(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘हाथों की लकीरें’। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 43 ☆
☆ हाथों की लकीरें ☆
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हाथों में लकीरों की भीड़ देखी,
दोनों हथेलियों पर लम्बी-लम्बी लकीरें देखी,
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ना जाने कौन सी लकीरें हाथों में भरी है,
लकीरें तो हमने अमीरों की ही पढ़ते देखी,
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फकीरों के हाथों में अमीरी की लकीरें देखी,
अमीर के हाथों में हमने फकीरी की लकीरें देखी,
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जीवन-रेखा उस अमीर की बड़ी लम्बी थी,
छोटी लकीर वाले फकीर की उम्र उससे ज्यादा लम्बी निकली,
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ना जाने कैसे लकीरों से लोग तकदीर पढ़ते हैं,
अमीरों के हाथों में भाग्य की लकीरें गरीबों के हाथों से कम देखी,
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गरीब की दुनिया में लकीरों की क्या अहमियत,
यहां तो गरीबों में और गरीबी, अमीरों में और अमीरी बढ़ती देखी ||
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “जो मिला, सो मिला ”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104☆
व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग
जमाना दो मिनट में मैगी तैयार, वाला है. बच्चे को भूख लगने पर दो मिनट में मैगी बनाकर माँ फटाफट खिला देती हैं. घर पर मैगी न हो तो मोबाईल पर जोमैटो, स्विगी या डोमिनोज का एप तो है न, इधर आर्डर प्लेस हुआ और टाईम लिमिट में डिलीवरी पक्की है.
दादी का जमाना था जब चूल्हे की आग कभी बुझाई ही नहीं जाती थी, राख में अंगारे छोड़ दिये जाते थे. जाने कब वक्त बेवक्त कोई पाहुना आ जाये. मुडेंर पर कौये की कांव कांव होती ही रहती थी, जब तब अतिथि पधारते ही रहते थे. नाश्ते के समय कोई खास आ जाये तो तुरत फुरत गरम भजिये तले जाते थे, और यदि भोजन के समय मेहमान आ जायें तो गरमागरम पूड़ियां और आलू की सब्जी, पापड़ का मीनू लगफभग तय होता था. रेडी मेड मेहमान नवाजी के लिये दादी के कनस्तर में पपड़ियां, खुरमें, शक्कर पाग, नमकीन वगैरह भरे ही रहा करते थे. मतलब वह युग पूर्व तैयारी का था. दादा जी की समय पूर्व तैयारी का आलम यह था कि ट्रेन आने के आधा घण्टे पहले से प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार किया जाता था. किसी आयोजन में पहुंचना हो तो निर्धारित समय से बहुत पहले से आयोजन स्थल पर पहुंच मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा किये जाने की परम्परा थी.
पर अब सब बदल चुका है. अब कुएं का महत्व संस्कृति की रक्षा में विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है. धार्मिक अनुष्ठान के समय कुंआ ढ़ूंढ़ने की नौबत आने लगी है, क्योंकि अब पेय जल नल से सीधे किचन में चला आता है. कुंये के अभाव में महिलाएं, नल का पूजन कर सांकेतिक रूप से संस्कारो को बचाये हुये हैं. सर पर मटकी पर मटकी चढ़ायें पनहारिनें खोजे नही मिलती, इससे रचनाकारों को साहित्य हेतु नये विषय ढ़ूंढ़ने पड़ रहे हैं. सच पूछा जाये तो मुहावरों की भाषा में अब हमने प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग निर्मित कर लिया है. प्यास लगते ही बाटल बंद कुंआ खरीद कर शुद्ध मिनरल वाटर पी लिया जाता है. प्यास के लिये पानी की सुराही लिये चलने का युग आउट आफ डेट हो चुका अब तो वाटर बाटल लटकाये घूमना भी बोझ प्रतीत होता है.
