हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #275 ☆ शब्द-शब्द साधना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्द-शब्द साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 275 ☆

☆ शब्द-शब्द साधना… ☆

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।

वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।

‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।

हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि  को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।

सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #48 – नवगीत – ललकार… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम प्रेरक गीतललकार

? रचना संसार # 48 – गीत – ललकार…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

दमन करें रिपुओं का हरदम ,

मान मर्द कर ललकारें।

घर में बैठे जयचंदों को ,

निष्कासित कर दुत्कारें।।

 *

वीर शिवा के हम हैं वशंज,

फैला तिमिर हटाना है।

विपदाओं को दूर भगाकर,

संकट हमें मिटाना है।।

तोड़ धर्म की सब दीवारें,

रूठों को चल पुचकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

 **

राग-द्वेष या भेदभाव हो,

हिय से दूर भगाना है।

समरसता का दीप जला ,जग,

ज्योतिर्मान बनाना है।।

संयम से निज को विजित करो ,

होगीं फिर तो जयकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

 **

चारित्रिक उत्थान जगत में ,

राम-राज्य ले आएगा।।

स्वर्णिम आभा नव प्रभात की,

व्योम अमिय बरसाएगा।

सकल विश्व में गूँजेंगी तब

सुख की निशदिन किलकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #275 ☆ भावना के दोहे – प्रतिशोध ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – प्रतिशोध)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 275 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – प्रतिशोध ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

आतंकी की दुष्टता, हमने दिया जवाब।

हिंदुस्तानी फौज ने, जमकर लिया हिसाब।।🇮🇳

 *

ठान लिया है पाकियो, करना है संहार।

मातृ शक्ति को नमन है, रोका जल संचार।।🇮🇳

 *

भारत अब तो कर रहा, हर आतंकी चूर।

आँसू जिनके बह रहे, क्रोधित है सिन्दूर।।🇮🇳

 *

धधक रहा हर साँस में, लक्ष्य सकल प्रतिशोध।

घर में घुसकर मारिए, झलक रहा है क्रोध।।🇮🇳

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #257 ☆ संतोष के दोहे – नीति संबंधी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  संतोष के दोहे – नीति संबंधी  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 257 ☆

☆ संतोष के दोहे – नीति संबंधी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

साथ कभी जाता नहीं, कोई भी सामान

याद रहे बस कर्म से, था कैसा इंसान

*

मैं मेरा के फेर में, उम्र गई सब बीत

काम न आया जरा कुछ, समझो मेरे मीत

*

पैसों का चक्कर बुरा, जिसका कभी न अंत

रख यह भौतिक सम्पदा, ले न गए धनवंत

*

खुलते कभी न भोग से, यह मोक्ष के द्वार

नेकी से सुख सम्पदा, जिससे सुख संसार

*

सुख शांति उनको मिले, जो करते उपकार

बिन नेकी यह जिंदगी, होती है बेकार

*

कलियुग में जो मानते, मात-पिता को भार

कैसी बिगड़ी सोच यह, सुन मेरे करतार

*

लाज – शर्म सब छोड़ कर, जिनके बिगड़े बोल

समय सीख देता उन्हें, देता आँखें खोल

*

क्रोध कभी मत कीजिए, लाता यह प्रतिशोध

सूझ -बूझ से हम करें, संयम संग विरोध

*

होते हैं घातक बहुत, क्रोध जनित परिणाम

क्रोध कभी मत पालिए, अंत रचे संग्राम

*

रिश्तों को भी फूँकती, तेज क्रोध की आग

जीवन में खलते सदा, इन जख्मों के दाग

*

तुलसी बाबा कह गए, क्रोध पाप का मूल

कहता है संतोष यह, क्रोध चुभे ज्यों शूल

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 249 – दृष्टी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 249 – विजय साहित्य ?

☆ दृष्टी…!

 

निसर्गाची दृष्टी ,

देई रवी जगताला ‌

जाग सृजनाला,

पदोपदी…! १

 *

वात्सल्याची दृष्टी ,

जणू मायबाप हाक.

