हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 15 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 15 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

संकट तें हनुमान छुड़ावै।

मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

सब पर राम तपस्वी राजा।

तिन के काज सकल तुम साजा।

अर्थ:– जो भी मन, क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है वो संकटों से बच जाता है। जो राम स्वयं भगवान हैं उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।

भावार्थ:- श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो। आप जो मन में सोचते हों, वही वाणी से बोलते हों और वही कर्म करते हों तब आप निश्चल कहे जाएंगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे।

श्री रामचंद्र वन में हैं परंतु अयोध्या के राजा भी हैं। वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं। वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं। तपस्वी राजा के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना आदि को आपने संपन्न किया है।

संदेश:- स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से जातक सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है।

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा।

राजकीय कार्यों मे सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:- सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा। विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है। सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी हो सकती है। खतरा एक मानसिक दशा है क्योंकि यह आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है। जैसे कि आप रात में सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं।

संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय। संकट शब्द का तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारक स्थिति है जिसकी आशा नहीं की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, अथवा सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।

रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा हुआ है :-

मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥

तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥

अर्थ :- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप प्राप्त हो जाती है।

मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है :-

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।

मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥

भावार्थ :- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं॥

इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है। किसी कार्य को करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसी दास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना हृदय पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं। उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए। आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो। ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है। एक अंतर भक्ति और दूसरा बाह्य भक्ति। चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर, या बगैर मूर्ति के सामान बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर भक्ति कहलाती है। इस समय आप जो जाप करते हैं उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है। बाह्य भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं। शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है।

इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है “ध्यान”। ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन, कर्म और वाणी तीनों ही एकाग्र होकर किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए। ध्यान दो प्रकार का होता है पहला यौगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान। यौगिक  ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है। इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है। पुराने समय में विशेष रुप से ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे। ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है। ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अगर आप पूर्णतया ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे। यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है। यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य आकर आपके संकटों को दूर करेंगी।

धार्मिक ध्यान का संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है। बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था। बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए। हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो। जो हमारी परवाह करें। बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है। बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं। जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं। इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है।

हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है। हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है। विपत्ति और संकटों से लड़ने की शक्ति यहीं पर प्रारंभ होती है। ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।

अगली पंक्ति है:-

 “सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा”।

 इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम, तपस्वी, राजा, तिनके काज और साजा। सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं।

तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है। तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया। किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जाने वाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या के इसी स्वरूप को मानते हैं। वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है। साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है, पीले रंग के कपड़े पहनता हैं, कम खाना खाता है, सर पर जटा जूट धारण करता है, नाखून नहीं काटता है। साधारण तपस्वी को वेद पाठ करने वाला और दयालु भी होना चाहिए।

उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास, तीन समय स्नान, कंदमूल खाना भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है।

तीसरे हठ योगी होते हैं। जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं। उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं।

मनु स्मृति कहता है की आपका कर्म ही आपकी तपस्या है। जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है। अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है।

भगवत गीता के अनुसार:- श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है। इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं। श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷

भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷

भावार्थ :- फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥

श्री रामचंद्र जी वन में हैं। एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं। सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं। संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं। श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए। परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया। श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया। वल्कल वस्त्र पहने,जटा जूट बढ़ाया आदि। श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या के शासन को संचालित किया। इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे। अतः तुलसी दास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है।

रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे। भगवान विष्णु का स्थान देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है। इसलिए श्री रामचंद्र जी सब के ऊपर हैं। अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है।

जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है। अगर हम रामायण को पढ़ें तो पाते हैं कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है। जैसे सीता माता का पता लगाना, सुषेण वैद्य को लाना, जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना, संजीवनी बूटी लाना, गरुड़ जी को लाना, अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि। इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है। श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है।

इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया। जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 180 ☆ शिवोऽहम्… (5) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 180 शिवोऽहम्… (5) ?

आत्मषटकम् पर मनन-चिंतन की प्रक्रिया में आज पाँचवें श्लोक पर विचार करेंगे। अपने परिचय के क्रम में अगला आयाम आदिगुरु शंकराचार्य कुछ यूँ रखते हैं,

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म:

न बंधुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

इसका शाब्दिक अर्थ है कि न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है। न मेरा कोई पिता है, न कोई माता है, न ही मेरा जन्म हुआ है। न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु  है और न ही कोई शिष्य। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

मृत्यु के संदर्भ में देखें तो शंकराचार्य जी महाराज के कथन से स्पष्ट है कि देह छूटना आशंका नहीं होना चाहिए। यों भी यात्रा में पड़ाव आशंका नहीं हो सकता। यात्रा तो परमात्मा के अंश की है, यात्रा आत्मा की है। यात्रा के सनातन और यात्री के शाश्वत होने का प्रसंग आए और योगेश्वर उवाच स्मृति में न आए, यह संभव ही नहीं। भगवान गीतोपदेश में कहते हैं,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

मैं मृत्यु नहीं हूँ, अत: स्वाभाविक है कि जन्म भी नहीं हूँ। जो कभी जन्मा ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जो कभी मरा ही नहीं, वह जन्मेगा कैसे?..ओशो की समाधि पर लिखा है, ‘नेवर बॉर्न, नेवर डाइड, ऑनली विज़िटेड दिस प्लानेट अर्थ बिटविन….’ उन्होंने न कभी जन्म लिया, न उनकी कभी मृत्यु हुई। वे केवल फलां तिथि से फलां तिथि तक सौरग्रह धरती पर रहे।’

विचार करें तो बस यही अवस्था न्यूनाधिक हर जीवात्मा की है। स्पष्ट है कि केवल जन्म और मृत्यु तक सीमित रखकर जीवन नहीं देखा जा सकता।

पिता न होना अर्थात किसीके जन्म का कारक न बनना और माता न होना अर्थात किसीको जन्म देने का कारण न होना। जन्म से मृत्यु तक जीवात्मा द्वारा देह धारण  करने का कारण और कारक परमात्मा ही हैं। प्राप्त देह, यात्रा की निमित्त मात्र है।

न मार्ग का दर्शन, न मार्ग का अनुसरण.., न गुरु होना, न शिष्य होना। बंधु, मित्र न होना, रक्त का या परिचय का सम्बंध न होना। जगत के सम्बंधों तक सीमित नहीं है अस्तित्व। माता, पिता, गुरु, शिष्य, बंधु, मित्र इहलोक के नश्वर सम्बंध हैं जबकि जीवात्मा ईश्वर का आंशिक अवतरण है।

जातिभेद का उल्लेख करते हुए आदिगुरु स्पष्ट करते हैं कि मैं न कुलविशेष तक सीमित हूँ, न ही वंशविशेष हूँ।  ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ …जाति का एक अर्थ उत्पत्ति भी है। जीवात्मा उत्पत्ति और विनाश से परे है।

जीवात्मा अपरिमेय संभावना है जिसे देह और मर्त्यलोक की आशंका तक सीमित कर हम अपने अस्तित्व को भूल रहे हैं। अपनी एक रचना स्मरण आ रही है,

संभावना क्षीण थी, आशंका घोर,

बायीं ओर से उठाकर, आशंका के सारे शून्य

धर दिये संभावना के दाहिनी ओर..,

गणना की संभावना खो गई,

संभावना अपरिमेय हो गई..!

