हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 – मोर के आँसू ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  नौवीं  कड़ी में उनकी  एक अद्भुत कविता   “मोर के आँसू ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 ☆

 

☆ मोर के आँसू ☆ 

 

जंगल में मोर नाचा …..

किसने देखा?

इसने देखा? उसने देखा?

 

पर अब पता चला कि-

किसी ने भी नहीं देखा।

 

काले-काले  मेघ देखकर,

मोरनी नाचती रहती है,

और

नाम मोर का लगता है।

 

मोरनी जब थक जाती है,

अपने पैर देखकर रोती है।

तब मोर को दया आती है,

और

वह भी आँसू बहा देता है।

 

सारा खेल यहीं हो जाता है,

फिर मोरनी आँसू पी लेती है,

एक जीवन की शुरुआत होती है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ दोहा छंद ☆ – चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

(सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश” जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। प्रस्तुत है उनके कुछ दोहे-छंद। ) 

 

☆ दोहा छंद☆ 

 

घर घर होना चाहिये, नारी का सम्मान।

सच्चे अर्थों में यही, है जगकी पहचान।।

 

नारी जगकी रचयिता, नारी जगका सार।

नारी से ही सज रहा, सुंदर सा घरद्वार।।

 

नारी प्रतिमा प्रेम की, नारी हर श्रृंगार।

बाहर से शीतल मगर, भीतर से अंगार।।

 

नारी तुम नारायणी, नारी तुम्हीं हो वेद।

सुप्त ह्रदय में स्वामिनी, भरती हो संवेद।।

 

नारी की महिमा बड़ी, जान रहे सब देश।

नारी प्रतिभा बहुमुखी, कहती है “चन्द्रेश”

 

कवियित्री चन्द्रकांता सिवाल ” चंद्रेश ”
न्यू दिल्ली – 110005
ई मेल आई डी– [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆ नज़रें पार कर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆

☆ नजरें पार कर

 

उस गली से गुजरते हुए
खटकता है मुझे,
जहाँ आखेटक होते हैं खड़े
ताकते हुए।
जो नारी होने का अहसास
करवाते हैं ।
कुछ कठपुतलियाँ भी साथ
हो लेती हैं।
बहेलिया अपना काम करते हैं,
मैं अपना।
क्योंकि, उस गली के किनारे
कुछ पेड़ -पौधे उगाए गए हैं ।
जिनमें तुलसी, गुलाब,  गेंदें
चमेली और रातरानी
के फूल महकते हैं ।
मैं उनको निहारने का
आनंद उठाने के लिए
उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर।

उन फूलों का हिल डुलना
भाता है मन को।
बंधनहीन लहराती सुगंध
छू लेती है मन को।
उनसे मन भर लेने को
मैं उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर ।

क्योंकि, फूल
आखेटक, बहेलिया या कठपुतली
नहीं हैं ।
इसलिए मैं उस गली से
गुजरती हूँ ।
नजरें पार कर ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अखंड रचना! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अखंड रचना! 

गहरी मुँदती आँखें,

थका तन,

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ,

क्या आखिरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा…?

नींद, जिसमें

सुबह किये जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की ऊहापोह,

हाँ कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा…!

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन की अनुमति

मिले न मिले तब भी

नया लिखूँगा..!

 

देखना, समझना, रचना अखंड रहे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर हर गंगे ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “हर हर गंगे ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी की कविता  गंगा जी की गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा और इस अद्भुत यात्रा में उनके विभिन्न स्वरूप,उनके विभिन्न पड़ाव, उत्तुंग पर्वत शिखरों से हरे भरे मैदानों से होते हुए गंगा सागर में विलीन होते हुए विभिन्न धर्मों, संप्रदायों को सर्वधर्म समभाव व एकता का  संदेश देती  हैं। )

 

 ☆ हर हर गंगे ☆

गंगोत्री के उत्तुंग शिखर से,

आती हो बन  पापनाशिनी।

कल कल करती,  हर-हर करती,

बन जाती हो जीवनदायिनी।

 

तीव्र वेग से धवलधार बन

हरहराती, आती बल खाती।

चंचल नटखट बाला सी,

इतराती,  इठलाती आती।

 

