ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 13 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

तुम रक्षक काहू को डर ना।।

आपन तेज सम्हारो आपै।

तीनों लोक हांक तें कांपै।।

अर्थ:-

आपकी शरण में आए हुए को सब सुख मिल जाते हैं। आप जिसके रक्षक हैं उसे किसी का डर नहीं। हे महावीर जी अपने तेज  को आप स्वयं  ही संभाल सकते हैं। आपकी एक हुंकार से तीनो लोक कांपते हैं।

भावार्थ:-

आप सुखों की खान है, सुख निधान हैं, आप अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं। आपकी कृपा से सभी प्रकार के सुख सलभ हैं। आप की शरण में जाने से सभी सुख सुलभ हो जाते हैं।  शाश्वत शांति प्राप्त होती है। अगर तुम हमारे रक्षक हो तो सभी प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं। आपके भक्तों के सभी प्रकार के डर से दूर हो जाते हैं और उनको किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।

आप की तीव्रता, आपका ओज और आपकी ऊर्जा केवल आप ही संभाल सकते हैं। दूसरा कोई इसको रोक नहीं सकता है। अर्थात आप के बराबर किसी के भी पास तीव्रता, ओज, ऊर्जा और तेज नहीं है। आपके हुंकार से तीनो लोक में  भय फैल जाता है।

संदेश:-

अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।

इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहू को डर ना।।

अगर आपको कोई डराने की कोशिश कर रहा है या आपके सुख में  कमी आ रही है तो आपको इन चौपाइयों का बार बार पाठ करना चाहिए।

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक तें कांपै।।

अगर आप ओज कीर्ति तथा अपना प्रभाव लोगों के बीच में जमाना चाहते हैं तो आप को इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:-

पहली चौपाई में तुलसीदासजी भगवान की शरणमें जाने के लिए कह रहें। शरणागति एक महान साधन है। किसी की शरण जाओ, किसी का बन जाओ। उसके बिना जीवन में आनंद नहीं है। भगवान आधार है। गलतियों को कहने का स्थान अर्थात् भगवान। शरणं यानी गति। भगवान हमारी गति हैं। दूसरे किसकी शरण जायँ ? एक कवि ने कहा है:-

जीवन नैया डगमग डोले तू है तारनहार, कन्हैया तेरा ही आधार।

शरणागति’ याने मेरा कुछ नहीं है, सब तुम्हारा है। मन बुद्धि और अहम् भी मेरे नहीं है। भक्त  जो मन, बुद्धि,अहम् भाव से दे देता है, उसे समर्पण कहते है। ‘भगवान ! मन, बुद्धि, अहम् ये सब मेरे नहीं है, आपके हैं और आप मेरे हैं। अत: संपूर्ण विश्व मेरा है।’ मेरा कुछ नहीं है यह प्रथम बात है और आप मेरे हैं, अत: संपूर्ण विश्व मेरा है ऐसी स्थिति आती है, तब उसे हम ‘शरणागति’ कहते हैं।

प्रारब्ध, भाग्य, भविष्य, देखनेवाले लोग भी अहंकारी है। अर्थात् प्रारब्ध भाग्य नहीं होता है। ऐसा मैं नहीं कहता हूँ मगर उससे अहंकार आता है। भगवान का प्रसाद मानकर चलेंगे तो उसमें अलौकिक आनंद है।

 प्रारब्ध का अर्थ क्या है?  गत जन्म में कुछ कर्म किये, उससे जो जमा हुआ होगा उसीका नाम प्रारब्ध है।  अन्त में भाग्य का अहंकार आता हैं।

हमारे पूर्वजों को पता था कि, भाग्य मानकर भी अहंकार आता है।  इसीलिए पैसा मिलने पर वे कहते थे कि, बडों के आशीर्वाद से पैसे मिले। बडों के पुण्य से, आशीर्वाद से धन मिला, ऐसा बोलने से कर्म या भाग्य का अहंकार नहीं आता है। इसी वजह से अहंकार कम होता है। हम जब अपना अहंकार समाप्त करेंगे तभी हम शरणागत हो सकते हैं। ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर तभी हो पाएगी।