मनुष्य अपने अस्तित्व की अपरिमेय संभावनाओं को पढ़ने लगे तो कह उठेगा,..‘मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ,…शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 14 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 14 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महाबीर जब नाम सुनावै।।

नासै रोग हरै सब पीरा।

जपत निरंतर हनुमत बीरा।।

अर्थ:- आपका नाम मात्र लेने से भूत पिशाच भाग जाते हैं और नजदीक नहीं आते। हनुमान जी के नाम का निरंतर जप करने से सभी प्रकार के रोग और पीड़ा नष्ट हो जाते हैं।

भावार्थ:- महावीर हनुमान जी का नाम लेने से ही बुरी शक्तियां भाग जाती है क्योंकि हनुमान जी अच्छी शक्तियों के स्वामी हैं। अगर हम आधुनिक भाषा में बात करें तो  नेगेटिव एनर्जी वाले भूत पिचास हनुमान जी के नाम के पॉजिटिव एनर्जी के कारण समाप्त हो जाते हैं।

हनुमान जी के नाम का एकाग्र होकर पाठ करने से समस्त प्रकार की पीड़ाएं समाप्त हो जाती हैं। समस्त प्रकार की पीड़ा से यहां पर तात्पर्य दैहिक, दैविक और भौतिक समस्त प्रकार के कष्ट एवं दुख से है।

संदेश:- श्री हनुमान जी का नाम जपने से आप भय मुक्त बनते हैं। आपको डर नहीं लगता है और विरोधियों का नाश होता है।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ :-

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।  महाबीर जब नाम सुनावै।।

लाभ:- इस चौपाई के बार बार पाठ करने से बुरी आत्मा, भूतप्रेत आदि अगर आपके पास आ गए हैं तो दूर भाग जाएंगे अन्यथा आपके पास  नहीं आएंगे।

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा।।

लाभ:- इस चौपाई के बार बार पाठ करने से समस्त प्रकार के रोग और पीड़ाओं का अंत हो जाएगा।

विवेचना:- इन पंक्तियों की विवेचना करने से पहले यह जानना पड़ेगा कि भूत और पिशाच आदि क्या है। यह होता हैं या नहीं होता है।

सनातन हिंदू धर्म ग्रंथ गरुड़ पुराण के अनुसार आत्मा पृथ्वी पर हमारे भौतिक शरीर में निवास करती है तब वह जीव या जीवात्मा कहलाती है।  मृत्यु के उपरांत आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश कर जाती है और इस  सूक्ष्मात्मा कहते हैं। अगर  व्यक्ति की कामनाएं मृत्यु के बाद भी जिंदा रहती हैं और तो वह कामनामय सूक्ष्म शरीर में निवास करती है। इस आत्मा को भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी, डाकिनी आदि कहा जाता है। धर्म शास्त्रों में 84 लाख योनियों का जिक्र है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार हमारे पास अब तक करीब 30 लाख प्रकार के जीव जंतु और पेड़ पौधों के बारे में जानकारी है।

गरुड़ पुराण के अनुसार जीव एक निश्चित अवधि तक भूत योनि में रहता है। जिन लोगों के मृत्यु के उपरांत नियमानुसार कर्मकांड नहीं होते हैं वे प्रेत योनि में चले जाते हैं अन्यथा 13 दिनों के उपरांत वे आत्माएं फिर से जन्म लेती हैं।

विभिन्न धर्मों में अलग-अलग नाम से इनको पुकारा जाता है जैसे हिंदू धर्म में प्रेत पिशाच ब्रह्मराक्षस और चुड़ैल। ईसाई धर्म में मूल रूप से पिशाच चुड़ैल होते हैं। मुस्लिम धर्म में जिंन्न कहे जाते हैं। हिंदू धर्म में प्रेत और इसी तरह की अन्य आत्माएं क्यों होती हैं उसके बारे में हम ऊपर बता चुके हैं, बाकी धर्मों के मान्यता के बारे में अब हम बता रहे हैं।

छोटे बच्चे जब बीमार पड़ जाते हैं और दवा से ठीक नहीं होते हैं तो हमारी माता बहने कहती हैं  इस को नजर लग गई है। मिर्ची घुमाकर या अन्य तरह से नजर उतारी जाती है और बच्चा ठीक हो जाता है। मैं इन बुद्धिमान लोगों से यह पूछना चाहूंगा क्या ये इसका कोई कारण बता सकते हैं।

हम जिस चीज को नहीं जानते हैं उसको पता करना विज्ञान है परंतु हम जिस को नहीं जानते हैं उसको साफ साफ झूठा कह देना  विज्ञान का अजीर्ण है।

अगर हम भूत और पिशाच को केवल डर मान ले तो यह सत्य है कि इस प्रकार के डर हनुमान जी का नाम लेने भर से नष्ट हो जाते हैं। बचपन में या आज भी अगर हमें कहीं डर सताता है तो हम  हनुमान जी का नाम लेते हैं। डर दूर भाग जाता है।

ईशान महेश जी जो कि एक  उपन्यासकार और धार्मिक पुस्तकों के भी लेखक हैं उन्होंने एक कहानी बताई है। उनका कहना है एक बार वे गोमुख यात्रा पर गए थे। इनके कैंप में दो लोगों में बहस हो गई। एक कह रहा था कि भूत प्रेत होते हैं दूसरा कह रहा था कि भूत प्रेत नहीं होते हैं। दूसरे ने ईशान जी से कहा कि आप इनको समझाओ कि भूत प्रेत नहीं होते हैं। ईशान जी ने कहा कि मैं उनको और आपको दोनों को समझाने का प्रयास करूंगा।  दूसरे व्यक्ति ने कहा कि अभी समझाइए उन्होंने कहा नहीं रात में जब घूमने चलेंगे तब बात करेंगे। रात में वे उस व्यक्ति को लेकर बाहर चल दिए। थोड़ी ही देर में उस व्यक्ति ने कहा कि अब हम वापस लौटें, डर लग रहा है। ईशान जी ने कहा कि हनुमान जी हनुमान जी कहो। देखो डर जाता है या नहीं। दूसरा व्यक्ति  हनुमान जी हनुमान जी कहने लगा। 2 मिनट बाद ईशान जी ने पूछा कि अभी तुम्हें डर लग रहा है या नहीं। उसने कहा नहीं। अब डर नहीं लग रहा है। ईशान जी ने कहा अब वापस चलते हैं तुम्हारा डर ही भूत है, प्रेत है। हनुमान जी का नाम का जाप करने से तुम्हारा डर भाग गया।

आज आदमी भय से डरपोक बना है। हमारा सारा जीवन भय से भरा हुआ है। हम जीवन में सीधे रास्ते से चल रहे हैं इसका कारण डर है। संस्कृत का श्लोक है:-

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयवित्ते नृपालाद्भयं

माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रुपे जराया: भयम्।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां विष्णों: पदं निर्भयम्।।

जो निर्भय हैं उनके पास भगवान का गुण है। जो भयभीत हैं वे मानव हैं। विपुल मात्रा में भोग की सामग्री होते हुए भी व्यक्ति को रोग का भय रहता है। जिस व्यापारी के पास में शक्कर के बोरे होते हैं वह डायबिटीज का मरीज होता है। वह शक्कर नहीं खा सकता है। अगर आप का जन्म ऊंचे खानदान में हुआ है तो उसे अपने कुल की इज्जत के जाने का डर रहता है। जिसके पास विपुल मात्रा में धन होता है उसे धन के जाने का डर बना रहता है।  उसको रात में नींद नहीं आती है। अगर समाज में आपकी बहुत इज्जत है तो आपको हमेशा मानहानि का डर बना रहेगा। सत्ताधीशों को तो हमेशा अपनी कुर्सी जाने का डर रहता है।  इनको अपने मित्रों और शत्रु दोनों से डर लगता है।

