हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 138 ☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सेंध दिल में। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 138 ☆

☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।

मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘

‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘

‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।

उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।

 ‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।

‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘

‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘

वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘

आज पत्थर दिल में सेंध लग गई थी?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा

बहुत ही लोकप्रिय शब्द है प्रजातंत्र, कुछ भी करो सब जायज हो जाता है आखिर प्रजा की ताकत तो राजतंत्र से ही चली आ रही है। चुनाव के समय पर इसकी पूछ – परख कुछ ज्यादा ही होती है। एक साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी उसमें परजा को लेकर एक से एक विचार आने लगे एक ने कहा पर जा अर्थात दूर हो जा तो दूसरे ने चौका मारते हुए कहा पर होते तो उड़ न जाते। तीसरे ने भी शब्दों का छक्का जड़ते हुए कहा, बिन पर जा राजा की भी कोई कीमत नहीं होती।

पर, किन्तु, परन्तु से लोग त्रस्त ही रहते हैं। पर इसकी शक्ति का कोई सानी नहीं होता तभी तो इनकी शक्ति का लोहा बड़े- बड़े वीरों को भी मानना पड़ा। पर जब भी उपसर्ग के रूप में आया तब उसने अपने से जुड़े हुए शब्द को महान बना दिया।

अब तो तीनों तरकश से परजा की तारीफ में तीर निकलने लगे किसी ने अपने गुरु को याद किया तो किसी ने गुरु घण्टाल को तो किसी ने एकता की शक्ति में भक्ति को समाहित करते हुए मुक्तक के तार छेड़ दिए। आस-पास बैठे लोग भी खुश हुए चलो कुछ तो हाथ लगा दिन भर से पर फड़फड़ा रहे थे अब जाकर दाना पानी हाथ लगा आखिर समय और निष्ठा की भी तो कोई ताकत होती है।

चुनावी जोड़तोड़ से कोई भी अछूता नहीं है जिसे जहाँ मन आ रहा है वहीं की राह पकड़ने लगा है। कोई भक्ति की शक्ति में डूबकर शक्ति प्रदर्शन करता है तो कोई कुर्सी की आशक्ति में बिना सिर पैर की कोशिश कर रहा है।कोशिशें वही कामयाब होंगी जिसमें सर्वजन हिताय का भाव हो। दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़िए विश्व आपकी अगुआई चाहता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदानीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सदानीरा ? ?

देख रहा हूँ

गैजेट्स के स्क्रिन पर गड़ी                                        

‘ड्राई आई सिंड्रोम’

से ग्रसित पुतलियाँ,

आँख के पानी का सूखना;

जीवन में उतर आया है,

अब कोई मृत्यु

उतना विचलित नहीं करती,

काम पर आते-जाते

अंत्येष्टि-बैठक में

सम्मिलित होना;

एक और काम भर रह गया है,

पास-पड़ोस,

नगर-ग्राम,

सड़क-फुटपाथ पर

घटती घटनाएँ

केवल उत्सुकता जगाती हैं,

जुगाली का

सामान भर जुटाती हैं,

आर्द्रता के अभाव में

दरक गई है

रिश्तों की माटी,

आत्ममोह और

अपने इर्द-गिर्द

अपने ही घेरे में

बंदी हो गया है आदमी,

कैसी विडम्बना है मित्रो!

घनघोर सूखे का

समय है मित्रो!

नमी के लुप्त होने के

कारणों की

मीमांसा-विश्लेषण,

आरोप-प्रत्यारोप,

सिद्धांत-नारेबाजी,

सब होते रहेंगे

पर एक सत्य याद रहे-

पाषाण युग हो

या जेट एज,

ईसा पूर्व हो

या अधुनातन,

मनुष्यता संवेदना की

मांग रखती है,

अनपढ़ हों

या ‘टेकसेवी’,

आँखें सदानीरा ही

अच्छी लगती हैं..!

