हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#115 – कविता – हर हर महादेव ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  महाशिवरात्रि पर्व पर आधारित एक भावप्रवण कविता “*हर हर महादेव *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 115 ☆

? हर हर महादेव ?

?महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं ?

 

सदियों से चली आई, महाशिवरात्रि की रीत।

जन्मों-जन्मों याद करें, शिव पार्वती संग प्रीत।

 

शिव शंकर का ब्याह रचानें, मचा हुआ है शोर।

धूनी रमाए बैठे भोले, चले किसी का न जोर।।

 

 नंदी अब सोच रहे, दिखे ना कोई छोर।

 कहां उठाऊं भोले को, रात बड़ी घनघोर ।।

 

कठिन परीक्षा की घड़ी,  बसंत छाया चहु ओर।

कोयल कूके डाली डाली,  आमों में आया बौर।।

 

 भांग धतूरे की खुशबू, कामदेव का शोर।

ध्यान से जागे शिव शंभू, नाच उठा मन मोर।।

 

हृदय पटल झूम उठा,  प्रीत ने लिया हिलोर।

मंद मंद मुस्काए शंकर, झूम उठे गण चहूं ओर।।

 

जटा जूट लहराए शंभू, अंग भभूति रम डाला।

भाल चंद्रमा सोह रहा, गले में सर्पों की माला।।

 

दूल्हा बन गए अधिपति, इंद्र देव गण मुस्काय।

अपने अपने गणों को लेकर, संग संग चल चले आए।।

 

देख रूप अवघड दानी का,  गौरा जी मुस्काई।

मैं तो हूं सब रुप  की दासी,  पर कैसे हो सेवकाई।।

 

 रुप भयंकर त्यागों स्वामी,  करो सब पर उपकारी।

 हाथ जोड़ करूं मैं विनती, रूप धरो मनुहारी।।

 

 सजा रूप बना दूल्हे का, सुखो की रात्रि छाई।

 शिव पार्वती विवाह रचाने,  महाशिवरात्रि आई।।

 

स्याम गौर सुंदर छवि,  सभी नयन छलकाए ।

कभी दिखे शिव शंकर शंभू,  कभी गौरी दिख जाए।।

 

आंख मिचौली खेलते प्रभु, मन को बहुत भर माए।

समा गई आधे अंग गौरा, अर्धनारीश्वर कहलाए।।

 

करें जो श्रद्धा से पूजन,  इक्छित वर को पाए।

धन भंडार भरे घर में, प्रीत पर आंच न आए।।

? हर हर महादेव ?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 127 ☆ राजा राणीचा संसार ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 127 ?

☆ राजा राणीचा संसार ☆

राजा राणीचा संसार, हवी कशाला भाकर

वीस मिनिटात येतो, आता पिझ्झा दारावर

 

राजा राणीचा संसार, हवे स्वतःचेच घर

येता जाता रस्त्यावर, माझे असावे माहेर

 

राजा राणीचा संसार, नको नंदा नको दिर

सासू सासरे देखील, गावी असावेत दूर

 

राजा राणीचा संसार, नाही मला हात चार

घरकाम करताना, लावेल तो हातभार

 

राजा राणीचा संसार, खोट्या पावसाचा जोर

शाॕवरच्या खाली नाचो, माझ्या मनातला मोर

 

राजा राणीचा संसार, नको घामाची ह्या धार

लावू एसी घरामध्ये, उन्हाळा ना सोसणार

 

राजा राणीचा संसार, का मी खावी चिंचा बोरं ?

एवढ्यात नको आहे, खरंतर मला पोरं

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ संगीताचा विकास – भाग-१  ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? सूर संगत ?

☆ संगीताचा विकास – भाग-१  ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

संगीत म्हणजे नेमके काय?

