हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #144 ☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘भूत जगाने वाले’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 144 ☆

☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले

उस दिन घर में नया सीलिंग फैन आया था। पत्नी और मैं खुश थे। पंखे को फिट कराने के बाद हम उसके नीचे बैठे उसे अलग-अलग चालों पर दौड़ा रहे थे— कभी दुलकी, सभी सरपट। तभी कहीं से घूमते घामते सुखहरन जी आ गये। कुर्सी पर बैठकर उन्होंने ऊपर की तरफ देखा, बोले, ‘ओहो, नया पंखा लगवाया है?’

मैंने खुश खुश कहा, ‘हाँ।’

उन्होंने पूछा, ‘कितने का खरीदा?’

मैंने जवाब दिया, ‘अठारह सौ का।’

वे मुँह बिगाड़कर बोले, ‘तुम बहुत जल्दी करते हो। हमसे कहते हम आर्मी कैंटीन से दिलवा देते। कितने मेजर, कर्नल और ब्रिगेडियर अपनी पहचान के हैं। कम से कम दो तीन सौ की बचत हो जाती।’

हमारे उत्साह की टाँगें टूट गयीं। पत्नी ने मेरी तरफ मुँह फुला कर देखा और कहा, ‘सचमुच आप बहुत जल्दबाजी करते हो। सुखहरन भैया से कहते तो कुछ पैसे बच जाते।’

हमारा मूड नाश हो गया। अब हम अपने उत्साह को बार-बार पूँछ पकड़ कर ऊपर उठाते थे और वह गरियार बैल की तरह नीचे बैठ जाता था। सुखहरन हमारा सुख हर कर आराम से बैठे पान चबा रहे थे। पंखे की ठंडी हवा अब हमें लू की तरह काट रही थी।

इसके बाद जब एक ऑटोमेटिक प्रेस खरीदने की ज़रूरत हुई तो मैंने सुखहरन को पकड़ा। वे मेजरों और ब्रिगेडियरों की चर्चा करके मुझे कई दिन बहलाते रहे, लेकिन वे मुझे प्रेस नहीं दिलवा पाये। उस दिन ज़रूर वे हमारी खुशी को ग्रहण लगा गये।

ऐसे भूत जगाने वाले बहुत मिलते हैं। चतुर्वेदी जी के घर जाता हूँ तो वे अक्सर बीस साल पहले हुई अपनी शादी का रोना लेकर बैठ जाते हैं। उन्हें अपनी पत्नी से बहुत शिकायत है। पत्नी को सुनाकर कहते हैं, ‘क्या बताएं भैया, हमारे लिए दुर्जनपुर से द्विवेदी जी का रिश्ता आया था। डेढ़ लाख नगद दे रहे थे और साथ में एक मोटरसाइकिल भी कसवा देने को कह रहे थे। लेकिन अपने भाग में तो ये लिखी थीं।’ वे पत्नी की तरफ हाथ उठाते हैं।

मैं उनके चंद्रमा के समान असंख्य  गड्ढों से युक्त चेहरे और उनकी घुन खाई काया को देखता हूँ और कहता हूँ, ‘सचमुच दुर्भाग्य है।’ फिर युधिष्ठिर की तरह धीरे से जोड़ देता हूँ, ‘तुम्हारा या उनका?’

मेरे एक और परिचित संतोख सिंह परम दुखी इंसान हैं। वैसे खाते-पीते आदमी हैं, कोई अभाव नहीं है। लेकिन वेदना यह है कि उन्हें बीस पच्चीस साल पहले एक रुपये फुट के हिसाब से एक ज़मीन मिल रही थी जो उन्होंने छोड़ दी।अब वही ज़मीन डेढ़ सौ रुपए फुट हो गयी। संतोख सिंह इस बात को लेकर व्यथित हैं कि वे उस ज़मीन को लेने से क्यों चूक गये। लेकिन असल बात यह है संतोख सिंह परले सिरे के मक्खीचूस हैं और उस वक्त यदि स्वयं गुरु बृहस्पति भी उन्हें वह ज़मीन खरीदने की सलाह देते तब भी वे अपनी टेंट ढीली न करते।