मन खिल उठता मेरा,

दिव्य रूप देखकर तेरा,

हर-हर गंगे,  हर-हर गंगे।।

 

जब मैदानों में चलती हो,

तो मंथर-मंथर बहती हो।

अपने दुख अपनी पीड़ा को,

कभी न व्यक्त करती हो।

 

सब तीरथ करते अभिनंदन,

स्पर्श जब तुम उनका  करती हो।

सुबह शाम सब करते वंदन,

जब मध्य उनके तुम बहती हो।

 

जनमानस श्रद्धापूर्वक

करते रहते जयजयकार,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरे पावन जल मिट्टी से,

समस्त जग है जीवन पाता।

वृक्ष अन्न फल-फूल धरा से,

गंग कृपा से, है  मानव उपजाता।

 

तीर्थराज का कर अभिनंदन,

जब काशी तुम आती हो।

अर्धचंद्र का रूप धर,

भोले का भाल सजाती हो।

 

मनोरम दृश्य देख, हो प्रसन्न

देवगण भी बोल उठते,

हर-हर गंगे, हर-हर गंगे।।

 

अपने पावन जल से मइया,

शिव का अभिषेक तुम करती हो।

भक्तों के पाप-ताप हरती,

जन-जन का मंगल करती हो।

 

सारा जनमानस काशी का,

हर हर बंम बंम बोल रहा है।

ज़र्रा ज़र्रा, बोल रहा है

हर हर गंगे, हर हर गंगे।।

 

सूर्यदेव की स्वर्णिम आभा,

जब गंगा में घुल जाती है।

स्वच्छन्द परिन्दो की टोली,

उनके ऊपर मंडराती है।

 

घाटों की नयनाभिराम झांकी,

बरबस मन को हरती है।

जाने अनजाने दिल के भीतर से

ये आवाज उभरती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

कहीं मन्दिरों के भीतर,

हर-हर का नाद सुनाई देता।

कहीं अजानों की पुकार में,

वो ही तत्व दिखलाई देता।

 

गिरजों और गुरूद्वारों में भी,

वो ही छटा दिखाई देती।

हर जुबान हर दिल  के भीतर,

वो ही आवाज़ सुनाई देती।

हर हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरा पावन जल ले अंजलि भर,

कोई श्रद्धांजलि देता है

कोई मुसलमां तेरा जल ले,

रोज़ वजूकर लेता है।

 

सिख ईसाई गंगा जल से

पूजा अपनी करते हैं।

सदा सर्वदा हर दिलसे

यही सदा, सदा सुनाई देती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

बहते-बहते मंथर-मंथर,

जब सागर में मिल जाती हो।

सागर का मान बढ़ाती,

गंगासागर कहलाती हो।

 

सागर की अंकशायिनी बन,

लहरों पे इठलाती हो।

उत्ताल तरंगें बोल उठती,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 9 – कौन दूध इतना बरसाता है? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “कौन दूध इतना बरसाता है?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कौन दूध इतना बरसाता है? ☆  

 

सौ घर की बस्ती में

कुल चालीस गाय-भैंस

फिर इतना दूध कहाँ से

नित आ जाता है।

 

चार, पांच सौ के ही

लगभग आबादी है

प्रायः सब लोग

चाय पीने के आदि है

है सजी मिठाईयों से

दस-ग्यारह होटलें

वर्ष भर ही, पर्वोत्सव

घर,-घर में, शादी है।

नहीं, कहीं दूध की कमी

कभी भी पड़ती है,

सोचता हूँ, कौन

दूध इतना, बरसाता है

सौ घर की………….।

 

शहरों में सजी हुई

अनगिन दुकाने हैं

दूधिया मिष्ठान्नों की

कौन सी खदाने हैं

रंगबिरंगे रोशन

चमकदार आकर्षण

विष का सेवन करते

जाने-अनजाने हैं।

जाँचने-परखने को

कौन, कहाँ पैमाने

मिश्रित रसायनों से

जुड़ा हुआ, नाता है

सौ घर की……….।

 