त्याचे उत्तर असे की निबद्ध गायन किंवा वादन. तालात बांधलेली स्वररचना.राग,स्वर

आणि शब्द कोणत्या एका तालात बद्ध करून त्या तालाच्या खंडाप्रमाणे सम,इतर टाळ्या,काल किंवा खाली या आवर्तनात स्वररचना किंवा गीत रचना चपखलपणे बसविणे म्हणजे संगीत.

पाण्याची खळखळ,वार्‍याची फडफड,समुद्राची गाज,पक्षांचा कलरव,कोकिळेचे कूजन,भ्रमराचे गुंजन हे जर शांतपणे ऐकले तर असे लक्षात येते की या सर्वांमध्ये एकप्रकारचा नाद,ताल,लय आहे,निबद्धता आहे.

भारतीय संगीताची परंपरा फार मोठी आणि प्राचीन आहे.नादयुक्त हुंकार ते सप्तस्वर असा संगीतातील स्वरांचाः विकासक्रम आहे.त्यामागे दीर्घ कालखंडाची परंपरा आहे जी  चार कालखंडातून दिसून येते.

१) वैदिक काल~इसवी सन पूर्व ५ ते ६ हजार पासून १हजार पर्यंत.

पंचमहाभूतांना देवता मानून त्यांची स्तुती व प्रार्थना करणार्‍या  ऋचांचे गायन ऋषीमुनी करीत असत.ऋग्वेद,यजूर्वेद,सामवेद आणि अथर्ववेद या चार वेदांपैकी सामवेदाशी वेदकालीन संगीत संबंधीत आहे. सा म्हणजे ऋचा आणि अम् म्हणजे ऋचांचे स्वरबद्ध गेय स्वरूप.सामवेदात गायनाची एक निश्चित पद्धति तयार केली गेली आणि तीन स्वरांचे गायन सप्तसुरांपर्यंत विकसित झाले. यज्ञयागादि प्रसंगी जे गायन होत असे तेच तत्कालीन संगीत होते,ज्याला गंधर्वगान असे म्हटले जात होते.

२) प्राचीन काल~ ईसवी सन पूर्व १००० ते ई.स.८०० पर्यंत. ह्याला जातिगायनाचा कालखंड असेही समजतात.धृवा गायनही प्रचलीत होते.पुढे त्याचेच परिवर्तीत स्वरूप धृवपद किंवा धृपद गीत गायन अशी ओळख झाली.हा प्रकार भरतपूर्व काळापासून प्रचारात होता.जातिगायनाचे बदललेले स्वरूप हेच रागगायन होय.भरतमुनींच्या नाट्यशास्त्रांत ह्या जातिगायनाचा किंवा राग गायनाचा उल्लेख सांपडतो.

पुढील भागात आपण मध्ययुगीन कालखंडातील संगीत बघू.

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 79 – दोहे – शिमला संदर्भ   ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे – शिमला संदर्भ  ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 79 –  दोहे – शिमला संदर्भ   ✍

 

सुबह धूप घुटनों चली, दोपहर हुई जवान।

शिमला सोयी शाम को, करके कन्यादान।।

 

ऊंचे नीचे रास्ते, उखड़ी उखड़ी सांस।

शिमला तेरी गली में, गड़ी गजब की फांस।।

 

सुंदर सुंदर दृश्य है, सुंदर-सुंदर लोग।

शिमला क्या तुझसे कहें, नदी नाव संयोग।।

 

सुजन सुमन संयोगवश, मिलता है परिवेश।

शिमला तू तो लग रहा, गंध प्रिया का देश।।

 

बैठ पराए देश में, अपने आते याद।

लख शिमला के चांदनी, मन करता संवाद।।

 

सर -सर चलती पवनिया, फर- फर उड़ते केश।

शिमला की सरगोशियां, प्रियतम का संदेश।।

 

घाटी घाटी गूंजती, देवदारू दरबान।

सुनो शिमला राधिके, कान्हा का आव्हान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 79 – “द्वार के बाहर उँकेरी  स्वस्तिका” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “द्वार के बाहर उँकेरी  स्वस्तिका …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 79 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “द्वार के बाहर उँकेरी  स्वस्तिका”|| ☆

