर भगवान ने स्वयं गीता ने दिया है:-

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।

श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जो परम ज्ञानी है और शुद्ध भक्ति भाव से ईश्वर की भक्ति में लगा रहता है, वहीं सर्वश्रेष्ठ भक्त है। इसलिए क्योंकि उस भक्तों के लिए मैं प्रिय हूं और मेरे लिए वह भक्त प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।

भक्तों के तरह से भक्ति भी कई प्रकार की होती है। भक्ति का वर्गीकरण भी कई प्रकार से किया गया है। भक्तों के वर्गीकरण का एक तरीका नवधा भक्ति भी है। कहां गया है :-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवण : ईश्वर की लीलाओं को सुनना, ध्यान पूर्वक सुनना और निरंतर सुनना।

कीर्तन : ईश्वर के गुण, और लीलाओं को ध्यान मग्न होकर निरंतर गाना।

स्मरण : निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना,

अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

पाद सेवन : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन : भगवान की मूर्ति को, भगवान के भक्तजनों को, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से सेवा करना।

दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

साख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं की तुलसीदास जी के भक्ति दास भक्ति का एक उदाहरण है। तुलसीदास जी भगवान कृष्ण की गीता में दिए गए उपदेश के अनुसार ज्ञान भक्तों के भी उदाहरण हैं। इसके अलावा नवधा भक्ति में आत्म निवेदन की अवस्था में है जो की भक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है। इन्हीं सब कारणों से तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री राम का दास कहा है।

अगला प्रश्न है कि हनुमान चालीसा हनुमान जी के ऊपर केंद्रित है। फिर इस ग्रंथ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने आपको श्री राम का दास क्यों कहा है ? हनुमान जी का दास क्यों नहीं का कहा। ?

बाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के अवतारी पुरुष होने की चर्चा है। इस ग्रंथ में महावीर हनुमान जी के पराक्रम की भी चर्चा है। लेकिन श्री हनुमान जी के ईश्वरी सत्ता के बारे में रामायण में अत्यंत अल्प लिखा गया है। वाल्मीकि के हनुमान बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, चतुर सुजान हैं, लेकिन वो भगवान नहीं हैं।

तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी के इस अधूरे कार्य को भी पूरा कर दिया हैं। गोस्वामी तुलसी जी के श्री हनुमान जी एकादश रुद्र हैं। तुलसी के हनुमान जी एक महान ईश्वरीय सत्ता हैं जिनका जन्म राम काज के लिए हुआ है। रामचरितमानस में इस बात को कई जगह लिखा गया है। एक उदाहरण यह भी है :-

“राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयउ परबतकारा”

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में तो हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता का वर्णन किया ही है, साथ में उन्होंने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बाहुक आदि की रचना कर हनुमान जी की अलौकिक सत्ता को स्थापित किया है।

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र पर जाना पड़ेगा।

तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी थी। केवल अपने लिए लिखी थी। उस समय हनुमान चालीसा जन-जन के पास नहीं पहुंच पाई होगी। बाद में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखा। रामचरितमानस का विरोध काशी के ब्राह्मणों ने किया। इस विरोध के कारण रामचरितमानस को प्रसिद्धि मिली। कहा जाता है की भगवान विश्वनाथ जी ने भी रामचरितमानस की पवित्रता के ऊपर अपनी मुहर लगाई। रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी पूरी तरह से राममय में हो गए थे। इसके बाद उन्होंने अपने पुराने सबसे पुराने ग्रंथ हनुमान चालीसा को फिर से लिखा। हो सकता है कि पुनर्लेखन में इस लाइन को बदला हो। इस लाइन को बदलना भी उचित था क्योंकि श्रीराम तो सबके प्रभु है। हनुमान जी के भी प्रभु हैं। तुलसीदास जी के भी प्रभु हैं। परंतु हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के प्रभु नहीं हैं। वे उनके भाई हैं सखा हैं और सेवक हैं।

आइए थोड़ी सी चर्चा तुलसीदास जी के राम भक्त बनने के कारणों के ऊपर करते हैं।

इसी पुस्तक में पहले मैं आपको बता चुका हूं कि तुलसीदास जी का बाल्यकाल कितनी परेशानियों से गुजरा। गुरु नरहरीदास जी उनको भगवान शिव की आज्ञा अनुसार अपने गुरुकुल में ले गए थे।

गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण कर गोस्वामी तुलसीदास जी अपने गांव आ गए। वे आसपास के गांव में राम कथा कहने लगे। अब वे काम करने लगे थे तो  उनका विवाह पास के गांव के रत्नावली जी से हो गया। तुलसी दास अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करते थे। एक बार जब रत्नावली अपने मायके में थी तब तुलसी उनके वियोग में इस कदर व्याकुल हुए कि रात के समय भयंकर बाढ़ में यमुना में बहे जा रहे एक शव को पेड़ का तना समझकर उसी के सहारे अपनी ससुराल पंहुच गए।

ससुराल में सभी सो रहे थे। तुलसीदास जी एक रस्सी को पकड़कर अपनी पत्नी के कमरे में पहुंच गए। उनकी पत्नी का कमरा ऊपर की मंजिल पर था। सुबह मालूम चला कि जिसको वे रस्सी पकड़े थे वह वास्तव में सांप था। रत्नावली जी को यह बात अच्छी नहीं लगी। रत्नावली को लगा जब दूसरे लोगों को पता चलेगा सभी मिलकर मेरी कितनी हंसी उड़ाएंगे। उन्होंने तुलसी को झिड़कते हुए डांट लगाई और कहा :-

अस्थि चर्म मय देह मम तामे ऐसी प्रीत,

ऐसी जो श्री राम मह होत न तव भव भीति।।

रत्ना जी की इन शब्दों में तुलसीदास जी को तरह जागृत कर दिया। यह जागृति उसी प्रकार की थी जैसा कि जामवंत जी ने समुद्र पार जाने के लिए हनुमान जी को जागृत किया था। अब तुलसीदास जी को सिर्फ रामचंद्र जी ही दिख रहे थे।

इस प्रकार तुलसी दास जी को भगवान राम की भक्ति की प्रेरणा अपनी पत्नी रत्नावली से प्राप्त हुई थी।

अपने ससुराल से निराश हो तुलसी एक बार फिर राजापुर लौट आए। राजापुर में तुलसी जब शौच को जाते तो लौटते समय लोटे में बचा पानी रास्ते में पड़ने वाले एक बबूल के पेड़ में डाल देते। इस पेड़ में एक आत्मा रहती थी। आत्मा को जब रोज पानी मिलने लगा तो आत्मा तृप्ति होकर तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गई। वह आत्मा तुलसीदास जी के सामने प्रकट हुई। उसने पूछा कि आपकी मनोकामना क्या है ? आप क्यों मुझे रोज पानी दे रहे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास जी ने राम जी के दर्शन की अभिलाषा प्रगट की।

यह सुनने के बाद उसने कहा कि श्री रामचंद्र जी के दर्शन के पहले आपको हनुमान जी के दर्शन करने होंगे। हनुमान जी आपका दर्शन आसानी से श्रीराम से करा सकते हैं। उन दिनों राजापुर में तुलसीदास जी की कथा चल रही थी। आत्मा ने स्पष्ट किया कि कथा में जो सबसे पहले आए और सबसे बाद में जाए, सबसे पीछे बैठे और उसके शरीर में कोढ़ हो तो वही श्री हनुमान जी होंगे। आप उनके पैर पकड़ लीजिएगा। गोस्वामी जी ने यही किया और कोढ़ी जी के पैर पकड़ लिए। बार-बार मना करने पर भी उन्होंने पैर नहीं छोड़ा। अंत में हनुमान जी प्रकट हुए।

श्री हनुमान जी ने तुलसीदास जी से कहा कि आप चित्रकूट जाकर वही निवास करें। चित्रकूट के घाट पर अपने इष्ट के दर्शन की प्रतीक्षा करें। तुलसीदास जी ने अपना अगला ठिकाना चित्रकूट बनाया। तुलसी चित्रकूट में मन्दाकिनी तट में बैठ प्रवचन करते हुए राम के इन्तजार में समय बिताने लगे। परंतु उनको श्री राम जी के दर्शन नहीं हुए। उन्होंने फिर से हनुमान जी को याद किया। हनुमान जी ने प्रकट होकर कहा श्री राम जी आए थे। आपने उनको तिलक भी लगाया था। परंतु संभवत आप उनको पहचान नहीं पाए।

तुलसीदास जी पछताने लगे कि वह अपने प्रभु को पहचान नहीं पाए। तुलसीदास जी को दुःखी देखकर हनुमान जी ने सांत्वना दिया कि कल सुबह आपको फिर राम लक्ष्मण के दर्शन होंगे।