नए-नए रोगों पर

नई-नई खोज है

शैशव पर भी,अभिनव

औषधि प्रयोग है

अपमिश्रण के युग में

शुद्धता रही कहाँ

विविध तनावों में

अवसादग्रस्त लोग हैं।

मॉलों बाजारों में

सुख-शांति ढूंढते

दर्शनीय हाट,

ठाट-बाट यूँ दिखाता है

सौ घर की बस्ती में….।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ झूला लागो कदम की डारी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की  श्रावण मास पर  विशेष कविता  “झूला लागो कदम की डारी ।”)

 

☆ झूला लागो कदम की डारी ☆ 

झूला लागो कदम की डारी ।

झूलें मोहन मुरलिया धारी ।।

झूला लागो कदम की डारी ।

 

कान्हा हँस हँस सबहिं चिढ़ावें ।

राधा बैठी बड़ी सकुचावें ।।

श्याम तक रये अपनी पारी ।

झूला लागो कदम की डारी ।।

 

ग्वाल बाल संग खेलन आवें ।

गोपियों को वो खूब सतावें ।।

करें हास्य नटवर गिरधारी ।

झूला लागो कदम की डारी ।।

 

जब मनिहारिन बने मनमोहन ।

नारी भेष सुंदर अति सोहन ।।

चूड़ियां पहन लईं अतकारी ।

झूला लागो कदम की डारी ।।

 

गए परदेश मोरे सांवरिया ।

नैनन बरसे कारी बदरिया ।।

चिढ़ा रही जा बदरिया कारी ।

झूला लागो कदम की डारी।।

 

सावन फुहारें मनहिं भिगातीं ।

गोपियाँ सब मिल कजरी गातीं ।।

“संतोष”शरण पड़ो सब हारी ।

झूला लागो कदम की डारी ।।

 

झूला लागो कदम की डारी ।

झूलें राधा रसिक बिहारी

झूला लागो कदम की डारी

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 3 ☆ भूल जाते हैं ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “भूल जाते हैं”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 3  

 

☆ भूल जाते हैं ☆

 

जो हुआ, सो हुआ, उसे वहीँ ख़त्म कर आते हैं

आओ हम-तुम मिलकर, रंजिश सब भूल जाते हैं

 

सफ़र तो अनमोल था; कुछ फूल, कुछ कांटे थे

चलो, हम खुशबुओं में फिर सारोबार हो जाते हैं

 

आओ पास बैठो, सीने से लिपट जाना चाहती हूँ

तुम्हारे साथ से मौसम के तेवर भी बदल जाते हैं

 

तुम ठुड्डी पकड़कर मेरा चेहरा ज़रा सा उठा लेना

इस ख़याल मात्र से दरख़्त भी गुनगुना जाते हैं

 

ज़िंदगी चंद लम्हों की, न जाने कब गुज़र जाए

अनमोल हैं वो पल जो साथ हैं, उन्हें जी जाते हैं

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ काश्मीर दर्शन ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित  पृथ्वी के स्वर्ग – काश्मीर पर एक अभूतपूर्व कविता “काश्मीर दर्शन”।) 

 

 ☆ काश्मीर दर्शन ☆

 

नभ चुम्बी हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से अति भासमान

भारत माता के दिव्य भाल काश्मीर तुम हो अनुपम विधान

 

तुम इस धरती पर स्वर्ग सुखद अति शांति दाई सौंदर्य धाम

हर कंण हर वन हर वृक्ष नदी हर जलधारा मोहक ललाम

 

तुम प्रकृति सुंदरी के निवास पावन आकर्षक  प्रभावन

तुम परम अलौकिक सुंदरतम रूप तुम्हारा कांतिमान

 

दिखता नहीं भू भाग कोई जो हो तुम सा सुंदर महान

हर छोर बिछी सुखद हरीतिमा नीचे नीला आसमान

 

गरिमा गौरव से भरे हुए दिखते सैनिक से देवदार

नभतल में मनमोहक घाटी जिनमें बहते निर्झर हजार

 

गिरि शिखर शोभते हैं शिव से जो तन पर धारे भस्म राग

जो निर्निमेष नित शांत नयन जिन में दिखता गहरा विराग

 

दर्शक के मन में श्रद्धा का भर जाता लखकर सहज भाव

हर यात्री पर परिवेश सदा भर देता है पावन प्रभाव

 

पावनता में है सच्चा सुख आनन्द भरा जिसमें अनन्त

सदियों से इससे प्रकृति की गोद में बसते आए साधु संत

 