महावीर हनुमान जी द्वारा शरणागत की रक्षा के कई उदाहरण हैं। जैसे कि उन्होंने सुग्रीव की रक्षा की। सुग्रीव बाली से भयंकर भयभीत थे। सुग्रीव सूर्य पुत्र थे। सूर्य हनुमान जी के गुरु थे। गुरु दक्षिणा में उन्होंने सूर्य देव को विश्वास दिलवाया था  कि वे सुग्रीव की रक्षा करेंगें। इस वचन को उन्होंने पूरी तरह से निभाया और  सुग्रीव को श्री रामचंद्र जी से मिलवा कर राजगद्दी भी दिलवाई।

इसी प्रकार विभीषण की भी उन्होंने रक्षा की और विभीषण को लंका नरेश बनाया।

महावीर हनुमान जी ने मेघनाथ से श्री लक्ष्मण जी की दो बार और श्री रामचंद्र जी की एक बार रक्षा की है। पहली बार जब श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को मेघनाद  ने नागपाश में बांधा था। तब महावीर हनुमान जी ने ही मेघनाद को भगाया था। गरुण जी को बुलाकर भगवान राम जी को तथा श्री लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया था।

संकटमोचन हनुमान अष्टक में इस घटना का वर्णन किया गया है:-

रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो ।

श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो ।।

आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो ।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।

को० – 6 ।।

इसी प्रकार जब मेघनाद ने शक्ति का प्रहार श्री लक्ष्मण जी के उपर किया और लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए थे। उस समय भी युद्ध भूमि से लक्ष्मण जी को श्री हनुमान ही बचा कर लाए थे।

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥

(रामचरितमानस/ लंका कांड)

भावार्थ:- व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥

इसके उपरांत वैद्य की आवश्यकता पड़ी तब सुषेण वैद्य को लंका जाकर श्री हनुमान जी ही ले कर  आए थे।

जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥

धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥

भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥

सुषेण वैद्य द्वारा यह बताने पर की द्रोणागिरी पर स्थित संजीवनी बूटी से ही श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचेंगे हनुमान जी तत्काल उस बूटी को लाने के लिए चल पड़े :-

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥

भावार्थ:-श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले।

इसी प्रकार जब सभी वानरों की जान खतरे में पड़ी थी और सीता जी का पता नहीं चल रहा था तब हनुमानजी ही समुद्र को पार कर सीता जी का पता लगा कर लौटे थे। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जब श्री हनुमान जी ने अपने लोगों की जो उनके साथ थे उनके प्राण की रक्षा की।

शरणागत  की सुरक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है हनुमान जी द्वारा काशी नरेश की  रक्षा के लिए श्री राम जी से युद्ध के लिए तैयार हो जाना। इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने श्री रामचंद्र जी से लड़ने के लिए श्री रामचंद्र जी की ही सौगंध ली थी।