नजरेचा धाक,

लेकराला…!२

 *

वासनेची दृष्टी

जोड व्यसनांची जडे

घरदार रडे

रात्रंदिस…!३

 *

आंधळ्यांची दृष्टी ,

दृकश्राव्य तिची भाषा .

जगण्याची  आशा ,

वागण्यात…!४

 *

कवितेची दृष्टी ,

तिचा सर्वत्र संचार .

व्यासंगी विचार ,

लेखनात…! ५

 *

दृष्टीहीन जन ,

लोटू नका दूर

गवसेल सूर ,

जीवनाचा…!६

 *

कलाकार  दृष्टी ,

तिचा सार्‍याना आदर .

होतेस सादर ,

रगमंची…!७

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ हिरवा निर्सग हा भवतीने… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “हिरवा निर्सग हा भवतीने… जीवन सफर करा मस्तीने…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

ये ये आलास! .. अरे इकडे इकडे बघ वेड्या.. मी बोलवतोय तुला… इतक्या कडकडीत उन्हातान्हातून, धुळवटीच्या फुफाट्यातून तंगडे तोड करुन कुठं बरं निघालास.. बरं निघालास ते निघालास घरी सांगून सवरुन तरी निघालास आहेस ना.. कुठं जाणारं आहेस.. किती लांब जाणार आहेस.. कसा जाणार आहेस.. परत कधी येणार आहेस… घरी विचारलेल्या तुझ्या मायेच्या माणसांच्या प्रश्नांची नीट उत्तरे दिली आहेस ना.. नाहीतर ते उगाच तुझ्या काळजीत पडतील… दिवसभरात दिसलास नाहीस आणि अंधार पडल्यावर घरी परतला नाहीस तर त्यांच्या जीवाला किती घोर लागेल…. बघं मी सुद्धा किती किती प्रश्नांचाच भडिमार करतोय तुझ्यावर नाही का… अरे अजूनही तू उन्हातच का उभा राहिला आहेस… घामाने सगळंच अंग तुझं चिंब झालयं की… आणि चेहरा तर किती क्लांत झालेला दिसतोय… उन्हाच्या तावाने चेहरा लाल लालबुंद झालाय.. जसं काही घरातल्या माणसांवर रागावून चिडून संतापून तडकाफडकी घरा बाहेर पडलेला असावास असाच दिसतोस.. अरे ये रे या माझ्या हिरव्यागार थंड सावलीत येऊन बैस जरा.. हं हं त्या तापलेल्या मातीच्या पायवाटेवर बसू नकोस… या शांत हिरव्यागार कोमल अश्या तृणपातीवर बैस… वाटल्यास जरा पहुडशील… उन्हाच्या कावात चेचले अंगाला जरा थंडावा लागू दे.. वाऱ्याची झुळुकेने घाम सुकून गेला की थोडं तुला हायसं वाटेल.. बाहेरच्या रखरखीने मनात उसळलेल्या रूखरूणाऱ्या काळजी चिंता या इथं बसवल्यावर बघ कशा निभ्रांत होऊन जातील त्या… आणि हो आल्या आल्या तू मला सगळं सांगावासं असं माझं बिल्कुल म्हणणं नाही बरं… मला ठाऊक आहे ते.. तु घरापासून किती लांब आला आहेस.. एकही गोष्ट तुझ्या मनासारखी कुठेच कधीही घडून येत नसल्याने आणि तरीही सगळ्या गोष्टीला तुचं जबाबदार असल्याने.. कारण तुझं उत्तरदायित्त्व तुलाच निभाऊन न्यायला हवं असताना.. काळ किती प्रतिकुल असताना.. सगळंच प्रतिकुल घडत जातयं हे समोर दिसताना आपण किती हतबल आहोत याची जाणीव जेव्हा होते… तेव्हा राग, संताप, अनावर होतो… वादाच्या ठिणग्याने वणवा पेटतो तेव्हाच कुठलाही माणूस डोक्यात राख घालून घराबाहेर पडतोरे पडतोच.. जाउ दे सारे मसणात हाच टोकाचा विचार येतो मनात आणि पाय नेतील तिकडे माणसाचा दिशाहीन प्रवास सुरू होतो.. बाहेरही उन्हाळा आणि मनातही उन्हाळा… या उन्हाच्या लाही लाहीने जीव नकोसा होतो… वाटेत कुणी भेटलं.. का बरं म्हणून विचारलं तरी वाळली चौकशीने सुद्धा जखमेवरची खपली निघाल्यासारखी वाटते.. त्याचा सुद्धा अधिकच त्रास वाटतो… पण तू माझं ऐकलास इथं सावलीत घटकाभर बसलास मलाच फार फार बरं वाटलं बघं… इथं तुला गारव्यानं तनाला नि मनाला विश्रांती मिळाली.. मस्तक नि मनही शांत झालं.. डोळे ही निवले.. आणी संतापलेल्या विचारांचा धूरळाही खाली बसला असच दिसतयं तुझ्या या देहबोलीतून..

