सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गहरे पानी पैठ’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री शकुंतला मित्तल ☆

पुस्तक- गहरे पानी पैठ

लेखिका – डॉ मुक्ता

प्रकाशक – SGSH Publications

समीक्षक – सुश्री शकुंतला मित्तल 

☆ समीक्षा – स्वस्थ समाज के निर्माण की आधारशिला “गहरे पानी पैठ” ☆

जीवन मेले की इस आपाधापी ,भागदौड़ और उपभोक्तावादी आत्मकेंद्रित जीवन शैली में साहित्य जगत् की सशक्त हस्ताक्षर ,शिक्षाविद्, माननीय राष्ट्रपति से पुरस्कृत , हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्वनिदेशक डॉ• मुक्ता द्वारा आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में “गहरे पानी पैठ” के रूप में 75 चिंतन व सुचिंतनपरक आलेखों का एक अनमोल वैचारिक संग्रह साहित्य जगत् और समाज को देना ऐसी महती उपलब्धि है, जो समाज की विचारधारा, मिज़ाज़, सोच, चिंतन शैली और घटते जीवन मूल्यों पर मात्र विचार ही नहीं व्यक्त करता, बल्कि हमें झिंझोड़कर “स्व” से बाहर निकल समाज के गर्त में झाँक कर जागने को बाध्य भी करता है। यह जीवन के अनुभवों का गहरा मंथन कर निकाले समाज हित के बहुमूल्य मोती हैं।

🌹 अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ मुक्ता के गहरे पानी पैठ आलेख-संग्रह का हुआ लोकार्पण 🌹

गहरे पानी पैठ लेखिका के जीवनानुभवों की गहराई, विश्लेषक क्षमता, जीवन-दर्शन, वैचारिकता और समाज के सभी घटकों की चिंता को दर्शाता वह संजीवन अमृत-तत्व है, जिसे समझकर, ग्रहण कर, आत्मसात् कर समाज की जीवन पद्धति सुधर सकती है। उक्त आलेख-संग्रह दो भागों में विभक्त है। आरंभ के 37 आलेख चिंतनपरक आलेख हैं और 38 से 75 तक सुचिंतनपरक आलेख हैं। लेखिका का जीवन फलक बहुआयामी रहा है। उनके विभिन्न क्षेत्रों के अनुभव, समाज में घटित घटनाएँ, समाचार पत्र की सुर्खियों में छपे पीड़ित, शोषित, प्रताड़ित क़िरदार, पात्र, उनके दु:ख, पीड़ा, व्यथा ने लेखिका को समाज से प्रश्न करने के लिए बाध्य किया और डॉ• मुक्ता ने धारदार कलम से समाज के घटते जीवन-मूल्यों, अनास्था, अविश्वास, स्वार्थ से रिसते- पिसते रिश्तों, युवा पीढ़ी की संस्कारहीनता पर क्षोभ व्यक्त करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और समाधान के रूप में भारतीय संस्कृति को अपनाने का आग्रह किया है।

सुचिन्तनपरक आलेख समाज के हर वर्ग की विक्षिप्त मानसिकता, संकीर्ण सोच व स्वार्थपरता का निदान ही नहीं करते ; संत्रस्त अंधेरे में प्रकाश की किरण बन प्रेरणा देते हैं, सहारा देते हैं और समाज की गतिशीलता को विकास की ओर अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

“दिशाहीन समाज और घटते जीवन मूल्य” आलेख में लेखिका की कलम धन-संग्रह को एकमात्र लक्ष्य बना किसी के प्राण तक हर लेने में संकोच ना करने वाले समाज से अतीत में लौट चलने का आग्रह करते हुए कहती है, “आओ! लौट चलें अतीत की ओर, जब समाज में बहन-बेटी ही नहीं, हर महिला सुरक्षित थी। आधुनिक युग में युवा पीढ़ी के लिए सर्वाधिक कारग़र उपाय है–अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाना, अपनी संस्कृति से जुड़ाव और स्वीकार्यता भाव से मानव मात्र में यथोचित बहन, बेटी, माँ के प्रतिरूप का दर्शन करने की भावना।”

अक्सर तो नारी को संधि पत्र लिखने तक का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िंदगी भर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है और वह झोंक दी जाती है देह-व्यापार के धंधे में……नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िमी हैं.”…..ये पंक्तियाँ हैं डॉ• मुक्ता के चिंतनपरक आलेख “जिंदगी की शर्त-संधि पत्र से।”

नारी को मानसिक यंत्रणा देने वाले समाज पर कटाक्ष करने, सोचने पर विवश करने के साथ ही लेखिका “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों” आलेख के माध्यम से नारी को मर्यादित जीवन जीने का परामर्श देते हुए पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण, लिव-इन को मान्यता देने, विवाहेतर संबंधों की स्वीकार्यता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहती हैं, “विदेशी हमारे रीति रिवाज, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट आस्था-विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं, परंतु हम उन द्वारा परोसी गई “लिव-इन” और “ओल्ड होम” की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं । “

सभी आलेखों के शीर्षक भी जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। “ट्यूशन और तलाक़” आलेख में मायके के लोगों द्वारा मोहग्रस्त होकर ग़लत सीख देने को ट्यूशन नाम दिया है, जो उन्हें उच्छृंखलता की ओर अग्रसर कर तलाक़ की ओर ले जाती है। ‘बाल यौन-उत्पीड़न समस्या व समाधान’ और ‘मज़दूरी इनकी मज़बूरी’ में देश के भविष्य बच्चों की दयनीय स्थिति से हमें परिचित कराते हैं । लेखिका की विहंगम दृष्टि समाज में सिर उठाती हर नवीन जीवन-पद्धति पर है और यदि उसका कोई भी बिंदु लेखिका को जीवन में उज्ज्वल रंग भरता दिखाई देता है, तो वह अपनी संस्कृति से उसका तालमेल बिठाता पक्ष रख उसकी वकालत भी करती दिखाई देती हैं।

‘सेलोगैमी’ अथवा ‘सैल्फ मैरिज’ आलेख की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- “देखिए, ऊंट किस करवट बैठता है? यदि हम अतीत की ओर दृष्टिपात करें तो यह एक स्वस्थ परंपरा है । हमारे ऋषि-मुनि भी वर्षों तक अपनी संगति में अर्थात् एकांत में सहर्ष तप किया करते थे। उन्हें आत्मावलोकन का अवसर प्राप्त होता था, जो उन्हें मुक्ति की राह की ओर अग्रसर करता था।” सलोगैमी का ऋषि-मुनियों की एकांत अवस्था से साम्य स्थापित कर उसका विवेचन लेखिका की अद्भुत वैचारिक क्षमता को व्यक्त करता है। “चलते फिरते पुतले” रिश्तों में पनपते अजनबीपन के एहसास, संवादहीनता, संवेदनशून्यता और संयुक्त परिवार के टूटने की कसक को अभिव्यक्ति देता है। “कानून शिक्षा और संस्कार” आलेख में लेखिका अंधे कानून और संस्कारविहीन पुस्तकीय शिक्षा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए संस्कारों को सर्वाधिक महत्व देते हुए संस्कारहीन व्यवस्था को पंगु, मूल्यहीन व निष्फल बता युवा पीढ़ी को सुसंस्कारित करने पर बल देती है।

डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

लेखिका समाज की हर घटना, विसंगतियों व हादसों पर दृष्टि टिकाए है। “मातृहंता युवा” आलेख में अभिभावकों द्वारा की जाने वाली रोक-टोक पर युवा द्वारा माता-पिता की हत्या पर लेखिका का हृदय चीत्कार कर उठता है और वह समाज को झिंझोड़ कर, बच्चों को सुसंस्कृत कर दायित्व निर्वहन करने का आग्रह करती है। “यह कैसा राम राज्य” में सड़क पर लहूलुहान व्यक्ति को अनदेखा कर समाज में स्त्री को उपभोग की वस्तु बनती देख, कूड़े के ढेर पर बच्चों का झूठन खाने के लिए मारपीट व सड़क किनारे श्रम करती औरत की दयनीय दशा देख लेखिका का हृदय उद्वेलित हो उठता है।

“संवेदनहीन समाज” में लेखिका क्षणिक शारीरिक सुख भोग के लिए दुष्कर्म में प्रवृत्त युवा को अपना भविष्य अंधकार में झोंकने के मूल में उस पारिवारिक वातावरण को कारण मानती है, जहांँ बच्चों को एकांत की त्रासदी का दंश झेलना पड़ता है। वहांँ बच्चे टीवी और मोबाइल की वेबसाइटों को खंगाल जुर्म की दलदल में कदम रख अपना अनमोल जीवन नष्ट कर लेते हैं। “अपने-अपने खेमे” साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ती राजनीति, दूषित वातावरण और सम्मानों की खरीद-फरोख्त को उजागर करते हुए राष्ट्रीय सम्मान को इनसे अछूता देख संतोष भी व्यक्त करती है।

आज समाज का हर व्यक्ति चिंतन के स्थान पर चिंता में लीन है, जो केवल मनुष्य के जीवन को निराशा के गर्त में ले जाती है। अनेक उदाहरणों, काव्य सूक्तियों, कबीर की पंक्तियों से लेखिका ‘मोहे चिंता न होय’ आलेख में संदेश देते हुए कहती हैं,” चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस सृष्टि- नियंता पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हक़ में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।”