ऐसे ही भूत जगाने वाले बहुत से राजा रईस हैं। उनका ज़माना लद गया, लेकिन उनमें से बहुत से अभी अपने को राजा और जनता को अपनी प्रजा समझते हैं। अपने घर में पुरानी तसवीरों और धूल खाये सामान से घिरे वे मुर्दा हो गये वक्त को इंजेक्शन लगाते रहते हैं।खस्ताहाल हो जाने पर भी अपने सिर पर दो चार नौकर लादे रहते हैं। अपने हाथ से काम न खुद करते हैं न अपने कुँवरों को करने देते हैं। ऐसा ही प्रसंग लखनऊ की एक बेगम साहिबा का है जो अपने पुत्र, पुत्री, पाँच छः नौकरों और दस बारह कुत्तों के साथ कई साल तक दिल्ली स्टेशन के एक वेटिंग रूम में पड़ी रहीं।

चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में एक प्रसिद्ध चरित्र मिस हविशाम का है। मिस हविशाम को उनके प्रेमी ने धोखा दिया और वह ऐन उस वक्त गायब हो गया जब मिस हविशाम शादी के लिए तैयार बैठीं उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। मिस हविशाम पर इस बात का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने समय को उसी क्षण रोक देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने घर की सब घड़ियाँ रुकवा दीं। वह ज़िंदगी भर अपनी शादी की पोशाक पहने रहीं। घर की सब चीजे़ं वैसे ही पड़ी रहीं जैसी वे उस दिन थीं। शादी की केक पर मकड़जाले तन गये। लेकिन इस सब के बावजूद समय मिस हविशाम की उँगलियों के बीच से फिसलता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

एक अंग्रेज कवि ने कहा है, ‘भूत को अपने मुर्दे दफन करने दो। वर्तमान में रहो।’ लेकिन भूत जगाने वालों को यह बात समझा पाना बहुत मुश्किल है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ?

दर्शन और प्रदर्शन पर मीमांसा आज के आलेख में जारी रखेंगे। जैसा कि गत बार चर्चा की गई थी, बढ़ते भौतिकवाद के साथ दर्शन का स्थान प्रदर्शन लेने लगा है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस प्रदर्शन का उफान देखने को मिलता है। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या जीवन का कोई क्षेत्र हो,  नाममात्र उपलब्धि को ऐसे दिखाया जाने लगा है मानो वह ऐतिहासिक हो गई हो। कुछ लोग तो ऐतिहासिक को भी पीछे छोड़ चुके। उनकी उपलब्धियाँ तो बकौल उनके ही कालजयी हो चुकीं। आगे दिखने की कोशिश में ज़रा-ज़रा सी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मनुष्य को उपहास का पात्र बना देता है।

यूँ देखें तो आदमी में आगे बढ़ने की इच्छा होना अच्छी बात है। महत्वाकांक्षी होना भी गुण है। विकास और विस्तार के लिए महत्वाकांक्षा अनिवार्य है पर किसी तरह का कोई योगदान दिये बिना, कोई काम किये बिना, पाने की इच्छा रखना तर्कसंगत नहीं है। अनेक बार तो जानबूझकर विवाद खड़े किए जाते हैं, बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा की तर्ज़ पर।  बात-बात पर राजनीति को कोसते-कोसते हम सब के भीतर भी एक राजनीतिज्ञ जड़ें जमा चुका है। कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं हम?

हमारा सांस्कृतिक अधिष्ठान ‘मैं’ नहीं अपितु ‘हम’ होने का है। कठोपनिषद कहता है,

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

विसंगति यह है कि अपने पूर्वजों की सीख को भूलकर अब मैं, मैं और केवल मैं की टेर है। इस ‘मैं’ की परिणति का एक चित्र इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता में देखिए-

नयी तरह की रचनायें रच रहा हूँ मैं,

अख़बारों में ख़ूब छप रहा हूँ मैं,

देश-विदेश घूम रहा हूँ मैं,

बिज़नेस क्लास टूर कर रहा हूँ मैं..,

मैं ढेर सारी प्रॉपर्टी ख़रीद रहा हूँ,

मैं अनगिनत शेअर्स बटोर रहा हूँ,

मैं लिमोसिन चला रहा हूँ,

मैं चार्टर प्लेन बुक करा रहा हूँ..,

धड़ल्ले से बिक रहा हूँ मैं,

चैनलों पर दिख रहा हूँ मैं..,

मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ,

मैं अलां में डूबा हूँ, मैं फलां में डूबा हूँ,

मैं…मैं…मैं…,

उम्र बीती मैं और मेरा कहने में,

सारा श्रेय अपने लिए लेने में,

आज श्मशान में अपनी देह को

धू-धू जलते देख रहा हूँ मैं,

हाय री विडंबना..!