प्रातः काल स्नान ध्यान करने के बाद तुलसी दास जी जब घाट पर लोगों को चंदन लगा रहे थे तभी बालक के रूप में भगवान राम इनके पास आए और कहने लगे कि “बाबा हमें चंदन लगा दो”।

हनुमान जी को लगा कि तुलसीदास जी इस बार भी भूल न कर बैठें इसलिए तोते का रूप धारण कर गाने लगे:-

 ‘चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥’

 तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी को देखने के बाद अपनी सुध बुध खो बैठे। फिर रामचंद्र ने स्वयं ही तुलसीदास जी का हाथ पकड़कर अपने माथे पर चंदन लगाया। इसके बाद उन्होंने तुलसीदास जी के माथे पर तिलक किया। इसके बाद श्री रामचंद्र अंतर्ध्यान हो गए।

 इस घटना के उपरांत तुलसीदास जी ने अन्य ग्रंथ जैसे कवितावली दोहावली विनय पत्रिका और श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों की रचना की। श्रीरामचरितमानस मैं उन्होंने श्री रामचंद्र जी के विभिन्न गुणों का बखान किया है जैसे कि तुलसी के राम पापी से पापी व्यक्ति को अपना लेते हैं। उनकी शरण में कोई भी आ सकता है :–

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएं सरन प्रभु राखिहें तव अपराध बिसारि।।

हिंदुओं में शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच की एकता के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि:-

 शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा।।

अर्थात : “जो भगवान शिव के द्रोही हैं वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ”

श्रीराम जी पुनः कहते है –

शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।

तेहि नर करें कलप भरि, घोर नरक में वास।।

अर्थात : “जो शंकर के प्रिय हैं और मेरे द्रोही हैं या फिर जो शिव जी के द्रोही है और मेरे दास हैं वो नर हमेशा नरक में वास करते हैं।

उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट होता है कि तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी के अनन्य भक्त थे।

आइए अब हम इस चौपाई के अंतिम शब्दों की चर्चा करते हैं। इस चौपाई में के अंत में लिखा है “कीजै नाथ हृदय महं डेरा”। इस पद का अर्थ बिल्कुल साफ है। तुलसीदास जी ने चौपाई क्रमांक 1 से 39 तक हनुमान जी की विभिन्न गुणों बखान किया है। अब तुलसीदास जी अपने इस किए गए कार्य का प्रतिफल की प्रार्थना कर रहे हैं। यह प्रार्थना उनके द्वारा लिखी गई इस चौपाई के अंत में है। यहां पर उन्होंने डेरा शब्द का उपयोग किया है। डेरा सामान्यतया उस स्थान को कहते हैं जहां पर सेना ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के बीच में अस्थाई रूप से रुकती हैं और पडाव डालती। तुलसीदास जी ने यहां पर सेना के अस्थाई रूप से रुकने वाले स्थान का जिक्र किया है। यह संभवत उस समय की परिस्थितियों के कारण है। उस समय मुसलमान आक्रन्ता हिंदुओं के गांव पर हमला करते थे और उनको परेशान करते हैं। इस परेशानी को हल करने का एक ही जरिया गोस्वामी तुलसीदास जी के दिमाग में आया। उनका कहना है हनुमान जी आकर उनके हृदय में अपना डेरा जमा ले तो कोई मुसलमान आक्रन्ता उन को तंग नहीं कर पाएगा। हो सकता है ऐसा उन्होंने अकबर द्वारा तंग किए जाने के कारण कहां हो। तुलसीदास जी अकबर से डरकर उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की हनुमान जी आप मेरे दिल में आकर के रहो जिससे मैं अकबर का विरोध कर सकूं। हुआ भी वही। कहते हैं कि श्री तुलसीदास जी जब तक अकबर के यहां जेल में रहे तब बंदरों की फौज ने आकर आगरा में डेरा डाल दिया। इस फौज ने अकबर और उसके दरबारियों को बेरहमी के साथ परेशान किया। इसी परेशानी के कारण अकबर को तुलसीदास जी को छोड़ना पड़ा। इस प्रकार हनुमान जी ने डेरा डाल कर के हमारे तुलसीदास जी को बचाया। इस प्रकार तुलसीदास जी की प्रार्थना सफल हुई।

 इस प्रकार अंतिम 40वीं चौपाई में तुलसीदास जी चाहते हैं की वे हनुमान जी जिन्होंने सदैव तुलसीदास जी की मदद की है, जिन के कारण श्री तुलसीदास जी को श्री रामचंद्र जी के दर्शन हुए, जिन के कारण श्री रामचंद्र जी ने वरदान स्वरूप तुलसीदास जी को तिलक किया वे हनुमान जी श्री तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

 जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #184 ☆ भूमिका … ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 184 ?

