हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #229 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 229 ☆

अधूरी ख़्वाहिशें… ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें स्वप्न की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है। 

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – ऋतुपति

? रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अनुरक्त हुए ऋतुपति को मैं,

पीने को हाला देती हूँ।

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

मधुरिम अधरों पर रसासिक्त,

आँखें सुंदर भी  हैं नीली।

यौवन मद में मखमली बदन,

स्वर्णिम आभा नथ चमकीली,

प्रेयसी प्राणदा प्रियतम को,

प्यारी मधुशाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

नित मदिर -गीत गाता  यौवन,

बौराती पुलकित तरुणाई।

मैं बँधीं प्रीति की डोरी से,

हूँ बिना पिया के अकुलाई।।।

सिंदूरी माथे को खुश हो,

निज मन मतवाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

यौवन का झीना घूँघट पट,

रेशम की अँगिया शरमाती।

अभिसार वल्लरी नित पुष्पित,

है चन्द्र प्रभा सी  मुस्काती।।

प्रिय प्रांजल मूरत प्रांजल को

मैं प्रेमिल प्याला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #229 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 229 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाओं का ये झोंका तो हमें जीना सीखाता है।

थपेड़े जो लगे जीवन में वो सब कुछ बताता है।

हमें महसूस होता है ये जीवन  के निराले रंग –

हवा का रूख निराला है वो ही हमको जताता है।

*

चुनावी रंग है अब तो हवा वैसी ही बहती है।

किसे हमको तो चुनना है हवा वैसी बहकती है।

नेताओं का परचम तो हरपल  रंग ही बदले है-

समझना है हमें अब तो हवा हमको जो कहती है।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #211 ☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – तोता मेरा आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 211 ☆

☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तोता    मेरा   गाता    गाना

घर   लाये   थे   मेरे    नाना

तोता    मेरा    गाता    गाना

*

सीख सीख कर वो बतियाता

सुन  सुन  बातें  वो   दुहराता

रहकर  पिंजड़े  में  भी  तोता

टे  टे  कर -कर खाता  खाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

*

लाल  चोंच  और  रंग- विरंगे 

दिखते  हमको  खूब  ही चंगे

जब  भी  कोई  घर  में आता

राम  राम  कह  उसे   बुलाना

तोता     मेरा    गाता     गाना

*

हरी  मिर्च   लगती   है  प्यारी

केरी   खाकर   करता  व्यारी

मीठे   बोल   कंठ   है   सुंदर

मैना  बिन  वह  लगे  दिवाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 219 ☆ पुस्तक माझा सखा… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆




मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक…

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।२१।।

*

मनी कामना जोपासुनी पूजितो ज्या देवतेला

त्या देवतेप्रति स्थिर करितो मी त्या भक्ताला ॥२१॥

*

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।।२२।।

*

श्रद्धा बाळगुनी मनात भक्त पूजितो त्या देवतेला

प्राप्त होती माढ्याकडुनी वांच्छित भोग त्या भक्ताला ॥२२॥

*

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।२३।।

*

अल्पमती त्या नरास लाभे फल परि ते नाशवंत

अर्चना करित ते देवतेची ज्या तयास ती होई प्राप्त 

भक्तांनी मम कसेही पुजिले श्रद्धा मनि ठेवुनी

मोक्ष तयांना प्राप्त होतसे मम चरणी येउनी ॥२३॥

*

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।२४।।

*

मूढ न जाणत अविनाशी माझे परम स्वरूप 

गात्रमनाच्या अतीत मजला मानत व्यक्तिस्वरूप॥२४॥

*

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।।२५।।

*

आवृत मी योगमायेने सकलांसाठी अप्रकाशित

अज्ञानी ना जाणत म्हणती मज जननमरण बद्ध ॥२५॥

*

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

*

भूतवर्तमानभविष्यातील सकल भूता मी जाणतो

श्रद्धाभक्तिविरहित कोणीही ना मजला जाणतो ॥२६॥

*

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥२७॥

*

जन्म अर्जुना द्वेषापोटी वासनेच्या कारणे

अज्ञ राहती सकल जीव सुखदुःखादी मोहाने ॥२७॥

*

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता: ।।२८।।

*

निष्काम कर्मयोग्याचे होत पापविमोचन

द्वेषासक्ती द्वंद्वमुक्त ते माझेच करित पूजन ॥२८॥

*

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।।२९।।

*

जरामरण मुक्तीकरिता येत मला शरण

ब्रह्माध्यात्म्याचे कर्माचे पूर्ण तया ज्ञान ॥२९॥ 

*

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ।।३०।।

*

अधिभूताचा अधिदैवाचा अधियज्ञाचा आत्मरूप मी

प्रयाणकाळी मला जाणती युक्तचित्त तयास प्राप्त मी ॥३०॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय: ॥७॥