कह नहीं पाता-

देखो जल रहा हूँ मैं..!

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है पर जीवन के सत्य को जानते हुए भी अनजान बने रहना, आँखें मीचे रहना केवल नादानी नहीं अपितु अज्ञान की ओर संकेत करता है। यह अज्ञान प्रदर्शन को उकसाता है। वांछनीय है, प्रदर्शन से उदात्त दर्शन की ओर लौटना। इस वापसी की प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 96 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 96 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 96) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 96 ?

☆☆☆☆☆

उम्र ने एक दिन तलाशी ली…

तो  जेब से कुछ लम्हे बरामद हुए

कुछ गम के थे

कुछ नम से थे

और कुछ टूटे-फूटे…

बस कुछ ही सलामत मिले

जो बचपन के थे..!

One day, the age

searched my life

Found some moments,

recovered from the pocket

Some were sad

Some were bad

And some, broken…

Only a few were intact

Those were of

the childhood..!

☆☆☆☆☆ 

ना ही गुजरे लम्हों का था ख्याल,

ना आने वाले वक्त का कोई इल्म,

नादानियों में जो यूँही गुज़र गया,

क्या वक्त  वो कमाल का था…!

Neither was any thought of the time bygone

Nor any premonition of the coming moments…

The time just passed away in doing spirited follies,

What an amazing time of the life, it used to be…!

☆☆☆☆☆ 

क्या ग़ज़ब का रिश्ता हो

गया है ये तेरा मेरा…

बात दोनों ही नहीं करते

 याद दोनों ही कराते हैं…!

What an inexplicable relationship

has become, yours and mine…

Both of us do not talk but

we both remember each other…!

☆☆☆☆☆

जाते जाते ही सही…

ये मलाल रह गया,

क्या उसे भी इश्क़ था…

ये सवाल रह ही गया…!

This anguish kept on lingering

even while being separated,

Was she also in love with me,

this ambiguity remained only…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 96 ☆ मुक्तिका…क्या बताएँ कौन हैं… ? ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…क्या बताएँ कौन हैं… ? )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 96 ☆ 

☆ मुक्तिका… क्या बताएँ कौन हैं?

क्या बताएँ कौन हैं?

कुछ न बोले मौन हैं।

 

आँख में पानी सरीखे

या समझ लो नौन हैं।

 

कहीं तो हम नर्मदा हैं

कहीं पर हम दौन हैं।

 

पूर्व संयम था कभी पर

आजकल यह यौन है।

 

पूर्णता पहचान अपनी

नहीं अद्धा-पौन हैं।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #127 ☆ विश्वगुरू भारत ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 127 ☆

☆ ‌कविता – विश्वगुरू भारत ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आर्यावर्त था देश हमारा,

विश्व गुरु था जग से न्यारा।

गौरवशाली इसकी शान,

अतुलनीय इतिहास महान।

इसने विश्व को ज्ञान दिया,

और दशमलव मान दिया।

अंतरिक्ष की दूरी नापी,

भरत नाम पहचान है काफी। ।1।।

 

प्यारा भारत देश हमारा,

ये है सारे जग से न्यारा।

ऋषि मुनियों की तपस्थली है,

दयाधर्म की हृदयस्थली है।

सत्यधर्म है इसकी आन,

शूर वीरता है पहचान।

ऋषिकुलो के वंशज हैं हम,

मानव कुल के अंशज है हम।।2।।

 