☆ भूमिका…  ☆

सर्व निजानिज झाल्यानंतर निजते बाई

सूर्य उगवण्या आधी रोजच उठते बाई

 

चारित्र्याला स्वच्छ ठेवण्या झटते कायम

कपड्यांसोबत आयुष्याला पिळते बाई

 

चूल तव्यासह भातुकलीचा खेळ मांडते

भाकर नंतर त्याच्याआधी जळते बाई

 

ज्या कामाला किंमत नाही का ते करते ?

जो तो म्हणतो रिकामीच तर असते बाई

 

सासू झाली टोक सुईचे नवरा सरपण

रक्त, जाळ अन् छळवादाने पिचते बाई

 

तिलाच कळते कसे करावे गोड कारले

कारल्यातला कडूपणाही गिळते बाई

 

पत्नी मुलगी बहीण माता सून भावजय

एकावेळी किती भूमिका करते बाई

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वागत… ☆ सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? कवितेचा उत्सव ?

स्वागत ☆ सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

चैत्रपालवी, नवी पोपटी,

कुहू§ कोकिळा,घुमते रानी,

पांगाऱ्याची, शाल केशरी,

पिंपळपाने, मऊ गुलाबी.

 

 चाफा अनोखा, सुगंध उधळी,

 मोगऱ्याची, कळी खुललेली,

 मोहर आंब्याचा, मनमोही,

 लेकुरवाळा, फणस खुणावी.

 

  पांढरी फुले, करवंदाची,

  घोस हिरवे, जांभूळवृक्षी,

  काटेसावर, गर्द गुलाबी,

  बहाव्याचे, झुंबर सोनेरी.

 

 अनंत-कुंदा, मधुमालती,

 मुकुट फुलांचे, शिरी मिरविती.

 पारिजात अन् रातराणी ही,

 धुंद आसमंता या करिती.

 

 गुलबाक्षी, रंगीत कोरांटी,

 गुलमोहोर, गालिचा पसरी.

 शेवंती अन् सदाफुलीही,

 वसंतऋतूचे स्वागत करिती.

 

 कडूनिंबाची, छोटी डहाळी,

 वस्त्र रेशमी, गाठी केशरी,

 कलश झळकता, वेतावरती,

 चला उभारू, गुढी सौख्याची.

 

© सुश्री प्रणिता खंडकर

सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ छावणी… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

सौ.वनिता संभाजी जांगळे

 

🌸 विविधा 🌸

☆ छावणी… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆

दिवे लागणीची वेळ होती. मी गॅलरीत उभे राहून समोर अथांग पसरलेली वनराई पहात होते. बर्‍यापैकी अंधारून आले होते. पानगळ झालेल्या झाडांतून पलिकडे कैगा धरणावरील (कर्नाटक) दिवे लुकलुकताना दिसत होते. डोंगराआडून चंद्राची स्वारी डोकवत येत होती. आकाशात एक एक चांदणी उगवत आपली हजेरी लावत होती.  दोन दिवसातच पौर्णिमा असल्यामुळे चंद्राची,  टपोऱ्या चांदण्यांची रूपेरी चादर हिरव्या झाडांवर पसरली होती.

दिवसभराची किलबिल घरट्यात विसावून शांत झाली होती. नाहीतरी विविध पक्षांचे वेगवेगळे आवाज ऐकून कान तृप्त होतातच. आपल्या गावापासून, माणसांपासून दूर असल्यामुळे मनात निर्माण झालेली हुरहूर, त्यांच्या दूर असण्यामुळे मनाला  जाणवणारी उणीवेची भावना पक्षी, प्राणी, घनदाट पसरलेली ही हिरवीगार वनराई यांच्यामुळे  काहीशी कमी होते  हे ही तितकेच खरे .

कैगा धरणापासून दोन कि.मी. अंतरावर आमची छावणी होती. एका डोंगराच्या पायथ्याला वसलेली. समोर दूरवर पसरलेला निसर्ग म्हणजे ‘देवाने सढळ हाताने रेखाटलेली अतिसुंदर चित्रकृतीच. उंच उंच डोंगर, दऱ्या-खोऱ्यातून पसरलेली हिरवाई पाहून मन सुखावते, तृप्त होऊन जाते.