मूर्ति हो

साकार ज्यों

पाषाण-

अनगढ़ की ।।

 

गगन में बिखरी

हुई सुषमा ।

कौन क्या दे-दे

तुम्हें उपमा।

 

तुम विरह-

रत  लगी हो

राधा किशन-

गढ़ की ।।*

 

द्वार के बाहर

उँकेरी  स्वस्तिका।

स्वर्ण अक्षर में

लिखित सी पुस्तिका।

 

दृष्टि में

आयी हुई-

अनजान,

अनपढ़ की ।।

 

नेत्र से टपके

सहज जल से ।

लौट कर आये

हिमाचल से ।

 

पखेरू जो

कला हैं

निश्चित किसी

गढ़ की ।।

(*किशन गढ़ चित्र कला की एक शैली / राजस्थान कलम)

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 126 ☆ “यादों में रानीताल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर संस्मरण यादों में रानीताल”।)  

☆ संस्मरण # 126 ☆ “यादों में रानीताल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कल जबलपुर के रानीताल की बात निकल आयी भत्तू की पान की दुकान पर ,,  

ठंडी सुबह में दूर दूर तक फैला कोहरा… रानीताल के सौंदर्य को और निखार देता था । चारों तरफ पानी और बाजू से नेशनल हाईवे से कोहरे की  धुन्ध में गुजरता हुआ कोई ट्रक ……… 

पर अब रानीताल में उग आए हैं  सीमेंट के पहाड़नुमा भवन ……….।

परदेश में बैठे लोगों की यादों में अभी भी उमड़ जाता है रानीताल का सौंदर्य ……

पर इधर रानीताल चौक में आजकल लाल और हरे सिग्नल मचा रहे हैं धमाचौकड़ी ………।

यादों में अभी भी समायी है वो रानीताल चौक की सिंधी की चाय की दुकान जहाँ सुबह सुबह 15 पैसे में गरम गरम चाय मिलती थी । 

रात को आठ बजे सुनसान हो जाता था रानीताल चौक ……… रिक्शा के लिए घन्टे भर इन्तजार करना पड़ता था,अब ओला तुरन्त दौड़ लगाकर आ जाती है ।

संस्कारधानी ताल – तलैया की नगरी……

किस्सू कहता “ताल है अधारताल, बाकी हैं तलैयां ” फिर सवाल उठता है इतना बड़ा रानीताल ? 

रानीताल चौक, रानीताल श्मशान, रानीताल बस्ती, रानीताल मस्जिद और रानीताल के चारों ओर के चौराहे……. पर अब सब चौराहे बहुत व्यस्त हो गए हैं चौराहे के पीपल के नीचे की चौपड़ की गोटी फेंकने वाले अब नहीं रहे पीपल के आसपास गोटी फिट करने वाले दिख जाते हैं……… कभी कभी।

अहा जिंदगी…

अहा यादों में रानीताल……..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 70 ☆ # युद्ध की मानसिकता # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# युद्ध की मानसिकता  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 70 ☆

☆ # युद्ध की मानसिकता # ☆ 

जब आसमानों में

फायटर प्लेन उड़ते हैं

विनाशकारी बम

उससे गिरते हैं

विध्वंसक मिसाइलें

दागी जाती है

निरपराध लोगों को

मौत आती है

चारो तरफ कोहराम

मच जाता है

जमीन पर प्रलय छा जाता है

प्रश्रय  के लिए

लोग कहाँ कहाँ  भटकते हैं

डर और तबाही देख

अपना सर पटकते है

विभत्स फैली हुई लाशें

तो कहीं रूकती हुई सांसें 

कितना वीभत्स  मंजर

होता है

मानवता के सीने में

चुभता हुआ खंजर होता है

चारों तरफ

रूदन और क्रंदन

बरसते हुए बम दनादन

 

सदियों से यही तो

होता आया है

शक्तिशाली ने

कमजोर को

हमेशा दबाया है

अपनी झूठी जीत पर

अट्टहास लगाते हैं

अपनी गुंडागर्दी पर

खुशियां मनाते हैं

 

विश्व हो या,

देश,

समाज

यही तो हो रहा है आज

युद्ध में दोनों पक्ष

एक दूसरे को

तबाह करते हैं

अपने उन्माद में

यह गुनाह करते हैं

 

क्या शोषण, उत्पीडन,

गुंडागर्दी और हिंसा

समाप्त हो पायेगी ?