इन परिस्थितियों में बच्चे के जन्मोत्सव पर प्रकृति प्रदत्त आक्सीजन का कर्ज चुकाने के लिये वृक्षारोपण मेरे जैसे दकियानूसी कथित आदर्शवादी बुद्धिजीवीयों का शगल मात्र बन कर रह गया है, जो ये सोचते हैं कि जब हम बाप दादा के लगाये वृक्षो के फल खाते हैं तो आने वाली पढ़ीयों के लिये फलदार वृक्ष लगाना हमारा कर्तव्य है. इस चट मंगनी पट ब्याह और फट बच्चा और झट तलाक वाली पीढ़ी को कर्तव्यो पर नही अधिकारो पर भरोसा है. कोरोना सांसो से सांसो तक पहुंचता है, सबको पता है, पर कुंभ की ठसाठस भीड़ पर सवाल उठाओ तो मौलाना साहब की मैयत की भीड़ दिखा दी जाती है. चुनाव की रैली पर रोक लगाना चाहो तो पहले खेलों का खेला रोकने को कहा जाता है. खेल रोकना चाहो तो राजनीती रोकने नहीं देती. राजनीति विज्ञापन पर भरोसा करती है. राजनीति को मालूम है कि दुनियां ग्लोबल है, जरूरत पड़ेगी तो आक्सीजन, वैक्सीन, दवायें सब आ ही जायेंगी, खरीद कर, सहानुभूति में या मजबूरी में ही सही. और तब तक लाख दो लाख काल कवलित हो भी गये तो क्या हुआ संवेदना व्यक्त करने के काम आयेंगे. चिताओ की आग दुनियां के दूसरे छोर के अखबारों की हेड लाइन्स बनेंगी तो क्या हुआ विपक्षियो पर लांछन लगाने के लिये इतना तो जरूरी है. राजकोष का अकूत धन आखिर होता किसलिये है. राजा की तरह दोनो हाथों से बेतरतीब लुटाकर जहां जिसको जैसा मन में आया, संवेदनाओ के सौदे कर लिये जायेंगे.
आपदा की पूर्व नियोजित तैयारी का युग आउट डेटेड है, भला कोई कैसे अनुमान लगा सकता है कि कब, कहाँ, कितना, कैसा संकट आयेगा, इसलिये जिसे जो करना है करने दो, हम प्रजातंत्र हैं. हमें पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिये. खुद जो मन आये करो, नेतृत्व को बोल्ड होना ही चाहिये. जब प्यास लगेगी, कुंआ खोद ही लेंगें. बहुत ताकतवर, संसाधन संपन्न, ग्लोबल हो चुके हैं हम. कुंआ खोदने में जो समय लगेगा उसके लिये न्यायालय की चेतावनी चलेगी, हम लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, और न्यायालयों का बड़ा सम्मान होता है जनतंत्र में. इसलिये अस्पतालों की अव्यवस्था, आक्सीजन की कमी, दवाओ की अफरा तफरी, कोरोना की दहशत पर क्षोभ उचित नही है. आपदा में अवसर तलाशने वाले कालाबाजारियों, जमाखोरों, नक्कालो से पूरी हमदर्दी रखिये जिन्होंने अनाप शनाप कीमत पर ही सही जिंदगियों को चंद सांसे तो दीं ही हैं.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है “लघुकथा – अनमोल पल”। हम सब बच्चों को पढ़ाते लिखाते हैं और हमारा स्वप्न होता है कि वे दुनिया की सारी खुशियां पाएं । उनकी स्मृतियाँ तो स्वाभाविक हैं । अनमोल पल में अनमोल भेंट सारे परिवार के लिए सुखद है। एक संवेदनशील रचना बन पड़ी है। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 87 ☆
? लघुकथा – अनमोल पल ?
सुधीर विदेश में अच्छी कंपनी पर कार्यरत था। अपने परिवार पत्नी और दो बच्चों के साथ सम्पूर्ण सुख सुविधा के साधन बना लिए थे।
माँ पिताजी एक शहर में अपने छोटे से घर पर रहते थे। बहुत सीधे- साधे और समय के अनुसार उनका समय जैसे – तैसे पंख लगा कर निकल रहा था। पिताजी की तबियत भी खराब होने लगी। माँ चिंता से व्याकुल और परेशान हो बेटे की राह देखने लगी, परंतु बेटा भी क्या करता अपनी जिम्मेदारी के कारण जल्दी से आ ना सका।
फिर ऐसा वक्त आया कि सदा सदा के लिए पिताजी शांत हो गए। विदेश जाने के बाद सुधीर ने कभी घर आने की कोशिश नहीं की थी।
मोहल्ले पड़ोस वाले लोगों के साथ लोग मिलकर सभी कार्यक्रम को शांति पूर्वक किया गया । बेचारी बूढ़ी माँ बस देखती रही। बेटा भी बहुत विचलित था आखिर वह अपने पापा की इकलौती संतान और अंत समय तक नहीं पहुँच सका । उसे कुछ इसकी भी और चिंता खाए जा रही थी।
कुछ समय बाद बेटा- बहू अपने बच्चों के साथ आए तब तक सब कुछ बिखर गया था। माँ को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों के बाद आए बेटा बहू का मुँह देखें कि अपने पति के बारे में सोचें। बेटे से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। पोता- पोती सब कुछ सामान्य भाव से देख रहे थे। समझ रहे था कि पापा के नहीं आने से चिंता के कारण दादा जी की मृत्यु समय से पहले हो गई और दादी उसी के कारण परेशान है।