आजही मी अशीच टपोऱ्या चांदण्यात उजळलेला निसर्ग पहात  उभी होते. गॅलरीतून पहाता पहाता समोरून अनशी घाटातून उतरत असलेल्या वाहनांच्या दिव्यांचे प्रकाश झोत  दिसले  आणि गावाकडे जाणारा रस्ता डोळ्यांसमोर उभा राहिला.  एकदम मन उदास झाले. या घाटातूनच आम्ही आमच्या गावाकडे ये जा करत असतो..

आमचे छावणीतले जीवन आणि गाव यात किती फरक असतो नाही, या विचाराने मन हेलावून गेले. माझे पती पंधरा दिवसांसाठी आऊट ड्युटीवर गेले होते.  मी आणि माझी मुलगी,  आम्ही दोघीच होतो. मनात आले आपल्या गावापासून दूरवर प्रत्येक जवान असे कितीतरी डोंगर ओलांडून जात, येत असतो.  देशासाठी प्रवास करत असतो. छावणीत आपला परिवार आणतो, आपला संसार थाटतो. कधी येणाऱ्या प्रत्येक अडचणींवर, परिस्थितीवर मात करत परिवार सांभाळतो.  कधी तर अशी परिस्थिती येते की ,  नोकरी एकीकडे असते तर  परिवार दुसरीकडे असतो. पण तो येणाऱ्या प्रत्येक संकटास धैर्याने तोंड देतोच. ना कधी देशसेवेत कमी पडतो ना कुंटुबाच्या कर्तव्यात कमी पडतो..  प्रत्येक  जवान देश आणि आपला परिवार अशी दोन्ही कर्तव्ये अगदी व्यवस्थित पार पाडत असतो..

कधी आउट ड्युटीवर परिवार सोडून बाहेर जावे लागले तर जवानाच्या अर्धांगिनीला आपल्या मुलांसाठी हिरकणी व्हावेच लागते.

छावणी हा मात्र जवानाचा विसावा असतो. देशाच्या विविध राज्यांतून, कित्येक गावातून येणारे जवान आणि त्यांचे  परिवार मिळून  आमची छावणी होते.  वेगळी भाषा, वेगळे पेहराव , वेगवेगळे खाणे-पिणे, आचार,विचार  अशी कितीतरी गोष्टींत विविधता असते. हीच आमची विविधतेतून एकता दर्शवणारी आमची भावकी. छावणीच्या गेटमधून आत येताच इथे प्रत्येकांत आपलेपणाची भावना असते. घर सरकारीच असते पण ते’ माझे घर ‘ आहे अशी आपलेपणाची भावना छावणीत येताच प्रत्येकाच्या मनात निर्माण होते. नाती रक्ताची नसतात, पण अडी-अडचणीत  एकमेकांना साथ देणारी, एकमेकांसाठी धावून जाणारी असतात. सण,  उत्सव सगळे मिळून साजरे करतात. एकमेकांच्या विविध सण उत्सवात सर्वजण एकत्र येतात, मिळून सण साजरे करतात. असे विविधतेतही एकोप्याचे , एकात्मतेचे वातावरण छावणीच निर्माण करू शकते. आपण गावाकडे एका गावात एका भावकीत सुद्धा असे मिळून-मिसळून, एकोप्याने  रहात नाही . मनात इर्षा,  वैरभाव ठेवून रहातो, तसेच वागतो . पण छावणीत येताच छावणी एकीने रहायची शिकवण देते. तीन – चार वर्षांत बदली होते.  जिवाभावाचे नाते निर्माण झालेले लोक दूर जातात. एकमेकांचे निरोप घेता-देताना कुणी आपलेच जवळचे दूर जातेय या भावनेने मने कष्टी होतात, प्रत्येकाचे काळीज पिळवटून जाते. . निरोपाच्या वेळी खोलवर मनात रुतून बसणारे दुःख होते. तीन-  चार वर्षांनी येणाऱ्या बदल्या, पुन्हा नवीन राज्य, नवा प्रदेश, नवा गाव, हवा,  पाणी,  संस्कृती, भाषा सगळे काही नवं, निराळे.  छावणी जाणाऱ्याला जड अंतःकरणाने  निरोप देते. येणाऱ्याचे आनंदाने स्वागत करते. पण प्रत्येक  जवानाला या सगळ्यांशी जुळवून घेत नवी छावणी शोधावीच लागते.

