English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 81 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 81 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 81) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 81☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

आज  तक  याद है  वो

शाम-ए-जुदाई का समाँ

तेरी आवाज़ की लर्ज़िश

तेरे  लहज़े  की थकन…!

 

Till today, that the moment of

separation is alive in memory

The chocking lump in your voice,

the weariness in your tone…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कुछ इस तरह खूबसूरत

रिश्ते टूट जाया कराते हैं,

जब दिल भर जाता है तो

लोग रूठ जाया कराते हैं…

 

Some beautiful relations

break up like this also,

When heart gets satiated,

people just sulk away…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मुहब्बत दिल में कुछ ऐसी नवाज़ों

कि भले ही वो किसी और को

नसीब हो पर जिंदगी भर कमी

उसे सिर्फ हमारी ही महसूस हो…!

 

Adorn the heart with love in

such a way that even if it’s

destined for someone else, yet

Lifelong he misses me only…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 127 ☆ स्टैच्यू..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 127 ☆ स्टैच्यू..! ?

संध्याकाल है। शब्दों का महात्म्य देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अर्थ अपने संदर्भ से ग्रहण कर सकता है। संध्याकाल, दिन का अवसान हो सकता है तो जीवन की सांझ भी। इसके सिवा भी कई संदर्भ हो सकते हैं। इस महात्म्य की फिर कभी चर्चा करेंगे। संप्रति घटना और उससे घटित चिंतन पर मनन करते हैं।

सो अस्त हुए सूर्य की साक्षी में कुछ सौदा लेने बाज़ार निकला हूँ। बाज़ार सामान्यत: पैदल जाता हूँ। पदभ्रमण, निरीक्षण और तदनुसार अध्ययन का अवसर देता है। यूँ भी मुझे विशेषकर मनुष्य के अध्ययन में ख़ास रुचि है। संभवत: इसी कारण एक कविता ने मुझसे लिखवाया, ‘उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें/ मैं आदमी को पढ़ता रहा।’

आदमी को पढ़ने की यात्रा पुराने मकानों के बीच की एक गली से गुज़री। बच्चों का एक झुंड अपने कल्लोल में व्यस्त है। कोई क्या कह रहा है, समझ पाना कठिन है। तभी एक स्पष्ट स्वर सुनाई देता है, ‘गौरव स्टेच्यू!’ देखता हूँ एक लड़का बिना हिले-डुले बुत बनकर खड़ा हो गया है। . ‘ ऐ, जल्दी रिलीज़ कर। हमको खेलना है’, एक आवाज़ आती है। स्टैच्यू देनेवाली बच्ची खिलखिलाती है, रिलीज़ कर देती है और कल्लोल जस का तस।

भीतर कल्लोल करते विचारों को मानो दिशा मिल जाती है। जीवन में कब-कब ऐसा हुआ कि परिस्थितियों ने कहा ‘स्टैच्यू’ और अपनी सारी संभावनाओं को रोककर बुत बनकर खड़ा होना पड़ा! गिरना अपराध नहीं है पर गिरकर उठने का प्रयास न करना अपराध है। वैसे ही नियति के हाथों स्टैच्यू होना यात्रा का पड़ाव हो सकता है पर गंतव्य नहीं। ऐसे स्टैच्यू सबके जीवन में आते हैं। विलक्षण होते हैं जो स्टैच्यू से निकलकर जीवन की मैराथन को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते हैं।

नये आयाम देनेवाला ऐसा एक नाम है अरुणिमा सिन्हा का। अरुणिमा, बॉलीबॉल और फुटबॉल की उदीयमान युवा खिलाड़ी रहीं। दोनों खेलों में अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं। सन 2011 में रेलयात्रा करते हुए बैग और सोने की चेन लुटेरों के हवाले न करने की एवज़ में उन्हें चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। इस बर्बर घटना में अरुणिमा को अपना एक पैर खोना पड़ा। केवल 23 वर्ष की आयु में नियति ने स्टैच्यू दे दिया।

