हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा हरेराम समीप जी के काव्य संग्रह  “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 पुस्तक चर्चा

कृति – बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)

कवि – हरेराम समीप

प्रकाशक – पुस्तक बैंक, फरीदाबाद

पृष्ठ  – 104

मूल्य – 195/-

देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर- हरेराम समीप के हाइकू – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है। विशेष रूप से जब वह कविता जापान जैसे देश से हो जहाँ वृक्षो के भी बोन्साई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को  अभिव्यक्ति मिलती है। साहित्य विश्वव्यापी होता है। वह किसी एक देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकता। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहितियक प्रतिष्ठा दिलवाई।

जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यकित है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई। किंतु तीन पंक्तियों मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।

डॉ हरे राम समीप जनवादी रचनाकार है। वे विगत लंबे समय से जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि तीन मूर्ति भवन मे सेवारत है। उन्हें संत कबीर राष्ट्रीय शिखर सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी पुस्तक पुरस्कार, फिराक गोरखपुरी सम्मान जैसे अनेक सृजन सम्मान प्राप्त हो चुके है। स्वाभाविक ही है कि उनके वैश्विक परिदृश्य एवं राष्ट्रीय चिंतन का परिवेश उनकी कविताओ मे भी परिलक्षित होगा। उदाहरण स्वरूप यह हाइकू देखे-

किताबें रख

बस इतना कर

पढ ले दिल

वसुधैव कुटुम्बक का भारतीय ध्येय और भला क्या है, या फिर,

गलीचे बुने

फिर भी मिले उन्हे

नंगी जमीन

हिंदी एवं उर्दू भाषाओ पर हरे राम समीप का समान अधिकार है। अत: उनके हाइकू मे उर्दू भाषा के शब्दो का प्रयोग सहज ही मिलता है।

पहने फिरे

फरेब के लिबास

कीमती लोग

     या

शराफत ने

कर रखा है मेरा

जीना हराम

कबीर से प्रभावित समीप जी लिखते है

चाक पे रखे

गिली मिटटी, सोचू मैं

गढूं आज क्या

    और

कैसा सफर

जीवन भर चला

घर न मिला

अंग्रेजी को देवनागरी मे अपनाते हुये भी उनके अनेक हाइकू बहुत प्रभावोत्पादक है।

हो गए रिश्ते  

पेपर नेपकिन

यूज एंड थ्रो

     या

निगल गया

मोबाइल टावर

प्यारी गौरैया

कुल मिलाकर बूढा सूरज मे संकलित हरेराम समीप के हाइकू उनकी सहज अभिव्यकित से उपजे है। वे ऐसे चित्र है जिन्हें हम सब रोज सुबह के अखबार मे या टीवी न्यूज चैनलो मे रोज पढते और देखते है किंतु कवि के अनदेखा कर देते है। किंतु उनके संवदेनशील मन ने परिवेष के इन विविध विषयो को सूक्ष्म शब्दो मे अभिव्यक्त किया है। संकलन मे कुल 450 हाइकू संग्रहित है। सभी एक दूसरे से श्रेष्ठ है। पुस्तक का शीर्षक बूढा सूरज जिस हाइकू पर केनिद्रत है वह इस तरह है।

बूढा सूरज

खदेडे अंधियारे

अन्ना हजारे

वर्तमान सामाजिक सिथति मे अन्ना हजारे के लिये इससे बेहतर भला और क्या उपमा दी जा सकती है। कवि से और भी अनेक सूत्र स्वरूप हाइकू की अपेक्षा हिंदी जगत करता है। समीप जी ने गजले, कहानिया और कवितायें भी लिखी है पर हाइकू मे उन्होने जो कर दिखाया है उसके लिये यही कहा जा सकता है कि देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर. समीप जी ने अपने अनुभवो के सागर को हाइकू के छोटे से गागर में सफलता पूर्वक ढ़ाल दिया है .