© संजय भारद्वाज

(8.2.18, प्रात: 9:47 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह प्यार का मौसम होता है, उसी तरह हंसने का मौसम भी होता है। होली के मौसम को आप हंसी खुशी का मौसम कह सकते हैं, क्योंकि प्यार का सप्ताह, यानी वैलेंटाइन्स वीक तो, कब का गुजर चुका होता है। होली पर जो पानी बचाने की बात करते हैं, और दिन भर एसी में पड़े रहते हैं, वे परोक्ष रूप से हंसी खुशी और मस्ती घटाने की ही बात करते हैं।

हंसना सबकी फितरत में नहीं। जिन्हें कब्ज़ होती है, वे खुलकर हंस भी नहीं सकते। हंसने से भूख भी बढ़ती है, और पाचन शक्ति भी। चिकित्सा विज्ञान ने अनिद्रा का निदान तो नींद की गोलियों में तलाश लिया लेकिन अवसाद का उनके पास कोई इलाज नहीं। घुट घुटकर, घूंट घूंट पीना और यह गीत गुनगुनाना ;

हंसने की चाह ने

इतना मुझे रुलाया है।

कोई हमदर्द नहीं,

दर्द मेरा साया है।।

होली का मतलब है, ठंड गई, गर्मी आई। होली का एक मतलब और है, ठंडाई। ठंडाई पीसी जाती है, मिक्सर में नहीं, सिल बट्टे पर, और वह भी उकड़ू बैठकर। पिस्ता, बादाम, केसर, खसखस, इलायची, काली मिर्च, और मगज के बीजों को पीसकर जब दूध और शकर में मिलाया जाता है, तब जाकर बनती है ठंडाई। अगर ठंडाई पीसी जाती है, तो विजया घोटी जाती है। आयुर्वेदिक औषधि भांग को ही विजया कहते हैं। असली विजयादशमी तो कायदे से होली ही है।

भांग को शिव जी की बूटी भी कहा जाता है। ठंडाई और भांग के गुणगान का हंसने और खुलकर हंसने से बहुत गहरा संबंध है। विजया पाचक तो है ही, इससे खुलकर दस्त भले ही ना लगें, लेकिन हंसी ऐसी खुलती है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती।।

जो लोग बिना बात के भी हंस लेते हैं, इसमें उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं, यह विजया का ही प्रभाव होता है। आश्चर्य होता है उन लोगों पर, जो हंसने के लिए लाफ्टर क्लब जॉइन करते हैं। अधिक व्यंग्य कसने वाले और कसैला व्यंग्य लिखने वाले न जाने क्यों हास्य रस से परहेज़ करते नजर आते हैं। इन्हें तो हंसने वालों पर भी हंसी नहीं, रोना आता है।

भांग यानी विजया आपको बिना बात के हंसने की गारंटी देती है। वैसे आज के राजनीतिक परिदृश्य में, जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो, तब हंसने के लिए, अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। रमजान की अजान की तरह और विष्णु सहस्त्रनाम की तरह जब आकाशवाणी की तरह पूरी कायनात में एक ही आवाज गूंजती है, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गारंटी दूंगा, तो नर तो क्या, किसी खर को भी बरबस हंसी छूट जाती होगी।।

लोग पहले होली के इस मौसम में बुरा नहीं मानते थे, लेकिन अब मौसम न तो प्यार का है और न ही हंसने का। इंसान की नफरत और बदले की आग ने, मौसम को भी बेईमान कर दिया है।

प्रेम और हंसी खुशी बाज़ार से खरीदी नहीं जाती। रोते हुए बच्चे को हंसाने का फार्मूला बहुत पुराना हो गया। हंसी खुशी और मस्ती की पाठशाला का पहला पाठ खुद पर ही हंसना है, दूसरों पर हंसना नहीं, उन्हें भी हंसाना है।

नफरत के बीज की जगह अगर जरूरत पड़े तो प्रेम और हंसी खुशी का, विजया का पौधा लगाएं।

मित्रता हो अथवा दोस्ती हो, पहले घुटती है, और उसके बाद ही छनती है। मौका और दस्तूर बस हंसने और मस्ती छानने का है। अगर आप हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना और ठहाके लगाना भूल गए हैं, तो शिवजी की बूटी की शरण में आएं। आप नॉन स्टॉप हंसते रहेंगे, यह विजया की गारंटी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 270 ☆ व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 270 ☆

? व्यंग्य – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ?