युवा खिलाड़ी अब न फुटबॉल खेल सकती थी, न बॉलीबॉल। नियति अपना काम कर चुकी थी पर अनेक अवरोधक लगाकर सूर्य के आलोक को रोका जा सकता है क्या? कृत्रिम टांग लगवाकर अरुणिमा ने पर्वतारोहण का अभ्यास आरम्भ किया। नियति दाँतो तले उँगली दबाये देखती रह गयी जब 21 मई 2013 को अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अरुणिमा सिन्हा स्टैच्यू को झिंझोड़कर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय दिव्यांग महिला पर्वतारोही बनीं।

चकबस्त का एक शेर है,

कमाले बुज़दिली है, पस्त होना अपनी आँखों में
अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो क्या हो सकता नहीं।

स्टैच्यू को अपनी जिजीविषा से, अपने साहस से स्वयं रिलीज़ करके, अपनी ऊर्जा के सकारात्मक प्रवाह से अरुणिमा होनेवालों की अनगिनत अद्भुत कथाएँ हैं। अपनी आँख में विजय संजोने वाले कुछ असाधारण व्यक्तित्वों की प्रतिनिधि कथाओं की चर्चा उवाच के अगले अंकों में करने का यत्न रहेगा। प्रक्रिया तो चलती रहेगी पर कुँवर नारायण की पंक्तियाँ सदा स्मरण रहें, ‘हारा वही जो लड़ा नहीं।’..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह #82 ☆ सॉनेट गीत – वसुंधरा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट गीत – वसुंधरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 82 ☆ 

☆ सॉनेट गीत – वसुंधरा ☆

(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)

हम सबकी माँ वसुंधरा।

हमें गोद में सदा धरा।।

 

हम वसुधा की संतानें।

सब सहचर समान जानें।

उत्तम होना हम ठानें।।

हम हैं सद्गुण की खानें।।

 

हममें बुद्धि परा-अपरा।

हम सबकी माँ वसुंधरा।।

 

अनिल अनल नभ सलिल हमीं।

शशि-रवि तारक वृंद हमीं।

हम दर्शन, विज्ञान हमीं।।

आत्म हमीं, परमात्म हमीं।।

 

वैदिक ज्ञान यहीं उतरा।

हम सबकी माँ वसुंधरा।।

 

कल से कल की कथा कहें।

कलकल कर सब सदा बहें।

कलरव कर-सुन सभी सकें।।

कल की कल हम सतत बनें।।

 

हर जड़ चेतन हो सँवरा।

हम सब की माँ वसुंधरा।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #111 ☆ ‌गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 111 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम – गांव देस (कहानी संग्रह)

लेखक —श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’

मूल्य- ₹ 175

 

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> गांव देस  

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यदि अगर हम या आप रचना धर्मिता की बात करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कुशल रचनाकार अपने कथा पात्रों का चयन तथा पटकथा का ताना-बाना बुनने का कार्य अपने ही इर्द गिर्द के परिवेश से चयनित करता है जो यथार्थ होने के साथ कल्पना प्रधान भी होती है, जो साहित्यिक सौंदर्य को भावप्रधान बना देती है।

मेरा यह कहना भी समसामयिक है कि किसी भी संग्रह का मुखपृष्ठ ही बहुत कुछ कह जाता है। लेखन के बारे में और पाठक को पहली ही नजर में ललचा देता है। यदि हम गांव देस की बात करें तो इसका मुख पृष्ठ अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यदि रचना धर्मिता की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इस रचना कार को मात्र यही एक संग्रह मुंशी प्रेमचंद के समकालीन तो नहीं, समकक्ष अवश्य खड़ा कर देता है।