प्रत्येक जवान या छावणीत रूळत असला तरी एक स्पष्ट करावे वाटते. देशासाठी लढणारा जवान हा आपल्यामागे आपले आई-वडील, भाऊ, बहिण,  कितीतरी जिवाभावाची माणसं  सोडून आलेला असतो. पण आपल्या घरापासून ते गल्लोगल्लीतला आख्खा गाव, दूर आलेल्या जवानाच्या डोळ्यांत सदा उभा असतो, दाटून राहिलेला असतो हे ही खरे आहे. मायभूसाठी लढण्याचे बळ, जन्मभूमीकडे परत येण्याच्या सुखद हिंदोळ्यातूनच मिळते. आख्खा गाव नजरेत भरून छावणीत राहणाऱ्या जवानाला, त्याचा गाव किती आठवणीत ठेवत असतो हे गावच जाणत असेल.

किती वेळ मी छावणीच्या विचारचक्रात गॅलरीतच उभी होते. समोरच्या घाटातून गावाकडे जाणारा रस्ता पहात माझाही गाव आठवणीच्या हिंदोळ्यात मनात रुंजी घालत होता. इतक्यात रात्रपाळीला जाणाऱ्या एका जवानाला खिडकीतून “बाय बाय “केलेला आवाज कानावर आला आणि मी विचारातून भानावर आले.

मनाला मात्र एक सत्य स्पर्शून जाते की ही छावणी हेच आपले गाव, इथले सदस्य, इथले परिवार हेच सगे-सोयरे, आणि हीच नातीगोती. या घनगर्द जंगलातील प्राणी, उंच उंच गगनाशी भिडणाऱ्या झाडे- वेली, आनंदाने बागडणारे पक्षी हेच आपले जीवन. कधी इथली छावणी  आपली होऊन गेलेली असते तर कधी दुसर्‍या ठिकाणची छावणी.……

© सौ.वनिता संभाजी जांगळे

जांभुळवाडी-पेठ, ता. वाळवा , जि. सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ इच्छापूर्ती…– भाग- २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ इच्छापूर्ती…– भाग- २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

(मागील भागात आपण पाहिले– तुलसीदासजींनी “सिय राममय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी॥“ ही चौपाई लिहिली. या प्रभृतींना संपूर्ण विश्वच श्रीराममय झाल्याचे जाणवत होते, तेव्हा कुठे त्यांना श्रीरामचंद्रप्रभू भेटले. यावरून तुलसीदासजींची एक गंमतीशीर गोष्ट आठवलीय. ऐका तर. – आता इथून पुढे)

ही चौपाई लिहिल्यानंतर तुलसीदासजी विश्रांती घेण्यासाठी घराकडे निघाले होते. रस्त्यात त्यांना एक मुलगा भेटला आणि म्हणाला, “अहो, महात्मा या रस्त्याने जाऊ नका. एक उधळलेला बैल लोकांना ढुशी मारत हिंडतोय. तुम्ही तर त्या रस्त्याने मुळीच जाऊ नका कारण तुम्ही लाल वस्त्रे धारण केली आहेत. 

तुलसीदासजींनी त्याकडे दुर्लक्ष केलं. ‘मला माहीत आहे. सर्वांच्यात श्रीराम आहेत. मी त्या बैलासमोर हात जोडेन आणि निघून जाईन.’  

तुलसीदासजी जसे पुढे गेले तसे उधळलेल्या त्या बैलाने त्यांना जोरदार टक्कर मारली आणि ते धाडकन खाली पडले. त्यानंतर तुलसीदासजी घरी जायच्याऐवजी सरळ रामचरितमानस जिथे बसून लिहित असत त्या ठिकाणी गेले. त्यांनी नुकतीच लिहिलेली ती चौपाई काढून फाडून टाकणारच होते, तितक्यात मारूतीराया प्रकट झाले आणि म्हणाले,    

“श्रीमान, हे काय करताहात?”

तुलसीदासजी खूप संतापलेले होते. त्यांनी ती चौपाई कशी चुकीची आहे, हे सांगण्यासाठी नुकत्याच घडलेल्या घटनेचा वृत्तांत मारूतीरायांना कथन केला.

मारूतीराया स्मित हास्य करत म्हणाले, “श्रीमान, चौपाई तर शंभर टक्के योग्य आहे. त्यात चुकीचं काहीच नाही. आपण त्या बैलामधे श्रीरामांना तर पाहिलंत. परंतु बालकाच्या रूपात तुमचा बचाव करण्यासाठी आले होते त्या श्रीरामांना मात्र तुम्ही पाहिलं नाहीत.”  हे ऐकताच तुलसीदासजींनी मारूतीरायांना मिठी मारली.