एक बार फिर त्याग से अपने,

धर्मध्वजा फहरायेंगे।

विश्वगुरु बन भारतवासी,

राष्ट्र का मान बढायेंगे।

एक बार फिर सारे जग में,

ज्ञान की जोत जलायेंगे।

अपने सत्कर्मो से फिर

हम विश्व गुरु कहलायेंगे।।3।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ तुझा पाय वामन ठरतो… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? तुझा पाय वामन ठरतो ?   सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

इवल्या इवल्या रोपांसाठी

तुझा पाय वामन ठरतो

पाय  पडताच रोपांवर

 त्याच जगणच नष्ट करतो

म्हणून चालताना पहावच

पायाखाली येतय काय

आपण पुढे जाता जाता

डोळस असावेत आपले पाय

काहिंच फुलण झुलण सार

 केवळ असत दुसऱ्या साठी

 परिमलही वाऱ्यास देतात

 तीच गंधित श्वासासाठी

  आभार त्याचे मानू नका

  दुर्लक्षही करून चालू नका

  जमल तर थोड पाणी देऊन

  आधार तयांना द्यावा मुका

   हिरवाई टिकेल तरच

  सम्रुद्वीच होईल जगण

 आपल्या सकल हितासाठी

  सुधाराव  आपलच वागण

चित्र साभार – सुश्री नीलांबरी शिर्के 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #145 – ग़ज़ल-31 – “माना आँसुओं से नहीं बदला…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल माना आँसुओं से नहीं बदला …”)

🎁 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री सुरेश पटवा जी को स्वस्थ जीवन के सत्तर वसंत पूर्ण करने पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🎁

? ग़ज़ल # 31 – “माना आँसुओं से नहीं बदला …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

आसमाँ में खोजने पर कहीं भी जवाहर नहीं मिलता,

समुंदर में डूबने पर कहीं भी आफ़ताब नहीं मिलता।

 

ज़ार-ज़ार रोना पड़ता है उस स्याह बादलों को जनाब,

फिर भी रेगिस्तान में कहीं पर सायवान नहीं मिलता।

 

माना आँसुओं से नहीं बदला कभी किसी का नसीब,

खून-पसीना एक करके भी तो जहान नहीं मिलता।

 

जो बिना खटके आए और वो रूठे बिना चला जाए,

ढूँढने से दुनिया में ऐसा कोई मेहमान नहीं मिलता। 

 

आँख बंद करके दुआएँ माँगते मंदिर मस्जिद में सब,

अंधों के पास कभी भी नज़र का सामान नहीं मिलता।

 

बुढ़ापा बीमारी और मौत से बचा कर स्वर्ग ले जाए

जहाँ में किसी को ऐसा कोई भगवान नहीं मिलता।

 

ख़ून-पसीना एक करना पड़ता पड़ता पंडा-मुल्ला को भी

पूजा अरदास नमाज़ उपवास से वरदान नहीं मिलता।

 

आसमान में उड़ने लगो तो धरती छूट जाती है तुमसे,

धरती पर रहो तो साला हाथ में आसमान नहीं मिलता।

 

शायरी के अखाड़े में दंड बैठक बहुतेरे शायर लगाते हैं,

जो कलाजंग लगा पाए ऐसा पहलवान नहीं मिलता।

 

तुम अहसासों को पढ़ना जल्दी सीखा जाओ ‘आतिश’,

हर महफ़िल में तुम्हें जाहिराना कद्रदान नही मिलता।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 85 ☆ गजल – ’’आदमीयत से बड़ा जग में…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “आदमीयत से बड़ा जग में …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 85 ☆ गजल – आदमीयत से बड़ा जग में …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आदमी को फूलों की खुशबू लुटानी चाहिये।