यह कथा हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 302 में “सुमिरि पवनसुत पावन नामू” शीर्षक से दिया हुआ है। एक बार काशी नरेश भगवान रामचंद्र जी से मिलने के लिए राजसभा में जा रहे थे। रास्ते में उनको नारद जी मिल गए। नारद जी ने काशी नरेश से अनुरोध किया की आप जब दरबार में जाएं तो भगवान के बगल में बैठे वयोवृद्ध तपस्वी विश्वामित्र जी की उपेक्षा कर देना। उन्हें प्रणाम मत करना। काशी नरेश ने पूछा ऐसा क्यों ? नारद जी ने कहा इसका जवाब तुम्हें बाद में मिल जाएगा। काशी नरेश राज सभा में पहुंचे। हनुमान जी राज सभा में नहीं थे। अपनी माता जी से मिलने गए थे। काशी नरेश ने नारद जी के कहे के अनुसार ही विश्वामित्र जी की उपेक्षा की। अपनी उपेक्षा के कारण  विश्वामित्र जी अशांत हो गए। उन्होंने इस बात की शिकायत श्री रामचंद्र जी से की। शिकायत को सुनकर श्री रामचंद्र जी काशी नरेश से काफी नाराज हो गए। उन्होंने तीन वाण अलग से निकाल दिए और कहा कि इन्हीं बाणों से काशीराज को आज मार दिया जाएगा। यह बात जब काशी नरेश की जानकारी में आई तो काशी नरेश घबराकर नारद जी के पास पहुंचे। नारद जी ने अपना पल्ला झाड़ दिया और कहा कि तुम हनुमान जी की माता अंजना के समीप जाकर उनके चरण पकड़ लो।  जब तक मां अंजना रक्षा का वचन न दें तब तक तुम छोड़ना नहीं। काशी नरेश ने ऐसा ही किया। अंजना एक सीधी-सादी जननी। उन्होंने प्राण रक्षा का वचन दे दिया। माता अंजना ने काशी नरेश के प्राण रक्षा का संकल्प श्री हनुमान जी से ले लिया। हनुमान जी के भोजन  ग्रहण करने  के बाद  माता अंजना ने काशी नरेश से  पूछा कि तुम्हें मारने की प्रतिज्ञा किसने की है। काशी नरेश ने बताया कि यह प्रतिज्ञा भगवान श्रीराम ने की है।   श्री राम जी से लड़ने की बात हनुमान जी भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने काशी नरेश को सलाह दी कि तुम परम पावनी सरयू नदी में कमर तक जल में खड़े होकर अविराम राम नाम का जप करते रहो। अगर तुम जाप करते रहोगे तो तुम बच जाओगे। इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम के पास पहुंचे। दरबार में पहुंचने के उपरांत हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के चरण पकड़ कर कहा कि उन्हें वरदान चाहिए। श्री राम ने कहा मांग लो। तुमने तो आज तक हमसे कुछ भी नहीं मांगा है। श्री हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मैं चाहता हूं आपके नाम का जाप करने वाले कि सदा मैं रक्षा किया करूं। मेरी उपस्थिति में आपके नाम जापक पर कभी कहीं से कोई प्रहार न करें।   अगर गलती से कोई प्रहार करे तो उसका  प्रहार व्यर्थ हो जाए। श्री रामचंद्र जी ने यह वरदान महावीर हनुमान जी को दे दिया।

श्री रामचंद्र जी ने दिन समाप्त होने के उपरांत काशी नरेश के ऊपर वाण छोड़ा। वाण अत्यंत तेजी के साथ काशी नरेश के पास पहुंचा। काशी नरेश उस समय रामनाम का जाप कर रहे थे। अतः वह उनके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा। राजा ने जब जाप बंद नहीं किया तो वाण वापस श्री रामचंद्र जी के पास आ गया।  श्री रामचंद्र जी ने इसके बाद दूसरा और तीसरा बाण छोड़ा। परंतु वे वाण भी वापस आ गए। अब श्री रामचंद्र जी स्वयं सरयू नदी के तट पर काशी नरेश को दंड देने के लिए पहुंच गए। वशिष्ट जी ने देखा की इस प्रक्रिया में श्री रामचंद्र जी का कोई एक वचन झूठा जा सकता है। उन्होंने नरेश को सलाह दी कि तुम महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लो। वह सहज दयालु  हैं।  इसके उपरांत नरेश ने नाम जाप करते हुए महर्षि विश्वामित्र के पैर पकड़ लिए।  महर्षि ने उन्हें क्षमा कर दिया। क्षमा करने के उपरांत महर्षि ने श्री राम को भी क्षमा करने हेतु कहा। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र का क्रोध समाप्त हो गया था अतः श्री रामचंद्र जी भी शांत हो गए।माता अंजना की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। शरणागत की रक्षा का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।

उपरोक्त दृष्टांत से स्पष्ट है की श्री  हनुमान जी की शरण में जो भी रहेगा उसको सभी तरह के सुख प्राप्त होंगे तथा उसको किसी भी तरह का डर व्याप्त नहीं रहेगा। वह हर तरह से सुरक्षित रहेगा।

रामचंद्र जी ने भी हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा ने कहा है कि यह हनुमान जी आप जैसा उपकारी इस विश्व में और कोई नहीं है :-

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥

प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा क्रमांक 31 /चौपाई क्रमांक 5,6)