शाम के समय सभी बैठे थे। दादी ने एक छोटा सा कॉटन वाला तकिया लाकर दिया अपने बेटे को। बेटे ने कहा… यह क्या है मम्मी ने बताया… बेटा तुम्हारे जाने के बाद पापा तुम्हारी तस्वीर के सामने बैठकर घंटो इस तकिए से बातें करते थे और अपना समय गुजारते थे।
उन्होंने कहा… था अनमोल पल है क्या हुआ जो बेटा हम से बाहर गया है उसकी यादें संजोए मैं इस पर टिका हुआ हूं। बेटे ने अचानक देखा अभी कुछ सिलाई कच्ची दिखाई दे रही थी।
उसने तुरंत सिलाई खोलना शुरू किया। कुछ पुराने कागजात और बैंक अकाउंट था। सारी जमा राशि और एक अच्छी लंबे चौड़ी लिखी हुई चिट्ठी थी।
बेटे ने उठाकर पत्र पढ़ा। उस पर लिखा था मेरे प्रिय बेटे मैं जानता हूँ तुम मेरे मरने के बाद आओगे तुम्हें हम दोनों से लगाव भी बहुत है परंतु मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद तुम्हारी मां को तुम किसी वृद्धाश्रम में डालकर मकान बेच कर यहाँ से सदा – सदा के लिए चले जाओ।
इसलिए मैंने जितना तुम्हारे हिस्से की साझेदारी है। सब इस पर है और हाँ मैं जो सुंदर पल तुम्हारे लिए इस तकिए के साथ बिताया हूँ वह तुम्हारा है। बाकी सभी तुम्हारी मम्मी का है।
उसे किसी प्रकार से कोई कष्ट न हो इसलिए मुझे ये करना पड़ा।
चिट्ठी को पोता भी साथ साथ पढ रहा था। अपने पापा से बोला क्या??? सभी पापा को ऐसा करना पड़ता है।
भय और भविष्य की घटना को सोच सुधीर ने झटके से अपने बेटे को गले से लगा लिया
लैपटाप खोल कुछ टाईप करने बैठ गया माँ ने पूछा कुछ लिख रहा है??? सुधीर ने कहा हाँ बताता हूँ। उसने अपने ऑफिस पर एक पत्र टाईप कर अपने कार्यभार से इस्तीफा लिखा और माँ से कहा… मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा सब यहीं पर आपके पास रहेंगे।
तुम्हारा पोता भी यहाँ रह कर पढ़ाई करेगा। मान जो अब तक जोरो से रही थी हंसते हुए बोली… मैं नाहक कि उनसे लड़ती थी इस तकिए के लिए। तकिए ने कमाल कर दिया मुझे मेरा बेटा सूद समेत लौटा दिया।
उनका अनमोल पल मुझे अब समझ आया। वे कहा… करते थे देखना यह अनमोल पल बहुत सुखद होगा। हँसते हुए माँ ने.. अपने पोते और बहू को गले से लगा लिया। बेटे के आंखों से अश्रुधार बह निकली।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “वह विदुषी वीर कुड़ी … ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।)
☆ “कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के विशेष स्वर्णिम अनुभवों को साझा करने जा रहे हैं जो उन्होने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के कार्यकाल में प्राप्त किए थे। आपने आरसेटी में तीन वर्ष डायरेक्टर के रूप में कार्य किया। आपके कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। इस उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा दिल्ली में आपको बेस्ट डायरेक्टर के सम्मान से सम्मानित किया गया था। मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अनुभव साझा करने के लिए ह्रदय से आभार – हेमन्त बावनकर)
आज ऐसे एक इवेंट को आप सब देख पायेंगे, जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।
यूं तो आरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे।
उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया, फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था, दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ।
आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है।इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन अलग अलग तरह के कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण खाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ, सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…..। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप देखकर बताईए, आपको कैसा लगा।
इस अप्रतिम अनुभव को साझा करते हुए मुझे गर्व है कि मुझे आशीष स्वामी जी जैसे महान कलाकार का सानिध्य प्राप्त हुआ। अभी हाल ही में प्राप्त सूचना से ज्ञात हुआ कि उपरोक्त कार्यशाला के सूत्रधार श्रीआशीष स्वामी का कोरोना से निधन हो गया।
उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया, दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले, ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए, कोरोना उन्हें लील गया। महान कलाकार को विनम्र श्रद्धांजलि!!