☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १९ (अग्निमरुत् सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १९ (अग्निमरुत् सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – अग्नि, मरुत्
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील एकोणीसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अग्नी आणि मरुत् या देवतांना आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त अग्निमरुत् सूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
मराठी भावानुवाद
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प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ १ ॥
चारूगामी अती मनोहर याग मांडिलासे
अग्निदेवा तुम्हा निमंत्रण यज्ञाला यावे
मरुद्गणांना सवे घेउनीया अपुल्या यावे
यथेच्छ करुनी सोमपान यज्ञाला सार्थ करावे ||१||
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न॒हि दे॒वो न मर्त्यो॑ म॒हस्तव॒ क्रतुं॑ प॒रः । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ २ ॥
अती पराक्रमी अती शूर तुम्ही अग्नीदेवा
तुमच्या इतुकी नाही शक्ती देवा वा मानवा
संगे घेउनि मरुतदेवता यज्ञाला यावे
आशिष देउनी होमासंगे आम्हा धन्य करावे ||२||
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ये म॒हो रज॑सो वि॒दुर्विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒द्रुहः॑ । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ३ ॥
द्वेषविकारांपासुनी मुक्त दिव्य मरूतदेवता
रजोलोकीचे त्यांना ज्ञान अवगत हो सर्वथा
अशा देवतेला घेउनिया सवे आपुल्या या
अग्निदेवा करा उपकृत ऐकुनि अमुचा धावा ||३||
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य उ॒ग्रा अ॒र्कमा॑नृ॒चुरना॑धृष्टास॒ ओज॑सा । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ४ ॥
उग्र स्वरूपी महापराक्रमी मरूत देवांची
तेजधारी अर्चना तयांस असते अर्काची
समस्त विश्व निष्प्रभ होते ऐसे त्यांचे शौर्य
अग्नीदेवा त्यांना घेउनिया यावे सत्वर ||४||
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ये शु॒भ्रा घो॒रव॑र्पसः सुक्ष॒त्रासो॑ रि॒शाद॑सः । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ५ ॥
धवलाहुनीही शुभ्र जयांची अतिविशाल काया
दिगंत ज्यांची कीर्ती पसरे शौर्या पाहुनिया
खलनिर्दालन करण्यामध्ये असती चंडसमर्थ
त्यांना आणावे त्रेताग्नी अंतरी आम्ही आर्त ||५||
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ये नाक॒स्याधि॑ रोच॒ने दि॒वि दे॒वास॒ आस॑ते । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ६ ॥
द्यूलोक हे वसतीस्थान स्वर्गाचे सुंदर
तिथेच राहत मरूद देव जे दिव्य आणि थोर
आवाहन अमुच्या यज्ञासत्व वीर मरूद देवा
त्यांना घेउनिया यावे हो गार्ह्यपती देवा ||६||
☆
य ई॒ङ्ख्य॑न्ति॒ पर्व॑तान् ति॒रः स॑मु॒द्रम॑र्ण॒वम् । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ७ ॥
किति वर्णावे बलसामर्थ्य हे मरूद देवते
नगस्वरूपी जलदा नेता पार सागराते
नतमस्तक मरुदांच्या चरणी स्वागत करण्याला
अग्नीदेवा सवे घेउनीया यावे यज्ञाला ||७||
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आ ये त॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभि॑स्ति॒रः स॑मु॒द्रमोज॑सा । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ८ ॥
चंडप्रतापी मरुद्देवता बलशाली फार
अर्णवास ही आक्रमिती सामर्थ्य तिचे बहुघोर
सवे घेउनिया पवनाशी आवहनीया यावे
हविर्भाग अर्पण करण्याचे भाग्य आम्हाला द्यावे ||८||
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अ॒भि त्वा॑ पू॒र्वपी॑तये सृ॒जामि॑ सो॒म्यं मधु॑ । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ९ ॥
सोमपान करण्याचा अग्ने अग्रमान हा तुझा
प्रथम करी रे सेवन हाची आग्रह आहे माझा
मरुद्गणांना समस्त घेउनी यज्ञाला यावे
सोमरसाला मधूर प्राशन एकत्रित करावे ||९||
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(हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
☆ हरवत चाललंय बालपण… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆
सिग्नलचे हिरवे लाल पिवळे दिवे नियमाने बंद चालू होत या धावणाऱ्या जगाला शिस्त लावत उभे आहेत.आपल्याच तालात शहरं धावताहेत .सुसाट धावणाऱ्या शहरात पोटासाठी धावणारी माणसंही रस्त्यारस्त्यावर धावताहेत .जगणाऱ्या पोटाला भूक नावाची तडफ रस्त्यावर कधी भीक मागायला लावते तर कधी शरीर विकायला लावते.कितीतरी दुःख दर्द घेऊन शहरं धावताहेत.त्यात सिग्नलवरचं हे हरवत चाललेलं बालपण वाढत्या शहरात जिथं तिथं असं केविलवाण्या चेहऱ्यानं आणि अनवाणी पायांनी दिसू लागलंय .