भावार्थ:- रामचन्द्रजी ने कहा कि हे हनुमान! सुन, तेरे बराबर मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोई भी देहधारी नहीं है॥

हे हनुमान! मैं तेरा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन बदला देने के वास्ते सन्मुख ही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता।

अगली चौपाई है “आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै “।

इस चौपाई में चार महत्वपूर्ण वाक्यांश है। पहला है आपन तेज अर्थात श्री हनुमान जी का तेज दूसरा है सम्हारो आपे अर्थात श्री हनुमान जी ही अपना तेज संभाल सकते हैं। तीसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश तीनो लोक अर्थात स्वर्ग लोक,भूलोक और पाताल लोक और चौथा वाक्यांश है हांकते  कांपे अर्थात आपके हुंकार से पूरा ब्रह्मांड  कांप जाता है या डर जाता है।

 अब हम पहले और दूसरे वाक्यांश की बात करते हैं।

तेज का अर्थ होता है दीप्ति, कांति, चमक, दमक, आभा, ओज,पराक्रम,, बल, शक्ति, वीर्य, गर्मी, नवनीत,  मक्खन,सोना, स्वर्ण घोड़ों आदि के चलने की तेजी या वेग।

यहां पर तेज के कई अर्थ दिए गए हैं। इनमें से कई का अर्थ एक जैसा है जैसे दीप्ति, कांति, चमक, दमक,और आभा। यहां पर तेज का अर्थ चेहरे की चमक दमक से है। दूसरा है ओज पराक्रम बल शक्ति इनका आशय शारीरिक बल से है। तेज का तात्पर्य वीर्य, गर्मी, नवनीत, मक्खन भी होता है। सोने की तेज को अलग से माना जाता है। तेज का अर्थ वेग  भी होता है। वैसे अगर हम कहें कि कि यह अश्व अत्यंत तेज  है तो इसका अर्थ होगा अश्व का वेग अत्यधिक है। हनुमान जी के अगर हम बात करें तो उनका मुख्य मंडल अत्यंत दीप्तिमान चमक दमक वाला है बल और शक्ति के वे अपरममित भंडार हैं। उनके वीर्य में इतना तेज है उनके शरीर की गंध से ही मकरध्वज पैदा हुए और उनका आभामंडल सोने का है। महावीर हनुमान जी का वेग किसी स्थान पर अतिशीघ्र पहुंचने की शक्ति अकल्पनीय है।

 हनुमान जी के तेज का बहुत अच्छा वर्णन वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 46वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 18 और 19 में किया गया है:-

 रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्।

तोरणस्थं महोत्साहं महासत्त्वं महाबलम्।।(18)

महामतिं महावेगं महाकायं महाबलम्।

तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः।। (19)

इन दोनों श्लोंकों में कहा गया है महावीर हनुमान जी अशोक वाटिका के फाटक के ऊपर बैठे हुए हैं।उस समय  उदित सूर्य की तरह दीप्तिमान महा बलवान महाविद्वान महावेगवान, महाविक्रमवान, महाबुद्धिमान, महा उत्साही महाकपि और महाभुज हनुमान जी को देखकर और उनसे डर सब राक्षस  दूर-दूर ही खड़े हुए।

हनुमान जी के चेहरे के तेज का वर्णन वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर मिलता है। सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 60, 61 और 62 में  इसका बहुत सुंदर वर्णन किया गया है :-

नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ।

पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले।।5.1.59।।

चक्षुषी सम्प्राकाशेते चन्द्रसूर्याविवोदितौ।

मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ। 5.1.60।।

सन्ध्यया समभिस्पृष्टं यथा तत्सूर्यमण्डलम्

लाङ्गूलं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते।।5.1.61।।

अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितम्।

लाङ्गूलचक्रेण महान् शुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः।। 5.1.62।।

महावीर हनुमान जी के दोनों नेत्र तो ऐसे दिख पड़ते हैं जैसे पर्वत पर दो ओर से दो दावानल लगा हो। उनकी  बड़ी-बड़ी रोशनी वाली आंखें चंद्रमा और सूर्य की तरह चमक रही थी। लाल नाक और हनुमान जी का लाल-लाल मुख मंडल संध्याकालीन सूर्य  की तरह शोभायमान हो रहा था। आकाश मार्ग से जाते समय हनुमान जी की हिलती हुई पूछ ऐसे शोभायमान हो रही थी जैसे आकाश में  इंद्र ध्वज।

