सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “जो मिला, सो मिला । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 81 ☆

☆ लक़ीर ☆

कितना आसान होता है ना

लक़ीरों को जोड़ देना

किसी भी आकृति से?

 

वो भी एक लक़ीर ही थी…

जिससे जोड़ दिया गया,

वो जुड़ गयी!

 

उससे कहा गया, “मुड़ो!”

वो मुड़ गयी…

उससे कहा गया, “घूमो!”

वो गोल घूम गयी…

उससे कहा गया, “झुको!”

वो झुक गयी…

उससे कहा गया, “काटना पड़ेगा तुम्हें!”

वो कट गयी…

 

आख़िर, लक़ीर ही तो थी वो-

कोई भी रूप ले सकती थी!

 

एक दिन किसी कोने में पड़े हुए

जब उसकी नज़र अचानक आईने पर गयी,

वो अपना रूप देखकर कांप गयी…

सिहरन सी उठी उसके बदन में…

न जाने कहाँ से उसमें ताक़त आई

कि वो सीधी होकर खड़ी होने लगी!

 

कहाँ मंज़ूर था समाज को

उसका इस तरह अपना स्वरूप ले लेना?

वो अपनी परम्पराओं की तलवार से

करने लगा उसपर वार!

 

पर इस बार

वो न मुड़ी, न घूमी;

वो न झुकी, न कटी!

उसने अब अपना अस्तित्व और उसका महत्त्व

बखूबी जान लिया था…

खड़ी रही सीना तानकर

हर वार को सहती हुई,

ख़ुद को सहलाती हुई,

और आगे बढती हुई…

 

जब उसको चलते हुए

ज़माने ने इस नए रूप में देखा,

वो भी समझ गया

कि उसकी उड़ान को

कोई नहीं रोक सकता!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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