आता अविचार सोडून देऊन पुन्हा परतीचा घराकडचा मार्ग धरावास.. संध्यासमय जवळ येत चालला आहे.. आणि तुझ्या येण्याकडे तुझी घरातली सारी तुझी माणसं वाटेला डोळे लावून बसलेत…. कारण त्यांना तू आणि तूच हवा आहेस.. तुझ्या शिवाय त्यांना दुसरा कुठलाच आधार नाही हे तुलाही चांगलचं ठाऊक आहे… तेव्हा तू असाच घरा कडं जा.. आणि पुन्हा म्हणून अविचाराने असं पाऊल उचलू नकोस….

आज मी तुझ्या आजोबांनी लावलेल्या या झाडाने तुझी होत असलेली तगमग ओळखली म्हणून तुला या टोकाच्या निर्णया पासून परावृत्त तरी करु शकलो… तुझ्या आजोबांनी अगदी हाच विचार समोर ठेवून मला म्हणजे झाडाला उभं केलं.. वाढवलं.. त्यांना देखील तसाच अनुभव आलेला असणार… आणि असही वाटलं असणार की पुढे येणाऱ्या प्रत्येक पिढीलाही असाच अनुभव येत राहणार त्यात बदल काही होणार नाही तेव्हा त्या सगळ्यांना शांतता मिळावी विचारात परिवर्तन व्हावं असं वाटून मला इथं वाटेवर उभं करून गेलेत… मगं मी देखील पहात असतो असा कुणी रंजलेला गांजलेला पांथस्थ या वाटेवरून जाताना दिसतो का ते…. पण तू पुन्हा असं केलास आणि दुसऱ्याच रस्याला गेलास तर न जाणो माझ्या सारखं कुठलं झाडं तुला वाटेत भेटेल न भेटेल… पण माझी तुला सतत आठवण रहावी असं वाटंत असेल तर तू मात्र एक करू शकशील या गावाच्या माळरानाच्या वाटेवर माझ्यासारखी कितीतरी झाडं लावू शकशील की जेणेकरून त्याच्या सावलीत हिरव्यागार थंडाव्याने तिथं येणाऱ्या पांथस्थांना सुख समाधानाचा लाभ होईल…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ।। श्री नारद उवाच ।। – नारद भक्ति सूत्रे — लेख ३  ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

? इंद्रधनुष्य ?

।। श्री नारद उवाच ।। – नारद भक्ति सूत्रे — लेख ३  ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले 

अमृतस्वरूपा च ॥ ३ ॥

अर्थ : आणि (ती भक्ति) अमृतस्वरूपा (ही) आहे.

विवरण : द्वितीय सूत्रात परमप्रेम हे भक्तीचे यथार्थ स्वरूप आहे, असे स्पष्ट केल्यानंतर या सूत्रात त्या प्रेम भक्तीचा एक महत्त्वाचा विशेष श्री नारदमहर्षि सांगतात, ती प्रेमरूपा भक्ती ‘अमृतस्वरूपा’ आहे. अमृत म्हणजे मरण-विनाश-बाधरहित अवस्था अथवा स्वरूप होय.

