श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरमियाँ …”)

? ग़ज़ल # 18 – “दरमियाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

निभाने को हमें कुछ बचा ही नहीं,

दरमियाँ हमारे सच बचा ही नहीं।

 

इतने हिस्सों में बँट चुके हैं हम,

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।

 

ईमान रिश्तों की साझा नींव है,

सच्चा इंसान कोई बचा ही नहीं।

 

माना तुम ज़मीन पर खड़े हुए हैं,

पैरों के नीचे तल बचा ही नहीं।

 

दिल का दर्द किससे बयाँ करूँ मैं,

हमसाया मेरा कोई बचा ही नहीं।

 

दर्द समझ सकता कोई तो हमारा,

हमनफ़स अब कोई बचा ही नहीं।

 

चहलक़दमी साथ कर सकता कोई,

हमराह अपना कोई बचा ही नहीं।

 

मेरे साथ गीत गुनगुनाता कोई,

हमनवा ऐसा कोई बचा ही नहीं।

 

अब तो सफ़र तनहा ही कटना है,

हमसफ़र हमारा कोई बचा ही नहीं।

 

दिले बीमार लाइलाज हुआ अब तो,

क़ाबिल चारागर कोई बचा ही नहीं।

 

दिल के टुकड़ों को अब क्या सँभालू,

तीमारदार अब कोई बचा ही नहीं।

 

दिल से सदा आती सुनाई देती है,

अब चलो आतिश कुछ बचा ही नहीं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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