जगण्याच्या शर्यतीतलं हे केविलवाणं दुश्य मनात अनेक प्रश्नांच मोहोळ होऊन भोवती घोंघावू लागलंय.तान्हुल्या लेकरांना पोटाशी धरून सिग्नल्सवर पाच दहा रुपयांची भिक मागत उन्हातान्हात होरपळत राहणाऱ्या माणसातल्याच या जमातीला येणारे जाणारे रोजच पाहताहेत .गाडीच्या बंद काचेवर टक टक करणाऱ्या बाई आणि लेकरांना कुणी भिक घालत असेलही कदाचित पण अशा वाढणाऱ्या संख्येवर कुणी काहीच का करू शकत नाही असा अनेकांना प्रश्नही पडत असेल.बदलेल्या जगात हा झपाट्याने बदलत जाणारा पुण्यामुंबई सारखा हा बदल आता सवयीचा बनू लागलाय असं प्रत्येकाला वाटत राहते .
शाळकरी वय असणारी कितीतरी बालकं आता सांगलीतही अशी सिग्नल्सवर काहीतरी विकत आशाळभूत नजरेने येणाऱ्या जाणाऱ्याकडे हात पसरून विनवण्या करताना दिसत आहेत .
आजही अशीच एक चिमुकली कॉलेज कोपऱ्याच्या सिग्नलवर हातात गुलाबी रंगाचे त्यावर Love लिहलेले फुगे विकत असताना नजरेस पडते .मागच्या महिन्यात प्रजासत्ताक दिन साजरा झाला.आठवडाभर हिच मुलं बिल्ले,स्टिकर्स आणि झेंडे विकत होती. त्यानंतर पेन्स विकू लागली.आता व्हेलेंटाईन डे येतोय.प्रेमानं जग जिंकायला निघालेल्या तरुणाईच्या हातात हे गुलाबी फुगे आशाळभूत नजरेने विकताना या चिमुकल्यांच्या भवितव्याकडे खरंच कोण पाहील काय ?
धावणाऱ्या जगाला याचं काय सोयरसुतक ते आपल्याच तालात धावतंय.सांगली मिरज कुपवाड शहराच्या बाहेर अशी कितीतरी माणसं माळावर पालं ठोकून आनंदात नांदताहेत . मिरजेला जाताना सिनर्जी हॉस्पिटलच्या पुढं त्यांचं अख्खं गाव वसलंय .पोटासाठी शहरं बदलत जगणारी ही अख्खी पिढी भारतातल्या दारिद्रयाची अशी रंगीबेरंगी ठिगळं लावून भटकंती करतेय. त्यांचं जग निराळं ,राहणीमान निराळं आणि एकंदर जगणंही निराळंच .
शहराच्या पॉश फ्लॅटच्या दारोदारी भाकरी तुकडा मागत वणवण फिरणारी ,सिग्नल्सवर हात पसरणारी,जिथे तिथे लहान सहान वस्तू विकत भटकणारी आणि रस्त्यावर भिक मागत ही लहान लहान पोरं आपलं बालपण हरवत चाललीएत. ना शिक्षणाचा गंध,ना जगण्याची शाश्वती,ना कोणतं सोबत भविष्य. सोबत फक्त एका ठिकाणावरून दुसऱ्या ठिकाणावर जगण्यासाठी धावण्याची कुतरओढ. त्यांचे पालकही असेच. विंचवाचं बिऱ्हाड पाठीवर घेऊन जगणाऱ्या या वस्त्या अनेक प्रश्न घेऊन जगताहेत.आणि तिथे वाढणारी,भारताचं भविष्य असणारी बालकं अशी रस्त्यावर भटकत आपलं बालपण हरवत चाललीएत.सामाजिक आणि शैक्षणिक क्रांती नेमकी होतेय तरी कुठे ? खरंच कुणी सांगेल का ?