लेकिन एक की दूसरे से तुलना एक दूसरे की रचनाधार्मिता के प्रति अन्याय होगा। दोनों रचना कारों में कुछ  लक्षण सामूहिक दिखते हैं , जैसे पटकथा, पात्र संवाद शैली तथा कहानी का ग्रामीण परिवेश  एक जैसा है अगर कुछ फर्क है तो समय का ज़हां मुंशी प्रेमचंद आज का परिवेश देखने तथा लिखने के लिए जीवित नहीं है, जब कि लेखक महोदय वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी  चित्रण कर रहे हैं। जैसे–बैजू बावरा, नियुक्ति पत्र, तथा अचिरावती का प्रतिशोध, वर्तमान कालीन सामाजिक विद्रूपताओं, योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कथा नायकों की मजबूरी का कच्चा चिट्ठा है, तो प्रतिज्ञा सामूहिक परिवार में घट रही घटनाओं के द्वारा  मन के भावों का उत्कृष्ट नमूना पेश करती है जिनके कथा पात्रों के भावुक कर देने वाले संवाद में पाठक खो सा जाता है, जब कि काफिर की बेटी तथा चिकवा कहानी सामाजिक समरसता  और इंसानियत की ओर इशारा करती है, तथा हमारे संकुचित दृष्टिकोण और विचार धारा को आवरणहीन कर देती है।  इसके साथ ही साथ दिदिया कहानी इस पुस्तक रचनाओं में सिरमौर है। यह रचना भावनाओं का पिटारा ही नहीं है जिसमें दया करूणा प्रेम मजबूरी बेबसी  समाई है बल्कि उसका दूसरा राजनैतिक पहलू भी बड़े ही बारीकी से उजागर किया गया है कि आर्थिक उदारीकरण किस प्रकार विदेशी पूंजी वाद बढ़ावा देता है और कैसे हमारे छोटे-छोटे गृहउद्योगों को लील जाता है।

उससे रोजी-रोटी कमाने वालों को दर्द और पीड़ा, तथा बर्बादी इसके साथ ही साथ यह कहानी बुनकर समाज दुर्गति को दिखाती है । नए विषय वस्तु के ताने-बाने में बुनी कथा तथा उसके संवाद तो इतने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि बचपन में हम उनको तानी फैलाते समेटते हुए देख चुके हैं। इस लिए कहानी पढ़ते हुए वे दिन याद आते हैं साथ ही आंचलिक भाषा भोजपुरी शैली के संवाद भले ही अहिंदी भाषी लोगों की समझ से परे हो, लेकिन उसनेे रचना सौंदर्य को निखारने में महती भूमिका निभाने का कार्य किया है। यह रचना बनारसी साड़ी उद्योग को केंद्रित कर लिखी गई है। सर्वथा नया विषय है। उसके भावुक संवाद पाठक को अंत तक रचना पढ़ने को बांधे रखने में सक्षम है।

इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है कि इसके कहानी शीर्षक कुछ अजीब से है जो पाठक के मन कहानी पढ़ने समझने की जिज्ञासा तथा ललक जगाते हैं।  जैसे अचिरावती का प्रतिशोध,काला नमक, चिकवा आदि। वहीं अंतिम कहानी शीर्षक बिदाई कथा संग्रह के समापन की घोषणा करता जान पड़ता है।और यहीं एक रचना कार की कार्य कुशलता का परिचायक है।

हर्ष प्रकाशन दिल्ली का त्रुटिहीन मुद्रण तारीफ के काबिल है अन्यथा त्रुटि से युक्त मुद्रण तो भोजन में कंकड़ पत्थर के समान लगता है।यह पुस्तक पढ़ने के बाद आप के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा सकती है ।

 

समीक्षा – सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #130 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 18 – “दरमियाँ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरमियाँ …”)

? ग़ज़ल # 18 – “दरमियाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

निभाने को हमें कुछ बचा ही नहीं,

दरमियाँ हमारे सच बचा ही नहीं।

 

इतने हिस्सों में बँट चुके हैं हम,

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।

 

ईमान रिश्तों की साझा नींव है,

सच्चा इंसान कोई बचा ही नहीं।

 

माना तुम ज़मीन पर खड़े हुए हैं,

पैरों के नीचे तल बचा ही नहीं।

 

दिल का दर्द किससे बयाँ करूँ मैं,

हमसाया मेरा कोई बचा ही नहीं।

 

दर्द समझ सकता कोई तो हमारा,

हमनफ़स अब कोई बचा ही नहीं।

 

चहलक़दमी साथ कर सकता कोई,

हमराह अपना कोई बचा ही नहीं।

 

मेरे साथ गीत गुनगुनाता कोई,

हमनवा ऐसा कोई बचा ही नहीं।

 

अब तो सफ़र तनहा ही कटना है,

हमसफ़र हमारा कोई बचा ही नहीं।

 