विवेचन:

सर्व संतांनी सत्संगाचा महिमा गायिला आहे. भक्ति करणे म्हणजे भगवंताशी संग करणे, असे म्हटले तर अधिक उचित होईल. एखाद्या मनुष्याचा हात चुकून कोळशाला लागला तरी त्याचा हात काळा झालाच म्हणून समजा. याच सूत्रानुसार भगवतांच्या थोड्याशा सत्संगाचा मनुष्याच्या जीवनावर प्रभाव पडत असतो. 

अमृत शब्दाचा प्रचलित अर्थ असा आहे की जे मृत्यू पासून आपल्याला वाचवते ते अमृत. समुद्र मंथनातून अमृत निर्माण झाले असे म्हणतात…..

थोडक्यात जे आपल्याला अमर करते ते अमृत. आजपर्यंत अनेक लोक जन्माला आले आणि मृत्यू पावले. त्यांची गणती करणे निव्वळ अशक्य आहे. त्यातील काही मोजक्या लोकांची नावे आपल्या लक्षात आहेत, इतिहासाला ठाऊक आहेत. ज्यांनी या धरती साठी, समाजासाठी, योगदान दिले, त्याग केला, विशेष कार्य केलं त्यांचीच नावे समाजाने लक्षात ठेवली आहेत. त्यातील प्रमुख नावे ही संतांची आहेत. आपल्याला आपल्या मागील चौथ्या किंवा दहाव्या वंशजाचे नाव सांगता येईलच असे नाही पण माउलींचे, समर्थांचे, तुकारामांचे, अर्थाचे संतांचे गोत्र ही पाठ असेल,. ही किमया नव्हे काय ? ही किमया कशामुळे  घडली असेल….?

प्रत्येक संतांनी आपल्या आवडीनुसार भक्ति केली असेल, नवविधा भक्तीचा अंगिकार केला असेल, पण भक्ति च केली यात बिल्कुल शंका नाही. भक्ति करणारा मनुष्य देहाने जातो, पण नामरूपाने, कीर्तिरूपाने अमर होतो, अमर राहतो हे सिद्ध होते. 

मेलेल्या मनुष्याला अमृत देऊन काही काळापुरते जिवंत करणे आणि भक्ताला मरण प्राप्त झाल्यानंतरही अनंत काळ अमर करणे , यात अमृत श्रेष्ठ म्हणता येईल की भक्ति….? आपल्या मनात भक्ति हेच उत्तर आले असेल ना ?

अमृत स्वरूपा असे नारद महाराज म्हणतात, तेव्हा त्याचा अर्थ कसा घ्यायचा ? सरळ अर्थ घेतला तर आपल्या लक्षात येईल की भक्ति मुळे मनुष्य अमृत समान होऊ शकतो…!

स्वरूप म्हणजे आपले रूप असा अर्थ घेतला तर आपले रूप आरशात दिसते तसे आहे की कसे ? आरशात दिसते ते बाह्य रूप आहे आणि दिसत नाही, जे अंतर्यांमी आहे ते आत्मरूप आहे. भगवंताला जाणणे म्हणजे अंतर्यामी असलेल्या आत्म तत्वाला जाणणं….

शबरी मातेची कथा आपल्याला माहित आहे. काही शे  बोकडांची हत्या होऊ नये, म्हणून ही मुलगी लग्नाच्या आदल्या दिवशी घर सोडून निघाली ती मातंग ऋषींच्या आश्रमात आली. मातंग ऋषींनी तिला सांगितले की तू अखंड नाम घे, प्रभू श्रीराम तुझे दर्शन घ्यायला येतील….! तिचा तिच्या सद्गुरूंवर पूर्ण विश्वास होता. गुरू वाक्य प्रमाण मानून तिने साधना करायला सुरुवात केली. तिला राम कसे असतील हे माहीत असण्याचे कारण नव्हतं. तिने आपल्या मनात रामाची प्रतिमा तयार केली. अर्थात ते आपल्या मातंग ऋषींसारखेव असतील……! जटाभार ठेवलेले, वल्कले नसलेलं…! शबरी जसे रूप मनात धरले, अगदी त्याच रुपात येऊन रामाने तिला दर्शन दिले.  एवढेच नव्हे तिची उष्टी बोरे भगवंताने आनंदाने खाल्ली. लक्ष्मण तिला म्हणाला की ही बोरे उष्टी आहेत. त्यावर ती म्हणाली की ही बोरे दिसायला उष्टी आहेत, पण खऱ्या आज ती अभिमंत्रित आहेत. हे सामर्थ्य भक्तीने प्राप्त होऊ शकते….!