 

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी आत्मसंयमयोग  नामे निशिकान्त भावानुवादित सप्तमोऽध्याय  संपूर्ण ॥७॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “फसले गं बाई मी फसले…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“फसले गं बाई मी फसले…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

फसले गं बाई मी फसले… कायमची फसले…प्रेमविवाह का म्हणूनी केला… त्याच्या दिलेल्या शपथा, आणा भाका प्रीतीच्या अनुनायाच्या होत्या त्या सगळ्याच भुलथापा… कशी कळेना कुठल्या धुंदीत मी त्याला हो म्हणूनी बसले.. अन आता लग्नानंतर डोळे ते उघडले… होता तो आभास सारा  माझ्या मनी सत्यचं  भासला… पण वेळ गेल्यावर लक्षात आले… फसले गं बाई मी फसले… कायमची फसले… जानू तुला काय हवं ते मी दयायला तयार आहे… गाडी,बंगला, सोनं नाणं, नोकर चाकर, बॅंकेत बिग बॅलन्स.. सारं सारं काही तयार आहे…या खेरीज अजुन तुला काही हवं असेल तर हा चाकर आणायला एका पायावर उभा आहे.. अगदी आकाशीचा चंद्र, तारे हवे असल्यास ते सुद्धा मी तुझ्या ओंजळीत आणून टाकतो… पण पण.. आपण आता लग्न मात्र लवकरच करूया… माझ्या घरचे सारखे मला टोचत असतात  वश्या तुझ्या प्रितीचा मोहर तर कधीचा बहरलाय आता त्याला फळं कधी दिसणारं… आम्ही बाबा आता थकलोय बघ.. घरात आम्हाला निदान पाणी पिण्यास देणारी सुन लवकरच आण… या घराची घेउन टाकू दे सगळीच जबाबदारी एकदा म्हणजे आमच्या जिवाला स्वस्थता लाभेल आमच्या… असं त्याचं  त्यावेळी च्या भेटीत सारखं सारखं टुमणं असायचं… मग मीही मनांत म्हटलं.. नाहीतरी असं चोरुन चोरुन किती दिवस बाहेर भेटायचं.. कधीतरी त्याच्या अंतरंगात आणि आपल्या हक्काच्या घरात नि माणसात राजरोसपणे कधी राहयाचं.. विचार केला पक्का आणि माझ्या घरच्यांनीही त्यावर मारला होकाराचा शिक्का..एका क्षणात मी मिस ची मिसेस झाले आणी आणि..हवा भरलेले फुगे फुटत जावेत तसे नशिबाचे फुगे फुटू लागले… मी बरचं काही मिस केलेली मिसेस झालीयं असं लक्षात आलं… आणि याचा राग कधीतरी काढायचा असं मनाशी ठरवलं… होयं हो माझंही त्याच्यावर खरंखुरं प्रेम असल्यानं मलाही आता हे सारं निभावून नेणं भाग होतचं.. खऱ्या प्रेमाची किंमत मोजणं सुरू झालं होतं.. त्यालाही कळावी  प्रेमात लबाडी केलेली किंमत  काय असते ती… शाॅंपिग माॅलच्या भरमसाठ खरेदीसाठी त्याचा खिसा पाकिटाचा, एटीएम चा खुर्दा सुफडा साफच करून टाकण्यासाठी.. खरेदीची बाडं ची बाडं दिली त्याच्याकडे सांगितलं  हे तुला निट सांभाळून घरी न्यायचं बरे…तु त्यावेळी मला दिलेल्या भुलथापांची शिक्षेचा हा ट्रेलरचं दाखवला आहे बरं… आता इथून पुढे मेन पिक्चर सुरु होईल आपल्या संसारात आणि तो खरा खराच असेल… आपल्या प्रिती मधे आता खोट्याला कधीच थारा नसेल… पाहिलासं का तो आकाशीचा चंद्र कसा हसतोय गालफुगवून लबाड पाहतोय आपल्या कडे कसं बनवलं तुला म्हणून चिडवतोय मला… मला तो चंद्र देखील हवायं तू मारे त्यावेळी म्हणाला होतास तुझ्यासाठी हवा तर आणून देतो मग आता का मागे सरकतोस… अरे बोलना काहीतरी मगापासून मीच बोलतेय आणि तु ढिम्मच आहेस कि.. जानु माझ्यावर रागावलास..

