हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कालचक्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ कालचक्र ☆

 

उम्र की दहलीज पर
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं,
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फर्क नहीं समझते!
मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के
चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान
फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं,
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित
कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे
धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..,
देखती हैं चित्र दहलीज किनारे
बैठे हुओं को परिधि पार कर
बाहर जाते और
स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:
दहलीज के करीब आते,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ आयलान ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(यह कविता समर्पित है तीन वर्षीय सीरियन बालक आयलान को जो उन समस्त बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है जो विश्व में युद्ध की विभीषिका में इस संसार को छोड़ कर चले गए। सितंबर 2015 की एक सुबह आयलान का मृत शरीर तुर्की के समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया हैं उन्हें कोई नहीं भूल सकता। इस कविता का  मेरे द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद आज के अंक में प्रकाशित हुआ है। इस कविता का जर्मन अनुवाद भी  उपलब्ध है । )

 

☆ आयलान  ☆

 

धीर गंभीर

समुद्र तट

और उस पर

औंधा लेटा,

नहीं-नहीं

समुद्री लहरों द्वारा

जबरन लिटाया गया

एक निश्चल-निर्मल-मासूम

‘आयलान’!

वह नहीं जानता

कैसे पहुँच गया

इस निर्जन तट पर।

कैसे छूट गई उँगलियाँ

भाई-माँ-पिता की

दुनिया की

सबको बिलखता छोड़।

 

वह तो निकला था

बड़ा सज-धज कर

देखने

एक नई दुनिया

सुनहरी दुनिया

माँ बाप के साये में

खेलने

नए देश में

नए परिवेश में

नए दोस्तों के साथ

बड़े भाई के साथ

जहां

सुनाई न दे

गोलियों की आवाज

किसी के चीखने की आवाज।

 

सिर्फ और सिर्फ

सुनाई दे

चिड़ियों की चहचाहट

बच्चों की किलकारियाँ।

बच्चे

चाहे वे किसी भी रंग के हों

चाहे वे किसी भी मजहब के हों

क्योंकि

वह नहीं जानता

और जानना भी नहीं चाहता

कि

देश क्या होता है?

देश की सीमाएं क्या होती हैं?

देश का नागरिक क्या होता है?

देश की नागरिकता क्या होती है?

शरण क्या होती है?

शरणार्थी क्या होता है?

आतंक क्या होता है?

आतंकवादी क्या होता है?

वह तो सिर्फ यह जानता है

कि

धरती एक होती है

सूरज एक होता है

और

चाँद भी एक होता है

और

ये सब मिलकर सबके होते हैं।

साथ ही

इंसान बहुत होते हैं।

इंसानियत सबकी एक होती है।

 

फिर

पता नहीं

पिताजी उसे क्यों ले जा रहे थे

दूसरी दुनिया में

अंधेरे में

समुद्र के पार

शायद

वहाँ गोलियों की आवाज नहीं आती हो

किसी के चीखने की आवाज नहीं आती हो

किन्तु, शायद

समुद्र को यह अच्छा नहीं लगा।

समुद्र नाराज हो गया

और उन्हें उछालने लगा

ज़ोर ज़ोर से

ऊंचे

बहुत ऊंचे

अंधेरे में

उसे ऐसे पानी से बहुत डर लगता है

और

अंधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा है

उसे तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था

माँ भी नहीं

भाई भी नहीं

पिताजी भी नहीं

 

फिर

क्योंकि वह सबसे छोटा था न

और

सबसे हल्का भी

शायद

इसलिए

समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरों नें

उसे चुपचाप सुला दिया होगा

इस समुद्र तट पर

बस

अब पिताजी आते ही होंगे ………. !

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆ दूब… ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण हिंदी कविता  ‘दूब…’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 5 ☆

दूब…

दूब तुम भी सुंदर हो,

धरती पर आँचल ओढा देती हो,

रेशम-सा जाल बिछा देती हो,

हरितिमा से सजाकर निखारती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

दिन-भर बिछ जाती हो,

पाँव तले कुचली जाती हो,

रातभर ओस को ओढ़ लेती हो,

और फिर से हरितिमा बन जाती हो,

दूब तुम भी सुंदर हो।

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटी हूँ ☆ – श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी का e-abhivyakti.  श्री कुमार जीतेन्द्र कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं.)

 

? बेटी हूँ ?