महावीर हनुमान जी के आवाज को सुनकर ही बहुत सारे राक्षसों की मृत्यु हो जाती थी। यह वाल्मीकि रामायण के  सुंदरकांड के 45 वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 13 में लिखा है :-

प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः।

केचित्तस्य निनादेन तत्रैव पतिता भुवि।।5.45.13।।

इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी ने किसी को छाती की ढेर से और किसी को जन्घों के बीच रगड़ के मार डाला। कितने ही राक्षस तो हनुमान जी के सिंहनाद को सुनकर ही पृथ्वी पर गिर कर मर गए।

हनुमान जी की शक्ति और वेग का एक अच्छा उदाहरण रामचरितमानस में भी दिया हुआ है। हनुमान जी जब लंका जाने  के लिए  पहाड़ पर चढ़ते हैं तो उनके पैर रखते ही पहाड़ जमीन के अंदर पाताल पहुंच जाता है और उनके उड़ने की गति श्री रामचंद्र जी के वाण के समान है।  :-

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।

चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।

एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

भावार्थ:- कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमानजी वहां से चले दिये।

हनुमान जी के चेहरे का ओज, उनकी तीव्रतम वेग, उनका अतुलित शक्ति उनकी अपनी है। यह सब उनको रुद्रावतार होने से पवन पुत्र होने के कारण तथा सूर्य देव को आजाद करते समय देवताओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद के कारण है।  परंतु वे किसी भी कार्य का श्रेय  नहीं लेते हैं। हर बात का श्रेय भगवान श्रीराम को देते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बातों पर घमंड से भर जाते हैं उनको हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। एक  पौराणिक कहानी है :-

एक बार भगवान विष्णु शिवजी को मिलने गये। विष्णु का वाहन गरूड है। विष्णु भगवान को मिलने के लिए शिवजी बाहर आये। शिवजी के गले में नाग बैठा था। वह गरूड को ललकारने लगा। यह देखकर गरूड ने उससे कहा:

स्थानं प्रधानं खलु योग्यताया:, स्थाने स्थित: कापुरूषोपिशुर:।

जनामि नागेन्द्र तव प्रभावं कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य।।

‘तेरा प्रभाव कितना है मैं जानता हँ। तू शिवजी के गले में बैठा है इसीलिए गर्जना कर रहा है। स्थान पाने पर कायर पुरूष भी शूर बन जाता है। ’ सुभाषितकार कहते हैं:

स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा: नरा:।

इति  विज्ञाय  मतिमान्स्वस्थानं  न  परित्यजेत्।।

( दान्त, बाल, नख और मनुष्य स्थानभ्रष्ट हाने के बाद शोभा नहीं देते। ऐसा समझकर समझदार व्यक्ति को स्थान नहीं छोडना चाहिए। )

स्थानभ्रष्ट की शोभा नष्ट हो जाती है। दांत स्थानपर हों तो वे शोभा देते हैं। बाल सिरपर हों तब तक शोभा देते हैं। रोज बाल हम कंघी से संवारते हैं। मगर हजामत करने के बाद हम काटे हुए बालों को छूते भी नहीं। इसका कारण बाल स्थानभ्रष्ट हुए। महावीर हनुमान जी के अंदर नाम मात्र का भी घमंड नहीं है। जबकि तीनों लोकों  में उनके बराबर  ओजवान, तेजवान, वीर्यवान, शक्तिवान, वेगवान कोई दूसरा नहीं है। हनुमान जी जैसा दूसरा कोई और नहीं है जिसने एक छलांग में समुद्र को पार किया हो और एक छलांग में ही सूर्यलोक जा पहुंचा हो।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर हनुमान के प्रसन्न होने से आपको सभी कुछ मिल जाता है और अगर वे आपके  रक्षक हैं कोई आपका भक्षक नहीं हो सकता है।जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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