देवताओं में सबसे ज्यादा डरपोक सत्ताधारी इंद्रदेव हैं। जब भी कोई मुनि ज्यादा बड़ा तप करने लगता है इंद्रदेव का राज सिंहासन डोलने लगता है। बलवान को अपने शत्रुओं से डर लगता है। बलवान व्यक्ति के शत्रुओं की संख्या बहुत अधिक होती है। कौन शत्रु कब आघात कर देगा इसका भय बलवान के पास हमेशा रहता है। रूपवान को कुरूप होने का भय रहता है। समय के साथ-साथ रूप क्षीण होता जाता है। युवक के पास  वृद्ध होने का भय रहता है। शास्त्रों के जानकार के पास वाद विवाद का डर होता है। उनको इस बात का हमेशा डर रहता है कि वाद-विवाद में उनको कोई हरा न दे। अच्छे लोगों को बुरे मनुष्यों का डर रहता है।  पुण्यात्मा को परलोक का डर होता है। 

अर्थात जिसके पास कुछ है उसके पास डर निश्चित रूप से रहता है। अगर आपको इस डर को भगाना है तो आप शिव के अवतार और पवन तनय की पूजा करें। ऐसे में उनका सुमिरन करने से नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।

दुनिया में मशहूर भूत भागने का मंदिर जिसे हमें मेंहदीपुर बालाजी के नाम से जानते हैं वह हनुमान जी के बालाजी अवतार का हैं। ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी रक्षक की तरह आज भी मौजूद हैं। जब भी कोई व्यक्ति प्रेत बाधा में हो, हनुमान जी की पूजा करने के वह दूर हो जाती है।

आगे लिखा है “महावीर जब नाम सुनावे।” हनुमान चालीसा का प्रारंभ जय हनुमान ज्ञान गुण सागर से किया गया है। हनुमान चालीसा में हनुमान शब्द 6 बार आया है परंतु जब मारपीट की नौबत आई तब नाम लिया गया महावीर का।  इसका क्या कारण है। आराम से कहा जा सकता था हनुमान जब नाम सुनावे। तुलसीदास जी को यहां महावीर कहना उचित लगा।

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने बचपन में भगवान सूर्य को अपने मुख में दबा लिया था। इसके का उनका मुंह अभी भी फूला हुआ है। इंद्रदेव ने देखा कि यह  बालक मेरे  सत्ता को चैलेंज दे रहा है। उन्होंने हनुमान जी पर वज्र का प्रहार किया और उनकी हनु टूट गई। इसलिए हनुमान जी का नाम हनुमान पड़ा। इंद्रदेव के वज्र से हनुमान जी के मूर्छित होने के कारण यह उनकी कमजोरी का लक्षण है। भूत को भगाने के लिए अत्यंत वीर व्यक्ति चाहिए। हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी का दूसरा नाम महावीर भी है। महावीर शब्द से हनुमान जी के बल और पोरूष का आभास होता है। भूत और प्रेत को भगाने के लिए या आपके डर को भगाने के लिए आपको एक सशक्त सहायता चाहिए। सशक्त सहायता महावीर नाम ही दे सकता है। महावीर का नाम लेने से ही आपके अंदर अलग से एक ताकत आ जाएगी। इसीलिए यहां पर तुलसीदास जी ने हनुमान शब्द के स्थान पर महावीर शब्द का प्रयोग किया है।

रामचरितमानस के उत्तरकांड में दो चौपाइयां हैं जो राम राज्य के बारे में बताती हैं।

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड)

भावार्थ :-‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड)

भावार्थ:-छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है॥

राम राज्य में यह स्थिति महाराजाधिराज श्री रामचंद्र जी के प्रताप के कारण थी। अगर हमारे यहां या हमें किसी तरह का रोग हो जाए कोई पीड़ा हो जाए तो हमको क्या करना चाहिए। इस संबंध में हनुमान चालीसा कि हनुमान चालीसा की अगली चौपाई में बताया गया है कि:- 

“नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा “।।

अर्थात आपको या साधारण जनमानस को हनुमान जी का नाम का जाप करना चाहिए।

नासे शब्द का एक ही अर्थ होता है समाप्त करना। इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि अगर हम निरंतर हनुमान जी का नाम लेते रहें तो हमारे सभी रोग और सभी पीड़ायें  समाप्त हो जाएंगी। जैसे पहले की चौपाई में था। भूत को भगाने के लिए महावीर का नाम लीजिए, उसी प्रकार इस चौपाई में है कि दुख दर्द को मिटाने के लिए हनुमान जी का नाम लीजिए। क्योंकि हनुमानजी और महावीर जी एक ही हैं अतः हम कह सकते हैं कि इन सभी कार्यों के लिए हनुमान जी का नाम लेना है।

आइए अब रोग शब्द पर चर्चा करते हैं।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार रोग अर्थात अस्वस्थ होना का क्या अर्थ है। यह चिकित्साविज्ञान की मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में किसी प्रकार की कमी होना ‘रोग’ कहलाता है। जिस व्यक्ति को रोग होता है उसे ‘रोगी’ कहते हैं।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार केवल दो  प्रकार के कारणों से रोग हो सकता है।

1- जैविक (biotic / जीवाणुओं से होने वाले रोग)

2- अजैविक (abiotic / निर्जीव वस्तुओं से होने वाले रोग)

रोग की और भी परिभाषाएं हैं जिन में कुछ को नीचे दिया जा रहा है :-

रोग वह अवस्था है जिसमें शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ जाय और जिसके बढ़ने पर शरीर के समाप्त हो जाने की आशंका हो। इसे बीमारी, मर्ज, व्याधि,  भी कहते हैं 

रोग की दूसरी परिभाषा के अनुसार रोग शरीर में उत्पन्न होनेवाला कोई ऐसा घातक या नाशक विकार है जो कुछ विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है, और जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं।

शरीर में उत्पन्न घातक विकार जैसे कष्टकारक आदत या लत, उदाहरण के रूप में- तंबाकू पीने का रोग।

सभी धर्मों में रोगों के बारे में कुछ न कुछ कहा गया है। पहले हम सनातन धर्म के अलावा बाकी धर्मों में रोग के संबंध में कही गई बातों की चर्चा करेंगे।

यहूदी और इस्लामी कानून अस्वस्थ लोगों को व्रत करवाते हैं। उदाहरण के लिए, योम किप्पुर पर या रमजान के दौरान उपवास रखना। (और इसमें भाग लेने की वजह से) यह कभी कभी जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है।

यीशु के न्युटैस्टमैंट में इसे रोगमुक्त होकर चमत्कार करने के रूप में वर्णित किया गया है।

बीमारी उन चार दृश्यों में से एक था, जिसे गौतम बुद्ध द्वारा सामना किए गए चार दृष्टियों से संदर्भित किया जाता है।

कोरियाई शमानिज़्म में “आत्मीय रोग” शामिल है।

पारंपरिक चिकित्सा सामूहिक रूप से बीमारी और चोट के इलाज़, प्रसव प्रक्रिया में सहायता और स्वस्थता का अनुरक्षण करने की परम्परागत क्रियाविधि है। यह “वैज्ञानिक चिकित्सा” से अलग भिन्न ज्ञान है।

सामान्य और बीमारी के बीच की सीमा व्यक्तिपरक हो सकती है। उदाहरण के लिए, कुछ धर्मों में, समलैंगिकता को एक बीमारी माना जाता है।

आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन शारीरिक दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य।

रामचरितमानस में 3 तरह के रोग बताए गए हैं। दैहिक दैविक भौतिक। रामराज्य की प्रशंसा में तुलसीदास जी की चौपाई लिखी है उसमें उन्होंने लिखा है :-

“दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहि ब्यापा”॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड)

इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप कहा जाता है। इसमें व्यक्ति या व्यक्ति की आत्मा को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है।

 कुछ ऐसे कष्ट भी होते हैं जिन पर मानव का नियंत्रण नहीं होता है अतः उनको दैविक ताप कहा जाता है। जैसे अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है।