हे! माँ

मैं आपकी बेटी हूँ,

हे! माँ

में खुश हूँ,

ईश्वर से दुआ करती हूँ

आप भी खुश रहें,

ख़बर सुनी है

मेरे कन्या होने की,

आप सब मुझे

अजन्मी को,

जन्म लेने से

रोकने वाले हो,

मुझे तो एक पल

विश्वास भी नहीं हुआ,

भला मेरी माँ,

ऎसा कैसे कर सकती है?

हे! माँ

 

 

बोलो ना

बोलो ना,

माँ – माँ

मैंने सुना

सब झूठ है,

ऎसा सुनकर मैं

घबरा गई हूँ,

मेरे हाथ भी

इतने नाजुक हैं,

कि तुम्हें रोक

नहीं सकती,

हे! माँ

कैसे रोकूँ तुम्हें,

दवाखाने जाने से,

मेरे पग

इतने छोटे,

कि धरा पर

बैठ कर

जिद करूँ,

हे! माँ

मुझे बाहर

आने की बड़ी

ललक है,

हे! माँ

मुझे आपके आँगन को,

नन्हें पैरो से

गूंज उठाना है,

हे! माँ

में आपका

खर्चा नहीं बढ़ाऊँगी,

हे! माँ

में बड़ी दीदी की,

छोटी पड़ी पायजेब

पहन लूंगी,

बेटा होता

तो पाल लेती तुम,

फिर मुझमे

क्या बुराई है,

नहीं देना

दहेज,

मत डरना

दुनिया से,

बस मुझे

जन्म दे दो,

देखना माँ

मेरे हाथों,

मेहंदी सजेंगी,

मुझे मत मारिए,

खिलने दो,

फूल बन के,

हे! माँ,

में आपकी बेटी हूँ,

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 14 ☆ कैसी विडम्बना ? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “कैसी विडम्बना ? ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 14 ☆

 

☆ कैसी विडम्बना ? ☆

 

सड़क किनारे

पत्थर कूटती औरत

ईंटों का बोझ सिर पर उठाए

सीढियों पर चढ़ता

लड़खड़ाता मज़दूर

झूठे कप-प्लेट धोता

मालिक की  डाँट-फटकार

सहन करता

वह मासूम अनाम बालक

माँ बनकर छोटे भाई की

देखरेख करती

चार वर्ष की नादान बच्ची

जूठन पर नजरें गड़ाए

धूल-मिट्टी से सने

अधिकाधिक भोजन पाने को

एक-दूसरे पर ज़ोर आज़माते

नंग-धड़ंग बच्चे

अपाहिज पति के इलाज

व क्षुधा शांत करने को

अपनी अस्मत का सौदा

करने को विवश

साधनहीन औरत को देख

अनगिनत प्रश्न

मन में कौंधते-कोंचते

कचोटते, आहत करते

क्या यही है, मेरा देश भारत

जिसके कदम विश्व गुरु

बनने की राह पर अग्रसर

जहां हर पल मासूमों की

इज़्ज़्त से होता खिलवाड़

और की जाती उनकी अस्मत

चौराहे पर नीलाम

एक-तरफा प्यार में

होते एसिड अटैक

या कर दी जाती उनकी

हत्या बीच बाज़ार

 

वह मासूम कभी दहेज के

लालच में ज़िंदा जलाई जाती

कभी ऑनर किलिंग की

भेंट चढ़ायी जाती

बेटी के जन्म के अवसर पर

प्रसूता को घर से बाहर की

राह दिखलाई जाती

 

आपाधापी भरे जीवन की

विसंगतियों के कारण

टूटते-दरक़ते

उलझते-बिखरते रिश्ते

एक छत के नीचे

रहने को विवश पति-पत्नी

अजनबी सम व्यवहार करते

और एकांत की त्रासदी झेलते

बच्चों को नशे की दलदल में

पदार्पण करते देख

मन कर उठता चीत्कार

जाने कब मिलेगी मानव को

इन भयावह स्थितियों से निज़ात

 

काश! मेरा देश इंडिया से

भारत बन जाता

जहां संबंधों की गरिमा होती

और सदैव रहता

स्नेह और सौहार्द का साम्राज्य

जीवन उत्सव बन जाता

और रहता चिर मधुमास

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ देवालय ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(आज प्रस्तुत है  श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  की कविता देवालय . ग्राम्य पृष्ठभूमि में बने देवालय का अतिसुन्दर शब्दचित्र . )

 

☆ देवालय ☆

 

गाँव का मंदिर, छोटी – सी मूरत

और विशाल सा प्राँगण

ना मूर्ति स्वर्ण – रजत से जड़ित

ना वहाँ दर्शन की भगदड़

शांत, रम्य, जागृत, अद्भुत

 