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 17 – सजल – नहीं रहा वह कभी अकेला… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “नहीं रहा वह कभी अकेला…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 17 – सजल – नहीं रहा वह कभी अकेला…

समांत- एला

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

राजनीति में बड़ा झमेला।

सबका-अपना खुला तबेला।।

 

नेतागिरी चलाने खातिर,

मिडयाई सरकस का मेला।

 

हर चुनाव की एक कहानी,

टूटी-टांग से होता खेला।

 

फौज पली है उनकी अपनी,

जनता खाती रहे करेला।

 

एक बार जो चुनकर आता,

नहीं रहा वह कभी अकेला।

 

कर्मी चरणदास कहलाते,

जीवन भर वह खाता केला।

 

भले बुरे की परख किसे अब

फिर भी चला रहे हैं धेला।

 

राजनीति के कुशल खिलाड़ी,

सबने पाल रखे हैं चेला।

 

शासन तंत्र चले जब पीछे,

जनता का चलता है रेला ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ बेजुबान की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा”.)   

☆ संस्मरण ☆ बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारा जीवन परिवर्तनों के कई दौर से गुजर चुका है। एक समय था घर की बैठक खाना (Drawing Room) में एक बड़ा सा तख्त रहता था, जिस पर हमारे दादाजी विराजमान रहते थे।  क्या मजाल कि कोई उस पर बैठ सके, पिताजी भी नीचे दरी पर आसन लगा कर उनके चरणों की तरफ बैठ कर उर्दू दैनिक “प्रताप” से खबरें सुनाते थे क्योंकि दादाजी की नज़र बहुत कमज़ोर हो गई थी। शायद यही कारण रहा होगा।  मेरी लेखनी में भी कई बार उर्दू के शब्दों का समावेश हो जाता है। घर के वातावरण का प्रभाव तो पड़ता ही है ना।

दादाजी ने साठवे दशक के मध्य में दुनिया से अलविदा कहा और उनके जाने के पश्चात तख्त (तख्ते ताऊस) की भी बैठक खाने से विदाई दे दी गई। क्योंकि वो तीन टांगो के सहारे ही था एक पाए के स्थान पर तो बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था।

अब घर में Drawing Room की बाते होने लगी थी, पिताजी ने सब पर विराम लगा दिया कि एक वर्ष तक कुछ भी नया नहीं होगा क्योंकि एक वर्ष शोक का रहता है। हमारी संस्कृति में ये सब मान दंड धर्म के कारण तय थे।

एक वर्ष पश्चात निर्णय हुआ कि कोई सोफा टाइप का जुगाड किया जाय और अब उसको Drawing Room कहा जाय।

इटारसी की MP टीक से 1966 में मात्र 130 में  (2+1+1) का so called sofa set बन गया था।

अभी lock down में जब मैं अधिकतर समय घर पर बिता रहा हूं तो कल दोपहर को जब मोबाइल पर लिख रहा था तो आवाज सी आई कभी हमारे पे भी तवज्जो दे दिया करे बड़े भैया। मैने चारो तरफ देखा कोई नहीं है Mrs भी घोड़े बेच कर सो रही है। फिर आवाज़ आई मैं यहीं हूं जिस पर आप 55 वर्ष से जमे पड़े हो। आपका बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे का साथी सोफा बोल रहा हूँ। आपने उस मुए fridge पर तो मनगढ़ंत किस्से लिख कर उसकी market value बढ़ा दी। हमारा क्या ?

वो तो हम चूक गए नहीं तो fevicol के विज्ञापन (एक TV adv में पुराने लकड़ी के सोफे की लंबी यात्रा का जिक्र है @ मिश्राइन का सोफा)  में आप और मैं दोनों छाए रहते रोकड़ा अलग से मिलता!