क्या विश्वपटल पर

भाईचारा, सद्भभाव

समता और शांति आयेगी /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ६ – अनुकरण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर

डाॅ.नयना कासखेडीकर

[भारतीय संस्कृतीतमध्ये आपल्या जीवनात असणार्‍या गुरूंना अर्थात मार्गदर्शन करणार्‍या व्यक्तिंना अत्यंत महत्वाचे स्थान आहे, हे महत्व आपण शतकानुशतके वेगवेगळ्या पौराणिक, वेदकालीन, ऐतिहासिक काळातील अनेक उदाहरणावरून पाहिले आहे. आध्यात्मिक गुरूंची परंपरा आपल्याकडे आजही टिकून आहे. म्हणून आपली संस्कृतीही टिकून आहे.

एकोणीसाव्या शतकात भारताला नवा मार्ग दाखविणारे आणि भारताला आंतरराष्ट्रीय विचारप्रवाहात आणणारे, भारताबरोबरच सार्‍या विश्वाचे सुद्धा गुरू झालेले स्वामी विवेकानंद.

आपल्या वयाच्या जेमतेम चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात, विवेकानंद यांनी  गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस यांचे शिष्यत्व पत्करून जगाला वैश्विक आणि व्यावहारिक अध्यात्माची शिकवण दिली आणि धर्म जागरणाचे काम केले, त्यांच्या जीवनातील महत्वाच्या घटना आणि प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांची ओळख या चरित्र मालिकेतून करून देण्याचा हा प्रयत्न आहे.] 

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ६ – अनुकरण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

मुलं अनुकरणप्रिय असतात. घरात आपले आई वडील कसे वागतात, कसे बोलतात, कपडे काय घालतात, नातेवाईकांशी कसे संबंध ठेवतात हे सर्व ते रोज बघत असतात. त्यांच्या सवयी काय आहेत ,कोणत्या आहेत? हे मनात साठवत असतात. मुली असतील तर त्या आईची नक्कल करतात,उदा. भातुकली च्या खेळात मुली आईची भूमिका नेहमी करत असतात. आजही. मुले वडिलांची नक्कल करतात. म्हणजे आई वडील या नात्याने आपल्या मुलांच्या भविष्यात चांगले काही घडण्यासाठी ची आईवडिलांची जबाबदारी किती मोठी असते हे लक्षात येईल. घरात जसे वातावरण असेल तशी तशी मुलं घडत जातात. 

नरेंद्रही अशा वेगळ्या वातावरणात घडत होता. १८७७ मध्ये नरेंद्र विश्वनाथबाबूंच्या बरोबर रायपूर येथे राहत होता. तेथे शाळा नव्हती. त्यामुळे ते स्वत:च नरेंद्रला शालेय पाठ्यपुस्तकाशिवाय इतिहास तत्वज्ञान, साहित्य विषय शिकवीत असत. शिवाय घरी अनेक विद्वान व्यक्तीं येत असत. त्यांच्या चर्चाही नरेंद्रला ऐकायल मिळत असत. त्याचं वाचन इतकं होतं कि, तो वादविवादात पण सहभागी होत असे. नरेंद्रची बुद्धी आणि प्रतिभा बघून ते वेगवेगळ्या विषयांवर मोकळेपणी मत मांडण्याची संधी नरेंद्रला देत असत.