केवल फूलों का सुवास

तीर्थ में तुलसी का अमृत जल

ना भरभर फूलों के हार

ना नारियलों की बौछार

ना मन्नतों से पटी दीवार

ना अमूल्य उपहार

तेजस्वी गर्भगृह, शीतल सभागृह

 

किनारे बिछी रंगीन दरी

उसमे विराजित ग्रामजन

ढोलक की थाप, मंजरी का हल्का सा नाद

ना लाऊडस्पीकर में बजते भजन

ना होते रोज के होम हवन

फिर भी सुगन्धित, प्रफुल्लित आलय

 

मजबूत स्तम्भ देते जिसे आधार

तालों में ना कैद मूरत

बिखरे पड़ते हो जहां कभी अनायास सूखे पत्र

जैसे पुरखे भी लेना चाहें पुनः शरण

इतना शांत आलय

सच्चे अर्थ में देवालय ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ पाठशाला के आँगन में ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

शिक्षक दिवस विशेष 

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है   श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की  कविता  पाठशाला के आँगन में.)

 

☆ पाठशाला के आँगन में ☆

 

गुरूजी कल फिर मैंने एक मनभावन सपना देखा,
मुरझाए फूल को हँसते-हँसाते आपका चेहरा ही देखा।

पल्लू को कस के पकड़े,पिता की उंगली थामे,
था बैठा मैं,न डर था न किसी से नफरत थी हमें
उम्र ने दी दस्तक,चल पाठशाला के आँगन में,
लिए हाथ कोरी पाटी और विश्वास भरे मन में
न चाहते हुए भी पाटी पर शब्दों को उभरे देखा।

आपको फिर बच्चा बनाए आपसे गीत सुनवाएँ,
बचपन के आँगन में,दोस्तों के साथ गीत गाए
उसकी पाटी,मेरी पेन्सिल,प्यारे झगड़े हमें भाए,
मन में गुस्सा पल का,अगले पल फिर गले मिल जाए
हमारे गुस्से-प्यार में आपका मन-मुस्काता चेहरा देखा।

नासमझ से समझदार बाबू हम बन गए,
हमारी शरारतें भी अपनी आदत मानकर सह गए
दिखाई जो श्रद्धा हम पर,आप आगे चल दिए,
मुड़कर न देखना कहकर,हमें आगे बढ़ाते जो गए
गुरूजी उन हाथों को और प्यार को सख्त होते जो देखा।

गिरकर उठना,उठकर चलना,आपने ही सिखाया,
भटके हुए थे कभी बचपने में,सही रास्ता भी दिखाया
अहंकार ने जब भी छुआ,नम्रता का पाठ भी पढ़ाया,
खोए कभी उम्मीद अपनी,रोशनदान बन सबेरा उगाया,
यौवन की बेला पर हमें संभालते हुए फिर से आपको देखा।

गुरूजी,आज वह परछाई फिर से ढूंढ रहा हूँ,
शायद जिंदगी की तलाश में अपने तन की
खोखली उम्मीदों के बीच खोई रूह ढूँढ रहा हूँl
जो कभी बचपने से यौवन तक आपने सँभाली थी,
उसे आपकी परछाई के तले सुमन-सा बिछता हुआ देखा ।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – कविता – ☆ आशीष ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

शिक्षक दिवस विशेष

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  की कविता आशीष. )

 

☆ आशीष ☆

 

आकाश गरज रहा है

बरस रहा है

रूद्र हो रहा है

साथ ही प्रशस्त कर रहा है जीवन

एक शिक्षक की तरह ….

 

धरा,जन ,वृक्ष ,नदी सभी

संग्रहित कर रहे है

इस बौछार को

हो नतमस्तक

एक शिष्य की तरह …..

 

आकाश

धो रहा है मैल को

जो परत दर परत

जमती जा रही थी

अस्तित्व पर शिष्य के

कभी सहलाकर

कभी झकझोड़कर

ताकि ,

निर्मल तन पा शिष्य

विकसित हो सके

उसका चैतन्य भी छा सके

इस सम्पूर्ण  ब्रह्मांड  में

और शिष्य भी सृजक बने

इस नवयुग के निर्माण में

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – काल….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ काल….! ☆

 

जिन्हें तुम नोट कहते थे
एकाएक कागज़ हो गए,
अलबत्ता मुझे फ़र्क नहीं पड़ा
मेरे लिए तो हमेशा ही कागज़ थे,
हर कागज़ की अपनी दुनिया है
हर कागज़ की अपनी वज़ह है,
तुम उनके बिना जी नहीं सकते
मैं उनके बिना लिख नहीं सकता,