शब्दों को तोलकर व सोच-विचार कर बोलने की आवश्यकता पर बल देते हुए लेखिका “शब्द-शब्द साधना” आलेख में शब्द को ब्रह्म की संज्ञा देती है। परशुराम द्वारा क्रोध में आकर माता का वध करना, ऋषि गौतम का अहिल्या को शाप देना उदाहरणों से लेखिका सोचकर बोलने का महत्व दर्शाती है। सीधी, सरल, स्पष्ट और उदाहरण शैली आलेख को प्रभावशाली बना उसके महत्व को द्विगुणित करती है।

‘खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें’ अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दें ।…..जो मिला है, उसे प्रभु कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें और ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है, कभी आएगा नहीं। सो! उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें ….. यही ज़िंदगी है और यही है लम्हों की सौग़ात” यह पंक्तियां “ज़िंदगी लम्हों की किताब” आलेख से उद्धृत है, जो हमें चिंता, त्याग व संतोष का भाव भरने की प्रेरणा देती है।
इसी तरह के अनेक विचारात्मक और प्रेरणास्पद आलेख हैं, जो अपनी सरलता, स्पष्टता और उदाहरण शैली के कारण बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं।

संस्कृति और संस्कारों से जुड़े ये आलेख केवल मात्र उपदेश नहीं देते; मनोमस्तिष्क दोनों को अपनी कथन शैली से सोचने व चिंतन-मनन करने को बाध्य करते हैं। भाषायी गरिमा और गहराई इन आलेखों की विशेषता है। इनके शीर्षक यथा “अंतर्मन की शांति”, “अपेक्षा व उपेक्षा”, ‘ख़ामोशियों की ज़ुबाँ’ “अहम बनाम अहमियत”, “आईना झूठ नहीं बोलता” मानव में जिज्ञासा भाव ही उत्पन्न नहीं करते; पढ़ने की ललक से हृदय को आप्लावित कर देते हैं।

डॉ• मुक्ता के जीवन का सफ़र प्राध्यापिका व प्राचार्य के रूप में जिन अनुभवों को अर्जित करते हुए परिपक्व और उदात्त बना है और पाँच वर्ष तक अकादमी निदेशक के रूप में दायित्व-वहन करते हुए वे जिस दौर से गुज़री हैं; उसकी झलक हमें इन आलेखों में मिलती है। डॉ• मुक्ता युवा पीढ़ी के मन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर, उन्हें निराशा के गह्वर में गिर कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने से बचाने के अपने दायित्व-बोध से भलीभांति परिचित हैं और उन्हें तनाव, संत्रास, छटपटाहट, झूठे अहं, पाश्चात्य चकाचौंध से बचाने को आतुर दिखाई देती हैं, वही आकुलता, विकलता और कर्तव्यनिष्ठा इन आलेखों की पृष्ठभूमि का आधार भी है और केंद्र भी। मेरे मतानुसार प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय और सामाजिक संस्थानों के पुस्तकालय में अत्युत्तम आलेखों की इस संग्रह को अवश्य स्थान प्राप्त होना चाहिए, ताकि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही दिशा और दशा प्रदान कर सकें।

यह संकलन व्यापक सामाजिक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों की विविधता को अनेक स्तरों पर समेटे जिस पूरे परिदृश्य का एहसास कराता है, वह युवाओं में जीवन-मूल्यों के विकास और सामाजिक दायित्व -बोध को उत्पन्न करने का सूचक है। लेखिका ने परम्परा से हटकर एक नये मार्ग का अनुसरण करके सभी लेखों को एक नया आयाम देने का प्रयास किया है। सर्वथा नवीन प्रासंगिकता के साथ यह आलेख-संग्रह एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो विचारों की धरोहर होने के कारण संग्रहणीय भी है। कुल मिलाकर प्रतिपाद्य, भाषा, शैली, कथ्य और उद्देश्य –सभी दृष्टियों से ये निबन्ध श्लाघनीय व प्रशंसनीय हैं। इनकी प्रस्तुति सर्वथा अभिनंदनीय है।

ऐसी अनुपम स्तुत्य कृति के लिए मैं डॉ• मुक्ता को हृदय की गहराइयों से बधाई एवं अशेष शुभकामनाएंँ देती हूंँ। आप यथावत् स्वस्थ समाज को गढ़ने व निर्मित करने के लिए निरंतर साहित्य साधना-रत रहें। आपके “गहरे पानी पैठ” आलेख-संग्रह को जो भी पढ़ेगा, वह अपने बच्चों के जीवन में सही दिशा-निर्देशन व क्रांतिकारी परिवर्तन हेतू चिंतन- मनन अवश्य करेगा।

©  सुश्री शकुंतला मित्तल

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार, गुरुग्राम

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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