हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 32 – उत्तेजक हो रही सभ्यता… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – उत्तेजक हो रही सभ्यता।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 32 – उत्तेजक हो रही सभ्यता… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

उत्तेजक हो रही सभ्यता 

घूमे अंग उघार 

उगल रही है अतः लेखनी

शब्द नहीं अंगार 

 

होड़ लगी है किसने कितने 

कपड़े पहने झीने 

ललचाती श्वानों की जिव्हा 

यौवन का रस पीने 

चैनल सभी परोस रहे हैं

टी. वी. पर व्याभिचार 

 

कौये और हंस में 

कोई अन्तर नहीं रहा 

कोका और पेप्सी में 

अब चातक नहा रहा 

करता है पथभ्रष्ट सभी को

भड़कीला बाजार

 

सांस्कृतिक संकल्पों को 

तृष्णा ने तोड़ा है 

हरियाली चर रहा 

पुष्ट दौलत का घोड़ा है 

विश्वग्राम बन गया, बेचने

विध्वंसक हथियार

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 109 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 109 – मनोज के दोहे… ☆

1 रतजगा

सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।

दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।

2 प्रहरी

उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।

दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।

3 मलीन

मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।

जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।

4 उमंग

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।

किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।

5 चुपचाप

महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।

देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 248 ☆ व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 248 ☆

? व्यंग्य – शरद जोशी और लघु व्यंग्य ?

लघु व्यंग्य से आशय यही होता है कि उसका विस्तार अधिक न हो, किंतु न्यूनतम शब्दों में व्यापक कथ्य संप्रेषित किया गया हो। क्षणिकाओ में यही लघु व्यंग्य कविता के स्वरूप में तो लघुकथाओ के ट्विस्ट में गद्यात्मक रूप में पत्र पत्रिकाओ में बाक्स मैटर के रूप में खूब पढ़ने मिलता है। व्यंग्य लेखों में अनेक पैराग्राफ स्वयं में स्वतंत्र लघु व्यंग्य होते हैं। कुछ व्यंग्यकार स्तंभ की मांग के अनुसार घटना विशेष पर टिप्पणियों में लघु व्यंग्य रचना में स्वयं को समेट लेते हैं। इसे व्यंग्य आलोचना में वन लाइनर, पंच, हाफ लाइनर आदि के टाइटिल दिये जाते हैं। छोटे व्यंग्य लेख जिनमें प्रस्तावना, विस्तार तथा कथ्य के शिक्षाप्रद कटाक्ष के साथ लेख का अंत होता है, भी लघु व्यंग्य की श्रेणि में रखे जा सकते है।

शरद जोशी के समकाल में लघु व्यंग्य जैसी कोई श्रेणि अलग से नहीं की गई थी, यद्यपि सरोजनी प्रीतम उन दिनों कादम्बनी में अपनी क्षणिकाओ में लघु व्यंग्य के प्रहार नियमित रूप से करती दिख रही थीं।

आज शरद जोशी के साहितय का पुनरावलोकन लघु व्यंग्य के माप दण्ड पर करें तो हम पाते हैं कि उनके स्तंभ प्रतिदिन में तात्कालीन सामयिक घटनाओ पर अनेक लघु व्यंग्य उन्होने किये थे। उनकी  पुस्तक यथा संभव में १०० व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं, जिनमें से अनेक अंश स्वतंत्र लघु व्यंग्य कहे जा सकते हैं।

शरद जी के चर्चित व्यंग्य लेखों में से एक रेल दुर्घटनाओ पर है जिसमें वे लिखते हैं “भारतीय रेल हमें मृत्यु का दर्शन समझाती है और अक्सर पटरी से उतरकर उसकी महत्ता का भी अनुभव करा देती है. कोई नहीं कह सकता कि रेल में चढ़ने के बाद वह कहां उतरेगा स्टेशन पर, अस्पताल में या श्मशान में ” अपने आप में यह लघुता में किया गया बड़ा कटाक्ष है।

इसी तरह उनके समय से आज तक भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, उन्होने लिखा “हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे”,  अतिथि तुम कब जाओगे, जीप पर सवार इल्लियां आदि शीर्षक स्वयं में ही लघु व्यंग्य हैं। आपातकाल के दौरान पंचतंत्र की कथाओ के अवलंबन उनकी लिखी लघुकथायें गहरे कटाक्ष करती हैं “शेर की गुफा में न्याय” ऐसी ही एक लघुव्यंग्य कथा है।