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थ – यह है कि पुस्तक में रखा ज्ञान तथा दूसरे के हाथ में दिया गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम के नहीं होते

यह चाणक्य के समय की बात थी, जो तब शाश्वत सत्य रही होगी।

अब इस नीति में अमेंडमेंट की आवश्यकता है। मोबाइल हाथ में हो, और इंटरनेट हो तो गूगल का ज्ञान और ई बटुए का धन ही नहीं, ई मेल में पड़े रिफरेंस, डिजिटल डाक्यूमेंट, फोटो गैलरी के फोटो, कांटेक्ट लिस्ट के नंबर, एड्रेस, बैंक एकाउंट, सब कुछ काम का होता है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही है की जो कुछ “ई” है, आज वह ही सोते, जगते, उठते बैठते, घर बाहर, हर कहीं सदा साथ होता है।

देश विदेश की यात्रा करते हुए न तो सारे सहेजे हुए फिजिकल डाक्यूमेंट्स और न ही एल्बम तथा विजिटिंग कार्ड्स होल्डर लेकर चल पाते हैं न ही पास बुक और चैक बुक किसी काम आते हैं।

आवश्यकता इंस्टेंट होती है, तब ई डाक्यूमेंट्स एक सर्च पर खुल जाते हैं। दुनियां में कहीं भी हों नेट बैंकिंग ही रूपयो के लेन देन में काम आती है। खुल जा सिम सिम के जप की तरह पासवर्ड डालते ही एप ओपन हो जाते हैं और वह सब जो “ई” है न वह सेवा में हाजिर मिलता है। याददाश्त में पासवर्ड गुम भी हों तो मोबाइल आपका चेहरा देखकर खुल जाता है और स्कैनर पर फिंगर प्रिंट्स लगाते ही आप मनचाही वेबसाइट खोल पाते हैं।

मुझे तो लगता है कि ” ई ” ईश्वर सा ही है जो सर्व व्यापी है। ईश्वर की कल्पना स्वर्ग में होने की है। स्वर्ग की परिकल्पना बादलों के पार कहीं आकाश में की गई है। ये जो सदा साथ रहने वाला “ई” है वह भी क्लाउड स्टोरेज में रहता है। आप कहीं भी हों, क्लोज सर्किट कैमरों की मदद से घर दफ़्तर जहां चाहें पहुंच जाते हैं। कैमरों के क्लाउड स्टोरेज से घर बाहर के बीते हुए पल भी फिर फिर देख सकते हैं।

इधर जूम या गूगल पर वर्चुअल सेमिनार खत्म होता है और क्लिक करते ही ई सर्टिफिकेट जनरेट होकर मेल बाक्स में हाजिर हो जाता है।

हर चैट बोट पर कोई ई सहायक ईवा, दिया, सिया, 24 घंटे सेवा में समर्पित है।

ई वीजा, ई पासपोर्ट, ई सर्टिफिकेट, ई कामर्स, ई पत्रिका, ई अखबार, ई बुक्स, ई राइटिंग, और ई रेटिंग, ई वोटिंग वगैरह वगैरह है। जमाना ई का है, पर ई डेटिंग से जनरेटेड दिल की अहसासी फाइल अभी भी भौतिक स्पर्श की ही भूखी है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #40 ☆ कविता – “हमें बेवफा न समझना…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 40 ☆

☆ कविता ☆ “हमें बेवफा न समझना…☆ श्री आशिष मुळे ☆

हमें बेवफा न समझना

हम तलाश जो कर रहे है

तुम अब तुम नहीं रही

हम तुम्हें ही ढूंढ़ रहे है

 *

कितनी जिंदा थी तुम

ये सोच कर मर जाते है हम

अब सामने दिखती नहीं

ये देखकर खो जाते है हम

 *

कभी इसमे कभी उसमे

तुम झलक दिखलाती हो

ए मेरे इश्क़ की दास्तां

यूं टुकड़ों में क्यों मिलती हो

 *

जिस्म तो आज भी तुम्हारा

मगर रूह अब तुम्हारी नहीं

हमने प्यार रूह से किया था

तुम्हारे जिस्म से नहीं

 *

था एक जमाना तुम्हारी रोशनी का

जब सूरज डूबता नहीं था

आज भी खोई किरणों से रोशन

चांद भी कभी बेवफा नहीं था

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 197 ☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 197 ☆

☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 जिसको आज बचाना हमको

उसमें रहते हाथी शेर।

कंद – मूल फल मिलते उसमें

किस्म – किस्म के होते पेड़।।

 *

जिसमें रहे चालाक लोमड़ी

जिसमें रहता है चीता।

रहे भेड़िया और तेंदुआ

कोई नहीं पढ़े गीता।।

 *

जो विवेक और बल से जीए

वह ही उसमें रहे सुरक्षित।

जो समूह में मिल जुल रहता

रहे मजे से वही सुमित।।

 *

लंगूरों की धमाचौकड़ी

उसमें रहते सेई , अजगर।

सदा आग से उसे बचाएँ

वह ही ऑक्सीजन का घर।।

 *

बोलो बच्चो क्या हम कहते

हिंदी में क्या – क्या हैं नाम?