जय जय रघुवीर समर्थ!!!

देवर्षी नारद महाराज की जय!!!

– क्रमशः सूत्र ३ 

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले (दास चैतन्य)

थळ, अलिबाग. 

८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 349 ☆ आलेख – “सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 349 ☆

?  आलेख – सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भारत ने हाल ही में पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर ऑपरेशन सिंदूर के तहत सटीक मिसाइल हमलों से पकिस्तान के कश्मीर में किए आतंक का सटीक बदला लिया। यह कार्रवाई न केवल भारतीय सेना की सैन्य कुशलता का प्रतीक है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ देश की स्पष्ट नीति को भी दर्शाती है। प्रगट रूप से यह ऑपरेशन एक सैन्य कार्यवाही है। किंतु आतंक के विरुद्ध इस तरह के आपरेशन सफल तभी होते हैं जब सेना, सरकार और नागरिकों के बीच समन्वय का एक सशक्त ढाँचा मौजूद हो। आतंकवाद से लड़ाई केवल बंदूकों और मिसाइलों से नहीं, बल्कि जनता की सजगता, सहयोग और राष्ट्रभक्ति से भी जीती जाती है।

 सीमाओं का कवच

भारतीय सेना है। जिसने ऑपरेशन सिंदूर जैसे अभियानों के माध्यम से यह साबित किया है कि वह भारत पर किसी आक्रमण या आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है। सेना की यह ताकत केवल हथियारों की ताकत नहीं, बल्कि उच्चस्तरीय रणनीति, खुफिया जानकारी और साहस का परिणाम है। सेना के जवान सीमाओं पर दिन-रात तैनात रहकर देश की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे ऑपरेशन इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने आतंकवाद के प्रति भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति को रेखांकित किया। ऑपरेशन सिंदूर देश की उसी नीति का हिस्सा है। नीति निर्माण से लेकर वैश्विक कूटनीति और सेना को छूट देना

सरकार का दायित्व है। सेना को राजनीतिक और तकनीकी समर्थन जनता की ताकत और एकजुटता ही प्रदान करती है। ऑपरेशन सिंदूर जैसे मिशन के पीछे सरकार की मंशा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठजोड़ बनाने की रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

नागरिक सहयोग सुरक्षा का तीसरा स्तंभ है।

यदि सेना और सरकार देश की रीढ़ हैं, तो नागरिक उसकी आत्मा। आतंकवाद से लड़ाई में नागरिकों की भूमिका कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है। सूचना और खुफिया सहयोग स्थानीय निवासी ही दे सकते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण तथा सतर्क रहने से आतंकियों की गतिविधियों के बारे में नागरिकों को जमीनी जानकारी हो सकती है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में कई बार ग्रामीणों ने सुरक्षा बलों को आतंकवादियों के ठिकानों की जानकारी देकर बड़ी घटनाओं को रोका है। ‘आवाम की आवाज’ जैसे अभियान इसी सहयोग को बढ़ावा देते हैं।

सामाजिक जागरूकता और एकता आतंकवाद की सबसे बड़ी हार है। 2008 के मुंबई हमले के बाद देशभर में एकजुटता का जो स्वर उभरा, उसने आतंकवादियों के मनोबल को तोडा। नागरिकों का यही साहस आतंकवाद को विफल बनाता है।