.. नाही जानु तुझ्यावर आता रागावणार नाहीच मुळी… रागावलोय फक्त मी माझ्यावर.. त्यावेळी काहीही करून तुला लग्न करून घरी आणायची हाच उद्देश होता माझ्यापुढे.. म्हणून तुला बोलून दाखवत होते आभासाचे पाढे… त्यावेळी मी बोलत होतो नि तू ऐकत होतीस.. सारं काही मनात साठवतं होतीस.. भावी जीवनाचं चित्रं पाहात होतीस… अगदी मनासारखं घडेल हेच तुला वाटतं असे… नशिबाने लग्न लवकरच झाले नि आणि चित्र सारे फिरले…भ्रभाचा भोपळा तो फुटला… आणि मला दिले बारा मुलूख तोफेच्या तोडांला… काय करतो बिचारा केलेल्या चुकांची किंमतच आहे एव्हढी जबरी चुकवता चुकवता आयुष्य येई जेरी…बोलून सांगू कुणाला… कळा या लागल्या जीवा… आता तू बोलतेस… बोलत राहतेस आणि मी फक्त ऐकण्याचचं काम करतो…भारवाही हमालं बनलोय..दाबून मुक्याचा मार सोसतोय… त्यावेळी दिलेल्या खोट्या नाट्या शपथा, आणा भाकांची किंमत आता आयुष्यभर मोजत बसणार… त्याला माझी ना कधीच असणार नाही… पण पण जानू आता तो आकाशीचा चंद्र काही माझ्या कडे मागू नकोस.. झाल्या या खरेदीलाच माझा सुफडा साफ झाला… खिशात आता दिडकीही शिल्लक उरली नाही गं… थोडसं ठेवं शिल्लक पुढच्या खेपेला… आधीच खांदा नि हात भाराने गेलेत अवघडू दुखायला… नि डोकं लागलयं गरगरायला… माझं काही म्हणणं नाही  हा बंदा गुलाम आहेच सदैव तुझ्या सेवेला… आणि आणि तो  तसाच हवा असेल तर… घरी गेल्यावर   तुझ्या नाजूक हाताने बाम चोळून देशील माझ्या   डोक्याला… जमलं तरं पहाशील.. तसं माझं आता तुझ्याकडे काहीचं मागणं… म्हणणं नाही.. तसचं काही नाही…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना लही न कतहु हार हिय मानी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी

हार जीत के साथ आगे बढ़ते हुए नए- नए मुद्दों का बनते जाना कोई नयी बात नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है जो अपने अनुसार रणनीति बनाने में माहिर हो वही विजेता बनता है। एक – एक कदम चलते हुए जब व्यक्ति मंजिल पर पहुँचता है तो उसकी जीत सुनिश्चित होती है।वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहती है। बस एकछत्र राज्य रहता है। इसका कारण साफ है कि निरन्तर कार्य करने की कला सबके बस की बात नहीं होती। आखिरी समय में जिसको होश आता है वो हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे पैतरे चलने लगता है जिससे उसके सारे कदम उसे गर्त में धकेलने लगते हैं।

जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है। शैक्षिक डिग्री पाने हेतु कुछ लोग 20 प्रश्नोत्तरी सीरीज पर भरोसा करके पास तो होते हैं किंतु उनकी विषय पर पकड़ मजबूत नहीं होती। सच कहूँ तो एक दो महीने बाद वे ये भी भूल जाते हैं कि कौन – कौन से पेपर इस सेमेस्टर में थे। आलसी लोगों को बड़बोले होते हुये देखना कोई नयी बात नहीं है। बिना सिर पैर की बातों को तर्क संगत बनाकर अपना उपहास करवाना साथ ही अपने समर्थकों को सिर नीचा करने को विवश करना किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। कहते हैं-

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।।

रोज गुरु बदलना, सलाहकार बदलना, स्थान बदलना, विचार बदलना, भेष भूषा बदलना, शब्दावली बदलना। जब इतना कुछ बदलता रहेगा तो लोग कैसे विश्वास करेंगे। माना कि स्थायी कुछ भी नहीं है किंतु जीते जी मक्खी कौन निगलना चाहेगा सो जनता जनार्दन है,भाग्यविधाता है, उसे सही गलत में भेद करना बखूबी आता है। तालियों की गड़गड़ाहट, विजयी चिन्ह सभी को दिखायी दे रहें हैं बस औपचारिक घोषणा बाकी है। आइए राष्ट्रवादी विचारों के पोषक बन भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने में अपना भी अंशदान करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना माँ सरकार चली गई)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जीवन के आंगन में रखी कुर्सी पर ‘बेरोज़गार’ नामक अंकल बैठे थे। उन्हीं के पास उनके बच्चे भुखमंगालाल, लाचारीदेवी और निराशकुमार उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। बेरोज़गार अंकल बच्चों को अपने जीवन का एक किस्सा सुना रहे थे। वे कहने लगे –