दिले बीमार लाइलाज हुआ अब तो,

क़ाबिल चारागर कोई बचा ही नहीं।

 

दिल के टुकड़ों को अब क्या सँभालू,

तीमारदार अब कोई बचा ही नहीं।

 

दिल से सदा आती सुनाई देती है,

अब चलो आतिश कुछ बचा ही नहीं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कठिन श्रम की साधना”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आने वाले कल से हर एक आदमी अनजान है

किया जा सकता है केवल काल्पनिक अनुमान है।

सोचकर भी बहुत कुछ, कर पाता कोई कुछ भी नहीं

सफलता की राह पै’ अक्सर खड़ा व्यवधान है।

करती नई आशायें नित खुशियों की मोहक सर्जना

जोड़ते जिनके लिये सब सैकड़ों सामान हैं।

कठिन श्रम की साधना ही दिलाती है सफलता

परिश्रम भावी सफलता की सही पहचान है।

राह चलते जो अकेले भी कभी थकते नहीं

वहीं कह सकते है कि यह जिन्दगी आसान है।

हर दिशा  में क्षितिज के भी पार हैं कई बस्तियॉ

किया जा सकता पहुॅंच ही कोई नव अनुसंधान है।

प्रेरणा उत्साह जिज्ञासा का हो यदि साथ तो

परिश्रम देता सदा मनवांछित वरदान है।

कठिन श्रम की साधना की कला जिसको सिद्ध है

वही हर अभियान में पाता विजय औ’ मान है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 122 ☆ कोरोना और भूख ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 122 ☆

☆ कोरोना और भूख

कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।

परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।

आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से  मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो  दीवारों से टकराकर लौट आएगी।

औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।

इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 121 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 121 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो कैसे चढ़ रहा, उनको युद्ध बुखार।

मन को निर्मल करो तुम, कर लो सबसे प्यार।।

 

कोरोना के कहर का, असर है द्वार द्वार।

रूप बदलकर फिर रहा, होते सब बीमार।।

 

चोट आज ऐसी लगी, हुआ है मोह भंग।

अब तुम चाहे कुछ करो, नहीं जमेगा रंग।।

 

औषधि कड़वी ही सही, करना है सम्मान।

बिना पीए आए नहीं, अपने शरीर जान।।

 

देश -देश  में हो रहा, राजनैतिक प्रचार।

सोच सही हो आपकी, है जनता उपचार।।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 111 ☆ मोरी बिगड़ी बना दो श्याम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मोरी बिगड़ी बना दो श्याम….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 111 ☆

☆ मोरी बिगड़ी बना दो श्याम…

सुख-दुख के हो तुम ही साथी, तुम बिन कोई न ठाम

संकट में बस एक आसरा, मुरलीधर घनश्याम

पार लगा दो मोरी नैयाँ, बन माझी मोहि थाम

झूठे जग के रिश्ते सारे, सच है तिहारो नाम

दया तिहारी मैं भी चाहूँ, दया करो दया धाम

खबर करो “संतोष” की कृष्णा, पूरन करो सब काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 87 ☆ बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 87 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा  में आज  अनामिका की कविता ‘ बेजगह ‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह  से गिरकर कहीं के नहीं रहते,

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढते ही लडकियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लडकों पर कोई असर  नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ  शिक्षिका पढती है –

लडकियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका  कविता के भाव समझाती जा रही थी। क्लास में बैठी लडकियां बैचैनी से  एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लडके मुस्कुरा रहे थे। कविता आगे बढी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जानेवाली।

एक लडकी ने प्रश्न पूछ्ने के लिए झट से हाथ उपर उठाया- मैडम ! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को  बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ –  शिक्षिका ने गंभीरता से उत्तर दिया।

एकदम से  कई लडकियों के हाथ उपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है  मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा – कचरा थोडे ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर , बुहारकर घर से बाहर कर दिया  गया था । किसी के मन-मस्तिष्क को बडे योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था  यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खडी  थी। उसे एक दिन  पति ने बडी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर  हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ  —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

 हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं,  इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करे, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते  उसके चेहरे पर मुस्कान दौड गई।  वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –

शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं,

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो,

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ ।

घंटी बज गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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