नरेंद्रचही असच होत होतं. वडिलांचे गुण, दिलदारपणा, दुसर्‍याच्या दु:खाने द्रवून जाणं, संकटकाळी धीर न सोडता, उद्विग्न न होता, शांतपणे आपलं कर्तव्य बजावत राहणं अशी वैशिष्ठ्ये त्यानं आत्मसात केली होती. दुसर्‍यांची दुखे पाहू न शकल्याने दिलदार विश्वनाथांनी मुक्त हस्ताने आपली संपत्ती वाटून टाकली होती. तर ज्ञानसंपदा दोन्ही हातांनी मुलाला देऊन टाकली होती. एकदा कुणाच्या तरी सांगण्यावरून नरेंद्रनी आपल्या भविष्यकाळाबद्दल वडिलांना विचारले , “ बाबा तुम्ही आमच्या साठी  काय ठेवले आहे?”  हा प्रश्न ऐकताच विश्वनाथबाबूंनी भिंतीवरच्या टांगलेल्या मोठ्या आरशाकडे बोट दाखवून म्हटलं, “ जा, त्या आरशात एकदा आपला चेहरा बघून घे, म्हणजे कळेल तुला, मी तुला काय दिले आहे”.  बुद्धीमान नरेंद्र काय समजायचं ते समजून गेला. मुलांना शिकविताना त्यांच्यात आत्मविश्वास निर्माण व्हावा म्हणून विश्वनाथबाबू त्यांना कधीही झिडकारत नसत, की त्यांना कधी शिव्याशाप ही देत नसत.

आपल्या घरी येणार्‍या आणि तळ ठोकणार्‍या ऐदी आणि व्यसनी लोकांना वडील विनाकारण, फाजील आश्रय देतात म्हणून नरेंद्रला आवडत नसे. तो तक्रार करे. त्यावर नरेंद्रला जवळ घेऊन वडील म्हणत, “ आयुष्य किती दुखाचे आहे हे तुला नाही समजणार आत्ता, मोठा झाला की कळेल. हृदय पिळवटून टाकणार्‍या दु:खाच्या कचाट्यातून सुटण्यासाठी, जीवनातला भकासपणा थोडा वेळ का होईना विसरण्यासाठी हे लोक नशा करत असतात. हे सारे तुला जेंव्हा कळेल, तेंव्हा तू पण माझ्यासारखाच त्यांच्यावर दया केल्याखेरीज राहणार नाहीस”. 

समोरच्याचा दु:खाचा विचार करणार्‍या वडिलांबद्दल गाढ श्रद्धा नरेंद्रच्या मनात निर्माण झाली होती. मित्रांमध्ये तो मोठ्या अभिमानाने वडिलांचे भूषण सांगत असे. त्यामुळे, उद्धटपणा नाही, अहंकार नाही, उच्च-नीच , गरीब-श्रीमंत असा भाव कधीच त्याच्या मनात नसायचा. वडीलधार्‍या माणसांचा अवमान करणे नरेंद्रला आवडत नसे. अशा प्रकारे नरेंद्रला घरात वळण लागलं होतं.

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – ३६ – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – ३६– रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

[१६१]

आपली स्वत:चीच फुलं

भेट म्हणून

स्वीकारण्यासाठी

माणसाकडून

किती वाट पाहतो

ईश्वर

आतुर: उत्सुक

 

[१६२]

सूत कातता कातता

कुणी साधी भोळी स्त्री

गुणगुणत असावी

एखादं  प्राचीन लोकगीत

हरवलेल्या आवाजात

तशी आज ही धरती

गुणगुणते काही बाही

माझ्या कानाशी

 

[१६३]

आपआपल्या मंदिरात

आपलेच दिवे

ओवाळतात ते

आळवतात अहोरात्र

आपल्याच आरत्या

पण हे पक्षी

तुझ्याच प्रात:कालीन प्रकाशात

तुझ्याच प्रसन्न प्रार्थना

किती खुशीनं गातात. 