आपणही जीवनातील लहानसहान गोष्टींकडे दुर्लक्ष करतो आणि एखाद्या मोठ्या समस्येला बळी पडत असतो. असो.”

बुवा पाणी पिण्यासाठी थांबले. तेवढ्यात समोरचे आजोबा पुन्हा बोलले, “म्हणजे श्रीरामप्रभू हे सामान्य भक्तांना भेटत न्हाईत. फक्त मोठ्या भक्तानांच भेटतात असं म्हणायचं.”

“आजोबा, विसरलात काय? अहो शबरी कोण होती? या श्रीरामानेच शबरीला कीर्तीच्या शिखरावर पोहोचवलं आहे. मागासलेल्या समाजातील त्या वृद्ध विधवेने उष्टी करून दिलेली बोरं, हसतहसत चाखणारा हा श्रीराम जगातल्या कोणत्याही सभ्यतेत तुम्हाला भेटणार नाही. एका सामान्य नावाड्याचा मित्र झालेल्या श्रीरामाची गोष्ट सांगतो. ऐका.

सुमंतांचा निरोप घेऊन श्रीरामप्रभू वनवासाला जाण्यासाठी शरयू नदीच्या काठावर पोहोचले. श्रीरामांना पाहताच त्या नावाड्याच्या चेहऱ्यावर हसू फुलले. श्रीरामप्रभू जवळ येताच त्या नावाड्याच्या मुखातून शब्द उमटले, “यावे प्रभू ! किती वेळ लावलात इथे यायला? किती युगांपासून मी तुमची वाट पाहतोय.”

श्रीरामांनी स्मितहास्य केलं. अंतर्यामीच ते. श्रीराम शांतपणे म्हणाले, ‘मित्रा, आम्हाला पलीकडच्या तीरावर सोड. आज हा राम तुझ्याकडे एक याचक होऊन आला आहे.’      

नावाड्याच्या डोळ्यांत अश्रू दाटून आले, तो कसेबसे म्हणाला, ‘महाप्रभू, तुम्ही येणार आहात हे मला माहीत होतं. मीच नव्हे तर ही धरती, ही सृष्टी, हा शरयू नदीचा तट कितीतरी युगांपासून याच क्षणाची प्रतिक्षा करत आहोत. हा सर्वात महान क्षण आहे. अखिल जगातील प्राणीमात्रांना जे भवसागर पार करवतात, ते प्रभू आज एका निर्धन नावाड्याकडे दुसऱ्या तीरावर पोहोचवा म्हणून याचना करत आहेत.’

श्रीरामांना नावाड्याची भावविवश स्थिती कळली. त्याची मनस्थिती निवळावी म्हणून ते म्हणाले, “आज तुझी वेळ आहे मित्रा ! आज तूच आमचा तारणहार आहेस. चल, आम्हाला त्या तीरावर पोहोचव.”

नावाड्याने श्रीरामाकडे मोठ्या भक्तिभावानं पाहिलं आणि म्हणाला, “प्रभू, तुम्ही मला वरचेवर मित्र म्हणून का संबोधन करताहात? मी तर तुमचा सेवक आहे.”

श्रीराम गंभीरपणे म्हणाले, “एखाद्याने आपल्या जीवनात लहानसेच का होईना उपकार केले असेल तर मरेपर्यंत तो आपला मित्रच असतो. मित्रा! तू तर आम्हाला नदीच्या दुसऱ्या तीरावर सोडणार आहेस. हा राम, हे उपकार कधीच विसरू शकत नाही. या रामासाठी तू जन्मभर मित्रच राहशील. आता त्वरा कर….”