नेताओं पर व्यंग्य करते हुए शरद लिखते हैं, ‘उनका नमस्कार एक कांटा है, जो वे बार-बार वोटरों के तालाब में डालते हैं और मछलियां फंसाते हैं. भ्रष्टाचार की व्यापकता पर वे लिखते हैं ‘सारे संसार की स्याही और सारी जमीन का कागज भी भ्रष्टाचार का भारतीय महाकाव्य लिखने को अपर्याप्त है। वे लेखन में प्रसिद्धि का शाश्वत सूत्र बता गये हैं “जो लिखेगा सो दिखेगा, जो दिखेगा सो बिकेगा-यही जीवन का मूल मंत्र है “। हम पाते हैं कि वर्तमान लेखन में यह दिखने की होड़ व्यापक होती जा रही है। किताबों की उम्र बहुत कम रह गई है, क्योकि किताबें छप तो बहुत रही हैं पर उनमें जो कंटेंट है वह स्तरीय नहीं रह गया है।  लघु कटाक्ष में बड़े प्रहार बात कर सकने की क्षमता  ही लघु व्यंग्य है, जो शरद जी की लेखनी में यत्र तत्र सर्वत्र दिखता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 63 – देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 63 ☆ देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में घर के बड़े बजुर्ग, शिक्षक आदि और जवानी में उच्च अधिकारी उल्लू, गधा इत्यादि की उपाधि से हमें नवाज़ा करते थे।

इन दोनों जीवों को समाज ने हमेशा तिस्कृत दृष्टि से ही दुत्कारा है। व्यापार जगत में भी इनके नाम से कोई भी वस्तु (ब्रैंड) नहीं बन सकी है।

शेर, ऊंट, मुर्गा इत्यादि के नाम से तो बीड़ी भी खूब प्रसिद्ध हुई हैं। लेकिन कभी भी उल्लू या गधे के नाम से कोई भी प्रतिष्ठान कार्यरत सुनने में नहीं आया।

“यहां गधा पेशाब कर रहा है” कुछ इस प्रकार के लिखे हुए शब्द दीवार पर अवश्य देखने को मिल जाते हैं। समय की मांग को देखते हुए, हो सकता है, इस वाक्य को हवाई जहाज के अंदर भी लिखा जा सकता है।

उपरोक्त फोटू में प्रथम बार “समझदार उल्लू (wise owl)” के नाम से पेड़ पर बांधे जाने वाले झूले विक्रय के लिए उपलब्ध देखने को मिला, वैसे उल्लू भी अधिकतर पेडों पर ही पाए जाते हैं। लक्ष्मी देवी की सवारी भी तो उल्लू ही है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #217 ☆ तुझ्यासारखा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 217 ?

तुझ्यासारखा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

कधी वागतो अवखळ वारा तुझ्यासारखा

वादळ होता करतो मारा तुझ्यासारखा

अंधारी ती रात्र छळाया मला लागली

कुठेच नव्हता प्रसन्न तारा तुझ्यासारखा

अवकाळीच्या वर्षावाने चिंब नहाते

देतच नाही तो गुंगारा तुझ्यासारखा

काय शिकवले सांगशील का वाऱ्या त्याला

त्यानेही केला पोबारा तुझ्यासारखा

मी माहेरी आले आहे तुला सोडुनी

अन् बापाचा चढला पारा तुझ्यासारखा

कष्ट सोसुनी घास आणतो अमुच्यासाठी

गोड वाटतो बाबा चारा तुझ्यासारखा

आश्रमातला मनुष्य होता मला भेटला

वाटत होता तो म्हातारा तुझ्यासारखा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 168 – गीत –क्यों कर पालिश करती हो ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – क्यों कर पालिश करती हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 168 – गीत – क्यों कर पालिश करती हो…  ✍

सुन्दर सुन्दर नाखूनों पर

क्यों कर पालिश करती हो।

रूपभार से झुकी देह पर

भार भला क्यों धरती हो।

 

साज बाज की उसे जरूरत

जिसके पास कमी होती

वो क्यों पत्थर करे इकट्ठे

जिसके पास रखा मोती

अनबींधे मोती सा यौवन, पास रखे क्यों डरती हो

 

साधारण शृंगार तुम्हारा

सच, विशेष सा लगता है।

चन्द्रानन को देख देखकर

मन में ज्वार उमगता है.

औ हँसे चंदनिया, कैसे धीरज धरती हो

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 167 – “अपने में हो मस्त गा रहा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  अपने में हो मस्त गा रहा...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 167 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “अपने में हो मस्त गा रहा...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

नीचे को, छज्जे से कोई

झाँका करता है ।

मेरे प्रतिमानों को अक्सर

आँका करता है ॥

 

उधर जहाँ पत्तों के

मनहर झूमर हैं लटके ।

जिनसे छनकर धूप

चकत्ते दिखते हैं हटके ।

 

उन्हें धरा के आँचल पर

चुपचाप हवाओं से ।

लहरा कर दिन के गौरव

में टाँका करता है ।

 

मधुछन्दा दोपहर दिखा

कर  बुन्दे कानों के

काजल लगी आँख में

भरकर, बिम्ब मकानों के

 