तीसरे प्रकार का कष्ट इस जगत के  बाह्य कारणों से होता है।  इस प्रकार के कष्ट को भौतिक ताप कहा जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है।

पीरा या पीड़ा  शब्द का अर्थ है  शारीरिक या मानसिक कष्ट; वेदना; व्यथा; दर्द। अर्थात रोग के कारण से जो आप वेदना या कष्ट या दर्द महसूस करते हैं उसको पीड़ा कहते हैं। अर्थात जीवन रूपी वृक्ष के मूल में रोग है और पीड़ा उस वृक्ष का फल है। अगर हम किसी प्रकार से रोग को समाप्त कर दें तो पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी। हम सभी जानते हैं कि बुखार की वजह से हमारे शरीर का तापमान बढ़ जाता है और हमारे शरीर में दर्द भी होता है। अगर यह बुखार अर्थात  रोग समाप्त हो जाए तो शरीर का  तापमान सामान्य हो जाएगा और शरीर का दर्द स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार हम को रोग  को समाप्त करना है पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी।

अगर तुलसीदास जी अगर केवल दैहिक रोग विशेषकर मानसिक रोग की बात कर रहे होते तो हम कह सकते थे हनुमान जी का नाम लेने से यह रोग समाप्त हो जाएगा। जैसे कि जब छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो हमारे घर की माता बहने  उनका नजर उतारतीं हैं। नजर लगने की स्थिति में कई बार आधुनिक चिकित्सा पद्धति काम नहीं कर पाती है। नजर लगी है या नहीं लगी है इसको देखने की पद्धति  का विश्लेषण भी आधुनिक विज्ञान नहीं कर पाता है।

यहां पर हम सभी तरह के रोग के समाप्त करने की बात कर रहे हैं। तो क्या हनुमान जी चिकित्सक हैं ,जो दवा देंगे और समस्त रोग समाप्त हो जाएंगे। रोग समाप्त करने का काम चिकित्सक का है। चिकित्सक दवा देता है इससे रोग समाप्त होता है। देवताओं के यहां भी धनवंतरी जी है। अतः हम इस भ्रम को नहीं चलाएंगे कि अगर आप बीमार पड़े हैं तो केवल हनुमान जी का नाम ले और आप ठीक हो जाएंगे।

हनुमानजी का जप करने से मानसिक आरोग्य तथा शारीरिक आरोग्य प्राप्त होता है। तुलसीदास का आग्रह जप करने के लिए है वह केवल शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं साथ ही साथ मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भी है। मनुष्य के अन्त:करण में भगवत्प्रेम बढना चाहिए। जब भगवत प्रेम बढ़ेगा तो आपकी मानसिक स्थिति मजबूत होगी। मानसिक स्थिति मजबूत होने के कारण आपकी इच्छा शक्ति भी मजबूत हो जाएगी।  जब आपके अंदर आपकी इच्छा शक्ति मजबूत होगी तो आप मानसिक रोगों से पूर्णतया मुक्त हो जाएंगे और शारीरिक रोगों से भी मुक्त होने की तरफ चल देंगे।

हनुमान जी भी आपकी परीक्षा लेते हैं। तभी वह  मानते हैं कि आपने उनका नाम जप किया है। हम ऐसी परीक्षाओं में साधारणतया असफल रहते हैं। जैसे कि एक व्यक्ति ने बारह महिने ठण्डे पानी से नहाने का नियम किया। एक वर्ष के बाद उससे पूछा, तुमने उस नियम का  पालन किया? उसने कहा हाँ! परन्तु जाडे के दो महिने छोडकर। अब आप बताइए उसको कितने प्रतिशत अंक मिलना चाहिए। मेरे विचार से 0% अंक उसको मिलना चाहिए। क्योंकि परीक्षा के दिन तो जाड़े के दिन ही थे। बाकी दिन तो हर कोई ठंडे पानी से ही नहता है। जाड़े  में वह ठंडे पानी से नहीं नहाया।अतः वह परीक्षा में पूरी तरह से फेल हो गया और उसको 0% अंक मिले। विपत्ति मे ही परीक्षा होती है। अत: प्रतिकूल परिस्थिति मे ही मानसिक आरोग्य संभालना है। प्रतिकूल परिस्थिति में खडा रहने के लिए मन को शक्तिशाली बनाने के लिए, आपकी इच्छा शक्ति का निरोगी होना आवश्यक है।  प्रतिकूल परिस्थिति तो आयेगी ही, परन्तु ‘बाहर’  के प्रवाह से मेरा ‘स्व’ मलिन नहीं बनेगा’ ऐसा ‘स्व‘ का  प्रवाह होना चाहिए।

हमारे समाज में धन का अत्यधिक महत्व है अगर आप निर्धन है तो आपकी मित्रों की संख्या अत्यंत कम हो जाएगी।  विद्वान कहते है—–

विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम्।

विरला: परकार्यता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला:।।

दूसरे के गुणों को जाननेवाले विरले हैं।  निर्धनपर प्रेम विरले ही करते हैं, दूसरे के दु:ख में  दु:खी होनेवाले विरले ही होते हैं।

परंतु अगर आप धनी है तो क्या आप के हजारों मित्र हो जाएंगे – नहीं होंगे। ये मित्र केवल अपने स्वार्थ के लिए आपके साथ रहेंगे। जैसे ही उनको लगेगा उनका स्वार्थ अब नहीं बन रहा है वे आपका साथ छोड़ देंगे।

मेरा क्या है ? यह दूसरा प्रश्न है। इस जगत मे मेरे साथ क्या जानेवाला है ? मेरा बंगला बहुत सुन्दर है, परन्तु क्या उसे मै अपने साथ ले जा सकूंगा? मेरा बैंक बैलन्स बहुत बडा है, परन्तु मुझे उसे यहीं छोडकर जाना पडेगा। फिर मेरे साथ क्या आयेगा? वेदान्त समझाता है —–

धनानि भूमौ पशवच गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि जन: स्मशाने।

देहचितायांं परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एक:।।

धन भूमि में, पशु गोष्ठ में, पत्नी घर के दरवाजे तक, सगे सम्बन्धी शमशान तक साथ जाते है। देह को चिता पर रखने के बाद साथ कौन जाता है? कर्मानुगो गच्छति जीव एक ! अर्थात केवल आपका कर्म आपके साथ जाता है। अतः आपको सदैव अच्छे कर्म करना चाहिए। जिससे विश्व का, आपके राष्ट्र का, आपके समाज का, आपके धर्म का और आपके आसपास के लोगों का कल्याण हो।

अब हम बताते हैं नाम जप का क्या महत्व है। नाव मे बैठकर, पैर गीले हुए बिना, नदी को पार किया जा सकता है वैसे ही नाम-जप से बिना तकलीफ के भवसागर पार कर सकते हैं।

सोच समझकर नाम-जप करना चाहिए। लोग पूछते है, ‘नाम लेने मे क्या है? नाम में शक्ति है। ‘इमली’ कहने पर मुँह में पानी भर आता है। शब्द में शक्ति है, परन्तु उसके लिए शब्द का अर्थ मालूम होना चाहिए। आपको श्रीराम इस जगत में क्यों लाए ? क्या मालूम है ? बहुत सारे लोगों को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि श्रीराम कौन थे। लोगों को ऐसा लगता है कि, इसकी अपेक्षा हम घर में बैठकर हुक्का पीते हुए राम नाम का जप करेंगे तो हमें इच्छित फल मिल जायेगा। मनुष्य को नाम-जप समझकर करना चाहिए।

जप का इतना महत्व क्यों है? जप से विकार कम कर सकते हैं। मानव देह में ‘जीव’ और ‘शिव’ दोनों है। उनके बीच विकार का पर्दा है।  यह विकार का पर्दा हटाना चाहिए। विषय विकारों को किस प्रकार हटायेंगे? विकारों को हटाने के लिए जप का उपयोग करना चाहिए।  उसके स्थान पर आज विकार बढाने के लिए जप का उपयोग किया जाता है। विकार बढाने के लिए नही, अपितु विकार कम करने के लिए जप करना चाहिए।

आप अपने शरीर के विकारों को हनुमान जी का नाम लेकर दिल से नाम लेकर पूरी तन्मयता और एकाग्रता से नाम लेकर अपने शरीर से हटा सकतें है।शर्त एक ही है की एकाग्रता भंग नहीं होनी चाहिए। जय श्री राम। 

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #174 ☆ सुक़ून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 174 ☆

सुक़ून की तलाश ☆

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम-शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान-परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’  –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रिता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में  एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। ख़ामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें ख़ामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द ख़ामोशी की भाषा का अनुवाद तो कर ही नहीं सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की ख़ामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है; दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं;  जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन- मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 200 ☆ आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 200 ☆  

? आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π – ?