अंग्रेजी में क्या हम कहते

वह सबके ही आता काम।।

  

उत्तर – जंगल,वन,कानन, अरण्य हिन्दी में और अंग्रेजी में फोरेस्ट कहते हैं।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




सूचनाएँ/Information ☆ बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित – अभिनंदन ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित – अभिनंदन ☆

लखनऊ, 27 मार्च 2024: इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ द्वारा आयोजित सातवें वार्षिक कार्यक्रम में नीमच के बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” को उनकी साहित्यिक सेवा के लिए मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया। यह कार्यक्रम 10 जनवरी 2024 को सांगली, महाराष्ट्र में आयोजित किया गया था।

ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” हिंदी साहित्य के एक प्रख्यात बाल साहित्यकार हैं। उन्होंने बच्चों के लिए अनेक कहानियां, कविताएं और उपन्यास लिखे हैं। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय गांधीवाद के प्रवाह से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया गया है।

इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ द्वारा उन्हें यह सम्मान उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए प्रदान किया गया है। सम्मान स्वरूप उन्हें शील्ड, प्रमाण पत्र और प्रतीक चिन्ह प्रदान किया गया।

यह सम्मान नीमच के लिए गर्व का विषय है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें यह सम्मान मिलना निश्चित रूप से एक प्रेरणा है।

सम्मान के बारे में:

संस्था: इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ

कार्यक्रम: सातवां वार्षिक कार्यक्रम

स्थान: सांगली, महाराष्ट्र

दिनांक: 10 जनवरी 2024

सम्मान: मैथिली शरण गुप्त सम्मान

सम्मानित: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

कारण: साहित्यिक सेवा

सम्मान स्वरूप: शील्ड, प्रमाण पत्र, प्रतीक चिन्ह

ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाएं: बच्चों के लिए अनेक कहानियां, कविताएं और उपन्यास लिखे हैं। राष्ट्रीय गांधीवाद के प्रवाह से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है

यह सम्मान नीमच के लिए गर्व का विषय है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें यह सम्मान मिलना निश्चित रूप से एक प्रेरणा है।

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंग पंचमी… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंग पंचमी… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

(रेशीमकोष संग्रहातून)

ती रात पंचमीची

रंग उधळत होती

त्या चन्द्र चांदण्यात

राधा भिजत होती

*

तो क्षण यौवनाचा

एकांत मागीत होता

भरून रंग पिचकारी

कान्हा भिजत होता

*

ती मोरपंखी फडफड

ढोलीत त्या झाडा च्या

फुलवित पंख पिसारा

पाकळ्या उमलीत होत्या

*

त्या नक्षत्रांची बरसात

कवटाळून बाहू पाशी

प्राशुनी रंग तयाचा

जीव शिवात चिंब होता

*

रंग रंगात रंगुन

मश्गुल तो श्रीरंग

बहरे मदन आनंग

उधळीत सारा रंग

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

नसलापुर  बेळगाव

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मळभ… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मळभ ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

आज मी या वृक्षतळी

अशी उदास बसलेली

मनी सवे  भारलेल्या

तव प्रेमाच्या चाहुली

*

तुझ्या मिठीत सजलेल्या

 किती सुरम्य सांजवेळा

कुंतली या मोगऱ्याचा

प्रीतगंध दरवळला

*

क्षण क्षण तो सुरंगी

चांदण्यात भिजलेला

राग रागिणी  सुरांनी

धुंद असा नादावला

*

दाटले का तुझ्या मनी

मळभ  रे संशयाचे

काय जाहले नकळे

दुभंगले नाते प्रीतीचे

*

 पखरली वाट तुझी

 कधीच मी आसवांनी

पाहते वाट अजुनी

येशील तू परतूनी

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