“बहुत पहले उनके घर के अड़ोस-पड़ोस में रोज़गार लोग रहते थे। वे हर महीने वेतन उठाते और खूब मौज-मस्ती करते। मुझे भी उनकी तरह रोज़गार करने की इच्छा होती। लेकिन मुझे रोज़गार करने का सौभाग्य नहीं मिला। मैं बस ललचाई आँखों से विज्ञापन देखता और छह महीने बाद रद्द हो जाने पर चुपचाप रह जाता।

फिर एक दिन मैं और तुम्हारी बुआ डिग्री ने निर्णय किया कि कल कुछ भी हो जाए माँ सरकार से रोज़गार लेकर ही रहेंगे। अगले दिन मैं उठा। लेकिन तुम्हारी बुआ डिग्री नहीं उठी। मैंने उसे डाँट-फटकारकर जैसे-तैसे उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैंने बगल के कमरे में सो रहे उम्मीद चाचा को आवाज़ देकर उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैं दौड़े-दौड़े बस स्टैंड गया। वहाँ जान-पहचान के ड्राइवर फिक़र अंकल को बहुत दूर शहर में रहने वाले संकल्प भैया को यह बताने के लिए कह दिया कि माँ सरकार नहीं उठ रही है। दौड़े-दौड़े फिर घर लौटा। पड़ोस में भ्रष्टाचार, लूटपाट, स्कैम नामक तीन ताऊ रहा करते थे। उनकी माँ सरकार से बहुत जमती थी। फिर भी उनके पास जाकर मैं खूब रोया और गिड़गिड़ाया।  उनके हाथ-पैर जोड़े। मिन्नतें कीं। घर पर चुपचाप लेटी माँ सरकार को उठाने की प्रार्थना की। आखिरकार वे तीनों घर पहुँचे। तीनों ने बारी-बारी से माँ की नब्ज़ टटोली। बड़े ताऊ भ्रष्टाचार ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा – बेटा बेरोज़गार! तेरी माँ सरकार इस दुनिया में नहीं रही।  वह हम सबको छोड़कर बहुत दूर चली गई है। अब उसे भूल जा। इतना सुनना था कि मैं और मेरी बहन छाती पीटकर रोने लगे।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 278 ☆ आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक आलेख  – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 278 ☆

? आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ?

अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज,  इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं,  इस गीत के गायक मो रफी हैं.रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.

मोहम्मद रफ़ी जी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था.  उन्होने अपनी गायकी की बारीकियो से हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में अपना स्थान युगो युगो के लिये सुरक्षित कर लिया. एल पी, एस पी, कैसेट, सीडी, डी वी डी से पेन ड्राईव का डीजिटल सफर बदलता रहेगा पर रफी हर युग में अपनी आवाज के कारण अमर रहेंगे. उनके  समकालीन गायकों के बीच रफी साहब आवाज की मधुरता से  विशिष्ट पहचान बना सके. उन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाने लगा. 1940 के दशक में रफी मात्र अठारह बीस बरस के थे, पर तब से ही वे व्यवसायिक गायक के रूप में पहचान बनाने लगे थे,  1980 में 31  जुलाई को वे हमें छोड़ गये पर इन लगभग ४० वर्षो की गायकी के सफर में उन्होने  26,000 से अधिक गाने गाए.  जिनमें मुख्यतः  हिन्दी फिल्मी गानों के अतिरिक्त ग़ज़ल, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे भजन,सूफी,सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी..जैसे  देशभक्ति गीत, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, जैसे बाल गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गाने भी शामिल हैं.  उन्होने गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र तथा ऋषि कपूर के अलावे स्वयं गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिये भी फिल्मी पर्दे पर अपनी रोमांचक आवाज दी.