सुनो मित्र!
लिखा हुआ ही टिकता है
अल्पकाल, दीर्घकाल
या कभी-कभी
काल की सीमा के परे भी,
पर बिका हुआ और टिका हुआ
का मेल नहीं होता,
न दीर्घकाल, न अल्पकाल
और काल के परे तो अकल्पनीय!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – कविता / Poetry – ☆ विजय अवतरित सज्जनता ☆ – कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ के सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

 

आज हम डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी के सम्मान में कैप्टन प्रवीण जी के मित्र श्री सुमीत आनंद जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी कविता “The gentleman down the street” का हिन्दी भावानुवाद “विजय अवतरित सज्जनता…” प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संक्षिप्त परिचय: 

डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी का जन्म 4 अगस्त, 1924 को हुआ था। आप  हिन्दी के समकालीन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप जर्मनी के फ्रैंकफुर्त शहर  में स्थित जॉन वौल्‍फ़गॉग गोएटे विश्‍वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्‍त प्राध्‍यापक हैं। 

श्री सुमीत आनंद जी के ही शब्दों में

4 अगस्त 2019 को फ्रैंकफोर्ट (जर्मनी) में आदरणीय डॉ इन्दु इंदु प्रकाश पाण्डेय जी के 95 वें जन्मोत्सव पर उनके स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए मैंने  “The gentleman down the street” शीर्षक से पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की प्रच्छन्न विशेषताओं को उजागर करते हुए एक कविता लिखी थी. मेरे अनन्य मित्र और हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू के मर्मज्ञ विद्वान् कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने मेरे अनुरोध करने पर इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है.

प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने हिंदी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है.

मुझे विश्वास है कि पाण्डेय जी के असंख्य हिंदी पाठक, प्रशंसक, इष्ट-मित्र और विद्यार्थी इसे पढ़कर एक बार फिर से उनके लिए शुभकामनाएँ अर्पित करेंगे.

      – सुमीत आनंद

 

☆ विजय अवतरित सज्जनता… ☆

 

बस जैसे ही मैंने सोचा

कि अब शिष्टता मर चुकी है

वाक्पटुता भी मृतप्राय है

मौलिक भद्रता मरणासन्न है

तभी जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका आगमन हुआ…

 

आपका अपनी

जीवन की अनूठी कहानियों का,

अपने दीर्घ अनुभवों के

खज़ाने का द्वार मेरे लिए खोलना

और मुझे सिखाना

जीवन के छोटे-बड़े आनंद

का नित्य लुत्फ उठाना…

 

आपका

एक ज्योतिपुंज होना

प्रेमभाव से परिपूरित होना

और हम सभी को

इन्हीं ईश्वरीय भावों से ओतप्रोत करना…

जीवन को सम्पूर्णता से प्रेम करना

फिर भी हमेशा निर्लिप्त भाव में रहना

 

एक श्वेत कपोत की भांति अल्हड़, मस्त और पवित्र…

प्रत्येक दिन एक अपरिमित

उन्मुक्तता के साथ जीना

जीवन के तूफानों का

एक मुस्कान के साथ

एक फ़क़ीराना अंदाज़ में,

शांत व साहसी भाव से

निरंतर सामना करना…

 

जबसे जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका प्रादुर्भाव हुआ…

हर गुज़रता पल

हर गुज़रता वर्ष

ये अहसास दिलाता रहा कि

आपका शाश्वत सामीप्य

हमे प्रेम-विभोर कर रहा है…

निरंतर आशीष दे रहा है…

 

हिंदी अनुवादः प्रवीण रघुवंशी 

 

The  Original  poem – ☆  The gentleman down the street ☆

 

Just when I thought

Chivalry is dead

Eloquence is dead

The basic goodness, is dead

Along came you

The gentleman down the street.

Opening your chest of treasure

Of all the life´s stories

Of all your experiences

And teaching me

To rejoice life´s little pleasures.

Carrying so much light and love

And infecting all with the same

Loving life to the fullest

Yet be so detached

Carefree and pure as a dove.

Living each day with a careless abandon

Braving through life´s storms

With a smile

With an audacity

alongside your brave but calm compassion.

With each passing year

Realising that you are there

To love us to bless us

You remain ever so dear

The gentleman down my street

 

 – Sumeet Aanand

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