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 111 ☆
☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।
‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।
तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।
आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।
‘अरे! यहाँ तो बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।
सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के, साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।
मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के खेल रहे हैं ना यहाँ?‘
‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’
‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’
उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बस थोड़ी देर में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 136 ☆
☆ बस थोड़ी देर में…☆
हर कार्य को टालते जाना, अंतिम समय में तेजी से करते हुए झंझट निपटाने की आदत आपको लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही तोड़ कर रख देती है। जब अनुशासन और समय प्रबंधन का अभाव हो तो ऐसा होना तय समझिए। इसका एक और कारण समझ में आता है कि मानव का मूल स्वभाव नवीनता की खोज है। जब तक उसे कुछ नया सीखने नहीं मिलेगा वो ऐसे ही व्यवहार करेगा। आजकल तो गूगल में नवीन विचारों की भरमार है। बस प्रश्न पूछिए उत्तर हाजिर है। दिनभर व्यतीत करने के बाद जब डायरी में दिनचर्या का लेखा- जोखा लिखो तो समझ में आता है कि सार्थक कोई कार्य तो हुआ नहीं। बस यही क्रम वर्षों से चला आ रहा है, इसी अपराध बोध के साथ अगले दिन कुछ करेंगे यह सोचकर व्यक्ति चैन की नींद सो जाता है। यही किस्सा रोज एक नए बहाने के साथ चलता रहता है।
आजकल एक शब्द बहुत प्रचलित है, जिसे माइंड सेट कहा जाता है। मन से मनुष्य कहाँ से कहाँ चला जाता है, ये वो स्वयं भी नहीं जान पाता। जो चाहोगे वो मिलेगा ये केवल यू ट्यूब के थम्बनेल में नहीं लिखा होता है, ये तो से सदियों पहले लिखा जा चुका है –
जो इच्छा करिहों मन माहीं, राम कृपा ते दुर्लभ नहीं।
कोई इसे यूनिवर्स की शक्ति से जोड़ता है तो कोई माइंड पावर से। ॐ मंत्र में ब्रह्मांड को देखते ध्यान करने से सब कैसे मिलता है, ये भी विज्ञान की कसौटी पर परखा जा रहा है। मन दिन भर इसी उथल- पुथल भरे विचारों से ग्रसित होकर सोने जैसे समय को अनजाने ही व्यर्थ करता जा रहा है।
ज्यादा चिंतनशील लोग अपने कर्मों का स्वतः मूल्यांकन करते हुए अपनी गलतियाँ ढूंढ़ते हैं फिर उदास होकर डिप्रेशन में जाने की तैयारी करते हैं, जो कर्म करेगा उससे ही गलतियाँ होगीं, कुछ जानी कुछ अनजानी। गलती करना उतना गलत नहीं जितना जान कर अनजान बनना और अपनी भूल को स्वीकार न करना होता है। भूल को सहजता से स्वीकार कर लेना, व भविष्य में इसका दुहराव न हो इस बात का ध्यान रखना है।
अक्सर देखने में आता है कि आदर्शवादी लोग जल्दी ही इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं वे छोटी से छोटी बातों के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर अपना साहस खो भावनाओं में बहकर अपराधबोध का शिकार हो जाते हैं। यदि उनके आस- पास का वातावरण सकारात्मक नहीं हुआ तो वे आसानी से टूटने लगते हैं।
अपने अपराध को स्वीकार करना कोई सहज नहीं होता है पर इतना भी मनोबल का टूटना उचित नहीं कि आप नव जीवन को स्वीकार ही न कर पाएँ।
जीवन में आप अकेले नहीं जिससे गलतियाँ हुई हैं या हो रही हैं या हो सकती हैं। ऐसी परिस्थितियों में दृढ़ता पूर्वक अपने विचारों में अड़िग रहते हुए ग़लती स्वीकार कर सहज हो जाइए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। पुरानी यादों और बातों को छोड़ नये कार्यों में अपना शत- प्रतिशत समर्पण दें और फिर कोई गलती हो तो सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़े। मजे की बात कहीं हम गलती न कर दें इसलिए कोई कार्य करते ही नहीं और अनजाने में जीवन के मूल्यवान अवसरों को खो देते हैं।
इस संबंध में हमें प्रकृति से बहुत कुछ सीखना चाहिए जैसे- पतझड़ की ऋतु के बाद वृक्ष उदास नहीं होता बल्कि नयी कोपलें पुनः प्रस्फुटित होने लगती हैं। परिस्थितियों पर काबू पाना ही बुद्धिमत्ता है।