कभी कभी किस तरह छोटी सी घटना जीवन में बड़ा मोड़ ले आती है यह  मोहम्मद रफ़ी के पहले स्टेज प्रोग्राम से समझ आता है. उनका जन्म अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनके बचपन में ही उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया. जब रफी मात्र सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की नाई की दुकान में बैठा करते थे. उधर से रोज गुजरने वाला एक फकीर मधुर स्वर में  गाता हुआ निकलता था. नन्हे रफी उस फकीर का पीछा किया करते और उसके जैसा ही गाने का प्रयत्न करते.शायद वह अनाम फकीर ही उनका प्रथम संगीत गुरू था. उनकी गायकी की  नकल के स्वर भी   लोगों को  पसन्द आते.  लोग नन्हें से रफी के गाने की प्रसंशा करने लगे.  रफी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने  संगीत के प्रति उनकी रुचि को देख  उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को भेजा और इस तरह रफी को विधिवत संगीत की कुछ तालीम मिली. एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक व अभिनेता कुन्दन लाल सहगल कार्यक्रम देने आए थे, श्रोताओ में  रफ़ी और उनके बड़े भाई भी  थे. अचानक बिजली  गुल हो गई, जिससे श्रोता बेचैन होने लगे,रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़  को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय, उनको अनुमति मिल गई और बिना बिजली बिना माईक 13 वर्ष की आयु में मोहम्मद रफ़ी का यह पहला सार्वजनिक गायन था. उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार  श्याम सुन्दर भी वहां उपस्थित थे  उन्होने जब नन्हें रफी को सुना तो उन्होने रफी की आवाज के हुनर को पहचाना, और उन्होने मोहम्मद रफ़ी को  गाने का न्यौता दिया. इस तरह  मोहम्मद रफ़ी का प्रथम गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए रिकार्ड हुआ था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था. मुम्बई तब भी फिल्म नगरी थी, देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे समय में युवा रफी  ने फिल्मो में पार्श्व गायन को व्यवसाय के रूप में अपनाने का फैसला लिया और 1946 में वे  बम्बई आ गये.  जाति के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ही चुना. उन्होने जाने कितने हृदय स्पर्शी भजनो को स्वर देकर यह बता दिया कि भावना, स्वर और संगीत धर्म की सीमाओ से परे नैसर्गिक वृत्तियां हैं.

संगीतकार नौशाद जी ने “पहले आप” नाम की फ़िल्म में उन्हें गाने का अवसर दिया. और उनका फिल्मो में गायन का सफर चल निकला.  नौशाद द्वारा संगीत बद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा, फ़िल्म अनमोल घड़ी, 1946 से रफ़ी को  हिन्दी फिल्म जगत में प्रसिद्धि मिली.  इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी फिल्मो में भी रफ़ी ने गाने गाए जो  पसंद किये गये.   1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने  तलत महमूद के स्वर में रिकार्डिंग  करने की सोचा पर कहा जाता है कि नौशाद जी ने  एक बार तलत महमूद को धूम्रपान करते देखकर अपना मन बदल लिया और रफ़ी से ही गाने को कहा. बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर  दिया. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी को अपने निर्देशन में लगातार कई गीत गाने को दिए.  शंकर-जयकिशन की जोड़ी को भी उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफ़ी से गाने गवाना आरंभ कर दिया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे किन्तु  शंकर जयकिशन की सिफारिश पर रफी साहब की आवाज पर भी राजकपूर ने अभिनय किया. शंकर जयकिशन की जोड़ी ने उनके कम्पोज किये गये लगभग सभी गानो के पुरुष स्वर के लिये रफ़ी साहब को ही मौका दिया. अपनी आवाज के बल पर रफ़ी साहब संगीतकार सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद  बन गए.

31 जुलाई 1980 को जब अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण उनका देहान्त हुआ तो उनके गीतो से जागने और सोने वाले उनके प्रसंशको के लिये इस सत्य को स्वीकार करना बेहद दुष्कर था. उनकी असाधारण संगीत साधना के लिये उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सहित, अनेक बार फिल्मफेयर अवार्ड आदि अनेकानेक सम्मान समय समय पर मिले.  इन सम्मानो को प्रदान कर स्वयं सम्मान देने वाले ही उनसे सम्मानित हुये क्योकि रफी साहब का वास्तविक सम्मान तो यह ही है कि उनके इस दुनिया से बिदा हो जाने के वर्षो बाद भी हम उन्हें भुला नही सकते. वे धार्मिक नही मानवीय मूल्यो के प्रतीक थे.वे सहज सरल और अपने कार्य के प्रति समर्पित अनुकरणीय व्यक्तित्व थे.  वे संगीत के पुजारी मात्र नही उसके प्रतिष्ठाता थे.

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