नावाड्याच्या चेहऱ्यावर स्मित हास्य पसरले. तो म्हणाला, “महाप्रभू ! एवढी कसली घाई आहे? आधी त्याचं मोल तरी ठरवू द्या. आयुष्यभर नाव वल्हवत एका वेळेच्या अन्नाची तरतूद करत राहिलो. आज एका फेरीतच मला सात जन्म पुरेल इतकी कमवायची संधी मिळाली आहे. बोला द्याल ना? तुम्ही हो म्हणत असाल तर नाव पाण्यात सोडतो…”

“मित्रा, जे पाहिजे ते माग ! मात्र हा राम आज राजमहालातून बाहेर पडताना काहीही घेऊन निघालेला नाही. परंतु मी तुला तुझ्या इच्छापूर्तीचे वचन देतो. माग, काय मागायचं आहे ते…”

नावाड्याच्या मुखातून शब्द बाहेर पडले नाहीत. परंतु त्याचे डोळे स्पष्टपणे सगळंच सांगत होते, “फार काही नको प्रभू!  बस्स. मी आता जी सेवा तुम्हाला देणार आहे, तीच सेवा मला परत करून टाका. इथे मी तुम्हाला नदी पार करवतो आहे. तुम्ही त्यावेळी मला भवसागर पार करवून द्या.” 

श्रीरामाने सीतेकडे क्षणभर पाहिलं. दोघांच्या चेहऱ्यावर स्मितहास्य उमटलं. नावाड्याला त्याचं उत्तर मिळालं. तो त्या क्षणाचं सोनं करू इच्छित होता. तो हळूच बोलला, ” प्रभू ! मी असं ऐकलं आहे की तुमच्या चरणस्पर्शाने शिळादेखील स्त्रीमध्ये परिवर्तित होते म्हणून. मग माझ्या लाकड़ी नावेचं काय होईल? आधीच माझी बायको डोके खात असते. जर ही नावसुद्धा स्त्री झाली तर ह्या मी दोघींना कसं सांभाळू? थांबा, मी एका लाकडी पात्रातून पाणी आणून तुमच्या चरणांना स्पर्श करवून पाहतो. लाकडावरसुद्धा शिळेसारखा प्रभाव पडतो का नाही ते कळेल…”

नावाडी धावत धावत जाऊन घरी पोहोचला. लाकडाच्या पात्रात पाणी भरून आणलं. जसं तो रामाचे पाय मनोभावे धूत होता, तसं त्याच्या डोळ्यांतून अश्रूधारा वाहत होत्या. दीर्घ प्रतिक्षेनंतर नावाड्याची कित्येक जन्मांची तपश्चर्या फळाला आली होती. तो भावुक झाला. अश्रूंवाटे तो निर्मळ, निर्विकार होऊन गेला.

त्याने लाकडी पात्राला स्वत:च्या कपाळाला लावलं. नाव प्रवाहात सोडली. सगळेजण नदीच्या दुसऱ्या तीरावर जाऊन नावेतून उतरले. तत्क्षणी श्रीरामांच्या मनात चाललेली चलबिचल, अगतिकता सीतामाईंच्या लक्षात आली.

सीतामाईंनी त्वरित स्वत:च्या बोटातील अंगठी काढली आणि नावाड्याला भेट म्हणून देऊ केली. “माई, तुम्ही वनवास संपवून आल्यानंतर जे काही भेट म्हणून द्याल ते मी आनंदाने स्वीकारेन.” असं म्हणत त्याने अंगठी घेण्यास नकार दिला.

या प्रसंगातून श्रीराम आणि सीतामाई या दोघांतलं सामंजस्य प्रकट होत होतं. एकमेकांवर गाढ प्रेम असेल तर तिथे शब्दांची आवश्यकता नसते. एकमेकांच्या भावना समजून घ्यायला डोळ्यांची भाषाच पुरेशी असते.”

कीर्तनाची सांगता करताना बुवा म्हणाले, “आपण सर्वचजण श्रीरामभक्तीच्या सांस्कृतिक धाग्यानं एकमेकांशी जोडले गेलो आहोत. प्रभू श्रीरामचंद्रांनी दाखवलेल्या सत्याच्या, लोककल्याणाच्या मार्गावरुन चालण्याचा प्रयत्न करूया. तुम्हा सर्वांना रामनवमीच्या हार्दिक शुभेच्छा. बोला, श्रीराम जयराम, जय जय राम !!”

कार्यक्रमानंतर राघव आणि जानकीचे डोळे मात्र त्या मोटारसायकलवरच्या दोघा युवकांना शोधत होते. परंतु ते दोघे कुठेच दिसले नाहीत.

“कोण जाणे, राघवाची इच्छापूर्ती करण्यासाठी साक्षात श्रीरामचंद्रप्रभू आणि लक्ष्मण हे दोघे बंधू तर आपल्या मदतीला धावून आले नसतील ना?”  हा विचार जानकीच्या डोक्यात घोळत होता. राघवची कार मात्र कोल्हापूरकडे स्वच्छंदपणे सुसाट निघाली होती.

– समाप्त –

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली.

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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