विश्व पाई दिवस के अवसर पर, जर्सी साइंस म्यूजियम के रास्ते पर फुटपाथ में लगा यह π की वैल्यू वाला प्रतीक 14 मार्च को पूरी दुनिया विश्व पाई दिवस मनाती  है। पाई डे की खोज सबसे पहले विलियम जोंस ने की थी।

विश्व पाई दिवस हर साल 14 मार्च को गणितीय स्थिरांक पाई को पहचानने के लिए मनाया जाता है। पाई का अनुमानित मान 3.14 है। पाई डे 2023 की थीम इस बार  Mathematics for Everyone है, जिसका प्रस्ताव फिलीपींस के ट्रेस मार्टियर्स सिटी नेशनल हाई स्कूल से मार्को जर्को रोटायरो ने दिया था।

जब तारीख को महीने/दिन के प्रारूप (3/14) में लिखा जाता है ( अमेरिकन स्टाइल यही है) तो यह पाई मान के पहले तीन अंकों – 3.14 से मेल खाता है।

हर वर्ष 14 मार्च 1:59:26 बजे विश्व पाई दिवस मनाया जाता है। क्योंकि इस वक्त दिन और समय का मान 3.1415926 होता है। और इस तरह 14 मार्च को पाई का मान सात अंकों तक शुद्ध पाया जाता है। अर्थात 3.1415926.

 पाई एक ग्रीक लेटर है, जिसका प्रयोग मैथमेटिकल कॉन्स्टैंट के तौर पर होता है।

 पाई के मूल्य की गणना सबसे पहले गणितज्ञ, आर्कमिडीज ऑफ सिरैक्यूज ने की थी। इसे बाद में वैज्ञानिक समुदाय ने स्वीकार किया जब लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में पाई के प्रतीक का इस्तेमाल किया। 14 मार्च का दिन इसलिए भी खास है, क्योंकि इस दिन ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म हुआ था।

फिजिसिस्ट लैरी शॉ ने 1988 में इस दिन को मान्यता दी थी।  यूनाइटेड स्टेट्स हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स ने 14 मार्च को पाई दिवस के रूप में मनाना शुरू किया और इसी तरह यूनेस्को ने भी पाई दिवस को ‘अंतर्राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ चैत्र नवरात्र पर्व के शास्त्रोक्त नियम ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकते हैं । साथ ही प्रत्येक रविवार आप साप्ताहिक राशिफल भी पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है चैत्र नवरात्र पर्व के शास्त्रोक्त नियमों की जानकारी । 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही आध्यात्मिक आलेखों को और अधिक पठनीय एवं ज्ञानवर्धक बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ चैत्र नवरात्र पर्व के शास्त्रोक्त नियम ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

चैत्र नवरात्रि पर्व 22 मार्च 2023 से प्रारंभ हो रहे है। इस बार यह पर्व 9 दिनों का है। नवरात्रि का पर्वकाल माँ दुर्गा देवी जी को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उत्तम माना जाता है। नियमपूर्वक व्रत करने और सही विधि से पूजा करने से ही चैत्र नवरात्रि के व्रत सफल होते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा जी के नौ स्वरुपों की आराधना की जाती है ।आइए जानते हैं चैत्र नवरात्रि व्रत के नियमों के बारे में, ताकि आपको व्रत का पूर्ण फल प्राप्त हो और माता रानी की कृपा आपको मिल सके।

ज्योतिषाचार्य पं. नरेन्द्र कृष्ण शास्त्री ने बताया कि चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिन यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को कलश स्थापना चैत्र नवरात्रि पर्व में करें इन 10 नियमों का पालन, आप पर प्रसन्न रहेंगी माँ भगवती। 

【पं. नरेन्द्र कृष्ण शास्त्री 9993652408】

ज्योतिषाचार्य पंडित नरेन्द्र कृष्ण शास्त्री ने बताया कि यदि आप भी इस वर्ष चैत्र नवरात्रि का व्रत या पूजन रखना चाहते हैं, तो उसके व्रत, पूजन नियमों के बारे में जानना जरूरी है, नियमपूर्वक व्रत करने और सही विधि से पूजा करने से ही चैत्र नवरात्रि के व्रत सफल होते हैं, नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा जी के नौ स्वरुपों की आराधना की जाती है, आइए जानते हैं चैत्र नवरात्रि व्रत के नियमों के बारे में, ताकि आपको व्रत का पूर्ण फल प्राप्त हो और माता रानी की कृपा आपको मिल सके।

चैत्र नवरात्रि पर्व काल के नियम

1 – मेरे अनुसार चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिन यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को कलश स्थापना  करना चाहिए । कलश स्थापना के साथ हम माँ दुर्गा जी का आह्वान करते हैं । ताकि मां दुर्गा जी हमारे घर पधारें और नौ दिनों तक हम उनकी विधि विधान से पूजा करें।

2 –  कलश के पास ​एक पात्र में मिट्टी भरकर उसमें जौ बोना चाहिए । उसे नियमित जल देना चाहिए । जौ की जैसी वृद्धि होगी, उस आधार पर इस साल के जुड़े संकेत आप प्राप्त कर सकते हैं ।वैसे भी मान्यता है कि जौ जितना बढ़ता है, उतनी मां दुर्गा जी की कृपा होती है।

3 – यदि आप अपने घर पर मां दुर्गा का ध्वज लगाते हैं, तो उसे चैत्र नवरात्रि में बदल दें।

4 – यदि आप नौ दिन व्रत नहीं रख सकते हैं, तो पहले और अंतिम दिन नवरात्रि व्रत रख सकते हैं।

5 –  नवरात्रि के समय में कलश के पास मां दुर्गा जी के लिए अखंड ज्योति जलानी चाहिए, उसकी पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए।

6 – नवरात्रि के समय में दुर्गा सप्तशती का पाठ करें । यदि आप नहीं कर सकते हैं, तो किसी वैदिक ब्राह्मण से कराये।

7 – नवरात्रि में लाल वस्त्र, लाल रंग के आसन का उपयोग करें।

8 – नवरात्रि पूजा के समय माता रानी को लौंग, बताशे का भोग लगाएं, तुलसी और दूर्वा नहीं चढ़ाएं।

9 – नवरात्रि पूजा में नियमित रूप से सुबह और शाम को मां दुर्गा देवी की आरती करें।

10 – मां दुर्गा जी को गुड़हल (जासौन) का फूल बहुत प्रिय होता है। संभव हो तो पूजा में उसका ही उपयोग करें । गुड़हल न मिले, तो लाल रंग के फूल का उपयोग करें।

 