ज्योंकि बजाज बैठ गद्दी पर

दिन भर की विक्री

का आदर करता ,जैसे वह

माँ का करता  है

 

साथ खडा है पेड़ मगन

जैसे कि चरवाहा

अपने में हो मस्त गा रहा

मीठा मनचाहा

 

और पोटली में लाये

उस चना चबैने को

पूरा तन्मय होकर के

ज्यों फाँका करता है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 217 ☆ कविता – “वोट के खातिर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोरंजक लघुकथा – “वोट के खातिर)

☆ कविता – “वोट के खातिर☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

‘अलाव’ के सामने 

जाति और धर्म पर 

खूब बहस चल रही है।

 

कुत्ता सुन रहा है 

और रो भी रहा है

आग धुआं फेक रही है।

 

जो फूंक मारकर

आग को हवा दे रहे हैं

उनके मन में काई जमी है।

 

जो बैठे हैं राख पर

घर-बार फूंक कर

उनको चिंता ही नहीं है।

 

सूखे पत्तों की तरह 

क्यों बिखर गए हम

वोट लेने की उनको पड़ी है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – जी साहब अब ठीक है… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘जी साहब अब ठीक है…’।)

☆ लघुकथा – जी साहब अब ठीक है… ☆

मैं उस समय सागर जिले में, थाना खिमलासा में, थाना प्रभारी के पद पर पदस्थ था। 

खिमलासा, सागर जिले में अपनी एक विशिष्ट प्रसिद्ध रखता है, यहां राज कपूर की फिल्म, तीसरी कसम, की शूटिंग हुई थी, जहां पर, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई, गाने की शूटिंग हुई थी, मैं शासकीय कार्य से बीना गया था, बीना से लौट रहा था, तभी देखा कि सामने जीप में अंदर सवारियां भरी हुई थीं, और एक लड़का पायदान पर पैर रखकर जीप के बाहर लटका हुआ था, कभी भी कोई दुर्घटना हो सकती है, यह सोचकर जीप को रूकवाया, और जीप पर लटके लड़के को उतार कर उसको थप्पड़ मारा, और कहा कि अगर तुम्हारा हाथ छूट जाए तो तुम गिर जाओगे, मर भी सकते हो, क्यों लटकते हो, जीप ड्राइवर को भी डांटा, इतना कहकर मैं वापस अपनी जीप में बैठने लगा।

वह लड़का जो लटका हुआ था, दौड़ के मेरे पास आया, उसने कहा कि साहब एक विनती है आपसे, मैंने कहा बस लटकन मत, तो उसने कहा, अब मैं कभी नहीं लटकूंगा, मगर जीप के अंदर मेरा साला बैठा हुआ है, आप उसे भी एक थप्पड़ मार दो, नहीं तो वह घर जाकर मेरी पत्नी से, जो उसकी बहन है, से कहेगा, कि आज जीजा पिट गए, मेरी बेइज्जती हो जाएगी, मैं मुस्कुराया और जीप के पास आकर उसके साले को बाहर निकाला और उसको एक थप्पड़ मारा, कि तेरा जीजा बाहर लटका हुआ है, और तू आराम से अंदर बैठा है, और उसे डांट कर, फिर मैंने उसके जीजा से कहा, अब ठीक है ना, वह बहुत खुश हुआ, जी साहब अब ठीक है… 

 आज तक इस वाक्य को याद करके मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 159 ☆ # झुर्रियां # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# झुर्रियां#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 159 ☆

☆ # झुर्रियां #

वक्त की रफ्तार को रोककर

अनुत्तरित प्रश्नों को झोंक कर

उम्र का एहसास दिलाती है

झुर्रियां

आंखों के आसपास

हाथों पर साथ-साथ

सुराहीदार गर्दन पर

उभर आती है

झुर्रियां

जीने के ढंग का

तजुर्बे के रंग का

उम्र भर के जंग का

आभास दिलाती है

झुर्रियां

चेहरे की चमक के

नयनों की दमक के

काया की गमक के

कई अनकहे राज़

छुपाती है

झुर्रियां

माथे की लकीर का

कहने को अधीर का

दिखने को फ़कीर का

गूढ़ रहस्य

कह जाती है

झुर्रियां

बागों में तरुणाई

लेती मादक अंगड़ाई

बहती मदमस्त पुरवाई

देखकर

अपने बीते दिनों को याद कर

मुस्कुराती है

झुर्रियां

जीवन एक खेला है

सांसों का मेला है

यादों का रेला है

हौले हौले समझातीं है

झुर्रियां

अपनी सल्तनत है

अपनी अमानत है

अपनी विरासत है

ज़माने से जातें जातें

यह सिद्ध कर जाती है

झुर्रियां   /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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