बदलते परिवेश में तकनीकी और डिजिटल सतर्कता, सोशल मीडिया पर सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकी समूहों का प्रचार-प्रसार रोकने में नागरिकों की भूमिका अहम है। झूठी खबरों को रिपोर्ट करना, युवाओं को कट्टरपंथी विचारों से बचाने के लिए जागरूकता फैलाना, और साइबर स्पेस में सक्रिय रहना—ये सभी आधुनिक समय की आवश्यकताएँ हैं।

केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी किया। ऐसी पहलें समाज के अंदर से ही आतंकवाद की विचारधारा को चुनौती देती हैं।

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आतंकवाद से लड़ना सबके सम्मिलित प्रयासों से ही संभव है। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद, उनके आंतरिक असंतोष का प्रभाव है। सीमा पार से होने वाली घुसपैठ जैसी समस्याएँ जटिल हैं। इनका समाधान तभी संभव है जब नागरिक सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर काम करें। उदाहरण के लिए, ‘मेरी चौकी, मेरी सुरक्षा’ जैसे कार्यक्रमों के तहत सीमावर्ती गाँवों के लोगों सदा सजग रहने को प्रशिक्षित किया जा सकता है।

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता इस बात का प्रमाण है कि भारत आतंकवाद के प्रति नरम नहीं रहेगा। लेकिन दीर्घकालिक जीत के लिए सेना, सरकार और नागरिकों को एक टीम की तरह लगातार काम करना होगा। जब कोई बच्चा स्कूल में देशभक्ति की कविता सुनाता है, कोई युवा सोशल मीडिया पर सच्चाई फैलाता है, या कोई ग्रामीण संदिग्ध गतिविधि की रिपोर्ट करता है—तभी आतंकवाद की जड़ें कमजोर होती हैं। आतंक का बदला केवल मिसाइलों से नहीं, बल्कि हर नागरिक के संकल्प से लिया जा सकता है। सभी धर्मों के नागरिकों की यही समग्रता भारत की सच्ची ताकत भी है। सेना और सरकार ही नहीं, आतंक का मुकाबला नागरिक सहयोग से ही संभव है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना संकल्प का प्रकल्प। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प

कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता किंतु  अंकुरित होकर, पौध बनकर पुनः नवसृजन का चक्र चलाते हुए अनगिनत चने उत्पन्न कर सकता है। जहाँ एकता में बल होता है वहीं एक व्यक्ति भी संकल्प शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकता है। अतः किसी भी हाल में निराश होने की आवश्यकता नहीं होती है। आपको पूरी हिम्मत के साथ लक्ष्य के प्रति सजग होना चाहिए तभी मंजिल आ कदम चूमेंगी और लोग आपके साथ होंगे।

आइए संकल्प लें-

गौरैया की देखभाल करेंगे

दाना पानी रख दिया, चहक- चहक कर बोल ।

आँगन गौरैया दिखी, मुस्काती मुँह खोल ।।

*

आहट पाते ही उड़े, गौरैया घर दूर।

फिर चुपके से आ चुगे, दाने सब भरपूर ।।

*

बना घोसला पेड़ पर, हरी भरी सी छाँव।

कलरव से जग गूँजता, चलो चलें हम गाँव ।।

*

खुशियों से जीवन भरा, रहे हमेशा आस ।

इनकी सेवा से बढ़े, जीवन में विश्वास ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 250 ☆ पाकिस्तान को दो टूक… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 250 ☆ 

☆ पाकिस्तान को दो टूक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

झूठा पाकिस्तान है, बेचे रोज जमीर।

मातम में शहबाज है, गिरगिट बना मुनीर।।

भारत की सेना प्रबल, तोड़ा पाक गुरुर।

एक वार में कर दिए, सपने चकनाचूर।।

 *

घाव दिए जो पाक ने, भारत भूल न पाय।

चुन-चुन कर बदला लिया, दुश्मन अब थर्राय।।

 *

बहनों की जो माँग का, उजड़ा था सिंदूर।

बदला उसका ले लिया, हुई वेदना दूर।।

 *

चूर हुआ मद पाक का, रोया खूब मसूद।

सब्र अभी थोड़ा करो, करें नेस्तनाबूद।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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