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

ज्योतिष शास्त्र, वास्तुशास्त्र, समस्त धार्मिक कार्यो के लिए संपर्क – आरसीएम वाली गली, डॉक्टर राय हॉस्पिटल के पास, साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400 ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 25 – तिरंगा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 25 –  तिरंगा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में सब तरफ तिरंगे की चर्चा हो रही है, होनी भी चाहिए।  देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव जो मना रहा है।

यहां विदेश का झंडा भी तीन रंग का है।  अमेरिका भी अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्र हुआ था और हमारा देश भी पहले मुगल बादशाहों  के नियंत्रण में था और अंत में अंग्रेजों से ही मुक्त हुआ था।

विगत दिन एक स्थानीय नागरिक से अमरीकी तिरंगे के बाबत बातचीत हुई थी। झंडे में लगे हुए पचास सितारे देश के पचास राज्यों के प्रतीक है। यहां के एक पुराने किले में अमरीकी झंडे में तेरह सितारे दर्शाए हुए थे। समय-समय पर इसके प्रारूप में परिवर्तन होते रहे । एक समय अतिरिक्त राज्य की मांग होने पर झंडे में इक्यावन वाँ सितारा लगा कर मांग की गई थी, परंतु वह अस्वीकार हो गई थी। यहां पर अनेक घरों में हमेशा विभिन्न आकार के झंडे लगे रहते हैं। कुछ तो जमीन से मात्र आधा फूट की ऊंचाई पर होते हैं। सब के सम्मान करने के अपने-अपने नियम होते हैं। यहां की केंद्रीय सरकार को फेडरल के नाम से जाना जाता है। राज्यों के पास बहुत अधिकार भी होते हैं। प्रत्येक शहर और कस्बे की अपनी पुलिस व्यवस्था होती है। इसके अलावा राज्य पुलिस होती है। वैसे अमेरिका पूरी दुनिया में अपना रौब बनाए रखने और पूंजीवाद के विस्तार के लिए अनेक देशों में अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करने में अग्रणी रहता है।

हमारे देश से यहां चार गुनी अधिक भूमि हैं और जनसंख्या एक चौथाई है। शायद, इस देश की संपन्ता का ये ही कारण हो सकता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 13 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 13 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

तुम रक्षक काहू को डर ना।।

आपन तेज सम्हारो आपै।

तीनों लोक हांक तें कांपै।।

अर्थ:-

आपकी शरण में आए हुए को सब सुख मिल जाते हैं। आप जिसके रक्षक हैं उसे किसी का डर नहीं। हे महावीर जी अपने तेज  को आप स्वयं  ही संभाल सकते हैं। आपकी एक हुंकार से तीनो लोक कांपते हैं।

भावार्थ:-

आप सुखों की खान है, सुख निधान हैं, आप अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं। आपकी कृपा से सभी प्रकार के सुख सलभ हैं। आप की शरण में जाने से सभी सुख सुलभ हो जाते हैं।  शाश्वत शांति प्राप्त होती है। अगर तुम हमारे रक्षक हो तो सभी प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं। आपके भक्तों के सभी प्रकार के डर से दूर हो जाते हैं और उनको किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।

आप की तीव्रता, आपका ओज और आपकी ऊर्जा केवल आप ही संभाल सकते हैं। दूसरा कोई इसको रोक नहीं सकता है। अर्थात आप के बराबर किसी के भी पास तीव्रता, ओज, ऊर्जा और तेज नहीं है। आपके हुंकार से तीनो लोक में  भय फैल जाता है।

संदेश:-

अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।

इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहू को डर ना।।

अगर आपको कोई डराने की कोशिश कर रहा है या आपके सुख में  कमी आ रही है तो आपको इन चौपाइयों का बार बार पाठ करना चाहिए।

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक तें कांपै।।

अगर आप ओज कीर्ति तथा अपना प्रभाव लोगों के बीच में जमाना चाहते हैं तो आप को इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:-

पहली चौपाई में तुलसीदासजी भगवान की शरणमें जाने के लिए कह रहें। शरणागति एक महान साधन है। किसी की शरण जाओ, किसी का बन जाओ। उसके बिना जीवन में आनंद नहीं है। भगवान आधार है। गलतियों को कहने का स्थान अर्थात् भगवान। शरणं यानी गति। भगवान हमारी गति हैं। दूसरे किसकी शरण जायँ ? एक कवि ने कहा है:-

जीवन नैया डगमग डोले तू है तारनहार, कन्हैया तेरा ही आधार।

शरणागति’ याने मेरा कुछ नहीं है, सब तुम्हारा है। मन बुद्धि और अहम् भी मेरे नहीं है। भक्त  जो मन, बुद्धि,अहम् भाव से दे देता है, उसे समर्पण कहते है। ‘भगवान ! मन, बुद्धि, अहम् ये सब मेरे नहीं है, आपके हैं और आप मेरे हैं। अत: संपूर्ण विश्व मेरा है।’ मेरा कुछ नहीं है यह प्रथम बात है और आप मेरे हैं, अत: संपूर्ण विश्व मेरा है ऐसी स्थिति आती है, तब उसे हम ‘शरणागति’ कहते हैं।

प्रारब्ध, भाग्य, भविष्य, देखनेवाले लोग भी अहंकारी है। अर्थात् प्रारब्ध भाग्य नहीं होता है। ऐसा मैं नहीं कहता हूँ मगर उससे अहंकार आता है। भगवान का प्रसाद मानकर चलेंगे तो उसमें अलौकिक आनंद है।

 प्रारब्ध का अर्थ क्या है?  गत जन्म में कुछ कर्म किये, उससे जो जमा हुआ होगा उसीका नाम प्रारब्ध है।  अन्त में भाग्य का अहंकार आता हैं।

हमारे पूर्वजों को पता था कि, भाग्य मानकर भी अहंकार आता है।  इसीलिए पैसा मिलने पर वे कहते थे कि, बडों के आशीर्वाद से पैसे मिले। बडों के पुण्य से, आशीर्वाद से धन मिला, ऐसा बोलने से कर्म या भाग्य का अहंकार नहीं आता है। इसी वजह से अहंकार कम होता है। हम जब अपना अहंकार समाप्त करेंगे तभी हम शरणागत हो सकते हैं। ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर तभी हो पाएगी।

महावीर हनुमान जी द्वारा शरणागत की रक्षा के कई उदाहरण हैं। जैसे कि उन्होंने सुग्रीव की रक्षा की। सुग्रीव बाली से भयंकर भयभीत थे। सुग्रीव सूर्य पुत्र थे। सूर्य हनुमान जी के गुरु थे। गुरु दक्षिणा में उन्होंने सूर्य देव को विश्वास दिलवाया था  कि वे सुग्रीव की रक्षा करेंगें। इस वचन को उन्होंने पूरी तरह से निभाया और  सुग्रीव को श्री रामचंद्र जी से मिलवा कर राजगद्दी भी दिलवाई।

इसी प्रकार विभीषण की भी उन्होंने रक्षा की और विभीषण को लंका नरेश बनाया।

महावीर हनुमान जी ने मेघनाथ से श्री लक्ष्मण जी की दो बार और श्री रामचंद्र जी की एक बार रक्षा की है। पहली बार जब श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को मेघनाद  ने नागपाश में बांधा था। तब महावीर हनुमान जी ने ही मेघनाद को भगाया था। गरुण जी को बुलाकर भगवान राम जी को तथा श्री लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया था।

संकटमोचन हनुमान अष्टक में इस घटना का वर्णन किया गया है:-

रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो ।

श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो ।।

आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो ।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।

को० – 6 ।।

इसी प्रकार जब मेघनाद ने शक्ति का प्रहार श्री लक्ष्मण जी के उपर किया और लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए थे। उस समय भी युद्ध भूमि से लक्ष्मण जी को श्री हनुमान ही बचा कर लाए थे।

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥

(रामचरितमानस/ लंका कांड)