वो भी क्या दिन थे जब कई बार पड़ोस में जाकर कई रिश्ते तय करवाए थे। लड़के वालो पर impression मारने के लिए मुझे यदा कदा बुलाया जाता था। मोहल्ले में मुझे तो लोग रिश्तों के मामले में lucky भी कहने लग गए थे। ऐसा नहीं, मोहल्ले के लड़को की reception में भी जाता था। स्टेज पर दूल्हा और दुल्हन मेरी सेवाएं ही लेते थे। परंतु वहां मेरे two seater पर पांच पांच लोग फोटो के चक्कर में चढ़ जाते थे। रात को मेरी कमर में दर्द होता था। आपके बाबूजी पॉलिश/ पेंट से तीन साल में मेरे शरीर को नया जीवन दिलवा देते थे। खूब खयाल रखते थे। हर रविवार को कपड़े से मेरे पूरे बदन को आगे पीछे से साफ कर मेरी मालिश हो जाती थी। उनके जाने के बाद आप तो बस अब रहने दो मेरा मुंह मत खुलवाओ कभी सालों में ये सब करते हो।

उस दिन आप मित्र को कह रहे थे इसको भी साठ पर retd कर देंगे भले ही आप तो retirement  के बाद भी लगे हुए हो। कहीं पड़ा रहूंगा। क्योंकि शहरों में अब तो चूल्हे के लिए कोई पुरानी लकड़ी को free में भी नहीं लेते। सरकार की तरफ से LPG का इंतजाम जो कर दिया गया है।

आपकी तीन पीढ़ियों का वजन सहा है, मैं कहीं ना जाऊंगा भले ही दम निकल जाए।

मैने सोचा बोल तो शत प्रतिशत सही रहा है, अपने प्रबुद्ध मित्रो से Group में इस विषय पर  विचार विमर्श करेंगे। 

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 – लघुकथा – संविधान एक नियम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 111 ☆

? लघुकथा – संविधान एक नियम ?

एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।

अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।

चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।

फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?

चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।

फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?

फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ☆ रानमेवा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ?

☆ रानमेवा ☆

पंख मनाला फुटावे मला जाता यावे गावा

माझी प्रार्थना येवढी स्वीकारावी माझ्या देवा

 

माझं माहेर हे खेडं त्याचं मनाला ह्या वेड

माझ्या सोबत वाढलं सोनचाफ्याचं ते झाड

किती दूर गेलं तरी मनी गंध आठवावा

 

काट्यातली पाय वाट होती नागिनी सारखी

काटे टोचती पायाला तरी होते त्यात सुखी

त्याच धुळीच्या वाटेचा मला वाटतोय हेवा

 

थाटमाट शहराचा माया ममतेला तोटा

लेप चेहऱ्यावरती आत मुखवटा खोटा

अशा खोट्या सौंदर्याचा मला मोह कसा व्हावा

 

किती दिसाचे ते अन्न सांगा असेल का ताजे ?

रोज खातात मिठाई शहरातले हे राजे 

रोज दिवाळी साजरी त्यात नाही रानमेवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 74 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 74 –  दोहे ✍

कुर्सी कुर्सी विराजे, नेता बंदर छाप।

खाना-पीना, उछलना इनके क्रिया कलाप।।

 

आएगा, वह आएगा, राह देखते नित्य ।

कहां न्याय का सिंहासन कहां विक्रमादित्य।।

 

अंधे गूंगे बधिर जो, थामें हाथ कमान ।

फर्क नहीं उनके लिए, मरे राम- रहमान।।

 

मेहनतकश भूखा मरे, अवमूल्यित विद्वान।

हर लठैत ने खोल ली, भैंसों की दुकान।।

 

प्रजातंत्र के पहरुए, पचा गए चौपाल ।

अटकी हो तो दौड़िये, दिल्ली या भोपाल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 74 – “कैसे रहें सुर्खियों में” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कैसे रहें सुर्खियों में।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 74 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कैसे रहें सुर्खियों में” || ☆

ऊँचे भवनों में रह कर के

सिर्फ गरीबी पर लिखना ।

ऐसे गीतों से हट कर कुछ

नया -नया भैया लिखना।।

 

रेशम ही जब बना तुम्हें तो

चमक दिखा करअपनीभी।

शिफ्टकरोअपनी किस्मत को,

ले जुगाड़ वाली चाभी।

 

कभी कभार पाँचतारा में-

फटी जीन्स में भीदिखना।।

 

गया ट्रेंड होरी धनियां का

“कैसे रहें सुर्खियों में।”

सारी दुनियाँ घूम रही है

सन्शोधनी चर्खियों में।

 

इसी विषय पर अपनी प्रतिभा

के मीठे फल को चखना।।

 