दोपहर में भी न मुरझा मुस्कराना चाहिये।।

बदलता रहता है मौसम, हर जगह पर आये दिन

बेवफा मौसम को भी अपना बनाना चाहियें।

मान अपनी हार अँधियारो  से डरना है बुरा

मिटाने को अँधेरे दीपक जलाना चाहिये।

मुश्किलें आती हैं अक्सर हर जगह हर राह में

आदमी को फर्ज पर अपना निभाना चाहिये

क्या सही है, क्या गलत है, क्या है करना लाजिमी

उतर के गहराई में, खुद मन बनाना चाहिये।

जिन्दगी के दिन हमेशा एक से रहते नहीं

अपने खुद पर रख भरोसा बढ़ते जाना चाहिये।

जो भी जिसका काम हो, हो जिन्दगी में जो जहॉ

नेक नियती से उसे करके दिखाना चाहिये।

आदमीयत से बड़ा जग में है नहीं कोई धरम

बच्चों को सद्भाव की घुट्टी पिलाना चाहिये।

चार दिन की जिंदगी में बाँटिये  सबको ख़ुशी 

खुदगरज होके न औरों को सताना चाहिये।

किसी का भी दिल दुखे न हो सदा ऐसा जतन

भलाई कर दूसरों की, भूल जाना चाहिये।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 93 – भक्ति और संपत्ति ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #93 🌻 भक्ति और संपत्ति 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार काशी के निकट के एक इलाके के नवाब ने गुरु नानक से पूछा, ‘आपके प्रवचन का महत्व ज्यादा है या हमारी दौलत का? ‘नानक ने कहा, ‘इसका जवाब उचित समय पर दूंगा।’

कुछ समय बाद गुरु नानक जी ने नवाब को काशी के अस्सी घाट पर एक सौ स्वर्ण मुद्राएं लेकर आने को कहा। नानक वहां प्रवचन कर रहे थे। नवाब ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल नानक के पास रख दिया और पीछे बैठ कर प्रवचन सुनने लगा। वहां एक थाल पहले से रखा हुआ था।

प्रवचन समाप्त होने के बाद नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं मुट्ठी में लेकर कई बार खनखनाया। भीड़ को पता चल गया कि स्वर्ण मुद्राएं नवाब की तरफ से गुरु नानक जी को भेंट की गई हैं। थोड़ी देर बाद अचानक गुरु नानक जी ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं उठा कर गंगा में फेंकना शुरू कर दिया। यह देख कर वहां अफरातफरी मच गई। कई लोग स्वर्ण मुदाएं लेने के लिए गंगा में कूद गए। भगदड़ में कई लोग घायल हो गए। मारपीट की नौबत आ गई। नवाब को समझ में नहीं आया कि आखिर गुरु नानक जी ने यह सब क्यों किया। तभी गुरु नानक जी ने जोर से कहा, ‘भाइयों, असली स्वर्ण मुद्राएं मेरे पास हैं। गंगा में फेंकी गई मुद्राएं नकली हैं। आप लोग शांति से बैठ जाइए।’ जब सब लोग बैठ गए तो नवाब ने पूछा, ‘आप ने यह तमाशा क्यों किया?’

धन के लालच में तो लोग एक दूसरे की जान भी ले सकते हैं।’ गुरु नानक जी ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया वह आपके प्रश्न का उत्तर था। आप ने देख लिया कि प्रवचन सुनते समय लोग सब कुछ भूल कर भक्ति में डूब जाते हैं। लेकिन माया लोगों को सर्वनाश की ओर ले जाती है। प्रवचन लोगों में शांति और सद्भावना का संदेश देता है मगर दौलत तो विखंडन का रास्ता है।‘ नवाब को अपनी गलती का अहसास हो गया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 106 – दान मागते धरणी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 106 – दान मागते धरणी ☆

वृक्षवल्ली या फुलल्या सुंदर स्वर्ग भासते अवनी।

लाड पुरविण्या कुशीत घेई धरा नसे ही जननी।

 

अविरत शमवी क्षुधा तृषाही भरण पोषणा सजली।

अमृत रसमय फळे चाखण्या नित्य देतसे वदनी।

 

सोनेरी तव किरण भास्करा शेत शिवारी डुलती।

पहाट वारा मना भुलवितो शीतल छाया सदनी।

 

आनंदाची करण्या उधळण चंद्र चांदणे जमती।

नयन रंम्य  त्या सोनकिड्यांनी नयन मनोहर रजनी ।

 

निसर्गास या नकोस लावू नजर मानवा जहरी।

जीव चक्र हे अखंड फिरते वसुंधरेच्या भवनी ।

 

भू जल वायू टाळ प्रदूषण दान मागते धरणी।

स्वच्छंदाने खुशाल घेई उंच भरारी गगनी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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