अन्ततः यही कहा जा सकता है कि आस्तिक विचार धारा, अहंकार का त्याग, सत साहित्य, सत्संगति,सात्विक भोजन, गुरुजनों का आशीर्वाद, सत्कर्म, नेक राह व माता- पिता की सेवा सकारात्मक वातावरण निर्मित करते हैं। अच्छा लिखें अच्छा पढ़ें, परिणाम आशानुरूप होंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – बजट तो बजट ही है पिछले साल का है तो क्या हुआ ?–।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 197 ☆
व्यंग्य – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? —
बजट तो बजट ही है पिछले साल का हुआ तो क्या फर्क पड़ता है ? न तो टैक्स पेयर आम जनता, न ही विपक्ष पर और न ही पत्रकार, किसी को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री विधान सभा में आठ मिनट तक पिछले साल का बजट ही पढ़ते रहे. उन्हें अपनी गलती का स्वयं आभास तक नहीं हुआ. एक दूसरे मंत्री जो बजट भाषण मिला रहे थे उन्होंने मुख्यमंत्री जी को उनकी गलती का ध्यान दिलाया, तब कहीं पिछले बरस के बजट भाषण का पन्ना बदला गया. इस तरह प्रमाणित हुआ कि प्राम्पटर बड़ा जरूरी होता है फिर वह स्टेज पर नाटक हो या विधानसभा. यूं विधान सभायें भी नाटक के स्टेज ही तो हैं जहां कलफ किये श्वेत कुर्ते पायजामों जैकेट में माननीय या प्योर सिल्क की हथकरघा पर बनी साड़ियां पहने महिला विधायक आम जनता का भला करने का अभिनय हैं. दरअसल मुख्यमंत्री जी की इस गलती को बिलकुल तवज्जो नहीं दी जानी चाहिये उनको विपक्ष ही नहीं अपनी ही पार्टी के भितरघात से भी सरकार बचाने जैसे और भी ढ़ेर से काम होते हैं. वे केवल वित्त मंत्री थोड़े हैं जो बस बजट पर ध्यान देते. वे पेड़ के पके आम की तरह परिपक्व नेता हैं उन्होने कई वित्त वर्ष देखते हुये अपने बाल सफेद किये हैं, उनके चेहरे की झुर्रियां उनकी परिपक्वता का बखान करती हैं. वे कोई नये नवेले मंत्री थोड़े ही हैं जो शीशे के सामने खड़े होकर अकेले में बजट भाषण का रिहर्सल कर विधान सभा आते. उन्हें अच्छी तरह समझ है कि बजट पिछले साल का हो या नये साल का, अच्छा हो या बुरा, फर्क नहीं पड़ता.
नया बजट पढ़ो या पुराना विपक्ष की प्रतिक्रिया नयी कहां आती है ? नेता प्रतिपक्ष को तो यही कहना है कि बजट जन विरोधी है. पत्रकारों को हेड लाईन के लिये कोई बढ़िया सा शेर सुना दिया जाये तो उन्हें मसाला मिल ही जाता है, तो वह तो हर बजट भाषण में होता ही है. रही बात जनता की तो उसे तो हर बजट में खरबूजे की तरह कटना ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर यह ज्यादा मायने नहीं रखता. बजट किसी साल का हो, नया हो, पुराना हो उसका कंटेंट स्वास्थ्य या महिला पत्रिकाओ जैसा ही होता है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहता है. कभी शराब पर टैक्स बढ़ा दिया जाता है, कभी सिगरेट पर. कभी लिपस्टिक सस्ती हो जाती है कभी सिंदूर. गैस सिलेंडर, बिजली, डायरेक्ट टैक्स, इनडायरेक्ट टैक्स में अर्थशास्त्रियों को उलझा दिया जाता है, शाम को टी वी पर बहस करने के मुद्दे बन जाते हैं. जमीन पर ज्यादा कुछ बदलता नहीं.
कर्मचारियों से वादे करना होता है, बेरोजगारों को सपने दिखाने होते हैं. योजनायें जनहितैषी दिखनी चाहिये बस, होता तो वही है जो होना होता है. फिर एक अच्छे बजट में बंगलों पर होने वाले वास्तविक खर्चों का जिक्र थोड़े ही किया जाता है, वे सब तो अनुपूरक मांगों में बिना बहस मेजें ठोंककर स्वीकृत करवा लेना कुशल राजनीतिज्ञ को आना चाहिये.
मेरा मानना तो यह है कि बेकार ही हर सरकार अपना बजट खुद बनाकर समय व्यर्थ करती है. मेरा सुझाव है कि अब जमाना कम्प्यूटर का है, सरकारों को मुझ जैसे पेशेवर लेखको से स्टैंडर्ड बजट फार्मेट तैयार करवा लेना चाहिये. हम मौजू शेरो शायरी से लबरेज आकर्षक बजट भाषण तैयार कर देंगे, मंत्री जी को महज अपने राज्य का नाम बदलना होगा, वर्ष बदलना होगा फटाफट लाल लैपटाप में बोल्ड लैटर्स में बजट तैयार मिलेगा. विपक्ष के लिये भी बजट पर प्रतिक्रियाओ के आप्शन्स लेखक रेडी कर देंगे, इस सब से माननीय जन प्रतिनिधियों का कीमती समय बचेगा और वे आम जनता के हित चिंतन में निरत, बजट के उनके हिस्से में आये रुपयों से बेहतर मजे कर सकेंगे.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 147 ☆
☆ बाल गीत – भारत के सपूत नेताजी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं तन्मय के दोहे –“धूप छाँव टिकती कहाँ…”।)