यह भी नया ट्रेंड है आया

सरकारों में घुस जाओ।

लिखा भूख या खून पसीने

पर जो तुमने, मिटवाओ।

 

अपने संरक्षण को मन्त्री

स्तर का नेता रखना ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 94 ☆ वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 94 ☆

☆ गीत – वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष ☆ 

 

आकर वीर सुभाष गर्व से

वंदे मातरम गा जाओ।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

कतरा – कतरा लहू तुम्हारा

काम देश के आया था

इसीलिए तो आजादी का

झंडा भी फहराया था

गोरों को भी छका- छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान – मान करवाया था

 

सत्ता के भूखे पेटों को

कुछ तो सीख सिखा जाओ।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

सब श्रद्धा से लेते है

नेता आज नई पीढ़ी के

बीज घृणा के बोते हैं

डूबे नाव वतन की लेकिन

अपनी नैया खेते हैं

स्वार्थ में डूबे हैं इतने

दुश्मन लगें चहेते हैं

 

नेताजी के नाम काम की

आकर लाज बचा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

जंग कहीं है कश्मीर की

कहीं सुलगता राजस्थान

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक हो पाए

कैसे गूँजें मीठे गान

 

भेदभाव का जहर मिटाकर

सबमें ऐक्य करा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

लिखते – लिखते ये आँखें भी

झरने-सी हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखाती हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएं

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर – मर जाती हैं

 

देखो तस्वीरें गौरव की

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

कहाँ चले तुम, कहाँ खो गए

ये अब तक भी भान नहीं

किसकी चालें, किसकी घातें

ये भी हमको ज्ञान नहीं

कौन मिला था अंग्रेजों से

कोई यह बतलाएगा

उनके पार्थिव तन को लेकर

आज मुझे दिखलाएगा

 

मेरे प्रश्नों के उत्तर भी

आकर के तुम दे जाओ।।

वतन कर रहा याद आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #64 ☆ # सर्द मौसम # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सर्द मौसम #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 64 ☆

☆ # सर्द मौसम # ☆ 

ठिठुरन भरी रात है

बदले हुए हालात हैं

मौसम ने अंगड़ाई ली

बिन बादल बरसात है

 

सर्द हवाएं चल रही है

अंगीठियाँ घर घर जल रही है

गर्म कपड़ों की निकली बारात है

जैसे ही यह शाम ढल रही है

 

पकोड़ो का मौसम है आया

हर किसी ने मज़े ले ले कर खाया

मूंग बड़े और मिर्ची भजिया

हर शख्स को खूब है भाया

 

यह देखो तोता और मैना

सुंदर जोड़ी का क्या कहना

आगोश में डूबे हैं दोनों

चुप है पर बोल रहे हैं नैना

 

चारों तरफ अलाव जल रहे हैं

प्रेम बीज हृदय में पल रहे हैं

हो तरूण या वृद्ध हो

प्रेम में डूबे खेल चल रहे हैं

 

यूं ही रंगीन मौसम आता रहे

दिल को धीमे धीमे सुलगाता रहे

पिघल जाये हिमखंड आगोश में

उन्मुक्त झरना सदा बहता रहे/   

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे#66 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 66 ? 

द्यावा घासातील घास… ☆

द्यावा घासातील घास…

खरी मानवता हीच सांगते

ओळख मनुष्याची अशीच होते.. १

 

द्यावा घासातील घास…

जगी अन्नमय असतो

अन्नदान उपाय, श्रेष्ठ ठरतो… २

 

द्यावा घासातील घास…

आत्मा तृप्त होईल

सत्कार्य सहज साधेल… ३

 

द्यावा घासातील घास…

परंपरा अवलोकन करा

ग्वाही देईल पूर्ण ही धरा… ४

 

द्यावा घासातील घास…

तोष सहज मनास होई

फुलते पानोपानी  जाई-जुई… ५

 

द्यावा घासातील घास…

व्यर्थ द्रव्य, कुणासही न द्यावे

प्रभू चिंतन, सतत निर्भेळ करावे… ६

 

द्यावा घासातील घास…

राज हे उक्त केले

शब्द हे असे अवतरले

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

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