 

[१६४]

सर्व चुकांसाठी

आपले दरवाजे

जर

बंद ठेवलेस तू

तर

सत्यालाच प्रत्यक्ष

कोंडून ठेवशील तू

बाहेर…

 

[१६५]

कीर्तीच्या आणि प्रतिष्ठेच्या

शेवटच्या टोकापर्यंत

जाऊन आल्यावर

सभोवार पसरलेली

ही पोकळ उदासी

आणि गुदमरणारे प्राण…

किती वांझ असतं शिखर

आणि किती निमुळतं

क्रूरपणे आसरा झिडकारणारं…

तूच आता दाखव वाट

हे प्रभो,

अद्याप धुगधुगत आहे

हा प्रकाश

तोवरच घेऊन चल मला

त्या दरीपर्यंत

खोल … खोल…

शांत… निवांत

आयुष्याचं मृदू फळ

पिकून तयार असेल तिथं

आणि

त्यावर तकाकत असेल

जाणिवेचा सोनेरी रंग

-समाप्त-

(या कवितांबरोबरच हे सदर इथे संपत आहे.)

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #129 ☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 129 ☆

☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या

हमारे नगर के गौरव ‘उन्मत्त’ जी का दृढ़ विश्वास है कि ‘निराला’ के बाद अगर किसी कवि को महाकवि कहलाने का हक है तो वे स्वयं हैं,भले ही दुनिया इसे माने या न माने।दाढ़ी-मूँछ हमेशा सफाचट रखे और कंधों तक केश फैलाये ‘उन्मत्त’ जी हमेशा चिकने-चुपड़े बने रहते हैं।उनके वस्त्र हमेशा किसी डेटरजेंट का विज्ञापन लगते हैं।बढ़ती उम्र के साथ रंग बदलते बालों को वे सावधानी से ‘डाई’ करते रहते हैं।कोई बेअदब सफेद खूँटी सर उठाये तो तत्काल उसका सर कलम कर दिया जाता है।
घर-गृहस्थी को पत्नी के भरोसे छोड़ ‘उन्मत्त’ जी कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने के लिए पूरे देश को नापते रहते हैं।उनके पास दस पंद्रह कविताएँ हैं, उन्हीं को हर कवि सम्मेलन में भुनाते रहते हैं। कई बार एक दो चमचों को श्रोताओं के बीच में बैठा देते हैं जो उन्हीं पुरानी कविताओं की फरमाइश करते रहते हैं और ‘उन्मत्त’ जी धर्मसंकट का भाव दिखाते उन्हीं को पढ़ते रहते हैं।

‘उन्मत्त’ जी के पास कई नवोदित कवि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन एक कवयित्री अपनी कविता की पोथी लिये सकुचती हुई आ गयीं। ‘उन्मत्त’ जी ने उनकी पोथी पलटी और पन्ने पलटने के साथ उनकी आँखें फैलती गयीं। फिर नवोदिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर बोले, ‘ आप तो असाधारण  प्रतिभा की धनी हैं। अभी तक कहाँ छिपी थीं आप? आपको सही अवसर और मार्गदर्शन मिले तो आपके सामने बड़े-बड़े जीवित और दिवंगत कवि पानी भरेंगे। अपनी प्रतिभा को पहचानिए, उसकी कद्र कीजिए।’

फिर उन्होंने एक बार और कविताओं पर नज़र डालकर चिबुक पर तर्जनी रख कर कहा, ‘अद्भुत! अद्वितीय!’     

नवोदिता प्रसन्नता से लाल हो गयीं। आखिर रत्न को पारखी मिला। ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘आपको यदि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करना हो तो मेरे संरक्षण में आ जाइए। मैं

आपको कवि- सम्मेलनों में ले जाकर कविता के शिखर पर स्थापित कर दूँगा।’

कवयित्री ने दबी ज़बान में घर-गृहस्थी की दिक्कतें बतायीं तो ‘उन्मत्त’ जी बोले,  ‘यह घर-गिरस्ती प्रतिभा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। कितनी महान प्रतिभाएँ घर-गिरस्ती में पिस कर असमय काल-कवलित हो गयीं। थोड़ा घर- गिरस्ती से तटस्थ हो जाइए। बड़े उद्देश्य के लिए छोटे उद्देश्यों का बलिदान करना पड़ता है।’