 

मनमोहक छवि के विविध रूप हर लेते मन के दुख तमाम

ज्यों सोनमर्ग गुलमर्ग झील डल और आकर्षक पहलगांव

 

सरिता वन पर्वत पवन गगन सब देते हैं संदेश मौन

मन के पवित्र स्नेह भाव बिन सुख दे सकता है कहां कौन

 

नित हरी-भरी सुखदाई परम पावन पवित्र है प्रकृति गोद

जिसका दर्शन स्पर्श सदा हर मन  में भर देता प्रमोद

 

सारा पावन परिवेश प्रकृति सब नदी वृक्ष धरती आकाश

देते हैं शुभ संदेश यही सब हिलमिल जग में रहो साथ

 

केसर चैरी अखरोट सेव के बहुत धर्मी हम वृक्ष बाग

धरती मां से पा जीवन रस रहते सुख से सब भेद त्याग

 

हम  भिन्न जाति  और भिन्न रंग पर हममें न कोई भेद

तुम बुद्धिमान मानव आपस में लड़ क्यों करते नए छेद

 

मानव तू भी तज द्वेष द्वंद छल छद्म और कलुषित विचार

अपने अंतरतम की सुन पुकार स्नेह भाव रख बन उदार

 

क्यों फंसकर  विविध प्रलोभन में करता रहता नित नवल घात

है प्रेम भाव में शांति और सुख जो अनुपम  शिव का प्रसाद

 

ऊंचे हिम शिखरों पर ही जहां बसते हैं हिम शिव अमरनाथ

जिनके दर्शन के पुण्य लाभ हित  यात्रा करता देश  साथ

 

हर दिव्य  दृश्य अनमोल शांति शीतलता का मंजुल निखार

सब साथ सदा मिल दर्शक को आध्यात्मिकता में देते उतार

 

लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान

मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान

 

जग सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम

हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

मैत्री दिवस पर विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की   मित्रता पितृ पर दिवस पर विशेष  एक पत्र कविता

 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) 

 

☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆

 

नमस्कार, प्रिय मित्र!

तुम्हारा पत्र मिला

पढ़कर जाने

सब हालचाल

और कुशल क्षेम

के समाचार,

मैं भी यहाँ मजे में

स्वस्थ, प्रसन्नचित्त हूँ

सह परिवार।।

 

मित्र! तुम्हारा पत्र

सुखद आश्चर्य लिए

कुछ चिंताओं का

मंगलमय हल

अपने संग लेकर

आया है,

संबंधों के घटाटोप

रिश्तों के रूखेपन

भौतिक आकर्षण में

यह बारिश की

पहली फुहार

माटी की सौंधी गंध

प्रेम का शीतल सा

झोंका लाया है।।

 

यूँ तो मोबाइल पर

अक्सर अपनी भी

होती है बातें

पर उन बातों में

तकनीकी मिश्रण

के चलते

अपनेपन वाली

मीठी प्रेम चासनी का

हम स्वाद कहाँ ले पाते।

 

अधुनातन मोबाईल

द्रुतगामी यंत्रो की

भीड़भाड़ में

भटक गए हैं,

कुछ पर्वों, त्योहारों पर

हम रटे रटाये,

बने बनाये शब्द

शायरी, संदेसों के

बटन दबा कर

बस इतने पर

अटक गए हैं।।

 

ऐसे में यह पत्र

तुम्हारा, पाकर

मैं, अपने में

हर्ष विभोर हुआ

संबंधों की पुष्पलता

के रस सिंचन को

लिए लेखनी हाथों में

अंतर्मन का

आकाश छुआ।।

 

लिख – लिख

मिटा रहा हूँ, अब

हर बार शब्द बंजारों को

व्यक्त नहीं कर पाता हूँ

अपने मन के

उद्गारों को

शब्द व्यर्थ हो गए

भाव अंतर में जागे,

मित्र! समझ लेना,

तुम ही, जो लिखना है

अब इसके आगे।।

 

समय समय पर

कुशलक्षेम के पत्र

सदा तुम लिखते रहना,

घर में

सभी बड़े, छोटों को

यथायोग्य

अभिवादन कहना।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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