भावार्थ:- व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥

इसके उपरांत वैद्य की आवश्यकता पड़ी तब सुषेण वैद्य को लंका जाकर श्री हनुमान जी ही ले कर  आए थे।

जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥

धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥

भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥

सुषेण वैद्य द्वारा यह बताने पर की द्रोणागिरी पर स्थित संजीवनी बूटी से ही श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचेंगे हनुमान जी तत्काल उस बूटी को लाने के लिए चल पड़े :-

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥

भावार्थ:-श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले।

इसी प्रकार जब सभी वानरों की जान खतरे में पड़ी थी और सीता जी का पता नहीं चल रहा था तब हनुमानजी ही समुद्र को पार कर सीता जी का पता लगा कर लौटे थे। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जब श्री हनुमान जी ने अपने लोगों की जो उनके साथ थे उनके प्राण की रक्षा की।

शरणागत  की सुरक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है हनुमान जी द्वारा काशी नरेश की  रक्षा के लिए श्री राम जी से युद्ध के लिए तैयार हो जाना। इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने श्री रामचंद्र जी से लड़ने के लिए श्री रामचंद्र जी की ही सौगंध ली थी।

यह कथा हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 302 में “सुमिरि पवनसुत पावन नामू” शीर्षक से दिया हुआ है। एक बार काशी नरेश भगवान रामचंद्र जी से मिलने के लिए राजसभा में जा रहे थे। रास्ते में उनको नारद जी मिल गए। नारद जी ने काशी नरेश से अनुरोध किया की आप जब दरबार में जाएं तो भगवान के बगल में बैठे वयोवृद्ध तपस्वी विश्वामित्र जी की उपेक्षा कर देना। उन्हें प्रणाम मत करना। काशी नरेश ने पूछा ऐसा क्यों ? नारद जी ने कहा इसका जवाब तुम्हें बाद में मिल जाएगा। काशी नरेश राज सभा में पहुंचे। हनुमान जी राज सभा में नहीं थे। अपनी माता जी से मिलने गए थे। काशी नरेश ने नारद जी के कहे के अनुसार ही विश्वामित्र जी की उपेक्षा की। अपनी उपेक्षा के कारण  विश्वामित्र जी अशांत हो गए। उन्होंने इस बात की शिकायत श्री रामचंद्र जी से की। शिकायत को सुनकर श्री रामचंद्र जी काशी नरेश से काफी नाराज हो गए। उन्होंने तीन वाण अलग से निकाल दिए और कहा कि इन्हीं बाणों से काशीराज को आज मार दिया जाएगा। यह बात जब काशी नरेश की जानकारी में आई तो काशी नरेश घबराकर नारद जी के पास पहुंचे। नारद जी ने अपना पल्ला झाड़ दिया और कहा कि तुम हनुमान जी की माता अंजना के समीप जाकर उनके चरण पकड़ लो।  जब तक मां अंजना रक्षा का वचन न दें तब तक तुम छोड़ना नहीं। काशी नरेश ने ऐसा ही किया। अंजना एक सीधी-सादी जननी। उन्होंने प्राण रक्षा का वचन दे दिया। माता अंजना ने काशी नरेश के प्राण रक्षा का संकल्प श्री हनुमान जी से ले लिया। हनुमान जी के भोजन  ग्रहण करने  के बाद  माता अंजना ने काशी नरेश से  पूछा कि तुम्हें मारने की प्रतिज्ञा किसने की है। काशी नरेश ने बताया कि यह प्रतिज्ञा भगवान श्रीराम ने की है।   श्री राम जी से लड़ने की बात हनुमान जी भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने काशी नरेश को सलाह दी कि तुम परम पावनी सरयू नदी में कमर तक जल में खड़े होकर अविराम राम नाम का जप करते रहो। अगर तुम जाप करते रहोगे तो तुम बच जाओगे। इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम के पास पहुंचे। दरबार में पहुंचने के उपरांत हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के चरण पकड़ कर कहा कि उन्हें वरदान चाहिए। श्री राम ने कहा मांग लो। तुमने तो आज तक हमसे कुछ भी नहीं मांगा है। श्री हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मैं चाहता हूं आपके नाम का जाप करने वाले कि सदा मैं रक्षा किया करूं। मेरी उपस्थिति में आपके नाम जापक पर कभी कहीं से कोई प्रहार न करें।   अगर गलती से कोई प्रहार करे तो उसका  प्रहार व्यर्थ हो जाए। श्री रामचंद्र जी ने यह वरदान महावीर हनुमान जी को दे दिया।

श्री रामचंद्र जी ने दिन समाप्त होने के उपरांत काशी नरेश के ऊपर वाण छोड़ा। वाण अत्यंत तेजी के साथ काशी नरेश के पास पहुंचा। काशी नरेश उस समय रामनाम का जाप कर रहे थे। अतः वह उनके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा। राजा ने जब जाप बंद नहीं किया तो वाण वापस श्री रामचंद्र जी के पास आ गया।  श्री रामचंद्र जी ने इसके बाद दूसरा और तीसरा बाण छोड़ा। परंतु वे वाण भी वापस आ गए। अब श्री रामचंद्र जी स्वयं सरयू नदी के तट पर काशी नरेश को दंड देने के लिए पहुंच गए। वशिष्ट जी ने देखा की इस प्रक्रिया में श्री रामचंद्र जी का कोई एक वचन झूठा जा सकता है। उन्होंने नरेश को सलाह दी कि तुम महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लो। वह सहज दयालु  हैं।  इसके उपरांत नरेश ने नाम जाप करते हुए महर्षि विश्वामित्र के पैर पकड़ लिए।  महर्षि ने उन्हें क्षमा कर दिया। क्षमा करने के उपरांत महर्षि ने श्री राम को भी क्षमा करने हेतु कहा। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र का क्रोध समाप्त हो गया था अतः श्री रामचंद्र जी भी शांत हो गए।माता अंजना की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। शरणागत की रक्षा का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।

उपरोक्त दृष्टांत से स्पष्ट है की श्री  हनुमान जी की शरण में जो भी रहेगा उसको सभी तरह के सुख प्राप्त होंगे तथा उसको किसी भी तरह का डर व्याप्त नहीं रहेगा। वह हर तरह से सुरक्षित रहेगा।

रामचंद्र जी ने भी हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा ने कहा है कि यह हनुमान जी आप जैसा उपकारी इस विश्व में और कोई नहीं है :-

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥

प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा क्रमांक 31 /चौपाई क्रमांक 5,6)

भावार्थ:- रामचन्द्रजी ने कहा कि हे हनुमान! सुन, तेरे बराबर मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोई भी देहधारी नहीं है॥

हे हनुमान! मैं तेरा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन बदला देने के वास्ते सन्मुख ही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता।

अगली चौपाई है “आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै “।

इस चौपाई में चार महत्वपूर्ण वाक्यांश है। पहला है आपन तेज अर्थात श्री हनुमान जी का तेज दूसरा है सम्हारो आपे अर्थात श्री हनुमान जी ही अपना तेज संभाल सकते हैं। तीसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश तीनो लोक अर्थात स्वर्ग लोक,भूलोक और पाताल लोक और चौथा वाक्यांश है हांकते  कांपे अर्थात आपके हुंकार से पूरा ब्रह्मांड  कांप जाता है या डर जाता है।

 अब हम पहले और दूसरे वाक्यांश की बात करते हैं।

तेज का अर्थ होता है दीप्ति, कांति, चमक, दमक, आभा, ओज,पराक्रम,, बल, शक्ति, वीर्य, गर्मी, नवनीत,  मक्खन,सोना, स्वर्ण घोड़ों आदि के चलने की तेजी या वेग।