‘उन्मत्त’ जी ने उस दिन नवोदिता को ‘काव्य-कोकिला’ का उपनाम दे दिया। बोले, ‘मैं सुविधा के लिए आपको ‘कोकिला’ कह कर पुकारूँगा।’

‘उन्मत्त’ जी ने ‘कोकिला’ जी को एक और बहुमूल्य सलाह दी। कहा, ‘कवि- सम्मेलनों में सफलता के लिए कवयित्रियों को एक और पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। थोड़ा अपने वस्त्राभूषण और शक्ल-सूरत पर ध्यान दें। बीच-बीच में ‘ब्यूटी पार्लर’ की मदद लेती रहें। कारण यह है कि श्रोता कवयित्रियों को कानों के बजाय आँखों से सुनते हैं। कवयित्री सुन्दर और युवा हो तो उसके एक-एक शब्द पर बिछ बिछ जाते हैं, घटिया से घटिया शेरों पर भी घंटों सर धुनते हैं। यह सौभाग्य कवियों को प्राप्त नहीं होता। हमारा एक एक शब्द ठोक बजाकर देखा जाता है।’

‘कोकिला’ जी घर लौटीं तो उनके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर पहुँचने पर उन्हें अपना व्यापारी पति निहायत तुच्छ प्राणी नज़र आया। घर पहुँचते ही उन्होंने पति को निर्देश दिया कि उनके लिए तत्काल नई मेज़-कुर्सी खरीदी जाए ताकि उनकी साहित्य-साधना निर्बाध चल सके और जब वे मेज़-कुर्सी पर हों तब उन्हें यथासंभव ‘डिस्टर्ब’ न किया जाए।साथ ही उन्होंने पतिदेव से यह भी कह दिया कि खाना बनाने के लिए कोई बाई रख ली जाए ताकि उन्हें इन घटिया कामों में समय बर्बाद न करना पड़े।पतिदेव की समझ में नहीं आया कि उनकी अच्छी-भली पत्नी को अचानक कौन सी बीमारी लग गयी।

इसके बाद ‘उन्मत्त’ जी के साथ कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी अवतरित होने लगीं।बाहर के दौरे भी लगने लगे।देखते देखते ‘कोकिला’ जी कवयित्री के रूप में मशहूर हो गयीं।वे ‘उन्मत्त’ जी से ज़्यादा दाद बटोरती थीं।जल्दी ही  उन्होंने ‘ज़र्रानवाज़ी, इरशाद, इनायत, तवज्जो, पेशेख़िदमत, मक़्ता, मतला, नवाज़िश, हौसलाअफज़ाई का शुक्रिया’ जैसे शब्द फर्राटे से बोलना और मंच पर घूम घूम कर माथे पर हाथ लगाकर श्रोताओं का शुक्रिया अदा करना सीख लिया।

अब बहुत से पुराने, पिटे हुए और कुछ नवोदित कवि ‘कोकिला’ जी के घर के चक्कर लगाने लगे थे।रोज़ ही उनके दरवाज़े पर दो चार कवि दाढ़ी खुजाते खड़े दिख जाते थे।शहर के बूढ़े, चुके हुए कवि उन्हें अपने संरक्षण में लेने और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए रोज़ फोन करते थे।

लोकल अखबार वाले उनके इंटरव्यू छाप चुके थे।हर इंटरव्यू में ‘कोकिला’ जी आहें भरकर कहती थीं, ‘मेरा हृदय एक अनजानी पीड़ा से भारी रहता है।संसार का कुछ अच्छा नहीं लगता।यह दुख क्या है और क्यों है यह मुझे नहीं मालूम।बस यह समझिए कि यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?मैं नीर भरी दुख की बदली।इसी दुख से मेरी कविता जन्म लेती है।इसी ने मुझे कवयित्री बनाया।’

‘उन्मत्त’ जी शहर के बाहर कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी को ले तो जाते थे लेकिन जो पैसा-टका मिलता था उसका हिसाब अपने पास रखते थे। थोड़ा बहुत प्रसाद रूप में उन्हें पकड़ा देते थे। पूछने पर कहते, ‘इस पैसे- टके के चक्कर से फिलहाल दूर रहो। पैसा प्रतिभा के लिए घुन के समान है। कविता के शिखर पर पहुँचना है तो पैसे के स्पर्श से बचो। ये फालतू काम मेरे लिए छोड़ दो। आप तो बस अपनी कविता को निखारने पर ध्यान दो।’

अब कवि-सम्मेलनों के आयोजक ‘कोकिला’ जी से अलग से संपर्क करने लगे थे। कहते, ‘आप ‘उन्मत्त’ जी के साथ ही क्यों आती हैं? हम आपको अलग से आमंत्रित करना चाहते हैं। ‘उन्मत्त’ जी हमेशा पैसे को लेकर बखेड़ा करते हैं।’

दो-तीन साल ऐसे ही उड़ गए। कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ, अभिनन्दन, सम्मान। ‘कोकिला’ जी आकाश में उड़ती रहतीं। जब घर लौटतीं तो दो चार लोकल या बाहरी कवि टाँग हिलाते, दाढ़ी खुजाते, इन्तज़ार करते मिलते। घर- गिरस्ती की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी।

एक दिन ‘कोकिला’ जी के पतिदेव आकर उनके पास बैठ गये। बोले, ‘कुछ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन तुम्हें तो बात करने की भी फुरसत नहीं। तुम कवयित्री हो, बड़ा नाम हो गया है। मैं साधारण व्यापारी हूँ। मुझे लगने लगा है कि अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। अकेले गृहस्थी का बोझ उठाते मेरे कंधे दुखने लगे हैं। मेरा विचार है कि हम स्वेच्छा से तलाक ले लें।’

‘कोकिला’ जी जैसे धरती पर धम्म से  गिरीं। चेहरा उतर गया। घबरा कर बोलीं, ‘मुझे थोड़ा सोचने का वक्त दीजिए।’

दौड़ी-दौड़ी ‘उन्मत्त’ जी के पास पहुँचीं। ‘उन्मत्त’ जी ने सुना तो खुशी से नाचने लगे। नाचते हुए उल्लास में चिल्लाये, ‘मुक्ति पर्व! मुक्ति पर्व! बधाई ‘कोकिला’ जी। छुटकारा मिला। कवि की असली उड़ान तो वही है जिसमें बार-बार पीछे मुड़कर ना देखना पड़े।’ फिर ‘कोकिला’ जी का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अब हम साहित्याकाश में साथ साथ निश्चिन्त उड़ान भरेंगे। टूट गई कारा। मैं कल ही आपके अलग रहने का इन्तज़ाम कर देता हूँ।’

‘कोकिला’ जी उनका हाथ झटक कर घर आ गयीं।

दो दिन तक वे घर से कहीं नहीं गयीं। दो दिन बाद वे स्थिर कदमों से आकर पति के पास बैठ गयीं, बोलीं, ‘मैंने आपकी बात पर विचार किया। मैं महसूस करती हूँ कि पिछले दो-तीन साल से मैं घर गृहस्थी की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। कुछ बहकाने वाले भी मिल गये थे। लेकिन अब मैंने अपनी गलती समझ ली है। भविष्य में आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

उसके बाद वे जा कर ड्राइंग रूम में ऊँघ रहे कवियों से बोलीं, ‘अभी आप लोग तशरीफ ले जाएँ। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। अभी कुछ दिन व्यस्त ही रहूँगी, इसलिए आने से पहले फोन ज़रूर कर लें।’

कविगण ‘टाइम-पास’ का एक अड्डा ध्वस्त होते देख दुखी मन से विदा हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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