यहां पर तेज के कई अर्थ दिए गए हैं। इनमें से कई का अर्थ एक जैसा है जैसे दीप्ति, कांति, चमक, दमक,और आभा। यहां पर तेज का अर्थ चेहरे की चमक दमक से है। दूसरा है ओज पराक्रम बल शक्ति इनका आशय शारीरिक बल से है। तेज का तात्पर्य वीर्य, गर्मी, नवनीत, मक्खन भी होता है। सोने की तेज को अलग से माना जाता है। तेज का अर्थ वेग  भी होता है। वैसे अगर हम कहें कि कि यह अश्व अत्यंत तेज  है तो इसका अर्थ होगा अश्व का वेग अत्यधिक है। हनुमान जी के अगर हम बात करें तो उनका मुख्य मंडल अत्यंत दीप्तिमान चमक दमक वाला है बल और शक्ति के वे अपरममित भंडार हैं। उनके वीर्य में इतना तेज है उनके शरीर की गंध से ही मकरध्वज पैदा हुए और उनका आभामंडल सोने का है। महावीर हनुमान जी का वेग किसी स्थान पर अतिशीघ्र पहुंचने की शक्ति अकल्पनीय है।

 हनुमान जी के तेज का बहुत अच्छा वर्णन वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 46वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 18 और 19 में किया गया है:-

 रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्।

तोरणस्थं महोत्साहं महासत्त्वं महाबलम्।।(18)

महामतिं महावेगं महाकायं महाबलम्।

तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः।। (19)

इन दोनों श्लोंकों में कहा गया है महावीर हनुमान जी अशोक वाटिका के फाटक के ऊपर बैठे हुए हैं।उस समय  उदित सूर्य की तरह दीप्तिमान महा बलवान महाविद्वान महावेगवान, महाविक्रमवान, महाबुद्धिमान, महा उत्साही महाकपि और महाभुज हनुमान जी को देखकर और उनसे डर सब राक्षस  दूर-दूर ही खड़े हुए।

हनुमान जी के चेहरे के तेज का वर्णन वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर मिलता है। सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 60, 61 और 62 में  इसका बहुत सुंदर वर्णन किया गया है :-

नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ।

पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले।।5.1.59।।

चक्षुषी सम्प्राकाशेते चन्द्रसूर्याविवोदितौ।

मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ। 5.1.60।।

सन्ध्यया समभिस्पृष्टं यथा तत्सूर्यमण्डलम्

लाङ्गूलं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते।।5.1.61।।

अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितम्।

लाङ्गूलचक्रेण महान् शुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः।। 5.1.62।।

महावीर हनुमान जी के दोनों नेत्र तो ऐसे दिख पड़ते हैं जैसे पर्वत पर दो ओर से दो दावानल लगा हो। उनकी  बड़ी-बड़ी रोशनी वाली आंखें चंद्रमा और सूर्य की तरह चमक रही थी। लाल नाक और हनुमान जी का लाल-लाल मुख मंडल संध्याकालीन सूर्य  की तरह शोभायमान हो रहा था। आकाश मार्ग से जाते समय हनुमान जी की हिलती हुई पूछ ऐसे शोभायमान हो रही थी जैसे आकाश में  इंद्र ध्वज।

महावीर हनुमान जी के आवाज को सुनकर ही बहुत सारे राक्षसों की मृत्यु हो जाती थी। यह वाल्मीकि रामायण के  सुंदरकांड के 45 वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 13 में लिखा है :-

प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः।

केचित्तस्य निनादेन तत्रैव पतिता भुवि।।5.45.13।।

इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी ने किसी को छाती की ढेर से और किसी को जन्घों के बीच रगड़ के मार डाला। कितने ही राक्षस तो हनुमान जी के सिंहनाद को सुनकर ही पृथ्वी पर गिर कर मर गए।

हनुमान जी की शक्ति और वेग का एक अच्छा उदाहरण रामचरितमानस में भी दिया हुआ है। हनुमान जी जब लंका जाने  के लिए  पहाड़ पर चढ़ते हैं तो उनके पैर रखते ही पहाड़ जमीन के अंदर पाताल पहुंच जाता है और उनके उड़ने की गति श्री रामचंद्र जी के वाण के समान है।  :-

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।

चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।

एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

भावार्थ:- कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमानजी वहां से चले दिये।

हनुमान जी के चेहरे का ओज, उनकी तीव्रतम वेग, उनका अतुलित शक्ति उनकी अपनी है। यह सब उनको रुद्रावतार होने से पवन पुत्र होने के कारण तथा सूर्य देव को आजाद करते समय देवताओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद के कारण है।  परंतु वे किसी भी कार्य का श्रेय  नहीं लेते हैं। हर बात का श्रेय भगवान श्रीराम को देते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बातों पर घमंड से भर जाते हैं उनको हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। एक  पौराणिक कहानी है :-

एक बार भगवान विष्णु शिवजी को मिलने गये। विष्णु का वाहन गरूड है। विष्णु भगवान को मिलने के लिए शिवजी बाहर आये। शिवजी के गले में नाग बैठा था। वह गरूड को ललकारने लगा। यह देखकर गरूड ने उससे कहा:

स्थानं प्रधानं खलु योग्यताया:, स्थाने स्थित: कापुरूषोपिशुर:।

जनामि नागेन्द्र तव प्रभावं कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य।।

‘तेरा प्रभाव कितना है मैं जानता हँ। तू शिवजी के गले में बैठा है इसीलिए गर्जना कर रहा है। स्थान पाने पर कायर पुरूष भी शूर बन जाता है। ’ सुभाषितकार कहते हैं:

स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा: नरा:।

इति  विज्ञाय  मतिमान्स्वस्थानं  न  परित्यजेत्।।

( दान्त, बाल, नख और मनुष्य स्थानभ्रष्ट हाने के बाद शोभा नहीं देते। ऐसा समझकर समझदार व्यक्ति को स्थान नहीं छोडना चाहिए। )

स्थानभ्रष्ट की शोभा नष्ट हो जाती है। दांत स्थानपर हों तो वे शोभा देते हैं। बाल सिरपर हों तब तक शोभा देते हैं। रोज बाल हम कंघी से संवारते हैं। मगर हजामत करने के बाद हम काटे हुए बालों को छूते भी नहीं। इसका कारण बाल स्थानभ्रष्ट हुए। महावीर हनुमान जी के अंदर नाम मात्र का भी घमंड नहीं है। जबकि तीनों लोकों  में उनके बराबर  ओजवान, तेजवान, वीर्यवान, शक्तिवान, वेगवान कोई दूसरा नहीं है। हनुमान जी जैसा दूसरा कोई और नहीं है जिसने एक छलांग में समुद्र को पार किया हो और एक छलांग में ही सूर्यलोक जा पहुंचा हो।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर हनुमान के प्रसन्न होने से आपको सभी कुछ मिल जाता है और अगर वे आपके  रक्षक हैं कोई आपका भक्षक नहीं हो सकता है।जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ??

हर मनुष्य को चाहे वह कितना ही आलसी क्यों न हो, शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा 24×7 कार्यरत रहना पड़ता है। जब हम ‘कुछ नहीं’ करना चाहते तो वास्तव में क्या करना चाहते हैं? अपने शून्य में उपजे अपने ‘कुछ नहीं’ में छिपी संभावना को खुद ही पढ़ना होता है। जिस किसीने इस ‘कुछ नहीं’ को पढ़ और समझ लिया, यकीन मानना वह जीवन में ‘बहुत कुछ’ करने की डगर पर निकल गया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 179 ☆शिवोऽहम्*… (4) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 179 शिवोऽहम्*…(4) ?

आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं

न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।

अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।

मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति  सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।

मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।

आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।

वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?

 शून्य अवगाहित करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ

अगाध शून्य की  अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही हाथ लगा?

 साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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